मनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर,
चढ़ते-उतरते,
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए,
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,
समाज के, एक वर्ग के लिए,
दूसरा वर्ग,
सदैव ही 'असभ्य' और 'असंस्कृत',
रहेगा...
फिर क्यों भागना
इस 'सभ्यता और संस्कृति',
के पीछे...??
जहाँ तक 'सुरुचि' का प्रश्न है..
वो अभिजात्य वर्ग की,
'असभ्यता' का...
दूसरा नाम है..!!
और उसे अपनाना,
हमारी 'सभ्यता'...??
हाँ नहीं तो !!
उसे अपनाना हमारी सभ्यता नहीं है...
ReplyDeleteअलग दिखने की चाह है, प्यार बरसाओ इतना कि ये तृप्त हो जायें।
ReplyDelete--- मूलतः भ्रमित भाव कथ्य हैं ........
ReplyDeleteमनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर,
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए,
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,
---- सिर्फ चढते हुए का ...उतरते हुए का नहीं ...
--- नियम व परिभाषाएँ प्रत्येक वर्ग के लिए होती हैं .....न मानना असभ्यता है.... किसी वर्ग से असभ्यता का सम्बन्ध नहीं होता ...
--- सुरुचि ही सभ्यता बनती है..तत्पश्चात संस्कृति .... इसीलिये सभ्यता व संस्कृति के गुण गाये जाते हैं...
ghanghor sabhyata baras rahi hai...........
ReplyDeletepranam.
:-)
ReplyDeleteऐसा भी क्या अलग दिखना
ReplyDeleteअपनी अपनी समझ और अपनी अपनी सोच लेकिन कुछ तो है जो सदा अपनी जगह अचल अडिग बस वही शाश्वत .
ReplyDeleteबेहतरीन अभिव्यक्ति, बहुत खूब .....आभार
ReplyDeleteसभ्यता के अपने अपने हिसाब से
ReplyDeleteअलग अलग मायने ....सुन्दर रचना
विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाओं
सहित ...............