जिंदगी की कटु वास्तविकता है ...आखिर में इंसान को और क्या चाहिए होता है ... मगर आप अभी से ऐसी कवितायेँ क्यों लिखने लगी हैं ... आप जैसी जीवंत और जीवन की आस जगाने वाले इंसान की लेखनी से इस तरह की कविता हमें तो नहीं सुहाती ...!! इस एक बार के लिए माफ़ कर रही हूँ ....अगली पोस्ट में ऐसा ही कुछ लिखा , अच्छा नहीं लिखा तो बस समझ लेना ....
नए वर्ष के आगाज़ पर ऐसी उदास कविता thats nt done..ये तो नहीं चलेगा...किसी विशेष मनस्थिति में उपजी होगी यह कविता...पर विश्वास है दो क्षण बाद ही होठ कोई ख़ूबसूरत गीत गुनगुना उठे होंगे...cheer up!!!
ada ji aapke aane se behad khushi hui ,nav varsh ki haardik shubhkaamnaaye aapke poore parivaar ko ,saath hi sachchai ki intni jeevant tasvir aapki rachna me dekhi ,jise aapne bade sundar dhang se prastut kiya ,happy new year ,
कुछ आश्चर्यजनक नहीं ! यह अनुभूति जिससे कविता निकली है, रची पगी है - मौका मिला, निःसंगता ने सिर उठाया-कविता अभिव्यक्त हुई !
"लोग कहाँ हैं, बस्ती सूनी घर में उग आई है काँस"... सुन रहा हूँ इसमें चीखते स्वप्न को जो यथार्थ की गलबाँहीं में अपनी प्रकृति ही भूल गया है । आक्रोश, व्यथा - सब अभिव्यक्त हैं इन पंक्तियों में !
इस कविता पर हिमांशु जी और कंचन सिंह चौहान की टिप्पणियाँ देखीं। कभी कभी टिप्पणी न करना कितना आनन्ददायी होता है ! टिप्पणी से लगता है कि हिमांशु जी तूफान पर काबू पा गए। अर्ज किया है, (इसे पूरा कभी फुरसत में करेंगे) दौरे जहाँ हम ढूढ़ते रहे कि तिलिस्म का राज खुले दोस्तों तुम्हारे अक्षर देख लेते तो यूँ क्यूँ भटकते? न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।
आध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम ... एक सुंदर रचना । दो महीने बाद आज आप को पढ़ पा रहा हूँ, मेरे नागपुर से चंडीगढ़ स्थानांतरण की वजह से इंटरनेट से दूर रहा । आपको पढ़ कर अच्छा लगा ।
सांसे जब तक धडकती रहे,
ReplyDeleteनब्जो मे हो जब तक स्पन्दन,
तुमको कलम और आवाजो को
थामना ही होगा.
कैसे तुम कह सकती हो
शव्दो को अलविदा.
बेहद ही भावपूरण रचना...
ReplyDeleteबेहद ही भावपूर्ण रचना..
ReplyDeleteचलो,अब चलती है जी 'अदा'
ReplyDeleteदो गज कपड़ा लाओ बाँस
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dil na todu u keh kar
ham fir kiski rakhenge aas
di keh kar me kisko pukaru
kiski rachna par du me daad
tumhi batlao aisa bologi to
kya sookh na jayenge bloggers k pran????
kyu ada di aisi baat ab mat karna plsssssssss.
जिंदगी की कटु वास्तविकता है ...आखिर में इंसान को और क्या चाहिए होता है ...
ReplyDeleteमगर आप अभी से ऐसी कवितायेँ क्यों लिखने लगी हैं ...
आप जैसी जीवंत और जीवन की आस जगाने वाले इंसान की लेखनी से इस तरह की कविता हमें तो नहीं सुहाती ...!!
इस एक बार के लिए माफ़ कर रही हूँ ....अगली पोस्ट में ऐसा ही कुछ लिखा , अच्छा नहीं लिखा तो बस समझ लेना ....
अंत समय क्या चाहे 'अदा'
ReplyDeleteदू गज कपड़ा आठ गो बाँस
बहुत अच्छी रचना।
हम आए देखन शब्दों का डांस,
ReplyDeleteनई अदा से साहित्य रोमांस,
वाणी की धमकी, हमारी भी,
माफ़ किया चलो, लास्ट चांस ॥
भई सांस उखडे या बढे ............हमें तो अपनी वाली अदा चाहिए उसी तेवर, उसी शैली और उसी धार के साथ
बहुत सुंदर रचना ........साधुवाद !
ReplyDeleteaapki sadaa door tak sunaai de rahi hai......
ReplyDeleteyatharth ko ujagar kar diya.
ReplyDelete’सत्य’सच में!वाह!
ReplyDelete"अंत समय क्या चाहे 'अदा'
ReplyDeleteदू गज कपड़ा आठ गो बाँस"
यही इस जीवन की सच्चाई है।
आया है सो जायगा राजा रंक फकीर।
इक सिंहासन चढ़ चले इक बंधि जाय जंजीर॥
नए वर्ष के आगाज़ पर ऐसी उदास कविता thats nt done..ये तो नहीं चलेगा...किसी विशेष मनस्थिति में उपजी होगी यह कविता...पर विश्वास है दो क्षण बाद ही होठ कोई ख़ूबसूरत गीत गुनगुना उठे होंगे...cheer up!!!
ReplyDeleteलगा कबीर का निरगुन पढ़ रही हूँ...
ReplyDeletevaniji ki vani se shmat .
ReplyDeleteada ji aapke aane se behad khushi hui ,nav varsh ki haardik shubhkaamnaaye aapke poore parivaar ko ,saath hi sachchai ki intni jeevant tasvir aapki rachna me dekhi ,jise aapne bade sundar dhang se prastut kiya ,happy new year ,
ReplyDeleteभागे जा रहे अन्धी दौड में और अन्त समय दू गज कपड़ा आठ गो बाँस
ReplyDeleteप्रिय अदा,
ReplyDeleteसुन्दर रचना है....कभी-कभी कडवा सच कहना जीवन के प्रति हमारी निष्ठा को और मजबूत कर देता है । शुभाशीष ।
अंत समय क्या चाहे 'अदा'
ReplyDeleteदू गज कपड़ा आठ गो बाँस
ऐसा मत लिखिए अदा जी आप जैसी महिलाएं ही तो हमारा संबल हैं .......!!
जीवन का यथार्थ बहुत. सुंदर बहुत मार्मिक .अगर समय मिले तो मेरे ब्लॉग पर मेरी कविता "पुनर्जन्म " पढ़ें
ReplyDeleteअंत समय क्या चाहे 'अदा'
ReplyDeleteदू गज कपड़ा आठ गो बाँस
पता नहीं निराशा का भाव है या इस जीवन का कटु सत्य....लेकिन अच्छा है!
कुछ आश्चर्यजनक नहीं ! यह अनुभूति जिससे कविता निकली है, रची पगी है - मौका मिला, निःसंगता ने सिर उठाया-कविता अभिव्यक्त हुई !
ReplyDelete"लोग कहाँ हैं, बस्ती सूनी
घर में उग आई है काँस"... सुन रहा हूँ इसमें चीखते स्वप्न को जो यथार्थ की गलबाँहीं में अपनी प्रकृति ही भूल गया है । आक्रोश, व्यथा - सब अभिव्यक्त हैं इन पंक्तियों में !
आठ गो बाँस - भोजपुरी का समर्थ प्रयोग - ’गो’ !
hmmmm
ReplyDeleteएक शेर याद आ गया ग़ालिब का
गिरियाँ चाहे है खराबी मेरे कासाने की
दरो-दीवार से टपके है बयाबां होना
गिरिजेश जी ने टिपण्णी भेजी है....
ReplyDeleteइस कविता पर हिमांशु जी और कंचन सिंह चौहान की टिप्पणियाँ देखीं।
कभी कभी टिप्पणी न करना कितना आनन्ददायी होता है !
टिप्पणी से लगता है कि हिमांशु जी तूफान पर काबू पा गए।
अर्ज किया है, (इसे पूरा कभी फुरसत में करेंगे)
दौरे जहाँ हम ढूढ़ते रहे कि तिलिस्म का राज खुले
दोस्तों तुम्हारे अक्षर देख लेते तो यूँ क्यूँ भटकते?
न भटकते तो कैसे होती हासिल ये शोख नजर
देखा तो पाया, आखराँ न होता कोई आखिरी मंजर।
सादर,
गिरिजेश
सब , तो सब टिपिया बैठे हैं
ReplyDeleteचल, अब तू कुछ हट कर खांस
मतला बहुत ही सुंदर बना है, मैम! बहुत ही सुंदर!!
ReplyDeleteयथार्थ को सटीक शब्दों में उतारा है.....सबको बस इतना ही चाहिए.....
ReplyDeleteपर अदा जी आप इस अदा में भी लिखती हैं....पता न था...
मार्मिक रचना के लिए बधाई
आध्यात्मिकता की ओर बढ़ते कदम ... एक सुंदर रचना । दो महीने बाद आज आप को पढ़ पा रहा हूँ, मेरे नागपुर से चंडीगढ़ स्थानांतरण की वजह से इंटरनेट से दूर रहा । आपको पढ़ कर अच्छा लगा ।
ReplyDeleteऔर आने वाली पीढ़ियां गाया करेंगी...
ReplyDeleteबुंदेलो (नहीं नहीं...ब्लॉगरों) के मुंह से सुनी हमने यही कहानी थी,
खूब लड़ी....
जय हिंद...