न वो चिनार के बुत,
न शाम के साए,
एक सहज सा रस्ता,
न पिआउ, न टेक |
बस तन्हाई से लिपटे,
मेरे कदम,
चलते ही जाते हैं
न जाने कहाँ ।
मिले थे चंद निशाँ,
कुछ क़दमों के,
पहचान हुई,
चल कर कुछ कदम,
अपनी राह चले गए,
फिर मैं और
तन्हाई से लिपटे
मेरे कदम
चल रही हूँ न...
मैं अकेली.. !!
कुछ देर और चलो.....नयी आहटें सुनाई देंगीं...नए राही जुड़ते चले जायेंगे....
ReplyDelete:-)
अनु
साथ कदम की थापें हैं..
ReplyDeleteकभी कभी ज़िदगी में तन्हाई और अकेलापन बेबस कर देता है . सुन्दर मनोंभावों का संयोजन . एकान्तिक क्षणों का सूक्ष्म चित्रण .
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार (14-10-2012) के चर्चा मंच पर भी की गई है!
सूचनार्थ!
भावों को व्यक्त करती सुंदर रचना |
ReplyDeleteइस समूहिक ब्लॉग में आए और हमसे जुड़ें :- काव्य का संसार
यहाँ भी आयें:- ओ कलम !!
बेहतरीन
ReplyDeleteसादर
अद्भुत!
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना, मंजूषाजी।
ReplyDeleteमेरा एक ब्लॉग रोज किसी न किसी काव्य रचना को समर्पित है। आज 22-10-2012 को मैंने आपकी यह रचना साभार अपने ब्लॉग पर डालने की लोभ संवरण नहीं कर सका। कृपया मेरे ब्लॉग saannidhyadarpan.blogspot.com सहित मेरे अन्य ब्लॉग्स पर भ्रमण करें और आशीर्वाद दें। यदि आपको अनुचित नहीं लगे तो टिप्पणी कर दें, मैं ब्लॉग से रचना हटा दूँगा।
भवनिष्ठ
आकुल
आदरणीया
ReplyDeleteक्षमा।
कॉपीराइट की पंक्तियाँ पढ़ीं। अभी प्रकाशित नहीं किया है। आपकी स्वीकृति मिलेगी तभी प्रकाशित की जायेगी।
भवनिष्ठ,
आकुल
Akul ji,
ReplyDeleteAap meri rachna prakashit kar sakte hain.
saadar,
Swapna Manjusha 'ada'
सुन्दर और भावपूर्ण रचना..
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