पता नहीं क्या बात है इनदिनों कई पोस्ट्स अपने आप ही पब्लिश हो जा रहे हैं...क्या यह सिर्फ़ मेरी समस्या है या किसी दूसरे ने भी इस समस्या का सामना किया है ????
यह दुनिया एक मेला है
बिकती है हर चीज़ लेलो
क्या लेना है तुमको बाबू,
गाँठ खोलो और बोलो,
राम बिकते हैं, श्याम बिकते हैं
ले लो जी चारों धाम बिकते
ब्रह्मा बिकते हैं, महेश बिकते हैं
छोटे बड़े गणेश बिकते हैं
मौत बिकती है, जिंदगानी बिकती है
दुःख दर्द, परेशानी बिकती है
दिन बिकता है रात बिकती है
बिना बात के बात बिकती है
मैला आँचल, उजली साड़ी बिकती है
बगैर खून के नाड़ी बिकती है
वादे बिकते हैं, कसमें बिकतीं हैं
प्यार भरी कुछ रस्में बिकती हैं
घर बिकते है, वतन बिकता है
कभी गोरी का सजन बिकता है
सुर बिकता है, राग बिकते हैं
अभागों के भाग बिकते हैं
आवाज़ बिकती है,साज बिकते हैं
दबे-छुपे कुछ राज़ बिकते हैं
आँसू बिकते हैं, आहें बिकतीं है
सच्ची-झूठी चाहें बिकती हैं
दुआ बिकती है, आशीष बिकती है
कभी आँखों की कशिश बिकती है
ममता बिकती है, माँ बिकती है
दिलबरों की जाँ बिकती है
भरोसा बिकता हैं, विश्वास बिकता है
पूजा आस्था और आस बिकता हैं
कमजोर बिकते हैं शूर बिकते हैं
कभी आँखों के नूर बिकते हैं
जोश बिकता है, रवानी बिकती है
बुढापा, बचपन, जवानी बिकती है
धर्म बिकता है, कर्म बिकता है
जीवन का हर मर्म बिकता हैं
ज़ख्म बिकते हैं,चोट बिकती है
खरी तो खरी, खोट बिकती है
तुम भी कुछ बेचोगे बाबू
बड़ा ही अच्छा काम है
आँखों की बस शर्म बेच दो
आगे सब आसान है......
राम-श्याम , धर्म-ईमान , बुढ़ापा , बचपन , जवानी ,
ReplyDeleteसच झूठ , खरी खोट , आंसू आहें , दुआ आशीष , प्यार घर , माँ वतन ,
क्या क्या नहीं बिकता ....
और इन सबको बेचने से पहले बस आँख की शर्म ही तो बेचनी है ...
बहुत गहरी चोट की है इस बदलते ज़माने की रस्मों पर ...
बहुत गहरे उतर गयी हूँ कविता में ....
आज तो ब्लॉग फाडू पोस्ट लिख दी ...बहुत बढ़िया ....
लेखनी की धार ऐसी ही बनी रहे ....
कल जो कहा था वही फिर से ...ग़ज़लों से कवितायेँ बेहतर लिख लेती है ....मोटी ....
सूत्र वाक्य तो नीचे ही है -
ReplyDelete"आँखों की बस शर्म बेच दो
आगे सब आसान है......"
सशक्त रचनाओं की अविरल गति देख रहा हूँ इस चिट्ठे पर ! आभार ।
बहुत प्रवाहमयी और बेलौस रचना है ...अर्थशास्त्री तो फूलकर गदगद हो जायेगें
ReplyDeleteयह इतनी जबरदस्त रचना है कि मैं इसे किसी अर्थशास्त्र की पुस्तक के प्रीफेस के रूप में देखना चाहूँगा !
पोस्ट चाहे अपने आप ही हो गई हो .....पर पाठको का भला हो गया :)
ReplyDeleteइस पेज पर टंकित कुछ पंक्तियों में आपने सारी दुनिया का सफर करा दिया, ज़िन्दगी का हर मंज़र दिखा दिया ....
रचना गतिबद्ध है,बैलौस है,अच्छी है.
ReplyDeleteलेकिन अभी भी ,कुछ ऐसा भी है जो बिकाऊ नहीं है?
अभी पिछले दिनों अपने मेजर साब के साथ भी एकदम ऐसा ही हुआ था अदा जी...
ReplyDeleteजब हमने कमेंट दिया के आज के दिन तो आपकी पोस्ट आती ही नहीं है...तब जाकर उन्हें पता लगा...के एक पोस्ट समय से पहले ही खुद बी खुद छप गयी है....
इस गूगल बाबा के झमेले गूगल बाबा ही जाने....
इहाँ कुछ भी हो सकता है जी...
अमाँ यार, इत्ती स्पीड पर तो आलसी गड़बड़ा जाएगा !
ReplyDeleteसाहिर का वह फिल्मी गीत - खाली डिब्बा खाली बोतल और फिर आँखें फिल्म में नायक की खोज करते वह गीत दे दाता के नाम तुझको ... और फिर प्रगतिवादी आन्दोलन की एक बहुत सराही गई रचना ...शब्द और कवि दोनों के नाम भूल रहे हैं, बस भाव याद आ रहे हैं सब बिकाऊ जैसे...फैज़ की एक नज़्म ... जाने क्या क्या एक साथ याद आ गए।
..गोइँठे के नीचे की आग ।
यह दुनिया एक बाजार है, यहाँ सब कुछ बिकता है।
ReplyDeleteबस बिकने को तैयार हो तो।
आँखों की बस शर्म बेच दो
ReplyDeleteआगे सब आसान है......
-बस, फिर क्या बचा..फिर तो खुदा भी डरेगा!!
शानदार बात कही..छा गईं आप तो आज!! वाह!
बहुत ही खूबसूरत रचना!
ReplyDeleteअदा जी मुझे एक गाने के बोल याद आ गए,"बोलो क्या क्या खरीदोगे"
ReplyDeleteअच्छी रचना।
बचा ही क्या है सब कुछ तो समेट लिया
ReplyDeleteआँखों की बस शर्म बेच दो
आगे सब आसान है......
लेखनी की उड़ान जारी रहे - हार्दिक शुभकामनाएं
राम बिकते हैं, श्याम बिकते हैं
ReplyDeleteले लो जी चारों धाम बिकते
ब्रह्मा बिकते हैं, महेश बिकते हैं
छोटे बड़े गणेश बिकते हैं
वो भी चाइनीज।
बड़ा लम्बा सफर करा दिया खरीदारी का। सुन्दर।
ुआँखों की शर्म बेच दो बाकी सब कुछ आसान है कितनी सही बात है कमाल की रचना शुभकामनायें
ReplyDeleteआँखों की बस शर्म बेच दो
ReplyDeleteआगे सब आसान है...
आप की रचना हमेशा की तरह से बहुत अच्छी है, यह दो लाईने तो जान है आप की कविता की ओर आज के हालात की
धन्यवाद
आप अपनी सेटिंग मै जा कर देखे वही कुछ गडबड है, वरना पोस्ट अपने आप पोस्ट नही होनी चाहिये,
aapki rachna gahri chot karti hai
ReplyDelete'अदा' साहिबा, आदाब
ReplyDeleteबहुत कुछ बिकता है
फिर भी बहुत कुछ अनमोल है संसार में
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
आँखों की बस शर्म बेच दो
ReplyDeleteआगे सब आसान है....
सटीक बात कही है....ज़बरदस्त दुकानदारी...
अरे शर्म तो सबसे पहले ही बिक चुकी है .. तभी तो यह सब बेचने की नौबत आई है । अच्छी कविता ।
ReplyDeletesharm bechne ke baad hi to sabkuch bechne nikalte hain log...
ReplyDeleteसुना है इन दिनों बाज़ार में हर चीज़ बिकती है,
ReplyDeleteकिसी नक्काद से कोई मकाला ले लिया जाए।
नुमाइश में जब आए हैं तो कुछ बेचना ज़रूरी है,
चलो कोई मुहब्बत करने वाला ख़्ररीद कर बेचा जाए।
छा गईं आप तो...शानदार बात .
ReplyDeleteवाह, बहुत खूब...!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना...लाजवाब!
ReplyDeleteतुम भी कुछ बेचोगे बाबू
बड़ा ही अच्छा काम है
आँखों की बस शर्म बेच दो
आगे सब आसान है......
वाह वाह!
ReplyDeleteहमें भी साहिर लुधियानवी का (अरे वही साधना वाला) गीत "तुम क्या क्या खरीदोगे" याद आ गया.