कोई प्रसंग नहीं,
चिंतन नहीं,
सृजन की भूमिका भी नहीं,
न कोई योग बना,
न कुछ प्रत्यक्ष हुआ,
बस, अंतस के अकाल पर,
शब्दों के बूँद,
झमा-झम बरस गए,
और...
पंक्तियाँ गुनगुनाने लगीं,
तीसरी पंक्ति,
उषा सी, क्षितिज पर,
चटक गयी...।
तक्षशिला के खंडहर बने
थोड़े शब्द,
उदास थे,
कुछ दूर खड़े थे,
कुछ मेरे आस-पास थे,
बैठे-बैठे, अंतिम पंक्ति,
स्वयं निकल आई,
मूक तो लगी थी मुझे वो,
परन्तु..
अब धीरे-धीरे बोलने लगी है .... !!
बढ़िया कविता...
ReplyDeleteबढ़िया प्रस्तुति |
ReplyDeleteआभार आदरेया ||
खंडहर रहें, फिर भी तो कुछ कहते हैं..
ReplyDeleteसुंदर अभिव्यक्ति ..
ReplyDeleteबेहतरीन
ReplyDeleteसादर
’सैंडी’ से पहले का मंजर है या बाद का? :)
ReplyDeleteअब सैंडी से पहले की हो या बाद की, क्या फर्क पड़ता है ....आंधी तूफ़ान के नामकरण तो आजकल औरतों पर ही हो रहे हैं।
Deleteसैंडी, नीलम से आप लोग वाकिफ हो चुके, अगले तूफ़ान का नाम क्या हो कौन जाने , शायद 'अ .. :)
खूब खंडहर!
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