ब्लॉग जगत में हिंदी और देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर पर साक्षात् देखकर जो ख़ुशी होती है, जो सुख मिलता है, जो गौरव प्राप्त होता है यह बताना असंभव है, अंतरजाल ने हिंदी की गरिमा में चार चाँद लगाये हैं, लोग लिख रहे हैं और दिल खोल कर लिख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो भावाभिव्यक्ति का बाँध टूट गया है और यह सुधा मार्ग ढूंढ-ढूंढ कर वर्षों की हमारी साहित्य तृष्णा को आकंठ तक सराबोर कर रही है, इसमें कोई शक नहीं की यह सब कुछ बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा हो रहा है, और क्यों न हो अवसर ही अब मिला है,
इन सबके होते हुए भी हिंदी का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखता है, विशेष कर आनेवाली पीढी हिंदी को सुरक्षित रखने में क्या योगदान देगी यह कहना कठिन है और इस दुर्भाग्य की जिम्मेवारी तो हमारी पीढी के ही कन्धों पर है, पश्चिम का ग्लैमर इतना सर चढ़ कर बोलता है की सभी उसी धुन में नाच रहे हैं, आज से ५०-१०० सालों के बाद 'संस्कृति' सिर्फ किताबों (digital format) में ही मिलेगी मेरा यही सोचना है, जिस तरह गंगा के ह्रास में हमारी पीढी और हमसे पहले वाली पीढियों ने जम कर योगदान किया उसी तरह हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को गातालखाता, में सबसे ज्यादा हमारी पीढी ने धकेला है, आज पढ़ा-लिखा वही माना जाता है जो आंग्ल भाषा का प्रयोग करता है, हिंदी बोलने वाले पिछड़े माने जाते हैं, आज के माँ-बाप गर्व से बताते नहीं थकते कि उनका बच्चा कैसी गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलता है, फिर भी आज की पीढ़ी यानी हमारे बच्चे तो हिंदी फिल्में देख-देख कर कुछ सीख ले रहे हैं , लेकिन उनके बच्चे क्या करेंगे?
लगता है एक समय ऐसा भी आने वाला है जब सिर्फ एक भाषा और एक तथाकथित संस्कृति रह जायेगी, जिसमें 'संस्कृति' होगी या नहीं यह विमर्श का विषय हो सकता है
बहुत अच्छी बात यह हुई है कि इस समय लोग हिंदी लिख रहे हैं, वर्ना हम जैसे लोग, जो विज्ञानं के विद्यार्थी थे, हिंदी लिखने-पढने का मौका ही नहीं मिला था, कहाँ पढ़ पाए थे हम हिंदी, एक पेपर पढ़ा था हमने हिंदी का MIL(माडर्न इंडियन लैंग्वेज), न तो B.Sc में हिंदी थी, न ही M.Sc. में, हिंदी लिखने-पढने का मौका तो अब मिला है, इसलिए जी भर कर लिखने की कोशिश करते हैं
कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य
कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य
हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है उसकी उपयोगिता, आज हिंदी का उपयोग कहाँ हो रहा है, गिने चुने शिक्षा संस्थानों में और शायद 'बॉलीवुड' में, 'बॉलीवुड' ने भी अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए है, संगीत, situation सभी कुछ पाश्चात्य सभ्यता को आत्मसात करता हुआ दिखाई देता है, अब सोचने वाली बात यह है कि 'बॉलीवुड' समाज को उनका चेहरा दिखा रहा है या कि लोग फिल्में देख कर अपना चेहरा बदल रहे हैं, वजह चाहे कुछ भी हो सब कुछ बदल रहा है, और बदल रही है हिंदी, सरकारी दफ्तरों में भी सिर्फ अंग्रेजी का ही उपयोग होता है, हिंदी के उपयोग के लिए बैनर तक लगाने की ज़रुरत पड़ती है, कितने दुःख कि बात है !!
मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ, सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...
मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ, सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...
हर हाल में हिंदी पढने वालों को अपना भविष्य उज्जवल नज़र आना चाहिए...
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??
चिन्ता स्वभाविक है किन्तु स्थितियाँ बेहतर होंगी, ऐसा मेरा पूर्ण विश्वास है..हर स्तर पर प्रयास करना होगा. मात्र कुछ निराशाजनक तथ्यों को लेकर निराशावादी दृष्टिकोण बना लेने को मैं सही नहीं मानता. पिछले ४ वर्षों में ही जिस तरह कम से कम नेट पर इसका विस्तार हुआ है, वो बहुत सुखद है और आने वाला समय और अनुकूल ही होगा.
ReplyDeleteहल्के तरफ से:
सुन्दर आलेख आपके मेरे प्रति यह उदगार देख अति सुन्दर हो गया:
युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है...
:)
सरकार के पास योजनाएँ तो बहुत हैं किन्तु आक्रामक नव-बाज़ारवाद के चलते सब पीछे छूट गया है,
ReplyDeleteयह बात सही है कि इसके लिए हमारी पीढ़ी जिम्मेदार है
फिर भी जिस तरह कम से कम नेट पर इसका विस्तार हुआ है, वो बहुत सुखद है और आने वाला समय और अनुकूल होगा ही
युवाओं को हिंदी में लिखते देखना सच में खुशी दे जाता है, अपनी मातृभाषा भी लिखें-पढ़ें तो क्या कहने
बी एस पाबला
हिंदी पर आपकी चिंता जायज है ...ये हिन्दुस्तान की बदकिस्मती ही है कि यहाँ के कई प्रदेशों में communication के लिए अंग्रेजों के जाने के बाद में अंग्रेजी का ही प्रयोग किया जाता है ...आपने सुना होगा भारत के दक्षिणी प्रान्तों में अकसर हिंदी विरोधी आन्दोलन होते रहते हैं ....पूरे विश्व में शायद ही कोई ऐसा मुल्क होगा जहाँ संवाद के लिए एक विदेशी भाषा का उपयोग किया जाता है ...और इसे सहना हमारी नियति है ....
ReplyDeleteऔर अब तो हिंदी भाषी प्रदेशों में भी अंग्रेजी पढने बोलने वाले अधिक हो गए हैं ...उन्हें हिंदी में लिखने बोलने में असुविधा होती है ..भले ही अंग्रीजी की टांग ही घसीटे ,...बोलेंगे अंग्रेजी ही ...इसके पीछे एक बहुत बड़ा तर्क दिया जाता है कि उच्चतर व्यावसायिक शिक्षा में ज्यादर पुस्तकें अंग्रेजी में ही उपलब्ध हैं ...चीन और जापान की तरह हमारे यहाँ उच्चतम तकनीकी ज्ञान हिंदी में उपलब्ध नहीं है ...इसलिए उन्हें अंग्रेजी में प्रवीण होना ही पड़ता है ...यदि इस दिशा में कुछ प्रयास किया जाए तो कुछ स्थिति परिवारं हो सकता है वर्ना होगा यह की हिंदी सिर्फ अप्रवासी भारतीयों की भाषा रह जायेगे और उन्हें हिंदी शिक्षण की कक्षाएं लगनी होगी भारतीयों को हिंदी सिखाने के लिए ...
आपने इस पर बहुत चिंतन मनन किया ...अच्छा लगा ...दिनों दिन आपकी कलम मजबूत होती जा रही है ...और भी अच्छा लग रहा है ...शुभकामनायें ...!!
आप ने हिन्दी के बारे में चिन्तन किया उसके लिये आपको साधूवाद . वैसे भारत मे हिन्दी को १४ सितम्बर को याद करते है .
ReplyDeleteसही और जायज चिंता है. नेट पर ब्लोग के माध्यम से और साल में सिर्फ एक दिन 'हिन्दी दिवस' के दिन कतिपय गोष्ठियों से हिन्दी का भविष्य सुरक्षित नहीं है.
ReplyDeleteकामकाज में हिन्दी को बिना शामिल किये हिन्दी सशक्त नही हो सकती
आपका यह लेख तब आया है जब की अंतर्जाल हिन्दीमय होता नजर आ रहा है -उम्मीदे बढी हैं -चिंता की बात नहीं है !
ReplyDeleteअदा जी,
ReplyDeleteमेरे कुछ अंग्रेज़ीदां दोस्त मेरा हिंदी ब्लॉग पढ़ना चाहते हैं...जबकि मैं बहुत सरल और गंगा-जमुनी हिंदुस्तानी में लिखने की कोशिश करता हूं...उन्हें ऐसी आसान हिंदी में भी कुछ शब्दों पर अटक जाना पड़ता है...हिंदी को दरअसल अगर क्लिष्ट शब्दों से बचा कर लिखा जाए तो मेरी समझ से ज़्यादा से ज़्यादा लोग इससे जुड़ सकते हैं...बच्चे भी जो
इससे दूर भागते हैं...उसका भी कारण यही है कि कई शब्द उनके सिर के ऊपर से गुज़र जाते हैं...
बाकी एक मंत्री जी इंग्लैंड का दौरा कर भारत लौटे...भारत आकर उन्होंने कहा कि विलायत वाले हमसे बहुत आगे हैं...हम उनका मुकाबला नहीं कर सकते...वहां एक साल का बच्चा भी इतनी अच्छी अंग्रेज़ी बोलता है...
जय हिंद...
मैं बस यही कहूँगा कि हिन्दी वालों को संख्या और 'राष्ट्रभाषा(?)' श्रेष्ठताबोध के कवच से बाहर आकर अन्य भारतीय भाषाओं के कर्णधारों से सीखना होगा - बंगला, मराठी, तमिल, तेलुगू, कन्नड़ ... ।
ReplyDeleteजब तक अपनी जड़ों के प्रति लगाव नहीं होगा, जब तक इस लगाव के साथ मन खुला नहीं होगा - स्थिति चिंताजनक रहेगी ही ।
_______________
समीर जी के आगे तो हम बच्चे ही हैं :)
@पुनश्च
ReplyDeleteमैं उस हिन्दी की बात कर रहा था -जिसके चाहने वाले तेजी से बढ़ रहे हैं !अब यह लगभग सभी प्रान्तों में बोली जाती है और ६ प्रान्तों में राजकाज की भाषा है .अब संसद में हिन्दी बोलने वाले और सुनने वाले बढे हैं -अब हिन्दी विरोध की वह हवा नहीं है -सभा सम्मेलनों में भी अब हिन्दी ज्यादा स्वीकार्य हो चली है .....टीवी और हिन्दी फिल्मों में हिन्दी फल फूल रही है -अब ठीक हिन्दी बोलने वाले को पसंद किया जाने लगा है ,वह कल का भुच्चड नहीं रहा-अंतर्जाल पर हिन्दी का परचम लहराने लगा है .
.....वो क्या है न अदा जी हिन्दी का एक रेटरिक है -बजा देने पर लोग बाग़ आ जुटते रहे हैं मातम पुरसी करने और यह मुझे बहुत बुरा लगता रहा है -यह हीन भावना जगाता है -आज हम गर्व से कह सकते हैं हम हिन्दी जानते हैं ...और देश विदेश के बहुत से सहृदय और विनम्र ऐसे लोग हैं जिन्हें अब हिन्दी से कोई निषेध नहीं है !
माफ कीजिएगा - यह क्लिष्टता की शिकायत मुझे काहिली अधिक लगती है, जेनुइन कम।
ReplyDeleteसब कुछ सापेक्ष है। प्रश्न यह है कि आप क्या हिन्दी के शब्दों को सीखने के लिए भी उतने ही उत्सुक और प्रयत्नशील हैं जितने अंग्रेजी के लिए हैं?
एक भाषा के अति सरलीकरण की वकालत कर कहीं आप उससे उसकी समृद्धि तो नहीं छीनना चाहते? बाद में कहते फिरेंगे कि हिन्दी में तो वैसे शब्द ही नहीं हैं कि गम्भीर ज्ञानपरक बातें लिखी जा सकें।
सरलीकरण का हो-हल्ला उन बाजारी तत्वों से भी जुड़ता है जो हमसे हमारी भाषा ही छीनना चाहते हैं।
यह बस एक पक्ष है, बाकी कृत्रिमता का मै भी विरोधी हूँ। ...अब बताइए कि क्या मेरी यह टिप्पणी समझने में कठिन लगती है?
अगर हाँ, तो भई आप काहिल हैं - पढ़ना भी नहीं चाहते
।
हिंदी, बिंदी , संस्कृति, साडी गीत और नार.
ReplyDeleteलुप्त ना होंगे ये कभी, सुन लीजै सरकार.
संशय कुछ ना पालिए, अपने मन में व्यर्थ
हाँ, नित दिन बदलाव के ,नए खोजिये अर्थ..
नए खोजिये अर्थ, न हों ये चिंदी चिंदी
होई-करवा,कविता,साडी,हिंदी,बिंदी.....
हिन्दी के इस चिन्तनीय स्थिति के लिये आज की पीढ़ी से कहीं अधिक हमारी शिक्षनीति जिम्मेदार है। विदेशों से उधार ली गई शिक्षनीति से क्या हिन्दी का भला हो सकता है? जरूरत है तो शुद्ध रूप से अपनी संस्कृति पर आधारित एक स्वदेशी शिक्षानीति की। यदि ऐसी शिक्षानीति बन जाये तो अभी भी कुछ बिगड़ा नहीं है। किन्तु विडम्बना यह है कि हमारी सरकार को इस बात की कुछ भी चिन्ता नहीं है।
ReplyDeleteजहाँ तक भाषा की क्लिष्टता का सवाल है, हमारी भाषा क्लिष्ट नहीं है। मैं अपने पोस्टों में अनेक बार जानबूझ कर कुछ अपेक्षाकृत क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग करता हूँ और उन्हें पढ़कर सभी लोग समझ भी जाते हैं। हिन्दी के अनेक शब्द आज प्रचलन से दूर होते जा रहे हैं क्योंकि हम लोग ही उन शब्दों को प्रयोग करने के स्थान पर उसके समानार्थी अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग करते हैं। चलन में न होने से वे शब्द क्लिष्ट प्रतीत होने लगते हैं। बड़े दुःख की बात है कि आज बहुत से लोग दायाँ और बायाँ, जो कि बहुत ही सरल शब्द हैं, को भी नहीं समझते और उन्हें सीधा और उल्टा कह कर समझाना पड़ता है।
मन में विचार तो और भी उठ रहे हैं लिखने के लिये किन्तु लिखते जाउँगा तो यह टिप्पणी ही पोस्ट बन जायेगी, इसलिये फिलहाल इतना ही।
हिंदी पर आपकी चिंता जायज है .पर मैं इसका भविष्य बुरा नही देखता।
ReplyDeleteइंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं। कई साहित्यिक पत्रिकाएं नेट पर पढ़ी जा सकती हैं। हिंदी में ब्लॉग लेखक आज अच्छी रचनाएं दे रहें हैं। भारत में इलेक्ट्रॉनिक जनसंचार माध्यमों का प्रयोग दिनोंदिन बढ़ रहा है। यह देश की संपर्क भाषा के रूप में हिंदी के विकास का स्पष्ट संकेत देता है।
आज अभिजात्य वर्ग की भाषा और आम आदमी और बाज़ारू भाषा का अंतर मिटा है। उसके लिए साहित्य और मीडिया दोनों में जगह है, ब्लॉग पर भी। आज सुसंस्कृत होने की पहचान जनजीवन में आम इंसान के रूप में होने से मिलती है। यह आम आदमी की हिंदी है।
प्रचलित और सबकी समझ में आने वाली व्यवहार-कुशल हिंदी ही संपर्कभाषा का रूप ले सकती है। साहित्यिक और व्याकरण सम्मत हिंदी का आग्रह रख हम इसका विकास नहीं कर सकेंगे। सामान्य बोलचाल में प्रचलित अंग्रेज़ी, पुर्तगाली, अरबी, फ़ारसी, उर्दू से लेकर देश की तमाम बोलियों और प्रादेशिक भाषाओं के शब्दों के हिंदी में प्रयोग से सही अर्थों में यह जनभाषा बन सकेगी और तभी हिंदी और हिंदीतर भाषाईयों के बीच की दूरी पट सकेगी। हिन्दी की विकास यात्रा में इसे हिंगलिश बनाने का किंचित प्रयास स्तूत्य नहीं है। हां, इसे निश्चय ही और अधिक प्रयोजनमूलक यानी फंक्शनल बनाया जाए। प्रयोजनमूलक हिन्दी जीवन और समाज की ज़रूरतों से जुड़ी एक जीवन्त, सशक्त और विकासशील हिन्दी भाषा है। आज ऐसी ही प्रयोजनमूलक हिंदी के ज़रिए हमारा प्रयास भारत के सभी प्रांतों, अंचलों और जनपदों को सौहार्द्र, सौमनस्य व परस्पर स्नेह से एक सूत्र में बांधने का है। तभी तो आज चक दे इंडिया हिट है।
जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए। इस सुखद स्थिति में हिंदी को लाने का बहुत बड़ा श्रेय हिंदी सिनेमा और हिंदी धरावाहिक को जाता है, इस बात से इंकार नही किया जा सकता।
ReplyDeleteप्रयोजनमूलक हिंदी का सबसे बड़ा उपयोग मीडिया और विज्ञापन के क्षेत्र में है। टेलीविजन पर विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्पादक तरह-तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उत्पाद भौतिक हो इसके लिए उनके विज्ञापन में ऐसी सृजनात्मकता दिखाई जाती है कि उपभोक्ताओं पर उसका सीधा असर पड़े। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ ने रोजगार के ऐसे आयाम खोले हैं कि हिंदी के परम्परागत लेखकों के अलावे ऐसे लेखकों की मांग बेतहासा बढ़ी है जो किसी विषय को बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत कर सके।
जनसंचार के सबसे सशक्त माध्यम सिनेमा और टेलीविजन ने हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार में वैश्विक क्रांति दी है। आज हर कोई हिंदी बोल समझ लेता है, लिख पढ़ भले न पाए। इस सुखद स्थिति में हिंदी को लाने का बहुत बड़ा श्रेय हिंदी सिनेमा और हिंदी धरावाहिक को जाता है, इस बात से इंकार नही किया जा सकता।
ReplyDeleteप्रयोजनमूलक हिंदी का सबसे बड़ा उपयोग मीडिया और विज्ञापन के क्षेत्र में है। टेलीविजन पर विज्ञापन की दुनियां में हिंदी का बोलबाला है। विज्ञापन की दुनियां का हिंदी के बगैर काम नहीं चलता। विज्ञापन गुरु यह जान और मान चुके हैं कि माल अगर बेचना है तो उन्हें हिंदी में ही बाज़ार में उतरना पड़ेगा। हां ये जो हिंदी परोसी जा रही है उसे कुछ लोग “हिंगलिश” की संज्ञा देते हैं। परन्तु यह सर्वग्राह्य हिंदी है।
आज बाज़ारबाद शबाब पर है। उत्पादक तरह-तरह से उपभोक्ताओं को लुभाने का प्रयास करते हैं। ऐसे में विज्ञापन की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। उत्पाद भौतिक हो इसके लिए उनके विज्ञापन में ऐसी सृजनात्मकता दिखाई जाती है कि उपभोक्ताओं पर उसका सीधा असर पड़े। दिवा-रात्री समाचार चैनल, एफ.एम. रेडियो और विज्ञापन एजेंसियों की बाढ़ ने रोजगार के ऐसे आयाम खोले हैं कि हिंदी के परम्परागत लेखकों के अलावे ऐसे लेखकों की मांग बेतहासा बढ़ी है जो किसी विषय को बिना लाग लपेट बेवाक और संक्षिप्त शब्दों में पूरी रचनात्मकता के साथ प्रस्तुत कर सके।
निराशा तो है पर निश्चिंत रहिये हिन्दी को हटाना नामुमकिन है.
ReplyDeleteआपकी तमाम चिंताएँ सही हैं लेकिन हाथ पर हाथ धरे रहने से भी तो कुछ नहीं होगा ....ये सही है की अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता लेकिन मौका मिल जाए तो भड़भूजे(अंग्रेज़ी थोपने वाले))की आँख ज़रूर फोड़ सकता है...हमें निरंतर अपने प्रयास जारी रखने होंगे..कभी ना कभी तो ऐसा मौका आएगा जब हमारा वर्चस्व ...हमारा झंडा लहराएगा ... उम्मीद पे दुनिया कायम रखने में हर्ज़ ही क्या है
ReplyDeleteअदा जी, ऐसा नहीं है की हिंदी को लोग पसंद नहीं करते। आज भी जब कोई शुद्ध हिंदी का प्रयोग करता है तो लोग सुनकर खुश होते हैं। हाँ यह सही है की आजकल इंग्लिश का फैशन सा हो गया है, युवा पीढ़ी में। हिंदी बोलने को नीची नज़र से देखा जाता है। लेकिन यहाँ पर हम जैसे लोगों का कर्तव्य बढ़ जाता है।
ReplyDeleteब्लोगिंग एक अच्छा प्रयास है, हिंदी के विकास के लिए।
हिंदी को आगे लाने के लिये सब को अपने अपने बच्चो को हिंदी सरकारी शिक्षा संस्थानों मे भेजना चाहिये । जो लोग हिंदी के विलुप्त होने की बात करते हैं वो सब कहीं ना कहीं खुद इसके जिम्मेदार हैं क्युकी व्यक्तिगत रूप से वो सब अपने अपने कार्य छेत्रो मे इंग्लिश प्रणाली से ही जुड़े हैं । आज ऑस्ट्रेलिया मे जो हो रहा हैं , जिस प्रकार से हिन्दुस्तानियों के प्रति हिंसा हो रही हैं उसका कारण क्या हैं , क्यूँ इतने हिन्दुस्तानी अपनी धरती को छोड़ कर अपनी भाषा को छोड़ कर दूसरे देश मे जा कर बसना चाहते हैं । अपने घर अपने देश मे कमी सही पर हैं तो सब अपना । कल ये धन से लबालब इंडिया वापस आयेगे और फिर इनकी देखा देखी दूसरे इनको फोल्लो करेगे ।
ReplyDeleteहिंदी कभी विलुप्त नहीं हो सकती क्युकी भारतीये संस्कृति कि जड़े हिंदी से जुड़ी हैं , हमारा हिंदी बोलना /लिखना या ना लिखना हमारे हिंदी प्रेम को नहीं दर्शाता हैं वो दर्शाता हैं हमारे काम करने के तरीके को
जो लोग ब्लॉग पर हिंदी को आगे ले जा रहे हैं अच्छा हैं पर इस से हिंदी कि सेवा हो रही हैं गलत हैं क्युकी कोई भी काम अगर "सेवा भाव " से किया जाता हैं तो उसका कोई अंजाम नहीं होता ।
देश से जुडिये , संस्कृति से जुडिये , हिन्दू धर्म से जुडिए आप हिंदी से खुद जुड़ जाते हैं लेकिन किसी भी भाषा जैसे इंग्लिश का बहिष्कार करना या किसी भी देश का बहिष्कार करना या किसी भी संस्कृति का बहिष्कार करना अपने आप मे आप को अकेला कर देगा ।
आज भी दूसरे देश मे भारतीये दोयम हैं क्युकी हम अपने देश मे दूसरी संस्कृति के प्रचार से डरते हैं ।
हिंदी के बारे मे चिंतित होना बेकार हैं अपनी संस्कृति अपने विचारो से आप जितने लोगो को परिचित करा सके कराइये भाषा कोई भी हो हमारी बात उनतक पहुचे
अदा जी ,
ReplyDeleteआज आपकी पोस्ट पढ़ कर बहुत पहले का अपना लिखा याद हो आया....मेरा तो बस इतना मानना है की हिंदी की जो दुर्गति हुई है उसमें आज की पीढ़ी से ज्यादा सरकारी नीतियाँ ज़िम्मेदार हैं...जब नौकरी की बात आती है तो अंग्रेजी को महत्त्व दिया जाता है....इसलिए आज की युवा पीढ़ी अंग्रेजी के पीछे भागती है...जब तक हिंदी को जीविकोपार्जन से नहीं जोड़ा जायेगा तब तक हिंदी की स्थिति ऐसी ही रहेगी...और ये दोयम दर्जे की भाषा ही बनी रहेगी....यदि सही अर्थों में हिंदी का उत्थान करना है तो हमें इसे जीविका के साधन में उपयोग करना होगा....हांलांकि आज हिंदी का बहुत विस्तार हुआ है...हिंदी का परचम लहराने तो लगा है...लेकिन बिना अंग्रेजी जाने लोगों को अपना भविष्य नहीं दिखता.....
आज आपने अपने लेख में एक गहन मुद्दा उठाया है.....इस पर सबको कुछ सोचना और करना चाहिए.....अच्छे लेख के लिए बधाई
संस्कृति और विचार भाषा से जुड़ते है. अलग अलग कर देखना ठीक नहीं है।.
ReplyDeleteहिन्दी मीडियम के स्कूल ठीक हों तो पढ़ाने मे क्या सवाल? कित्तने ही हिन्दी के स्कूल बहुत अच्छा काम कर रहे हैं. शिक्षा की क़्वालिटी मायने रखती है.
ऐसे में भाषा की बात जोड़्ना ऐसे ही है जैसे बात आम की हो और अनार दिखाया जाय।
यह भी सही है कि रेटरिक से बचा जाय. काम किया जाय.
हिंदी पर एक जरूरी पोस्ट और सार्थक चर्चा शुरू कराने के लिये अदा दी का शुक्रिया..बहुत सी अहम बातों को आपने पकड़ा है इस लेख मे..
ReplyDeleteमुझे लगता है कि तमाम आधुनिकता और सरकारी उपेक्षा के बावजूद हिंदी दैनिक बोलचाल मे अपना अस्तित्व बनाये रखेगी..और उसकी वजह है भारत की जनता के एक बड़े भाग का इसमे कम्फ़र्टेबल होना..यहाँ ओफ़िसेज मे अंग्रेजी के प्रभुत्व के बावजूद सब अपने मैनेजर्स/कलीग आदि की बुराई करने के लिये या गैरर्फ़ार्मल बातों के लिये हिंदी या भारतीय भाषाओं का ही सहारा लेते हैं..तो बाजार जाने से ले कर सीरियल्स देखने तक तमाम जगह पर हिंदी के बिना काम चलाना मुश्किल होता है..आप दक्षिण या उत्तर-पूर्वी भारत मे कहीं चले जाइये..काफ़ी संभावना होगी कि स्थानीय भाषा जाने बिना आपका काम चल जाय..मगर यही उत्तर भारत के किसी प्रांत मे नगरीय इलाकों से बाहर निकलने पर हिंदी का ज्ञान न होना बहुत बड़ी बाधा हो सकता है..
इंटरनेट पर जिस तेजी से हिंदी का प्रसार हो रहा है वह सुखद है..और उसकी एक वजह यह मुझे लगती है कि कुछ साल पहले तक भारत का वही वर्क नेट से जुड़ा था जिसका अंग्रेजी पर अच्छा कमांड था..मगर अब सुदूर क्षेत्रों मे नेट पहुँचने के साथ दैनिंदिन कार्यों मे नेट का हस्तक्षेप बढ़ जाने के कारण भी क्षेत्रीय भाषाओं के नेट पर महत्व बढ़ रहा है..हालांकि इस दिशा मे अभी बहुत से प्रयास होने बाकी है..और यह बात हिंदी ही नही बल्कि सभी भारतीय भाषाओं पर भी लागू होती है,,
सामाजिक और सरकारी स्तर पर हिंदी की उपेक्षा के एक कारण जो मुझे लगता है वह है हिंदी मे रोज्गार के अवसरों की कमी..कोई हिंदी के प्रति कितना भी अनुरागी क्यों न हो अगर यह पता चले कि जॉब लेने के लिये बिना अंग्रेजी के काम नही चलने वाला तो उसे झक मार कर अंग्रेजी की शरण मे जाना ही होगा..जब हमारे अधिकांश व्हाइट कॉलर्स वाली पेशे चाहे वह डाक्टरी, इंजीनियरिंग, विज्ञान, सॉफ़्ट्वेयर, उच्च शिक्षा, मैनेजमेंट या कारपोरेत बिजनेस ही क्यों न हो, पूर्णतया अंग्रेजी पर आधारित हैं हिंदी व भारतीय भाषाओं की स्वीकार्यता मे सुधार मुश्किल है..
हिंदी के इंफ़ीरियॉरिटी कॉम्प्लेक्स की भी वजह मुझे भाषागत नही वरन् सामाजिक लगती है.. जब आप यह देखेंगे कि अंग्रेजी जानने वालों की कम संख्या के बावजूद वे भारतीय सामाजिक पिरामिड के शीर्ष पर आते हैं, वही बाजार को कंट्रोल करते हैं..क्रेडिट कार्ड्स, मल्टीप्लेक्स, मँहगी कारों व अन्य होम अप्लायेंसेज, विदेश यात्राएं, शापेंग माल्स, मीडिया व लक्जरी उत्पादों का उपभोग करने वालों मे प्रभुत्व अंग्रेजी मे व्यवहार करने वालों का ही है अतः समाज के दूसरे हिस्से के लोगों मे अंग्रेजी ज्ञान की यह खाई पार कर उस पार की जमात मे शामिल होनी की इच्छा स्वाभाविक ही है..जहाँ समाज मे अंग्रेजी बोलना माडर्न होना है वहाँ जब तकभारतीय भाषा आधारित रोजगार स्रजन के असर दे कर लोगों को आर्थिक सक्षमता नही दी जाती है तब तक सामाजिक स्तर सुधारने के लिये अंग्रेजी ज्ञान की अनिवार्यता वाली मानसिकता को खत्म करना कुछ मुश्किल है..ऐसा मुझे लगता है.
भाषा के विकास के अहम् अंग अब उसकी नेट पर उपस्थितिऔर सार्थक समृद्धि भी है..और यह प्रयास बने रहना चहिये.
हाँ अपना भी यही हाल हो गया है कि हिंदी चिट्ठे व साइट्स पढ़-पढ़ कर अब इंग्लिश आधारित ब्लॉग्स आदि पढ़ने का दिल नही करता (और अंग्रेजी के कमेंट्स भी ) ;-)
ReplyDeleteकहाँ जा रही हो हिंदी ???हिन्दी कही नही जा रही, हमीं गलत दिशा मै जा रहे है....मैने देखा है युरोप के देशो मै लोग अपनी भाषा पर मान करते है, यहां बच्चे अग्रेजी तो पढते है, लेकिन हर तरह आप को यहां के देशो की स्थानिया भाषा ही मिलेगी, यह नही कि चार लोग मिले तो अग्रेजी शुरु...हमारी तरह..जो देश गुलाम रहे है अग्रेजी वही साहब की भाषा मानी जाती है, बाकी जगह नही, फ़्रांस मात्र २२ किलो मीटर दुर है इग्लेंड से लेकिन वहा भी आप को लोग अपनी मात्रभाषा को मान से बोलते नजर आयेगे
ReplyDeleteहम गु्लाम थे, है, ओर रहेगे,
Hello,
ReplyDeleteBahut achha likha hai aapne...
Kuch jaan-pehchaan ke log hain jo hindi mein likhte hain and padd kar achha lagta hai... unn mein se aap bhi ek ho!
Prem sahit,
Dimple
अदा जी, जब भी इस बिंदु पर मैं सोचता हूं तो यही एक बात मेरे जेहन में आती है कि हिंदी कभी कमजोर नहीं रही , यदि कोई कमजोरी है तो हममें है । और अब तो इसका विस्तार खूब गज़ब का है । आप खुद ही बताईये न आप लोग परदेश में बैठ कर भी हिंदी लिखने पढने के कारण ही हमसे जुडे हुए हैं न । अब तो हिंदी ज्यादा मजबूत दिख रही है मुझे । मैं अंग्रेजी साहित्य से प्रतिष्ठा (honours) में पास करने के बावजूद हिंदी में जितने अपनेपन से लिख पाता हूं अंग्रेजी में नहीं । मगर इसके लिए कोई जरूरी नहीं कि हम दूसरी भाषाओं के लिए द्वार जबरन बंद कर दें , उन्हें सहयोगी मान लें तो ज्यादा अच्छा होगा
ReplyDeleteअजय कुमार झा
हिंदी की गरिमा वैसी ही बनी रहेगी चिंतित ना होयें !
ReplyDeleteहिंदी की तरफदारी करते आलेख में digital format, situation, Academicians और professionals, communication जैसे शब्द!!! और भी बहुत से अंग्रेजी शब्द देवनागरी में! इनके हिंदी समानार्थी क्या इतने कठिन हैं?
ReplyDeleteहिंदी को लेकर की गयी चिंता जायज है...डर तो लगता है कि कहीं ऐसा ना हो यही सिर्फ बोलचाल की या सरकारी काम-काज की भाषा बन कर रह जाए...हिंदी प्रदेशों से ही थोड़ी उम्मीद है..पर वहाँ के बच्चे भी हिंदी साहित्य कहाँ पढ़ते हैं
ReplyDeleteवैसे अंग्रेजी साहित्य का भी यही रोना है classics कोई नहीं पढता. Pride N Prejudice हमारी फेवरेट बुक थी...आज के बच्चे कहते हैं..बहुत स्लो है..पढ़ ही नहीं पाते.
यहाँ भी देखें
ReplyDeletehttp://blogonprint.blogspot.com/2010/01/blog-post_10.html
बी एस पाबला
मोहन ठाकुर जी,
ReplyDeleteमैंने पहले ही लिखा है कि मैंने हिंदी बहुत कम पढ़ी है....और कभी दावा भी नहीं किया कि मैं हिंदी की विद्वान् हूँ... मुझे सचमुच digital format, की हिंदी नहीं मालूम है Academicians की हिंदी जहाँ तक मुझे मालूम है 'शिक्षक' है और professionals की हिंदी 'व्यवसायी' मुझे ये दोनों ही शब्द उचित नहीं लगे थे इसी लिए मैंने इनका इस्तेमाल नहीं किया .., communication का मैंने कहीं इस्तेमाल भी नहीं किया और situation तो बस यूँ ही डाल दिया था...
इससे अलग अगर कोई हिंदी शब्द हों तो बता दीजिये..अभी डाल दूंगी...
तेरे जी में जो आये तू कर ले 'अदा'
ReplyDeleteवो जो जलते हैं तुझसे वो जलते रहे
क्यूँ देखें राह नाख़ुदा का कह दो तुम 'अदा'
जब लहरें ख़ुद अब रास्ता दिखाने लगीं हैं
अदा जी,
पहले तो इन दोनों गजलों ने जान ले ली है...फिर एक के बाद एक बेहद झिंझोड़ देने वाली पोस्ट कमाल है....आप वास्तव में लेखनी का चमत्कार है.हिंदी पर आप की चिंता वाजिब है पर जब आप जैसे प्रबुद्ध लोग इस आह्वान से जुड़े हुए है तो हमें चिंता नहीं है ऐसा मेरा विशवास है!
कितनी भी विपरीत परिस्थिति के बाद भी हिन्दी का दायरा बढ़ रहा है. अब हिन्दी ब्लाग्स को ही लें, हर दिन इनकी संख्या बढ़ रही है. सच कहें तो नव बाजारवाद भी इसमें मदद ही कर रहा है, बाजार ने दूर दूर तक पहुँचने के लिये स्थानीय भाषाओं का प्रयोग किया है.
ReplyDeleteहाँ! गिरिजेश से सहमत हूँ, क्लिष्ट क्या होता है? फ्रेंच बोलने में आपको कठिन लगे तो उसके शब्द हटा कर अंग्रेजी के डाल देगे क्या? सच ये है, कि क्लिष्टता की शिकायत करने वाले हिन्दी की नहीं हिंगलिश की बात करते हैं. ठीक है आज वह भी एक भाषा का रूप ले चुकी है पर उसे हिदी का स्थानापन्न न कहें. आदर.
अदाजी
ReplyDeleteआपका आलेख बहूत अछा लगा |पर थोडा सतही तौर पर चिंता है |जिस तरह हम करीब ३० साल पहले कहते थे कि आने वालो सालो में बेटा शादी करके बहू ले आएगा और कहेगा आशीर्वाद दीजिये |कितु आज देखिये कितने ही बच्चे ऐसे है जो अपने माता पिता के द्वारा तय किये गये रिश्तो में ही विश्वास करते है ,और अपने रीती रिवाजो से ही शादी करना पसंद करते है |ठीक उसी तरह हिंदीभाषा हमारी जड़े है भटक जरुर गये है पर आयेगे यही |दक्षिण में भी अब हिंदी काफी बोली जाती है और समझी जाती है पिछले तीन साल में मै चेन्नई ,बेंगलोर ,और केरल में रही तो मैंने महसूस किया वहां के लोगो का नजरिया हिंदी के प्रति उतना उदासीन नहीं है जितना प्रचारित किया जाता है |बेंगलोर में रामक्रष्ण मिशन द्वारा सरकारी स्कूल के बच्चो को स्कूल के बाद प्रतिदिन दो घंटे सभी विषयों कि अतिरिक्त कक्षाए ली जाती है उसमेमै उन्हें हिदी पढ़ाती थी मैंने उनमे हिंदी भाषा सीखने कि बहुत ललक देखी हलाकि उनका एक विषय अपनी मात्रभाषा कन्नड़ के साथ हिंदी भी होता है कितु सिर्फ पास होने तक कि पढाई करवाई जाती है शिक्षको द्वारा |आज जरुरत है स्कूल में सही ढंग से हिंदी पढ़ाने कि क्योकि कई बार हिंदी के शिक्षको को मजाक का पात्र बनाकर ही रख दिया जाता है हमारे सिनेमा में और सिनेमा को लोग सच मान लेते है |
टिप्पणी बहुत बड़ी हो गई |
एक बहुत ही जानदार पोस्ट और उतनी ही सार-गर्भित टिप्पणियां। ये हुई ना ब्लौगिंग का असली उदाहरण कि सबने बढ़-चढ़ के हिस्सा लिया और बहस को कई नये आयाम दिये....
ReplyDeleteहिंदी बिल्कुल सही दिशा में जा रही, इन उदाहरणों को देखकर को तो यही लगता है।
बहुत सामयिक और आवश्यक विमर्श! हार्दिक बधाई!
ReplyDeleteओंठों पर मधु-मुस्कान खिलाती, रंग-रँगीली शुभकामनाएँ!
नए वर्ष की नई सुबह में, महके हृदय तुम्हारा!
संयुक्ताक्षर "श्रृ" सही है या "शृ", उर्दू कौन सी भाषा का शब्द है?
संपादक : "सरस पायस"
हिंदी भाषा भारत में राजभाषा के रूप में स्वीकृत है । लेकिन हिंदी आज संपर्क भाषा के रूप में विकसित हो रही है । आज हिंदी कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक और कच्छ से लेकर अरुणाचल प्रदेश तक हर जगह समझी व बोली जा रही है । इतना ही नहीं हिंदी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी अपनी पहचान बना रही है । और यह सरकारी प्रयासों से नहीं बल्कि एक काम चलाऊ भाषा बनकर उभर रही है । एक प्रकार की फंक्शनल (प्रयोजनमूलक) हिंदी, बाजारी हिंदी, उपभोक्ता समाज की हिंदी, जो व्यवहारकर्ता को काम की नजर आती है । हिंदी का यह रूप बहुत संवादमूलक हिंदी है । यह एकतरह से गिटपिटिया हिंदी है । यह एक तरह से तेज गति की हिंदी है, जो अपने पुराने धीमी गति के प्रवाह से मुक्त हो तेजी से मीडिया, फिल्म, टेलीविज़ज में बहुत ज्यादा बोली जाने वाली हिंदी है । इतना ही नहीं इंटरनेट पर और मोबाइल पर भी इसका यह रूप विभिन्न रंगों में देखा जा सकता है । इस कामचलाऊ हिंदी में आजकल लगभग हर भाषा के लोग बात करते हैं और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी इसका प्रयोग व्यापक स्तर पर व्यवह्रत है । इसी कामचलाऊ भाषा में लोग मनोरंजन कर रहें हैं और सांस्कृतिक विरासत की भाषा भी यही कामचलाऊ हिंदी है । इससे पूरा मनोरंजन उद्योग जुड़ा है । विज्ञापन जगत में हिंदी छा चुकी है । हिंदी भाषा में इतनी बड़ी पूंजी का निवेश हो रहा है, वह बड़े पैमाने पर विज्ञापन और कारोबार में पैठ जमाती जा रही है ।
ReplyDeleteइतना कुछ हिंदी में हो रहा है कि हिंदी का भविष्य उज्ज्वल कहा जा सकता है ।
ada di aksar aap jab aise mudde uthati hai to khushi hoti hai aur garv hota hai aap sab par jo videsh me baith kar bhi desh ki parampara,sanskriti aur yaha ki problems k liye chintit hote hai..bahut acchha vishey uthaya hai aapne. kuchh had tak aap ki chinta vazib b hai..ab aap hi dekhiye ek taraf to sarkar ye kehti hai ki sarkari naukriyo ke aavedan k liye hindi subject ka 10th class tak hona anivariye hai aur dusri taraf 9th me aate hi school me hindi ko optional subject kar diya gaya hai. aur bacche chaah kar bhi hindi isliye nahi le pate ki likhna bahut padta hai, maatraao ki galtiyo ki vajeh se no. jyada kat jate hai jis se unki total rank per farak padta hai aur isliye vo hindi nahi le pate.
ReplyDeletekafi jagrukta dekhi ja rahi hai aajkal hindi par. lekin abhi bahut kuchh karne ko baaki hai..aaj hamare desh ka bhavishey apne carrier k liye jyada chintit hai jiski vajeh se english ko adhik upyogi mana jata hai.
jarurat hai ham sab ko apne baccho ko hindi k prati lagaav banaye rakhne ki apni sanskriti se muhobbat karne ki. aaj ek ek kar ke hamare bacche is lagaav ko banaye rakhenge to hi to samaaj banega aur samaaj se raashtr..to bas ham itna hi hak ada kar le ki kam se kam apne baccho ko is farz k liye is sankriti k liye taiyar kare.
भाषाएँ रूप भी बदलती हैं और आती-जाती भी रहती हैं. लैटिन, और देवभाषा संस्कृत कब बोलचाल से निकलकर ग्रंथों में सिमट गयी, किसी को पता ही न चला. गांधीजी की हिन्दुस्तानी आज कहाँ है? यद्यपि ऐसे उदाहरण हैं जब प्रशासन के प्रयासों से मृतप्राय भाषाएँ भी पुनरुज्जीवित हुई हैं, कुल मिलाकर "हिन्दी कहाँ जा रही है" यह सोचने की ज़रुरत के मुकाबले मैं अपने आप को बहुत मामूली समझता हूँ. तकनीक की सरलता ने उन लोगों के लिए भी हिंदी लिखना-पढ़ना आसान कर दिया है जिनका प्रण उतना मज़बूत नहीं था. मगर निष्ठावान लोग तब भी हिन्दी में काम कर रहे थे जब यूनीकोड नहीं था. लेकिन भाषा और लिपि दो अलग-अलग बातें हैं.
ReplyDeleteरही बात आंग्लभाषा की तो "पढ़े फारसी बेचे तेल..." से याद आता है कि आंग्लभाषा से पहले भी आयातित भाषाओं का महत्व देशज भाषाओं से अधिक था, आज कहाँ दिखती है वह फारसी?
भाषा संस्कृति से अलग हैं यह बात कहने के लिए भारत से बेहतर उदाहरण क्या होगा?
bahut saarthak aalekh..
ReplyDeleteबहुत सार्थक व ्सामयिक मुद्दा उठाया है अदा जी, सही है सरलीकरण ही बाज़ार की अति वादिताएं लेकर अता है जो नहीं होना चाहिये । अपनी भाषाअ में सरलीकरण कैसा? सही है राज़्नैतिक द्र्डता की आवश्यकता है । पाठको< की इतनी सारी प्रतिक्रियाएं देख्कर तो हिन्दी क भविष्य अच्छा ही लगता है--
ReplyDeleteये अन्धेरा ही उज़ाले की किरण लायेगा-- बस हमें खुद को सही दिशा मेंलेजाना होगा ।
हिंदी पर आपकी चिंता जायज है .पर मैं इसका भविष्य बुरा नही देखता।
ReplyDeleteइंटरनेट पर भी हिंदी का अभूतपूर्व विकास हो रहा है। इंटरनेट पर हिंदी की कई वेबसाइटें हैं। हिंदी के कई अख़बार नेट पर उपलब्ध हैं।