ब्लॉग जगत में, नारी और नारी विमर्श हमेशा अपने परवान पर चढ़ा रहता है, लेकिन कभी, किसी ने, पुरुष या पुरुषत्व की बात नहीं की है । कई बार सोचती हूँ आख़िर पुरुषत्व का अर्थ क्या है ?
शील प्रधानं पुरुषे तद् यस्येह प्रणश्चति।
न तस्य जीवितनार्थो न धनेन न बन्धुभि।।
अर्थात, किसी भी पुरुष का सबसे प्रधान गुण उसका सच्चरित्र होना होता है, अगर वह नहीं है, तो फिर, उसके जीवन में धन और बन्धु-बान्धवों का होना कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करता।
न तस्य जीवितनार्थो न धनेन न बन्धुभि।।
अर्थात, किसी भी पुरुष का सबसे प्रधान गुण उसका सच्चरित्र होना होता है, अगर वह नहीं है, तो फिर, उसके जीवन में धन और बन्धु-बान्धवों का होना कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं करता।
सच बात तो यह है, कि अपने पर नियंत्रण करना ही, पुरुषत्व का सबसे बड़ा और मजबूत प्रमाण माना जाता है।
पुरुषत्व महज एक लिंग पर टिका हुआ प्रश्न नहीं है, जो मनुष्य, शिष्ट, सभ्य हो, जो अकर्मण्य न हो, जो अज्ञानी न हो , अपनी इन्द्रियों पर नियंत्रण को प्राप्त करता है, जो अपने अधीन रहने वालों की रक्षा करता हो, सही अर्थों में वही पुरुषत्व का अधिकारी है, और वही पुरुष कहलाने योग्य है ।
एक बात याद रखें कि आज भी, हमारे देश के लोगों के हृदय महानायक भगवान श्रीराम
हैं और यह केवल इसलिये कि उन्होंने जीवन भर ‘एक पत्नी व्रत’ को निभाया।
उनके नाम से ही लोगों के हृदय प्रफुल्लित हो उठते हैं।
लेकिन आधुनिक समाज में पुरुषत्व की परिभाषा, कुछ लोगों के लिए व्यभिचार और भोग-विलास तक ही सिमित रह गयी है ।
इन दिनों, गुवाहाटी में हुए हादसे ने सबको उत्पीड़ित कर दिया है। रेप हो या रेप की कोशिश, दोनों ही हालत में इसे अपराध माना जाएगा । हर देश के कानून में इस कृत्य के लिए सज़ा का प्रावधान है, लेकिन क्या वो सज़ा काफी है ?? इस घिनौने हादसे से न जाने कितनी दुधमुंही बच्चियाँ, किशोरियाँ , युवतियां और बुजुर्ग महिलाएं गुज़रतीं हैं । इस उत्पीडन से गुजरी हुई बच्चियों, किशोरियों, युवतियों, प्रौढ़ एवं वृद्धा नारियों के, मनोबल और मनस्थिति को जो क्षति पहुँचती है, उसकी भरपाई, अपराधी को दिए गए मृत्युदंड से भी पूरी नहीं हो सकती । दो वर्ष, चार वर्ष, 8 वर्ष, 25 वर्ष या फिर मृत्युदंड काफी नहीं है, इस कृत्य के लिए सज़ा के तौर पर । मेरा मन बड़ा ही उद्विग्न रहा इनदिनों । ऐसे नपुंसक, कापुरुषों को क्या दंड मिलना चाहिए, बस यही सोचती रही ।
मेरी नज़र में बलात्कारी की बस एक ही सज़ा होनी चाहिए :
'बलात्कारी का लिंग काट कर, उसके सामने ही जला देना चाहिए, ताकि वो अपनी आँखों से, अपने दर्प भरे तथाकथित पुरुषत्व की निशानी को ख़ाक में मिल कर, हलाक़ होते हुए देख सके, और वह नराधम जब तक जीवित रहे, इस बात को याद रखे कि उसने क्या ग़लती की थी । हर पल उसे अपनी करनी की याद आती रहे, और हर पल वह अपनी मृत्यु की सिर्फ आकांक्षा करता रहे । ऐसी सज़ा से एक और फायदा है, वो कभी भी, किसी भी हाल में दुबारा ऐसा कुछ भी करने के क़ाबिल ही नहीं रहेगा।
न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी ।
आप क्या कहते हैं, क्या यह सज़ा माकूल है ???
इस वाकये पर दिल से और मुंह से इतनी गालियाँ निकलती हैं कि आपके ब्लॉग पर नहीं दी जा सकतीं..
ReplyDeleteमनु जी,
Deleteबहुत शुक्रिया जो आपने मेरे ब्लॉग कि शुचिता का ध्यान रखा .
आभार
आप क्या कहते हैं, क्या यह सज़ा माकूल है ???
ReplyDeletekam hai...
इतना भी मिल जाए तो बहुत है....
Deleteइससे कड़ी सजा कोई और हो भी नहीं सकती।
ReplyDeleteसादर
यशवंत, सच कहूँ तो इस पोस्ट को लिखने और ऐसा शीर्षक देने, दोनों बातों के लिए मुझे बहुत बार सोचता पड़ा..
Deleteलेकिन मन में एक बात आ गई थी, सोचा अपनी बात कह ही देना चाहिए...
छोटे हो तुम हमलोगों से, आशा है, मेरी बातों को तुमने गरिमा से लिया होगा..और मुझे ग़लत नहीं समझा होगा
ख़ुश रहो
दीदी!
Deleteबिलकुल, मेरा भी यही मानना है कि जो बात मन मे आए उसे कह देना चाहिये मैंने यही सोच कर अपने ब्लॉग का नाम ‘जो मेरा मन कहे’ रखा है। इसलिए अपने विचार दे कर आपने ठीक ही किया।
आपकी बातों को पूरी गरिमा के साथ ही लिया है और आपको गलत समझने का तो प्रश्न ही नहीं उठता ।
सादर
बातें तो आपने पते की की है और इसका सुन्दर जवाब एक पोस्ट लिखकर आपको समर्पित कर रहा हूँ शायद आपको तसल्ली मिले , नहीं विश्वास हो .
ReplyDeleteदिल जब दर्द से भर जाता है तब यही आक्रोश पैदा होता है ,लेकिन न ये समस्या का पूर्ण समाधान है न ही सर्वकालिक ,सर्वमान्य ,और नहीं न्याय संगत
एक बार फिर हमारे संस्कारों की कमी .
आप मेरी एक बात गाँठ बांधिए चुक ,अपराध की श्रेणी में नहीं आता .
आप मुझसे ज्यादा समझदार हैं
रमाकांत जी,
Deleteमुझे बात समझ में नहीं आई, आपने कहा इस दुष्कर्म को अपराध नहीं माना जाता है ...वो कैसे ?
मुझे आपकी पोस्ट का इंतज़ार रहेगा..
न रहेगा बाँस, न बजेगी बाँसुरी -- सहमत
ReplyDeleteललित जी,
Deleteआप सहमत हुए..
धन्यवाद
''पुरुषत्व की परिभाषा, व्यभिचार और भोग-विलास तक ही सिमित रह गयी है।'' ऐसा दृष्टि-सीमा के कारण जान पड़ता है.
ReplyDeleteराहुल जी,
Deleteयह 'दृष्टि-सीमा' नहीं आप 'पोस्ट-सीमा' कह सकते हैं...
मुझे लिखना चाहिए था 'लेकिन आधुनिक समाज में पुरुषत्व की परिभाषा, ज्यादातर लोगों की समझ में व्यभिचार और भोग-विलास तक ही सिमित रह गयी है ।
सही कहा आपने मुझे जेनेर्लाईज नहीं करना चाहिए..
आपका आभार जो आपने इस ओर मेरा ध्यान आकर्षित किया
आपके फैसले के साथ....
Deleteवैसे एक हद तक यह भी सत्य है की स्त्री स्वतंत्रता के मायने भी व्यभिचार और भोग-विलास तक ही सीमित रह गये हैं...
आप गुस्सा मत करना...
हम बिल्कुल भी गुस्सा नहीं हूँ ...
Deleteवैसे भी , आप journalist हैं, दोनों पक्ष देखना आपका काम भी है...
भारतीय समाज से मेरा रोज़-रोज़ दो-चार होना नहीं होता, शायद इसलिए भी कुछ बातें जो, मेरे जहन में हैं, सही ना भी हों...हम तो अभी तक वहीं अटके हुए हैं, जहाँ हम भारत को छोड़ आए थे...
इसबार जब भी आऊँगी भारत, गौर करने की कोशिश करुँगी, कितना बदल गया है भारत....
don' film ka koi gana hai.......
ReplyDelete"jis pe na gujri o kya jane"....
bakiya, nirnya aapka samichin hai
pranam
शैलेन्द्र,
Deleteकौन सी डोन नई या पुरानी :)
वैसे जोन सी भी हो बात सही कही गई है...
जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई....
गुस्सा जायज है!
ReplyDeleteआदरणिया, आपने जो सजा तजवीज़ की है वो क्रोध के कारण है....
ReplyDeleteआप शांत ह्रदय हो कर सोंचे क्या वास्तव में ऐसा नही है?
गुस्सा जायज़ है...और गुस्सा इस दुर्घटना से जुड़ी हुई तमाम परिस्थितियों पर भी होना चाहिये..हमारा देश महान हमारी संस्कृति महान हमारा इतिहास भी महान..फिर आखिर इस तरह के लोग कहाँ से आ गये? मेरे विचार से वैश्वीकरण का भी इसमे बहुत बड़ा योगदान है.
विषय अति गम्भीर है.....और अब इस समस्या का समाधान निकलना ही चाहिये..वरना रोज नारी के स्वाभिमान को ऐसे ही आहत होते रहना होगा... आपका आक्रोश सर्वमान्य है...और जो दण्ड देने के पक्ष मे आप है....हमे तो उससे सहमत होना ही है।