Saturday, January 2, 2010

मेरे घर की उखड़ी साँस


उजड़ा छप्पर टूटी बाँस
मेरे घर की उखड़ी साँस

यादें सूख के पपड़ी भयीं
कहीं फँसी है दर्द की फाँस

लोग कहाँ हैं, बस्ती सूनी
घर में उग आई है काँस

अंत समय क्या चाहे 'अदा'
दू गज कपड़ा आठ गो बाँस

29 comments:

  1. सांसे जब तक धडकती रहे,
    नब्जो मे हो जब तक स्पन्दन,
    तुमको कलम और आवाजो को
    थामना ही होगा.
    कैसे तुम कह सकती हो
    शव्दो को अलविदा.

    ReplyDelete
  2. बेहद ही भावपूर्ण रचना..

    ReplyDelete
  3. चलो,अब चलती है जी 'अदा'
    दो गज कपड़ा लाओ बाँस

    ----
    dil na todu u keh kar
    ham fir kiski rakhenge aas

    di keh kar me kisko pukaru
    kiski rachna par du me daad

    tumhi batlao aisa bologi to
    kya sookh na jayenge bloggers k pran????

    kyu ada di aisi baat ab mat karna plsssssssss.

    ReplyDelete
  4. जिंदगी की कटु वास्तविकता है ...आखिर में इंसान को और क्या चाहिए होता है ...
    मगर आप अभी से ऐसी कवितायेँ क्यों लिखने लगी हैं ...
    आप जैसी जीवंत और जीवन की आस जगाने वाले इंसान की लेखनी से इस तरह की कविता हमें तो नहीं सुहाती ...!!
    इस एक बार के लिए माफ़ कर रही हूँ ....अगली पोस्ट में ऐसा ही कुछ लिखा , अच्छा नहीं लिखा तो बस समझ लेना ....

    ReplyDelete
  5. अंत समय क्या चाहे 'अदा'
    दू गज कपड़ा आठ गो बाँस
    बहुत अच्छी रचना।

    ReplyDelete
  6. हम आए देखन शब्दों का डांस,
    नई अदा से साहित्य रोमांस,
    वाणी की धमकी, हमारी भी,
    माफ़ किया चलो, लास्ट चांस ॥

    भई सांस उखडे या बढे ............हमें तो अपनी वाली अदा चाहिए उसी तेवर, उसी शैली और उसी धार के साथ

    ReplyDelete
  7. बहुत सुंदर रचना ........साधुवाद !

    ReplyDelete
  8. "अंत समय क्या चाहे 'अदा'
    दू गज कपड़ा आठ गो बाँस"

    यही इस जीवन की सच्चाई है।

    आया है सो जायगा राजा रंक फकीर।
    इक सिंहासन चढ़ चले इक बंधि जाय जंजीर॥

    ReplyDelete
  9. नए वर्ष के आगाज़ पर ऐसी उदास कविता thats nt done..ये तो नहीं चलेगा...किसी विशेष मनस्थिति में उपजी होगी यह कविता...पर विश्वास है दो क्षण बाद ही होठ कोई ख़ूबसूरत गीत गुनगुना उठे होंगे...cheer up!!!

    ReplyDelete
  10. लगा कबीर का निरगुन पढ़ रही हूँ...

    ReplyDelete
  11. ada ji aapke aane se behad khushi hui ,nav varsh ki haardik shubhkaamnaaye aapke poore parivaar ko ,saath hi sachchai ki intni jeevant tasvir aapki rachna me dekhi ,jise aapne bade sundar dhang se prastut kiya ,happy new year ,

    ReplyDelete
  12. भागे जा रहे अन्धी दौड में और अन्त समय दू गज कपड़ा आठ गो बाँस

    ReplyDelete
  13. प्रिय अदा,

    सुन्दर रचना है....कभी-कभी कडवा सच कहना जीवन के प्रति हमारी निष्ठा को और मजबूत कर देता है । शुभाशीष ।

    ReplyDelete
  14. अंत समय क्या चाहे 'अदा'
    दू गज कपड़ा आठ गो बाँस

    ऐसा मत लिखिए अदा जी आप जैसी महिलाएं ही तो हमारा संबल हैं .......!!

    ReplyDelete
  15. जीवन का यथार्थ बहुत. सुंदर बहुत मार्मिक .अगर समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर मेरी कविता "पुनर्जन्म " पढ़ें

    ReplyDelete
  16. अंत समय क्या चाहे 'अदा'
    दू गज कपड़ा आठ गो बाँस

    पता नहीं निराशा का भाव है या इस जीवन का कटु सत्य....लेकिन अच्छा है!

    ReplyDelete
  17. कुछ आश्चर्यजनक नहीं ! यह अनुभूति जिससे कविता निकली है, रची पगी है - मौका मिला, निःसंगता ने सिर उठाया-कविता अभिव्यक्त हुई !

    "लोग कहाँ हैं, बस्ती सूनी
    घर में उग आई है काँस"... सुन रहा हूँ इसमें चीखते स्वप्न को जो यथार्थ की गलबाँहीं में अपनी प्रकृति ही भूल गया है । आक्रोश, व्यथा - सब अभिव्यक्त हैं इन पंक्तियों में !

    आठ गो बाँस - भोजपुरी का समर्थ प्रयोग - ’गो’ !

    ReplyDelete
  18. hmmmm

    एक शेर याद आ गया ग़ालिब का

    गिरियाँ चाहे है खराबी मेरे कासाने की
    दरो-दीवार से टपके है बयाबां होना

    ReplyDelete
  19. गिरिजेश जी ने टिपण्णी भेजी है....

    इस कविता पर हिमांशु जी और कंचन सिंह चौहान की टिप्पणियाँ देखीं।
    कभी कभी टिप्पणी न करना कितना आनन्ददायी होता है !
    टिप्पणी से लगता है कि हिमांशु जी तूफान पर काबू पा गए।
    अर्ज किया है, (इसे पूरा कभी फुरसत में करेंगे)
    दौरे जहाँ हम ढूढ़ते रहे कि तिलिस्म का राज खुले
    दोस्तों तुम्हारे अक्षर देख लेते तो यूँ क्यूँ भटकते?
    न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
    देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।

    सादर,
    गिरिजेश

    ReplyDelete
  20. सब , तो सब टिपिया बैठे हैं
    चल, अब तू कुछ हट कर खांस

    ReplyDelete
  21. मतला बहुत ही सुंदर बना है, मैम! बहुत ही सुंदर!!

    ReplyDelete
  22. यथार्थ को सटीक शब्दों में उतारा है.....सबको बस इतना ही चाहिए.....

    पर अदा जी आप इस अदा में भी लिखती हैं....पता न था...

    मार्मिक रचना के लिए बधाई

    ReplyDelete
  23. आध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम ... एक सुंदर रचना । दो महीने बाद आज आप को पढ़ पा रहा हूँ, मेरे नागपुर से चंडीगढ़ स्थानांतरण की वजह से इंटरनेट से दूर रहा । आपको पढ़ कर अच्छा लगा ।

    ReplyDelete
  24. और आने वाली पीढ़ियां गाया करेंगी...
    बुंदेलो (नहीं नहीं...ब्लॉगरों) के मुंह से सुनी हमने यही कहानी थी,
    खूब लड़ी....

    जय हिंद...

    ReplyDelete