(यह कविता मैंने उस दिन लिखी थी, जिस दिन मेरे बड़े बेटे ने जन्म लिया था , अस्पताल के कमरे में उस पल चार पीढियाँ विद्यमान थी, नवजात, मेरी नानी, मेरी माँ और मैं , मेरी नानी के मुखारविंद पर जो ज्योति मैंने देखी थी, उसी को शब्द देने का मेरा प्रयास है )
खुरदरी हथेलियाँ,
रामायण की चौपाइयाँ,
श्वेत बिखरे कुंतल,
सत्य की आभा लिए हुए
उम्र की डयोड़ियाँ, फलाँगती फलाँगती
क्षीण होती काया
फिर भी,
संघर्ष और अनुभव का स्तंभ बने हुए
तभी !!
नवागत को,
युवा से लेकर, अधेड़ ने,
बूढ़ी जर्जर पीढ़ी के हाथों में रखा
हाथों के बदलते ही,
पीढ़ियों का अंतराल दिखा
सुस्त धमनियाँ जाग गयीं,
मानसून के छीटों सी देदीप्यमान हो गयीं
झुर्रियाँ आनन की
बाहर से ही मुझे,
चश्मे के अन्दर का कोहरा नज़र आया था,
शायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया था
नवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
हथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और ऊष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं
नवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
ReplyDeleteहथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और उष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं
-बहुत सुन्दर भाव!! अच्छा लगा पढ़कर.
अदा जी,
ReplyDeleteआपकी ये पंक्तियां पढ़ते हुए 4x100 रिेले रेस याद आ गई...उस रेस में किस तरह एक धावक अपने हिस्से के सौ मीटर पूरे होने के बाद हाथ में पकड़ा बैटन टीम के अगले सदस्य को पकड़ा देता है, फिर वो धावक अपने हिस्से की रेस दौड़ता है...ये क्रम चलता रहता है...इसी तरह पीढ़ी-दर-पीढ़ी हमारा जीवन चलता है...
जय हिंद...
वाह अदाजी,
ReplyDeleteपीड़ियों के समागम के साथ साथ भावनाओ के संगम की व्याख्या खूब कही..... :)
हथेली पर चौपाईयां सोखती रही रामायण की ...क्या कल्पना है..
ReplyDeleteउम्र को फलांगती क्षीण होती काया वारिशों को गोड़ में झुलाती वही थम जाती है ...शिकन और झुर्रियां मिटती हुई ...कहते भी हैं मूल से सूद हमेशा प्यारा होता है ....खुशनसीब होते हैं जो एक साथ तीन पीढ़ियों के बीच पलते हैं
3 साल पहले तक जब दादी जीवित थी ...माँ के घर एक साथ चार पीढियां इकट्ठी होती थी...बहुत ही आह्लादकारी पल होते थे ....!!
बूढी पीढी के हाथ मे ही नवागत पीढी निश्चिन्त,निडर रह्ती है . मेरी दादी ने जब मेरी बेटी को गोद मे उठाया था उनके झुर्री दार चेहरे हर जो खुशी थी आज भी आन्खो के साम्ने तैर जाती है .
ReplyDeleteसुन्दर अभियक्ति
चार पीढ़ी...
ReplyDeleteएक साथ एक ही मौके पर..
सोच कर भी मजा आ रहा है ये सब....
और आपकी रचना पढ़ते पढ़ते ना केवल वो द्रश्य जीवंत हो उठा है..
बल्कि नवजात कि गंध भी धीरे धीरे महसूस हो रही ही वातावरण में...
:)
त्रुटि सुधार ......वारिसों को गोद में
ReplyDeleteयह तो हमारे देश भारत की ही संस्कृति है जहाँ चार-चार पीढ़ियाँ एक साथ इकट्ठे होते हैं!
ReplyDeleteअति सुन्दर रचना!
इस रचना को पढ़ कर याद आ गया कि मैं , मेरे पिताजी और मेरे दादा जी एक ही स्कूल में पढ़े हैं, रायपुर के 'शासकीय बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक शाला में'।
'उष्मा' नहीं 'ऊष्मा' - यह शब्द बहुत अर्थ गहन है। अंग्रेजी का कोई समतुल्य मुझे नहीं जँचता।
ReplyDeleteजाने कितने भाव देख रहा हूँ - स्नेह और मातृत्व जब छलकें तो छ्न्द बह जाने चाहिए। बस प्रवाह ..
शायद आप को तुलना ठीक न लगे लेकिन इस कविता पर सैकड़ो गजलें क़ुरबान।
हथेली पर चौपाइयाँ सोखता नवजात - कितनी उदात्तता !
ब्लॉग जगत की एक प्रतिमान कविता है यह।
शायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया था
ReplyDeleteनवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
हथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और उष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं
वाह वाह क्या संयोग चित्रित किया है - चश्मे बद्दूर
गिरिजेश जी भूल सुधार के लिए हृदय से आभारी हूँ.....
ReplyDeleteतभी !!
ReplyDeleteनवागत को,
युवा से लेकर, अधेड़ ने,
बूढ़ी जर्जर पीढ़ी के हाथों में रखा
हाथों के बदलते ही,
पीढ़ियों का अंतराल दिखा
सुस्त धमनियाँ जाग गयीं,
मानसून के छीटों सी देदीप्यमान हो गयीं
झुर्रियाँ आनन की
बाहर से ही मुझे,
चश्मे के अन्दर का कोहरा नज़र आया था,
शायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया
बेहतर ख्याल, अति सुन्दर !!
अदा साहिबा, आदाब
ReplyDelete....उष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं...
एक सुखद अहसास को
सच्चाई के भावपूर्ण शब्दों में
संजोकर पेश की गई रचना
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
नवागत पीढ़ी, निश्चिंत, निडर,
ReplyDeleteहथेली पर, चौपाइयाँ सोखती रही,
रामायण की !!
और उष्मा मातृत्व की लुटाती रहीं,
हम तीनों - नानी, माँ और मैं
तीन पीढियां एक साथ....क्या सुन्दर रचना संसार है.......! बहुत बहुत बधाई !
Bahut sunder....
ReplyDeleteगिरिजेश को कोसता हूँ ,मेरे लिए कुछ छोड़ा ही नहीं .
ReplyDeleteअब मैं किन शब्दों में प्रशंसा करूं इस अप्रतिम कविता का ?
जी.के. अवधिया जी की बात से सहमत हुं. बहुत अच्छी लगी आप की यह रचना, किसी बुजुर्ग के चेहरे पर जब हमारे कारण एक खुशी की लहर आये तो समझो हम ने उन का दिल जीत लिया, उन की आत्मा को खुश कर दिया
ReplyDeletehatheli par chaupaiya sokhthi rahi ramayan ki..... kitni satya hai aapki sooch... samayanusaar kuch parivartan ke alaa sanskar pidi dar pidi sthananthrit hothe hain ..bahut sundar rachna! man ko bhaya
ReplyDeletehatheli par chaupaiya sokhthi rahi ramayan ki..... kitni satya hai aapki sooch... samayanusaar kuch parivartan ke alaa sanskar pidi dar pidi sthananthrit hothe hain ..bahut sundar rachna! man ko bhaya
ReplyDeleteदीदी चरण स्पर्श
ReplyDeleteबहुत ही उम्दा रचना । सभी ने कह दिया सब, इसलिए मैं और कुछ ना कह रहा ।
मातृत्व इससे भी ज्यादा स्निग्ध, ऊष्मीय और स्नेहिल क्या हो सकता है..
ReplyDeleteतभी !!
नवागत को,
युवा से लेकर, अधेड़ ने,
बूढ़ी जर्जर पीढ़ी के हाथों में रखा
जैसे कि एक अबोध किंतु ऊर्जामय भविष्य को वर्तमान ने अपनी गोद से अतीत के सुरक्षित नर्म झुर्रीमय हाथों मे सौंप दिया हो..पीढियों का यह दुर्लभ स्मागम ही समय को निरपेक्ष और अरैखिक बना देता है..
अद्भुत! भाव, भावना और शब्द-शिल्प!
ReplyDeleteऔर हाँ, अभी पढ़ी खुशदीप साहब की टिप्पणी मे रिले-रेस वाली बात बस भावविभोर कर गयी..सच, यही तो है जीवन..हर पीढ़ी अपने सपनों, संस्कारों और अनुभव का बेटन अगली पीढ़ी को सौंप देती है, उसे उससे अगली पीढ़ी तक ह्स्तांतरित करने के लिये..इसी को सभ्यता, संस्कृति कहते होंगे..क्या बात बताई है..हैट्स ऑफ़ है जी!!
ReplyDelete.
ReplyDelete.
.
आदरणीय अदा जी,
बहुत ही खूबसूरत कविता...
मुझे तो अपनी दिवंगत दादी और नानी दोनों की याद दिला गई यह...
इस कविता पर सैकड़ो गजलें क़ुरबान।
आदरणीय गिरिजेश जी से सौ फीसदी सहमत,
आभार!
.........
ReplyDeletelafz
km parh rahe haiN..
nayaab rachnaa
saanskritik dharohar
maanav mn ki
paavan bhaavnaaoN ka
anupam sankalan
abhivaadan .
ada di apki rachna bahut acchhi hai.bahut si yaade taza kar gayi..par dimag khurpaat bhi kar raha hai..aur keh raha hai....
ReplyDeleteYE CHAARO HAAT MUJHE DE DE THAAKURRRRRRRRRRR' mujhe in sab ko chhuna hai. ha.ha.ha.
di. aaj bhi jab ham charo peedhiya apne sasural me ikatthe hote hai to dil ek bahut gehre sukh, sukoon aur khushi se bhar jata hai.
ha.n lekin is baar jab ikatthe honge to aapki ye rachna jaroor yaad aayegi...aur nani k chashme ke peechhe ki vo dhundh samaan bhi kuchh.
फिर से पढ़वाने के लिए धन्यवाद ...
ReplyDeleteअतुल्य रचना
Di salon pahle likhi ye kavita bahut hi uchch koti ki lagi...
ReplyDeleteJai Hind...
कविता अदभुत है ! गज़ल में इसे कहा ही नहीं जा सकता था ! इस कविता की ऊष्मा महसूस रहा हूँ । दूर तक जाता प्रभाव ! आभार ।
ReplyDeleteचश्मे के अन्दर का कोहरा नज़र आया था,
ReplyDeleteशायद, बुझती आँखों में बचपन तैर गया
बेहतर ख्याल, अति सुन्दर !!