(यह कविता उनके लिए जो, नारी को वस्तु समझते हैं )
मुझे !
बस पत्थर की इक,
ख़ूबसूरत मूरत न समझ
तू नासमझ,
मैं ह्या हूँ, शर्म हूँ,
और हूँ ग़ैरत, नासमझ,
तालिबे इल्म भी है, पास मेरे,
मैं नहीं जाहिल कोई
बेख़ौफ़ बढती जाऊँगी,
कई मंजिलें हैं मेरी,
तेरे बेशर्म इरादों से
हर मुमकिन टकराना है,
मेरी आबरू के पर्दों को
वहशियों से बचाना है,
खबरदार करती हूँ,
तू अब होश में आ जा,
मुझे बेपर्दा करने की
हिमाक़त अब न कर ,
ओ ज़ालिम ।
मशालें इल्म की रौशन करूँ
जहाँ में नूर फैलाउँगी ।
वो तेरे तल्ख़ मंसूबे
मुझे तकलीफ़ देने के
जो तुमने गढ़ लिए ,
तुम्हें बतला दूँ ,
कलम की सुर्ख़ियों से
वो मैंने सारे के सारे
ख़ारिज कर दिए,
मेरे इरादों की लपटों में
झुलसने को अब, तैयार हो ,
नसीहतों और कायदों को
अब नामंजूर ही तू पायेगा,
मैं कुदरत का करिश्मा हूँ
बस इतना जान लो तुम ज़ाहिलो,
जादूगरनी हूँ, मैं जादू करती हूँ
तेरे घर को जन्नत बना
तेरे बच्चे मैं जनती हूँ ,
आफ़ताब हूँ मैं, तेरी ज़ीस्त का
और तू फ़क़त इक दीया ही है ,
मुझसे क्या मिलाएगा आँख ?
तुझमें दम कहाँ, जो तू मेरी,
इक चोट सह पायेगा ?
गर मैं न हूँ, तो तू बेमुरौवत
जीते जी मर जाएगा...
मुझे !
बस पत्थर की इक,
ख़ूबसूरत मूरत न समझ
तू नासमझ,
मैं ह्या हूँ, शर्म हूँ,
और हूँ ग़ैरत, नासमझ,
तालिबे इल्म भी है, पास मेरे,
मैं नहीं जाहिल कोई
बेख़ौफ़ बढती जाऊँगी,
कई मंजिलें हैं मेरी,
तेरे बेशर्म इरादों से
हर मुमकिन टकराना है,
मेरी आबरू के पर्दों को
वहशियों से बचाना है,
खबरदार करती हूँ,
तू अब होश में आ जा,
मुझे बेपर्दा करने की
हिमाक़त अब न कर ,
ओ ज़ालिम ।
मशालें इल्म की रौशन करूँ
जहाँ में नूर फैलाउँगी ।
वो तेरे तल्ख़ मंसूबे
मुझे तकलीफ़ देने के
जो तुमने गढ़ लिए ,
तुम्हें बतला दूँ ,
कलम की सुर्ख़ियों से
वो मैंने सारे के सारे
ख़ारिज कर दिए,
मेरे इरादों की लपटों में
झुलसने को अब, तैयार हो ,
नसीहतों और कायदों को
अब नामंजूर ही तू पायेगा,
मैं कुदरत का करिश्मा हूँ
बस इतना जान लो तुम ज़ाहिलो,
जादूगरनी हूँ, मैं जादू करती हूँ
तेरे घर को जन्नत बना
तेरे बच्चे मैं जनती हूँ ,
आफ़ताब हूँ मैं, तेरी ज़ीस्त का
और तू फ़क़त इक दीया ही है ,
मुझसे क्या मिलाएगा आँख ?
तुझमें दम कहाँ, जो तू मेरी,
इक चोट सह पायेगा ?
गर मैं न हूँ, तो तू बेमुरौवत
जीते जी मर जाएगा...
सृजनशीलता को संहार भी आता है,
ReplyDeleteगर्जन का स्वर उसी कण्ठ से गाता है।
आपका ये माँ दुर्गा का रूप बड़ा अच्छा लगा . साथ ही भावों को भी आपने बड़े ही संयत ढ़ंग से प्रस्तुत किया .सादर नमन
ReplyDeleteAapne bharpoor josh ke saath bada zabadast likha hai....bayaan karne ke liye alfaz nahee hote mere paas!
ReplyDeleteMere blog'Bikhare Sitare'pe mahilaon kee gatha likhi hai.....kuchh sujhav dengi to man prasann hoga!
सही कह रही हैं आप .सुन्दर व् सार्थक प्रस्तुति.बधाई . अपराध तो अपराध है और कुछ नहीं ...
ReplyDeleteतुझमें दम कहाँ, जो तू मेरी,
ReplyDeleteइक चोट सह पायेगा ?
गर मैं न हूँ, तो तू बेमुरौवत
जीते जी मर जाएगा...
शेरनी सी ललकार.... जय माँ भवानी
जय माँ दुर्गे..!!
Delete:)
:):):)
Deletepranam.
:)
Deleteमेरे इरादों की लपटों में
ReplyDeleteझुलसने को अब, तैयार हो ,
नसीहतों और कायदों को
अब नामंजूर ही तू पायेगा,
मैं कुदरत का करिश्मा हूँ
यह पंक्तियाँ विशेष अच्छी लगीं।
जो लोग नारी को वस्तु समझते हैं उन्हें एक नज़र अपने घर मे भी डाल लेनी चाहिए।
सादर
वाह ... बेहद सशक्त भाव ...
ReplyDeleteशुक्र है मैं एक स्त्री हूँ....आपकी पक्षधर हूँ...सो आपके आक्रोश के निशाने पर नहीं हूँ..
ReplyDelete:-)
ये तो मजाक हुआ...
संजीदगी से कहूँ तो
आपकी आभार हूँ इस सशक्त रचना को लिखने और पढवाने के लिए.
सादर
अनु
नारी को वस्तु समझता है कोई तो उसे दुनिया की हर किसी को वस्तु ही समझना चाहिए..
ReplyDeleteमशालें इल्म की रौशन करूँ
ReplyDeleteजहाँ में नूर फैलाउँगी ।
वो तेरे तल्ख़ मंसूबे
मुझे तकलीफ़ देने के
जो तुमने गढ़ लिए ,
तुम्हें बतला दूँ ,
...........सशक्त रचना!!!
सुन्दर है!
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