Friday, July 13, 2012

मैं ! दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती ???



मैं !  
अनादि काल से
दुर्गा, लक्ष्मी, सरस्वती
बन कर जन्मती रही हूँ , 
करोड़ों सर
झुकते रहे
मेरे चरणों में,
और दुगुने हाथ
उठते रहे 
मेरी गुहार को,
झोलियाँ भरती रही मैं,
कभी दुर्गा, 
कभी लक्ष्मी,
और कभी सरस्वती बन कर ,
मेरे भक्त, 
कभी साष्टांग तो 
कभी नत मस्तक 
होते रहे 
मेरे सामने 
और मैं भी,
बहुत सुरक्षित रही
तब तक, जब तक
अपने आसन पर
विराजमान रही
लेकिन,
जिस दिन मैंने  
आसन के नीचे 
पाँव धरा  
मैं दुर्गा;
जला दी गई,
मैं लक्ष्मी;
बेच दी गई,
और मैं सरस्वती;
ले जाई गई
किसी तहख़ाने में
जहाँ,
नीचे जाने की सीढ़ियाँ तो बहुत थीं
पर ऊपर आने की एक भी नही...


9 comments:

  1. बेहद खूबसूरत भाव...
    इस बात से सहमत हूँ कि आज स्त्री अपमान की घटाओं में स्त्री का अमर्यादित होना भी बड़ा कारन है. पश्चिमी संस्कृति ने इन्सान का नैतिक पतन कर दिया है उसकी सोच का दिवालिया निकल चुका है...
    स्त्री अपनी भूमिका छोड़कर पुरुष बनने की होड़ में है, यहीं से बात बिगडती है.. वह स्वच्छंदता को आज़ादी का पर्याय मानकर, जो मानव समाज (पुरुष और स्त्री दोनों) के लिए करणीय नहीं है, उसे भी कर रही हैं...
    स्त्री समाज का बहुत ही महतवपूर्ण घटक है, वह ही सर्जन कर्ता है ऐसे में उसे अपनी दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती वाली भूमिका में बने रहना बेहद जरुरी है.

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    1. 'पश्चिमी संस्कृति ने इन्सान का नैतिक पतन कर दिया है उसकी सोच का दिवालिया निकल चुका है...'

      आपकी इस बात से पूरी तरह असहमत हो रही हूँ...अपनी कमियों का दोष अन्य पर डालना गलत है, पश्चिम वाले नहीं आए थे कहने कि आप मेरी संस्कृति अपनाएं...उसे अपनाना आप का फैसला है, और उसके बाद जो भी होता है वो आपकी अपनी जिम्मेदारी है...हम क्यूँ हर बात में पश्चिम को दोष देते हैं...मेरा घर ही पश्चिम में है, मेरे बच्चे यहीं बड़े हुए हैं...यहाँ भी लडकियाँ हैं और वो भी अत्याधुनिक हैं...पुरुष भी हैं, लेकिन ऐसी गलीज़ नहीं है यहाँ ....महिलाएं, पुरुषों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही हैं | मेरी बेटी यूनिवर्सिटी जाती है, उसका क्लास रात १० बजे ख़त्म होता है...घर आते आते उसे ११ बज ही जाते हैं...लेकिन मुझे इस बात की फ़िक्र नहीं होती कि कोई उसके साथ कोई अनुचित हादसा होगा, हाँ मुझे फ़िक्र होती है रोड अक्सिडेंट का...
      अब आप बताइये कि इसमें लड़की के आधुनिक होने से कहाँ कोई दिक्कत आ रही है....यहाँ लडकियाँ हर तरह से सुरक्षित हैं...आपने ही जैसा कहा है, पश्चिमी संस्कृति अगर इतनी ही बुरी होती तो यहाँ भी आए दिन हंगामे होते, क्योंकि पुरुष यहाँ भी हैं और उनमें होरमोंस भी हैं....
      स्त्री कि होड़ पुरुष बनने कि कभी नहीं रही है...स्त्री ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया है और करती रहेगी...क्योंकि स्त्री भी एक सामाजिक प्राणी है, ईश्वार ने उसे भी दिमाग दे दिया है, और वो अपने दिमाग का इस्तेमाल करना चाहती है, स्त्री, डॉक्टर, ईन्जीनियर, पाइलट सबकुछ बन सकती है और बनना चाहती है...वो अपने मष्तिष्क को सिर्फ़ घर में रोटी बना कर बेजा नहीं होने देना चाहती है...पुरुषों को ख़ुश होना चाहिए कि स्त्री रोटी बनने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ करके उनका साथ देना चाहती है...
      आपने अपने विचार रखे, अच्छा लगा |
      आपका आभार..

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    2. स्त्री की स्वतंत्रता और उसकी काबिलियत का मैं भी हामी हूं। सच कहूं तो मैं स्त्री को पुरुष से श्रेष्ठ ही मानता हूं। वह अपने जीवन में तमाम कष्ट सहकर भी खुशियां ही बिखेरती है। लेकिन, संस्कारहीन चाहे पुरुष हो या स्त्री मैं पसंद नहीं कर सकता (संस्कार, भारतीय संदर्भ में। क्योंकि अन्य देशों की अपनी परंपराएं और संस्कार हैं।)

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  2. न सारा पश्चिम ही खराब है और न ही सारा पूरब अच्छा, और इसका विपरीत भी उतना ही सच है| ये हम लोग ही हैं जो पश्चिम ले लोगों की कर्तव्यनिष्ठा, जिम्मेदारी की भावना, आजादी का सम्मान जैसी सकारात्मक चीजों से नहीं बल्कि उनकी मौज मस्ती, वीकेंड हैबिट्स से ज्यादा प्रेरित होते हैं क्योंकि वो मानने में आरामदायक हैं| हम उनके कार्य के पांच दिन नहीं बल्कि वीकेंड के दो दिन ही देखते हैं|

    'स्त्री कि होड़ पुरुष बनने कि कभी नहीं रही है.' - सच में क्या? ऐसा है तो बहुत अच्छा है|

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  3. वीकेंड की अच्छी याद दिलाई आपने...
    वीकेंड वो क्यूँ और कैसे मना सकते हैं ? वेकेशन वो क्यों और कैसे ले सकते हैं?
    ये जाना भी बहुत ज़रूरी है...
    उनकी बचत का सबसे बड़ा कारण है, यहाँ के लोग दिखावा नहीं करते हैं, यहाँ की शादियाँ बहुत सादी होतीं हैं, इनके पास गिने-चुने कपड़े होते हैं, यहाँ के अधिकतर लोग उतना ही बोझ अपने सिर पर लेते हैं जितना ये झेल सकते हैं...सरकारीतंत्र बहुत साफ़-सुथरा है, हर व्यक्ति ईमानदारी से अपना टैक्स देता है...बदले में सरकार ईमानदारी से इनकी देख भाल करती है...कनाडा में मेडिकल फ्री है, हम कभी भी कहीं भी किसी भी डॉक्टर के पास जा सकते हैं...कोई भी बीमारी हो उसका ईलाज बहुत अच्छे से होता है, बुढ़ापे में ओल्ड एज पेंशन अपनी पेंशन के अलावा भी मिल जाता है...
    अब वीकेंड और वेकेशन की बात...हम भारतीय पैसा जमा करते हैं, अपने बच्चों के लिए..ख़ुद पर कम ही खर्च करते हैं जो भी खर्च हम करते हैं वो दिखावा करने में ही कर देते हैं,और फिर रोते रहते हैं जीवन भर...यहाँ के लोग संचय सिर्फ़ घूमने फिरने के लिए करते हैं, इनके घर छोटे होते हैं, जिसमें बिजली, पानी, टैक्स का खर्चा कम होता है...ये अपने बजट का बहुत ख़याल रखते हैं... जबकि हम भारतीयों का घर सबसे बड़ा होता है...उसके खर्चे भी बड़े होते हैं...परिणाम स्वरुप हम नहीं जा पाते किसी वेकेशन या वीकेंड में...
    और फिर यह अच्छी बात है...जीवन की खुशियों को ये लोग भरपूर जीते हैं...लेकिन हम-आप नहीं जी पाते क्योंकि जो भी पैसा हम बचाते हैं उसे गिनने में ही समय बिता देते हैं, भोगने में नहीं...समझे आप.!!

    'स्त्री कि होड़ पुरुष बनने कि कभी नहीं रही है.' - सच में, ऐसा ही है, और बहुत अच्छा है|

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    1. वहां शादियां बिलकुल सादा इसलिए भी हो सकती हैं क्योंकि बार-बार भारतीय टाइप की शादी का खर्चा वहां के लोगों के लिए मुश्किल हो सकता है। हा हा हा...

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    2. आपने ये भी सही कहा..:)
      हो सकता है, एक बार शादी करके हिन्दुस्तानी बंदा/बंदी ऐसे डूब जाते हैं कर्जे में, कि दोबारा की हिम्मत भी कहाँ बाक़ी रहती होगी, :)
      लगता है असली कारण यही होगा, तभी तलाक की दर कम है भारत में ..:)
      मजाक की बात अलग, लेकिन सच्ची बात ये है कि सही मायने में यहाँ के लोग सादे हैं..

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  4. बहुत गहरे भाव, स्थितियाँ तो सुधारनी ही होंगी..

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  5. प्रवीण जी,
    हम अगर सुधर जाएँ तो स्थितियाँ ख़ुद-ब-ख़ुद सुधर जायेंगी..

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