Monday, July 5, 2010

बिन लोगों की ये महफ़िल है मेरा दिल घबराए ....


वहशत है हंगामों से ख़ामोशी मुझको आँख न भाये
क्या जानो क्या होता है जब भी कोई याद सताए 

इक चेहरा बे-चेहरा सा वो इक रिश्ता बे-रिश्ता सा  
चमके कभी बिजली बनकर कभी बादल सा वो उड़-उड़ जाए

आँखे घूमें आगे-पीछे, भेद की कितनी गांठें खोले 
दीवाने से हम फ़िरते हैं बात-बात पर ठोकर खाए 

दर्पण से क्या बातें करना झूठमूठ मुझको बहकाए  
बिन लोगों की महफ़िल देखूँ तभी तो मेरा मन घबराए

कोई हो दमसाज़ 'अदा' कोई तो हो मेरे संग-संग 
इस तूफ़ानी आलम में वो काश मेरी कश्ती बन जाए 

12 comments:

  1. इक चेहरा बे-चेहरा सा वो इक रिश्ता बे-रिश्ता सा
    चमके कभी बिजली बनकर कभी बादल सा उड़ जाए


    -वाह! बहुत खूब!!

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  2. दर्पण से क्या बातें करना झूठमूठ मुझको बहकाए बिन लोगों की महफ़िल देखूँ तभी तो मेरा मन घबरा

    अच्छा लगा बधाई स्वीकार करें

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  3. दर्पण से क्या बातें करना झूठ मूठ बहलाए ...
    वाह !
    महफ़िल में दिल घबराना , एक रिश्ता बे-रिश्ता सा याद आना

    आसार अच्छे नजर नहीं आ रहे ....:)

    मनभावन कविता !

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  4. कोई हो दमसाज़ 'अदा' कोई तो हो मेरे संग-संग
    इस तूफ़ानी आलम में वो काश मेरी कश्ती बन जाए
    waah

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  5. ख़त्म बस आज ये वहशत होगी,
    मेरी नज़रें तो गिला करती है,
    तेरे दिल को भी तुझसे शिकायत होगी,
    तेरी गलियों में रुसवा...

    जय हिंद...

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  6. कोई हो दमसाज़ 'अदा' कोई तो हो मेरे संग-संग
    इस तूफ़ानी आलम में वो काश मेरी कश्ती बन जाए
    वाह बहुत खूब। शुभकामनायें

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  7. इक चेहरा बे-चेहरा सा वो इक रिश्ता बे-रिश्ता सा
    चमके कभी बिजली बनकर कभी बादल सा उड़ जाए

    क्या बात है

    चित्र भी बड़ा अदभुद लगाया है ...... बहुत अच्छा लग रहा है

    हमेशा की तरह माला ( मेरा मतलब कविता ) के मोती ( अर्थात शब्द ) बड़े ही चमकदार और अच्छे लग रहे हैं और धागा ( भावनाएं ) भी बड़ा अनोखा नजर आ रहा है



    ---व्यस्त होने की वजह से नियमित रूप नहीं पढ़ पा रहा हूँ ... क्षमा चाहता हूँ

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  8. कोई हो दमसाज़ 'अदा' कोई तो हो मेरे संग-संग
    इस तूफ़ानी आलम में वो काश मेरी कश्ती बन जाए
    बहुत खुब जी

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  9. शीर्षक पढ़कर दिल घबराता, कविता पढ़कर मन घबराए.
    याद सताती तो खामोशी खुद-बा-खुद प्रियतम हो जाए.
    चेहरा बेहद ज़रूरी है आई-कार्ड में चिपकाने को
    बिना नाम के संबंधों में हंगामा तो हो ही जाए.

    तूफानी आलम में बहिना, कश्ती बिलकुल काम ना आए.
    पनडुब्बी ढूँढो तो सारे विरहीजन उसमें लद जाएँ.
    लोगों से महफ़िल बनती है, बिन लोगों की क्या हो महफ़िल
    बिना वजह दर्पण में देखो, मन-दर्पण खाली रह जाए.
    [आदरणीया 'अदा जी' अभी आपकी यही कविता पढ़ी है, बाकी अब पढने का अवसर है पढूँगा और कमियों की तलाश में जुटूंगा.क्षमा भाव बनाए रखियेगा.]

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  10. दर्पण से क्या बातें करना झूठमूठ मुझको बहकाए
    बिन लोगों की महफ़िल देखूँ तभी तो मेरा मन घबराए
    हमेशा की तरह सुन्दर पंक्तियाँ....आभार

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  11. दर्पण से क्या बातें करना झूठ मूठ बहलाए ...

    manmohak.......behtareen!!

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  12. याद सताती है उनकी पर याद नहीं रह पाती है,
    जब धुँधले बादल के रथ पर सज्जित आती दिख जाती है ।

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