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Monday, July 26, 2010

इस्लाम में चार शादियाँ.....


इस्लाम में चार शादियाँ.....क्या यह सचमुच धर्म के लिए ज़रूरी था या यह पुरुष वर्ग का अपने पुरुषार्थ सिद्ध करने का तरीका था या फिर यह एक सामजिक विवशता थी ...
यह एक ऐसी बात है जो अकसर हमें सोचने को बाध्य करती है ..आख़िर ऐसा क्यूँ है ?  यूँ तो इसपर हम चाहे कितनी भी बातें कर लें...लेकिन एक बात तय है, जिन बातों को धार्मिक चोला पहना दिया जाता है ...उसपर बहस की गुंजाइश कम होती है...
आइये ज़रा इस बात पर गौर करें कि आख़िर वो कौन से हालात थे, जिन्होंने पूरे समाज पर इस तरह के धार्मिक कानून लाद दिए...
अगर आप साउदी अरेबिया जैसे देश की भौगोलिक स्थिति पर गौर करेंगे तो पायेंगे कि पूरा देश ही रेगिस्तान है...जिस ज़माने की बात हम कर रहे हैं..उस परिवेश में अगर हम अपने अक्ल के घोड़े दौडाएं तो पायेंगे कि समस्याएं अनेक थीं...
जैसे :

  • लोग क़बीले बना कर रहते थे ...

  • यातायात की सुविधा नहीं के बराबर थी...एक स्थान से दूसरे स्थान तक की यात्रा दुरूह थी...इसलिए शादी विवाह के लिये इधर-उधर जाना संभव ही नहीं था...नतीजा क़बीले के अन्दर ही आपस में विवाह.....

  • क़बीले की स्त्री को जहाँ तक हो सके क़बीले में रखना क़बीले  की प्रतिष्ठा की बात थी..और इसके लिए हर क़ीमत कम होती थी...


  • क़बीले क़बीलों में आपसी प्रतिस्पर्धा हमेशा होती रहती थी...परिणाम स्वरुप ...लड़ाईयां, मुटभेड़....ज़ाहिर सी बात है खून-ख़राबा होना ही था..और इस तरह की मुटभेड़ों में अधिकतर पुरुष वर्ग ही हताहत होता था, फलस्वरूप, पुरुषों की मृत्यु दर अधिक थी...


जैसा कि कोई भी अनुमान लगा सकता है इस तरह के हादसों का परिणाम कालांतर में दिखाई देने लगा ...और वह था ..समाज में पुरुषों की संख्या में कमी...
ऊपर लिखित कारण काफ़ी हद तक इस तरह की धार्मिक व्यवस्था को लागू करने के कारण बने ...
क्योंकि समाज में स्त्रियों की संख्या पुरुषों की अपेक्षा अधिक थी ...जिनमें कुछ लड़ाइयों में मारे गए मृतकों की विधवाएं, अनाथ युवतियां भी शामिल थी...जिनके सम्मान और सुरक्षा का मुद्दा भी सामने आया और तब, इस तरह की समस्याओं के निदान के रूप में,  बहू-पत्नी प्रथा का प्रचलन हुआ...इस प्रथा का मुख्य उद्देश्य था..निराश्रित महिलाओं को आश्रय देना, जिसके लिए कुछ नियम कानून भी बनाये गए .. अगर पुरुष सक्षम है और उसकी पहली पत्नी इस बात की आज्ञा देती है तो वह दूसरा विवाह कर सकता है, वह किसी निराश्रिता को सहारा दे सकता है,  ...तब इसे पुण्य का काम माना जाएगा ..इसे धर्म के साथ जोड़ देने से व्यक्ति विशेष को ग्लानी या दोषी महसूस करने से बच जाने का रास्ता मिल गया ...

इस तरह  यह प्रथा प्रचलित होती गई....यह प्रथा शायद उस समय और उस  सन्दर्भ में सही रही होगी, लेकिन क्या आज के सन्दर्भ में ये बात सही लगती है....? आज इस प्रथा का दुरूपयोग धड़ल्ले से किया जा रहा है...अक्सर सुनने में आता है कि किसी शेख़ ने हिन्दुस्तान में आकर किसी नाबालिग़ से विवाह किया...जबकि उसके हरम में अलबत्ता ५१ बीवियां मौजूद हैं...
यही नहीं, कई ऐसे भी उदाहरण मिलेंगे, जिसमें व्यक्ति विशेष  ख़ुद अपना खर्चा चलाने की औक़ात नहीं रखता ...लेकिन उसके घर में चार बीवियां हैं...और वो बीवियां काम करके उसका और उसके बच्चों का भी पेट भरती हैं...(ये मेरी आँखों देखी बात है), एक कमरे के एक छोटे से घर में...चार बीवियां और ८ बच्चे,  ख़ास करके भारत जैसे देश में जहाँ आबादी अपने चरम सीमा को भी पार कर चुकी है...यह दृश्य बड़ा अटपटा लगता है...जब एक विवाह और उससे उत्पन्न बच्चों की जिम्मेवारी ही इन्सान सही तरीके से नहीं निभा पता है ...इस तरह की प्रथा कहाँ तक उचित है...यह न सिर्फ़ अपनी पत्नियों के साथ धोखा है, अपितु उन बच्चों के साथ भी सरासर अन्याय है...

उनदिनों  की बात जुदा  थी क्यूँकि औरतें स्वावलंबी नहीं थीं...पढ़ी लिखी नहीं थी....आर्थिक रूप से अपना भरण-पोषण नहीं कर सकतीं थीं ...लेकिन अब तो बात बिल्कुल अलग है...मुस्लिम औरतों ने दुनिया के हर क्षेत्र में अपने हाथ आजमायें हैं ...और बहुत सफल हुई हैं, हमने उन्हें डाक्टर, इंजिनियर, यहाँ तक कि पाइलट तक बनते देखा है ....क्या अब भी उनको सेकंड क्लास  जीवन जीना चाहिए....?

स्त्री चाहे किसी भी रंग, जाति, धर्म, समुदाय की क्यों न हो उसे अपने जीवन को ख़ुशी-ख़ुशी बिना किसी बोझ के जीने का पूरा अधिकार है ...सौतन का बोझ किसी स्त्री को किसी भी हाल में बर्दाश्त नहीं हो सकता...फिर चाहे उसने धर्म के हिसाब से कितनी भी बड़ी आज्ञा क्यों न दे दी हो....

हाँ नहीं तो ..!!