Saturday, November 20, 2010

हमारी कुप्रथाएं ...


आज कल जीव हत्या पर काफ़ी बातें हो रहीं है...मैं भी जीव हत्या की भरपूर भर्त्सना करती हूँ और खुल कर इसका विरोध भी करना चाहूँगी.....
बलि की प्रथा आज की नहीं है ..यह सदियों पुरानी है और यह प्रथा हर धर्म में है...चाहे हिन्दू धर्म हो, इस्लाम या ईसाई...हर धर्म में इस कुप्रथा को अपने ईष्ट को प्रसन्न करने के लिए अपनाया गया है..बाईबल में अब्राहम का ही उदाहरण लें ..उसने ईश्वर को ख़ुश करने के लिए अपने छोटे बेटे की बलि देनी चाही...बलि देने से पहले ही ईश्वर प्रसन्न तो हुए लेकिन उनको बलि चाहिए ही थी इसलिए झाड़ियों के बीच फंसा हुआ एक नीरीह मेमना नज़र आया..जिसे झाड़ियों से निकाला गया और अंततोगत्वा उसकी बलि देकर अब्राहम ने ईश्वर के आदेश से अपना प्रण पूरा किया....
अब सोचने वाली बात ये है कि उस मेमने का क्या कसूर था ?

आज भी आप किसी भी गिरजा घर में प्रार्थना में सम्मिलित हों तो ...ईसा मसीह की देह और उनका रक्त ही सांकेतिक प्रसाद स्वरुप लोग ग्रहण करते हैं...ये चीज़ें बेशक सांकेतिक रूप में रोटी और रेड वाईन के रूप में ली जाती है ...परन्तु बात तो माँस और रक्त की ही होती है...

मंदिरों में आज भी लोग बलि तो देते ही हैं...अब चाहे वो किसी पशु की बलि हो या फिर नारियल तोड़ कर ...नारियल तोड़ना बेशक एक सांकेतिक प्रकिया है परन्तु उसका आशय बलि देना ही है...हाँ अच्छी बात कह लें इसे कि इस काम में किसी की जान जाती हुई नज़र नहीं आती है...

हत्या हम सभी हर दिन, हर पल करते हैं...हमारा भोजन ही ले लें ...चावल-दाल, सब्जियां, पनीर, दूध, दही, मक्खन, ये सभी खाद्य पदार्थ जीते-जागते पौधों से ही आते हैं...बस उनका खून लाल नहीं होता....हाँ, इनकी हत्या से हृदय आंदोलित नहीं होता क्योंकि ये हमारी तरह, ना तो चलायमान हैं, नहीं ही रुधिर का ह्रास  दिखता है, ना ही इनकी आँखों में वो दर्द छलकता है...परन्तु जीवित रहने के लिए कुछ खाना तो है ही...साथ ही श्रृष्टि को भी चलना है....और एक सीमा भी तय किया जाना चाहिए कि आख़िर 'हत्या' किसे कहा जाए..?

हमारा परिवेश, हमारी समझ और हमारा समय बदल रहा है...हम पहले जैसे अब नहीं रहे...वैसे जितनी भी प्रथाएं आज तक प्रचलित रहीं हैं...वो सभी किसी न किसी घटना से शुरू हुई हैं...और हम ये ना भूलें, हर घटना के पीछे कई कारण होते हैं, मसलन काल, परिवेश और व्यक्ति विशेष....उस समय जो उबलब्ध था और जैसी समाज की प्रवृति थी वही किया गया...बहुत पुरानी बात भी नहीं है, जब नर-बलि तक की प्रथा थी, सती-प्रथा थी...इन सबके पीछे हमारे समाज की प्रवृति और उस समय का माहौल ने ही काम किया होगा...हाँ, अब हमारा समाज ज्यादा सभ्य, मुखर और संवेदनशील है...इसलिए हम अपनी संवेदना व्यक्त कर पाते हैं...साथ ही अपने अनुसार अपना जीवन चलाने के योग्य हैं...हम अब धर्मभीरु नहीं हैं...लेकिन आज से कुछ साल पहले तक, हमारे अपने जीवन की बागडोर वस्तुतः दूसरों के हाथों में होती थी...अक्सर सारे काम अपने लिए कम हम दूसरों के लिया ज्यादा करते थे...अब वो हमारे बुज़ुर्ग हों या हमारे धर्माधिकारी ....

ख़ुशी की बात यह है कि अब समाज का हर व्यक्ति मानसिक रूप से ज्यादा सशक्त, विचारों से व्यापक और समझदार हो रहा है...अच्छे -बुरे की न सिर्फ़ पहचान कर पाने में हम सक्षम हैं अपितु उसे अपने जीवन में लागू करने में भी समर्थ हैं...
इस तरह की बलि प्रथा हमने तो देखा है लेकिन हमारे बच्चे उतना नहीं देख रहे हैं इसलिए ...आगे आने वाली पीढ़ी इनको नहीं ही अपनाएगी...जिस तरह, नर-बलि, सती-प्रथा का अंत हो चुका है उसी तरह पशु-बलि की प्रथा भी अब लुप्तप्राय ही है इसलिए यह कुप्रथा बहुत ज्यादा चिंता का विषय भी नहीं है...मेरा ऐसा मानना है...आप क्या सोचते हैं..?



13 comments:

  1. aapne bilkul sahi kaha hai. bina kisi karan ke kisi bhi prani ka jaan lena anuchit hai. janwar to bejuban hote hai. wo apna dukh dard kisi se kah nahi sakte. isliye wo sabhi insaan ke asan shikar hote hai. shayad yahi wajah rahi hogi janwaro ki bali dene ka.

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  2. अदा जी अपने लिखा आप बलि प्रथा का विरोध करती हैं. मैं खुद भी बलि प्रथा का विरोध करता हूँ चाहे वो हिन्दुओं में हो या किसी और धर्म में पर मैं मांसाहार का विरोध नहीं करता. अब ये अजीब सी बात लग सकती है की बलि का विरोध पर मांसाहार का समर्थन.

    देखिये अगर आप मानव को एक पशु ही माने जो की असल में वो है ही तो इसे किस श्रेणी में रखेंगी शाकाहारी या मांसाहारी. मानव में दोनों गुण हैं. मानव असल में सर्वाहरी श्रेणी में रखाजता है यानि की वो मांस और शाक दोनों का भक्षण कर सकता है. ये दोनों ही उसके भोजन हैं.

    जहाँ तक पशुओं को बलि देने की बात आती है तो मैं इसे अनावश्यक मानता हूँ. बिना जरुरत के मानव को छोड़ कर कोई भी दूसरा मांसाहारी पशु बेवजह दुसरे जानवरों को नहीं मरता. इसलिए मैं बलि प्रथा का विरोध करता हूँ.

    इसके अलावा दूध को मांसाहार कहो या शाकाहार वो हर मानव के लिए जरुरी है. विषाणु जीवाणु के स्तर तक मांसाहार या शाकाहार की दलील ले जाना मैं ईश्वर द्वारा इन्सान को दी गयी बुद्धि का दुरुपयोग मानता हूँ.

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  3. @ अदा जी ! क्या आप रचना जी की अपील से सहमत नहीं हैं ?
    आख़िर हिंदू कहलाए जाते वाले लेखकों में वह कौन सा सुर्ख़ाब का पर टंका है कि वह इस्लाम की , खुदा की शान में गुस्ताख़ी करने के लिए आजाद है लेकिन कोई मुसलमान उसका जवाब दे तो उस पर ऐतराज किया जाए ।
    क्या जागरूकता और निष्पक्षता इसी दोग़लेपन का नाम है ?
    मनु स्मृति में कहा गया है कि विधि से काटे गए पशु का मांस ही खाने योग्य है विधि रहित मांस कभी नहीं खाना चाहिए !
    विधि है हलाल करना क्योंकि जानवर को इसमें कोई कष्ट नहीं होता । 'हमारी अंजुमन' ब्लाग पर वैज्ञानिक प्रमाण देकर सिद्ध कर दिया है कि इस्लाम सरासर रहमत है सबके लिए , जानवरों के लिए भी ।
    प्राचीन आर्य शहद और मांस आदि का भरपूर सेवन करते थे और वे धर्म का पालन करने वाले आदर्श व्यक्ति माने जाते हैं . दशरथ जी और राम जी का शिकार खेलना जग प्रसिद्ध है ही । ऐसे में उनके भोजन को घृणित क्यों मान लिया गया ?
    इस पर विचार किया जाना चाहिए ।
    2- आज भी देश की नीतियाँ बनाने वाले और सीमाओं की रक्षा करने वाले अधिसंख्य हिंदू मांसाहारी हैं । मांसाहारियों को अधम, पापी और राक्षस कहना प्राचीन हिंदू आदर्शों के साथ साथ आपने वर्तमान हिंदू सैनिकों का भी अपमान करना है जिनकी वजह से आज हम अपने घरों में महफ़ूज़ हैं ।
    यह घोर कृतघ्नता है ।

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  4. .आगे आने वाली पीढ़ी इनको नहीं ही अपनाएगी...!!!

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  5. जीभ के तुष्टीकरण के लिये हिंसा को महिमामंडित करने वालों को कोई रंज नहीं होना चाहिये जब अहं के तुष्टीकरण के लिये लोग देश के देश रौंद डालते हैं।

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  6. जिस विषय में मैंने अपनी खुद की धारणा ना सुनिश्चित कर पाई हो उस पर क्या कमेन्ट करूं ?

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  7. अरे आजकल तो सब जगह अच्छे और सही विषय पर चर्चा हो रही है | लेकिन अनवर भाई पता नहीं क्यूँ दिल पर लेकर बैठ गए है कि उनके धर्म पर ही ऊँगली उठाई जा रही है |
    मेरे प्यारे हास्य लेखक अनवर महोदय
    हम तो बलि प्रथा का विरोध कर रहे हैं चाहे वो किसी भी धर्म में हो अब देखिये न भारत के कितने मंदिरों में भी बलि दी जाती है वो भी तो हमारी गिनती में शामिल है अब यहीं देखिये अदा जी ने तो तस्वीर भी मंदिर कि ही लगायी है | आप ख्वामखाह ही साड़ी बातें अपने धर्म पर ले लेते हैं...
    और आप क्या बार बार राम, कृष्ण लेकर बैठ जाते हैं उन्हें जो करना था वो तो कर के चले गए...
    हमारा तो फ़र्ज़ ये है कि हम अपने विवेक का उपयोग करें और सही-गलत खुद समझें न कि ग्रंथों और कुरआन को पढ़कर....

    और आप भी अजीब हैं, जानवरों को मार भी रहे हैं और ये भी कह रहे हैं कि उन्हें कष्ट नहीं होता... अरे भाई साहब आपने उसकी जान ले ली......

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  8. जब प्रकृति अपना खेल खेलेगी .. और ऐसी प्रजातियाँ जिनका मॉस सब खाते हैं लुप्त हो जाएँगी तो प्रथाएं अपने अप बदल जाएँगी ....

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  9. sab prathyen insaan ne hi banayee hai.. jaise-jaise shiksha ka vistar hoga log swayam hi samjhne lagte hai... kuprathon hamesha nahi rah sakti main to yahi kahungi...
    bahut achhi jangagrati bhari prastuti

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  10. आपका नजरिया वाकई बहुत ब्रॉड है।

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  11. .
    हर जगह मानव के अँतर में निहित पशुत्व की बलि माँगी गयी है, पर वह इसे बचा कर बल्कि अपने पशुत्व को और भी जागृत कर किसी निरीह पशु की बलि देकर सँतुष्ट हो लेता है ।
    शनैः शनैः यह ज़ाहिलियत गायब होती जायेगी ।
    वैसे तो जड़मति हर युग में रहेंगे, फिर भी..
    ज़ायके से अधिक आदमी की ज़रूरत से शाकाहार और माँसाहार जुड़ा हुआ है,
    सभ्य होने तक उसे आखेट का चस्का पहले ही लग चुका था,
    दूसरे, खानपान की रीतियाँ स्थान विशेष के सँसाधनों पर भी निर्भर है,
    भला किसी साइबेरियन या एस्किमो से पूर्ण शाकाहारी हो जाने की अपेक्षा करना मूर्खता नहीं तो क्या है ?

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  12. अभी तक visible after approval ?
    ओह ! यह शर्त टिप्पणी दे चुकने के बाद दिखती है !

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  13. हम तो पूर्ण शाकाहारी हैं ...इसलिए ये कहेंगे कि जबतक हमारे पास मांस खाने के अतिरिक्त भी विकल्प हैं , इसे खाने की क्या आवश्यकता है ...वो चाहे किसी भी धर्म , संप्रदाय के हों ...
    मगर विशेष परिस्थितियों में जहाँ शाकाहार उपलब्ध नहीं है , जीवो जीवस्य भोजनं के अलावा और विकल्प भी क्या है ... !

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