Wednesday, March 31, 2010

परदे के पीछे पर्दानशीं है.............माइकल जैक्सन का भूत


हमारे पड़ोस के राज्य क्यूबेक में मुस्लिम औरतों के नकाब पहनने पर पाबन्दी लगा दी गयी है, जो एक अच्छी पहल है,  यह हर तरह से अच्छी शुरुआत है, दिनों दिन बुर्के के भी फैशन में इज़ाफा ही हुआ है, बहुत अजीब से बुर्के लोगों की नज़रों से किसी को बचाते नहीं हैं बल्कि ध्यान आकृष्ट ही करते हैं..

कहते हैं पर्दा प्रथा और गोदना की शुरुआत भारत में मुगलों के आने के बाद हुई थी, उसके पहले यहाँ औरतें पर्दा नहीं किया करतीं थी, इस प्रथा के शुरू होने की वजह धार्मिक नहीं थी, यह सिर्फ बहु-बेटियों को मुग़ल सैनिकों की बुरी नज़रों से बचाने के लिए किया गया, गोदना का सहारा लिया गया था चेहरे को कुरूप बनाने के लिए जो कालांतर में, एक कला के रूप में स्थापित हुआ, और पर्दा का उपयोग युवतियों और महिलाओं ने स्वयं को छुपाने के लिए किया था ..

पर्दा का अर्थ पर्दा ही होना चाहिए, ममी बन कर नहीं रहना चाहिए, पूरे शरीर को ढँक कर मात्र आँखों को भी सही तरीके से नहीं खुला रखना खतरनाक भी होता है, इस तरह के पहनावे से दुर्घटना भी हो सकती है,  इस पर पाबन्दी लगाना सही माना जाएगा, और फिर क्यूँ न हो नेशनल सिक्यूरिटी के लिए जब सभी अपनी पहचान अपने चेहरे से कराते हैं तो मुस्लिम औरतें क्यूँ नहीं करेंगी, उनका भी ये कर्तव्य हैं और देश का अधिकार की उन्हें वाध्य किया जाए इसे त्यागने के लिए , हम जिस देश में रहते हैं उस देश का  कानून भी मानते हैं, और कानून सबके लिए बराबर होता है...

वैसे भी यह दोहरी मानसिकता है,  जब पासपोर्ट बनवाना होता है तब फोटो खिंचवाई जाती है, परीक्षा में फॉर्म भरना है तो फोटो खिंचवाई जाती है, ड्राइविंग लाइसेंस, citizenship कार्ड, वोटिंग के लिए, बैंक में खाता खोलने के लिए, हेल्थ कार्ड के लिए भी फोटो की आवश्यकता होती है, कहीं भी नौकरी करने के लिए भी आई. डी. चाहिए ही चाहिए, अपनी सहूलियत  के लिए धर्म को तोड़ा-मोड़ा जाता है, तब धर्म की मान्यताओं को ताख़ पर रख दिया जाता है, ओसामा बिन लादेन और साथी हर बार विडियो फिल्म निकाल कर भेज देते हैं, क्या फोटो खिंचवाना, विडियो बनाना धर्म  में जायज़ है , अगर नहीं तो इतने सारे लोग जो फोटो खिंचवा रहे हैं, और जो धर्म के कर्णधार हैं उनका क्या होगा.. ?
कनाडियन सरकार के इस कदम का हम सब तहे दिल से स्वागत करते हैं....अति हर चीज़ की बुरी है...इस नकाब ने भी अति कर दी है.... 


एक घटना यहाँ बताना चाहूंगी, हमारे यहाँ citizenship लेने का समारोह चल रहा था, बहुत लोगों को नागरिकता का प्रमाणपत्र दिया जा रहा था, संतोष जी को भी यहाँ की नागरिकता मिल रही थी, मैं भी वहीं थी, यह समारोह कुछ ख़ास ही था इसलिए कई मंत्री भी आये हुए थे और पूरा प्रेस भी था, ज़ाहिर सी बात हैं फोटोग्राफ्स भी लिए जा रहे थे, कनाडा में वैसे भी बिना इजाज़त किसी की भी तस्वीर लेना कानूनन जुर्म है, तस्वीर लेने से पहले पूछा गया, जो भी नहीं चाहता कि उसकी तस्वीर ली जाए कृपा करके हाथ उठाएं, पूरे पांच सौ लोगों में एक ही हाथ उठा था , वो भी पूरा ढंका हुआ, यहाँ तक की हाथों में भी दास्ताने थ, उस महिला के बुर्के में सिवाय आँखों के पास की खिड़की के और कुछ भी नहीं खुला था...उसकी तस्वीर लेकर अगर उसके पति को भी दिखाई जाती तो वो किसी भी हाल में नहीं पहचान पाता, लेकिन उसी महिला को नागरिकता के कार्ड के लिए फोटो खिंचवाने में कोई आपत्ति नहीं हुई, न जाने यह फोटो कितने गैर मर्दों के हाथों से होकर आई होगी,  और सबसे बड़ी बात ऐसा करके वो सबकी नज़रों में और आ गई, जबकि शायद अगर वो ऐसा न करती तो कोई भी उसकी तरफ ध्यान नहीं देता, नागरिकता के कार्ड पर उसका फोटो लगा हुआ था, ये दोहरी मानसिकता  है...वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे उसकी इस मूर्खता पर विद्रूप सी हंसी आ रही थी...

जैसा कि आप सभी जानते हैं माहौल ही शक़-ओ-शुबह का हो गया है, और जब बात देश की सुरक्षा की आती  है तो बाकी सभी बातें बेमानी हो जातीं हैं, इसलिए कनाडियन सरकार ने प्रशंसनीय काम किया है..

एक बार इस पर्दा या बुरका के बारे में विचार करते हैं, क्या सचमुच पर्दा को पर्दा के विचार से अपनाया गया था...मुझे नहीं लगता, अब ज़रा आप उन देशों की भौगोलिक स्थिति देखिये, कितनी गर्मी, रेगिस्तान, धूल के तूफ़ान, पानी की किल्लत, जिस जगह और जिस ज़माने में इसे अपनाया गया था इसकी वजह हर हाल में भौगोलिक और प्राकृतिक नज़र आती है, वर्ना पुरुष भी ऐसे कपडे क्यूँ पहनते, लम्बे लबादे से, सर पर कपड़ा, और सर के कपड़े को सर पर टिकाये रखने के लिए भारी सा  रिंग...यह सब कुछ धूप, गर्मी और धूल की आँधी से बचने के लिए और शरीर की सुरक्षा के लिए था, पानी की  किल्लत की वजह से सर पर साफा बाँधा जाता था जिससे बाल जल्दी गंदे न हों धूल  की आंधी में और आँखों को धूल से बचाया जा सके, इसके लिए चेहरे पर हिजाब डाला गया हो, पानी की इतनी ज्यादा किल्लत थी कि रोज नहाना संभव ही नहीं था, बुरका, या लबादा पहनना वहां के लोगों के लिए environmental ज़रुरत थी न कि धार्मिक ज़रुरत, जिसे बाद में धार्मिक रूप दिया गया है, इन्सान अपना रहन-सहन अपने परिवेश के अनुसार करता हैं, जो भी उपलब्ध होता है उसे ही उपयोग में लाता है, और याद रखिये आप जो भी पहनते हैं उसकी फिर आदत भी हो जाती है तब आप उसे जल्दी से छोड़ना भी नहीं चाहते हैं, आपके अपनों को आपको उसी तरह के लिबास में देखने की आदत हो जाती है इसलिए आप भी उसी परिधान के साथ चिपके रहते हैं,  आप ज्यादा स्वाभाविक महसूस करते हैं...

ये सारे निर्णय 'उस समय' की परिस्थिति के अनुसार लिए गए थे, जिसे बाद में धर्म का जामा पहनाया गया, वैसे भी किसी से कुछ भी मनवाना है धर्म का नाम लीजिये वो तुरंत मानेंगे, हिन्दू धर्म की सारी कुरीतियाँ इसका उदाहरण बन सकती हैं....

हर समाज में लोगों को अनुशासित करने के लिए धर्म का सहारा लिया जाता है, और इसमें कोई बुराई नहीं है...बुराई तब आती है जब इसे कट्टरपंथ का रूप दिया जाता है ...और इसका इस्तेमाल प्रगति को रोकने के लिए किया जाता है, धर्म को तोड़-मरोड़ कर फायदे के लिए इस्तेमाल करना गलत बात है फिर चाहे वो कोई भी धर्म क्यों न हो.....

और अब ये भी देखें...
सुना है माइकल जैक्सन का भूत CNN कर एक Interview के दौरान Neverland में नज़र आया...या कैमरे में भी क़ैद हो गया है देखिये ज़रा....

Tuesday, March 30, 2010

फिर एक घाव उसने और लगाया है...


आज फिर उसने मुझको रुलाया है
रूठे हुए थे हम वो मनाने आया है

ज़ख्मों पे पपड़ी सी कुछ जमी हुई थी

नाखून से कुरेद कर उसने हटाया है

दिल के क़तरनों के पैबंद बना कर
हमने भी कई
ज़ख्म सबसे छुपाया है

मरहम धरने की नई साज़िश रचा 

एक और घाव उसने फिर लगाया है

महबूब भी है खौफ़-ए-रक़ीब भी है  
मेरे ही ज़ख्मों से मुझको सजाया है



Monday, March 29, 2010

हर्फों की तल्ख़ तासीर से इंसा बदल जाएगा.....


सोचा न था के तू इस क़दर बदल जाएगा
अब के जो गया है तो लौट कर न आएगा
 
परवाज़ लौट आये पर इनका क्या भरोसा
कब तक ये रुकेंगे अब मौसम ही बताएगा

मेरे घर में रह रही है बेघरी कई दिनों से

जाए के अब रहे ये पर तमाशा तो हो जाएगा

सुलझे हुए दिखे हैं उलझे हुए से बन्दे
उलझे हुओं की सुलझन में तू उलझ जाएगा
  
सागर की प्यास का तुम्हें इल्म ही कहाँ है
कभी अश्क पी के देखो सब पता चल जाएगा 

बस तंज कस दिया न सोचा फिर पलट के 
हर्फों की तल्ख़ तासीर से इंसा बदल जाएगा 



सवेरा ...


दूर क्षितिज में सूरज डूबा
साँझ की लाली बिखर गयी
रात ने आँचल मुख पर डाला
चाँद की टिकुली निखर गयी
ओस की बूँदें बनी हीरक-कणी
जब चन्द्र-किरण भी पसर गयी
तारे टीम-टीम मुस्काते नभ पर
जुगनू पूछे जुगनी किधर गयी ?

एक रात मेरे जीवन में आई
उसमें ऐसा कुछ कहीं न था
न साँझ की लाली ही बिखरी
चाँद का टीका सजा न था
न उम्मीद की किरण नज़र आई
विश्वास का तारा दिखा न था
आंसू के सैलाब बहे थे और
जुगनू-जुगनी का पता न था

बरस पर बरस बीत गए
पर वो रात तो जैसे ठहर गयी
युग बीते न जाने कितने
और लगता था एक पहर गयी
न जाने किस भावः ने कब
किस भावः से मेरे झगड़ गई
इक चिंगारी फूटी कहीं
और शोला बन वो लहर गई

अब भी रात वहीँ ठहरी है
पर बहुत उजाला लगता है
किरण-किरण से जुड़ जाते हैं
उम्मीद सुनहरा लगता हैं
चाँद का टीका भूल गई मैं
विश्वास तिलक सा लगता हैं
जीवन सी बस जी उठी मैं
हर साँस सवेरा लगता है

Saturday, March 27, 2010

जाने क्या है ये.....


जाने क्या है ये !
मुझे सताने का मंसूबा
या तुम्हारी जीतने की जिद्द,
जो सारे दरवाज़े 
बंद कर देते हो 
छोड़ देते हो मुझे
अकेला...!
छोटी सी नाव में
बिन पतवार ;
बीच समुन्दर में ,
और तब 
कोई रास्ता नहीं रह जाता !
सिवाय नाव पलट कर, डूब जाने के....




तन्हाई, रात, बिस्तर, चादर और कुछ चेहरे....

तन्हाई, रात, 
बिस्तर, चादर
और कुछ चेहरे,
खींच कर चादर
अपनी आँखों पर
ख़ुद को बुला लेती हूँ
ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी 
और ख्यालों से 
दोस्ती 
जिनके हाथ थामते ही 
तैर जाते हैं
कागज़ी पैरहन में 
भीगे हुए से, कुछ रिश्ते
रंग उनके
बिलकुल साफ़ नज़र 
आते हैं,
तब मैं औंधे मुँह 
तकिये पर न जाने कितने 
हर्फ़ उकेर देती हूँ
जो सुबह की 
रौशनी में
धब्बे से बन जाते हैं....



Friday, March 26, 2010

It happens only in India कहना पड़ता है....

आज पाबला जी से बात हो रही थी ...चैट पर,  उन्होंने एक विडियो भेजा....मुझे इतना पसंद आया कि लगा आपलोगों को नहीं दिखाना गुनाह हो जाएगा...





It happens only in India कहना पड़ता है :)

Thursday, March 25, 2010

घो घो रानी कितना कितना पानी....



बहुत दिनों से ये गीत याद आ रहा है जो हम बचपन में गाया करते थे...
बरसात के दिनों में  मखमली लाल रंग का कीड़ा (कीड़ा कहते हुए भी बुरा लग रहा है वो इतना खूबसूरत होता है ) को देख देख कर हम गाया करते थे .... 

घो घो रानी कितना कितना पानी....
इसके आगे का अगर आपको पता है तो बता दीजिये...

एक दूसरा गीत था...
दस बीस तीस चालीस पचास साठ सत्तर अस्सी नब्बे सौ...
सौ में लगा धागा चोर निकल के भागा राजा की बेटी सोती थी, फूल की माला गुंथी थी..धाम-धूम घोड़ा.....
उसके बाद का मुझे याद नहीं है...

एक और भी था....जो हम गुल्ली-डंडा खेलते वक्त डंडा से दूरी नापते वक्त कहते थे...
एडी दुड़ी तिड़ी चौवा चंपा सेख सुतेल....
आगे का मुझे याद नहीं...

एक ये वाला था..
ऐ बी सी डी ई ऍफ़ जी ..उससे निकले पंडित जी ..पंडित जी ने .....
इसके आगे आप बताएं...
आज आप लोगों से यही अपेक्षा है...वो सारे गाने जो हम बचपन में गाते थे अगर याद हैं तो आज लिख ही डालिए इसी बहाने ये एक जगह संकलित भी हो जायेंगे और....हम अपने बचपन को भी याद कर लेंगे..
क्यों क्या ख़याल है  ???


मयंक की चित्रकारी :



उसका अहसास...


रिश्तों का 
कारोबार 
चलता ही है 
अहसास के 
सिक्कों से
जज़्बात के गुँचे 
खिले नहीं कि 
मोहब्बत परवान
चढ़ गयी
फिर जलने लगे
दिलों में 
दर्द के दीये 
बातें, गुस्सा और कभी रूठना
वो उसका दूर चले जाना
फिर
पहले से भी ज्यादा क़रीब आना
जैसे
कोई हाई जम्प से
पहले कुछ क़दम पीछे
जाता है 
और हर बार एक नई ऊँचाई
पाता है
ऐसा ही कुछ
वो भी कर रहा है 
मैं रोक नहीं पा रही  
उसका अहसास 
दिल का एक
और
कमरा भर रहा है .....

मयंक की चित्रकारी :

Wednesday, March 24, 2010

'नीम हकीम ख़तरा-ए-जान' .....

 
एक  कहावत पढ़ी थी...
'नीम हक़ीम ख़तरा-ए-जान' बचपन से इसका मतलब यही जाना कि जिसे आधा ज्ञान हो उससे खतरा होता है, अंतरजाल खंगाल डाला  तो कहीं मिला:
नीम हक़ीम ख़तरा जान (A little knowledge is a dangerous thing.)
कहीं मिला :

Neem Hakeem = Means = A physician lacking in full knowledge of his profession OR A half baked physician . Khatra - e - Jaan = Means = Danger ...

लेकिन हर बार मुझे लगा कहीं कुछ ठीक नहीं है, कहीं हम उस बेचारे हक़ीम के साथ तो ज्यादती नहीं कर रहे, काफी जद्दो-ज़हद के बाद मुझे इसका असली मतलब समझ में आया है,

खैर, तो मैंने जो 'नीम हक़ीम ख़तरा-ऐ-जान' का सही अर्थ समझा है, सोचा आपलोगों को भी बता ही दूँ, क्योंकि आइन्दा आप भी तो यही इस्तेमाल करेंगे....और मेरे हिसाब से यही इसका असली अर्थ भी है,
वो है:

वो हक़ीम जो नीम के पेड़ के नीचे सो रहा है, उसकी जान को ख़तरा है.......

अब आप सब बताइए यही सही अर्थ है या नहीं ??????

मयंक की चित्रकारी :

और अब एक गीत...'अदा' की आवाज़ में..
गला थोड़ा खराब है...बुरा न मानियेगा...

कुछ बुलबुले....


कुछ बुलबुले
कुछ बुलबुले देख कर
ख़ुश हो जाती हैं 
ज़िन्दगानियाँ
भूल जाते हैं कि 
जब ये फूटेंगे तो 
क्या होगा !
हाथ रिक्त
आसमाँ रिक्त 
रिक्त सा जहाँ होगा


देवता
कहते हैं  !
तुम काम क्रोध छोड़ दोगे तो
देवता बन जाओगे
काम क्रोध छोड़े हुए
कोई देवता देखा नहीं !

पीर पीर
पोर पोर में पीर है
और पोर पोर में पीर
पीर पोर पोर की जाई प्रभु
और पीर पोर पोर बसी जाई....

Monday, March 22, 2010

बाप का जूता.....





उसकी उम्र मात्र १५ वर्ष की थी, अपने पिता की अर्थी को काँधा देते वक्त वो  बिलख-बिलख कर रो पड़ा, लोग अभी तक कह रहे थे क्या कलेजा पाया है बच्चा,  एक बूँद आंसू नहीं टपकाया है, एकदम 'बज्जर कलेजा' है इसका, कोई और होता तो  उतान हो गया होता, लेकिन वाह रे खेदना मान गए हैं तुमको, सब बहुत खुश थे  कि लड़का दुःख झेल गया है, अब सयान हो गया है, कलेजा होवे तो खेदना जैसा  होवे....
 

लेकिन उसका बिलखना देख सबको अपनी बात झूठ होती नज़र आ रही थी,   और अब सब उसे समझाने में लगे थे 'अरे नहीं बाबू, तुमको रोना शोभा नहीं देता, मरल  आत्मा को आउर काहे मार रहे हो, सम्हारो अपना को, अभी तो ई सुरुआत है,  अभिये से जी छोट करोगे तो आगे का होवेगा ???
 

मृत्युभोज के लिए खाने पर बैठी पंगत के आगे खेदना को खड़ा किया गया, चारों तरफ से सबकी निगाहें उसकी देह बींधती जा रही थीं ,  लग रहा था जैसे कोई मेमना फँस गया हो भेड़ियों  के गिरोह में, 
 
पंडित जी कह रहे थे.... 'अरे खेदना, एक ठो खाट, रजाई, गद्दा, चद्दर, धोती, साड़ी, जाकिट,  ५ ठो बर्तन, चाउर-दाल, कुछ दछिना और बाछी दान में नहीं देते तो तुम्हारा बाप, यहीं भटकते रह जाता...उसका मुक्ति ज़रूरी था ना...ई मिरतुभोज भी बहुते जरूरी है... पुरखा लोग को भी तारना होता है भाई ...चलो अच्छा हुआ सूद में पैसा उठा लिए  हो....अब कल से महाजन के हियाँ काम पर लग जाओ....बेटा का ईहे तो फरज है, येही वास्ते न लोग-बाग़ बाल बच्चा करता है, अरे तुम्हरा बाप का तकदीर नीमन था जो एगो बेटा जना...नहीं तो मुक्ति कहाँ मिलना था उसको....हमलोग बहुते खुस हुए हैं तुमसे....अब एक काम करो, तुम एतना बड़ा तो अब होइए गए हो, अब तुम जरा अपना बाप का  जूता पहन लेवो तो ...!!
 

खेदना ने कातर नज़रों से पंडित जी को देखा ...लेकिन इनकार की कोई गुंजाइश  नहीं थी...

पंडित जी हुलस कर बोले 'अरे पहिनो न...सुनाई नहीं पड़ रहा है  का,...पहिनों...बुड़बक कहीं का  !!!''
 

चमरौंध जूता में पाँव डाल कर खेदना फुसफुसाया 'ई तो बहुते ढीला है '
 

अरे तो का हुआ...हो जाएगा ठीक ...दो-चार साल में...हाँ और अब बोलो सबके सामने, हम अपना बाप का जूता पहिन लिए  हैं....बोलो.....अरे बोलो न भकचोंधर कहीं के ...बोल !!
 

खेदना आंसू भरी नज़रों से सबको देखता रहा...शब्द स्फुटित नहीं हुए....
 

पंगत में बैठे सभी लोगों ने समवेत स्वर में कहा .... 'अरे खेदना एतना का  फुटानी मार रहा है ...बोलता काहे नहीं है, बोलो ...अब हम अपना बाप का जूता पहिन लिए हैं '
 

इतनी सारी आवाजें शीशे की तरह कानों में जमने लगीं थी खेदना के..कहीं कान ही न बंद हो जाए...घबराया हुआ खेदना जोर-जोर से बोलने लगा 'हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं ....हम  अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं.....हम अपना बाप का जूता पहिर लिए हैं '
न जाने कितनी बार वो बोलता ही चला गया ...


अब सभी लोग आश्वस्त होकर पत्तलों में पिल पड़े ..

पंडित जी ख़ुश थे ये सोचकर कि चलो, कल से खेदना महाजन के घर में सुबह से शाम ड्यूटी बजाएगा...नहीं तो महाजन को का जवाब देते भला...यही बात पर तो सूद पर नोट दिलवाए थे खेदना को, उसकी बची-खुची ज़मीन पर, अब खेदना तब तक महाजन के घर काम करेगा, जब तक कि इसका औलाद इसका जूता पहनने लायक न हो जाए.. 
चलो एक मुर्दा का तो उद्धार हो गया न...बाकी लोग कम से कम जिंदा तो हैं....!!

और मैं सोच रही हूँ क्या खेदना अब सचमुच जिंदा है ???

मयंक की चित्रकारी :


Sunday, March 21, 2010

मेरा धर्म बड़ा है , तुम्हारा धर्म छोटा, अल्लाह बड़ा है, भगवान् छोटा......

आये दिन सुनती रहती हूँ , मेरा धर्म बड़ा है , तुम्हारा छोटा, अल्लाह बड़ा है, भगवान् छोटा...और सोचती हूँ क्या ईश्वर को परिभाषित करना इतना आसन है ? क्या ईश्वर का विश्लेषण इतना सरल है ? क्या जो लोग ईश्वर या अल्लाह के बारे में इतनी बातें बताते हैं, सचमुच इसके योग्य हैं ?
कितनी अजीब बात है..उस ईश्वर या अल्लाह की परिभाषा वो दे रहे हैं  जिन्हें ये तक नहीं पता अगले पल क्या होने वाला है....
 
हैरानी तब होती है जब कुछ किताबें जो कि उनके ही जैसे किसी इन्सान ने ही लिखी होगी...पढ़ कर लोग खुद को प्रकांड विद्वान् घोषित करके ईश्वर को जानने का दम भरते हैं....आश्चर्य तब होता है जब उनसे पूछो कि क्या आपको पता है आपकी पत्नी क्या चाहती है, या बेटा अथवा माँ-बाप क्या चाहते हैं, तो जवाब देना उनके लिए बहुत ही कठिन  होगा...लेकिन कितनी आसानी से यही लोग यह बता देंगे कि ईश्वर या अल्लाह क्या चाहता है ..और वो भी डंके कि चोट पर हर्फ़-बा-हर्फ़, ईश्वर या अल्लाह की पसंद-नापसंद बताना इनके लिए बायें हाथ का खेल है, मीनू के साथ बताएँगे कि ईश्वर या अल्लाह को फलां-फलां चीज़ें पसंद हैं...और यही सही हैं...जैसे ईश्वर या अल्लाह बस आकर अपनी पसंद बता कर गए हों इनको...बेशक आज तक ईश्वर या अल्लाह ने अपना मुँह खोला ही न हो ....
 
ईमानदारी से सोच कर बताइए क्या सही मायने में पूरी दुनिया में एक भी ऐसा इंसान है जिसकी हैसियत है, ईश्वर या अल्लाह को परिभाषित करने की ?? 
मेरा मानना है..बिलकुल भी नहीं है.....हरगिज नहीं है ...एक भी ऐसा इन्सान दुनिया में हो ही नहीं सकता जो ईश्वर या अल्लाह को सही तरीके से परिभाषित करने की क्षमता रखता है...

जो भी परिभाषा है वो पूरी हो ही नहीं सकती ...क्योंकि हम मनुष्य ईश्वर की विशालता के आप-पास भी नहीं जा सकते...
फिर भी लोग अपने मन की बात और अपना अधूरा ज्ञान बघारते ही हैं ...और यही तुच्छ जानकारी कितना ठोक-पीट कर लोगों तक पहुँचाते  हैं...और उसपर तुर्रा ये कि उन बातों को हर हाल में सही ठहराते हैं...और इसी चक्कर में एक दूसरे को लड़ाते भी हैं...और हम मूर्ख लड़ते भी हैं....
 
इंसान के दंभ की सीमा देख कर अचम्भा होता है कि वो उस परम पिता परमेश्वर की व्याख्या करने की हिम्मत करता है, जिस ईश्वर के सामने उसकी कोई हस्ती नहीं है...
ईश्वर या अल्लाह को एक किताब में, शब्दों में, प्रार्थना में, मंदिरों में, मस्जिदों में, गुरुद्वारे में, गिरजा में बाँध कर रखने की जहमत करने वाले कभी खुद भी सोच कर देखें... सच्चे मन से क्या सचमुच यह संभव है...कि ईश्वर या अल्लाह की विशालता इनमें क़ैद हो सकती है ???
क्या सचमुच परं पिता परमेश्वर इतना संकुचित है कि वो सिर्फ हिन्दुओं को प्यार करेगा, या सिर्फ मुसलामानों को, या सिर्फ ईसाईयों को ....
मूर्खता की पराकाष्ठ शायद इसे ही कहते हैं....प्रेम करनेवाला ईश्वर है, लेकिन उसको उसकी सीमा बताने, और बाँधने वाला मनुष्य ...क्या बात है...!!!
 
उसने आज तक नहीं कहा कि वो क्या चाहता है लेकिन लोग बताते फिर रहे हैं की 'वो' क्या चाहता है ...धन्य हैं हम लोग....और धन्य  है हमारी सोच ....
 
हम स्वयं को ईश्वर से भी बड़ा समझते हैं तभी तो ये हाल है.....
एक बार तो उसे खुद बोलने का मौका दीजिये....कि वो क्या चाहता है
बस चुप होकर, अपनी नहीं उसकी सुनने दीजिये.....
कोई कहेगा कि देर हो जायेगी 'मोक्ष' कि प्राप्ति नहीं होगी....कौन जानता है 'मोक्ष' है भी या नहीं...और क्या है 'मोक्ष' ?
 
दूसरे कहेंगे कि क़यामत का दिन ही ना आ जाये.... 
क़यामत का दिन अब तक तो नहीं आया ....जाने कब आएगा ....जब आएगा तब देखेंगे.....वैसे भी मेरा आपका नंबर बहुत बाद में आएगा....हमसे पहले बहुत पापी हैं....कितने लाख वर्षों के पाप का हिसाब होगा....तब कहीं जाकर हम खड़े होंगे उस परम पिता के सामने .....

 

ब्लॉग जगत में धर्म और ईश्वर की दुर्गति ही दुर्गति की जाती है, क्या यह संभव नहीं कि ईश्वर को विराट ही रहने दिया जाए और, स्वीकार कर लिया जाए कि हम उसके सामने कुछ नहीं हैं, और उसके बारे में कुछ भी कहने की क्षमता नहीं रखते हैं, सभी अपने-अपने प्रभु से अपना व्यक्तिगत रिश्ता रखें, कोई भी इस मामले में हस्तक्षेप न करे, ठीक वैसे ही जैसे कि किसकी रसोई में क्या पक रहा है न किसी को इससे कोई सरोकार होना चाहिए न ही मतलब...

ज़रा सोचिये जब हम किसी को इस बात के लिए दबाव नहीं डालते कि मैं जो खाता हूँ वही बेहतर है, या फिर मैं जो पहनता हूँ वही बेहतर है, तो फिर भगवान् के लिए कैसे और क्यों कहना ?
सब अपने-अपने घरों में शांति से अपनी आस्था अपना विश्वास क़ायम  रखें...तो क्या ही अच्छा हो...

बस यूँ समझ लीजिये कि ...एक पहाड़ की चोटी है जहाँ सबको पहुँचाना है ..सभी अपनी सहूलियत से अलग-अलग रास्तों से ऊपर चढ़ रहें हैं...लेकिन पहुंचेंगे सभी उसी चोटी पर..क्योंकि मंज़िल तो एक ही है न ...!!!  


मयंक की चित्रकारी :

Saturday, March 20, 2010

व्यवस्था..........


व्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे  
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते  हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी  है
न जाने कितने छेद लिए हुए 
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही

ये फर्श बन
जाती है,

और तब तुम सिर्फ
अपना सर ही पटक सकते हो......


मयंक की चित्रकारी.... 


Friday, March 19, 2010

और मैं..... ...




छन छन्न छन
मेरी पायल बोलती जाती 
और
तुम मुदित हुए जाते हो
आँगन में अंगना
बनी मैं
डोल रही हूँ
पायल की झंकार
रस घोल रही है
हक़ है मेरी पायल
को बोलने का
पर मुझे नहीं !!
तुम क्यों 
मुझे बोलने दोगे 
पर
होठ मेरे अब और 
प्रतीक्षा नहीं करेंगे 
छटपटाते हुए 
शब्द अब कहाँ 
रुकेंगे
भाव भी आ रहे हैं बाहर
वाणी की सांकल
अब खुल ही जायेगी
किनारों में बंधी
नहीं रह पाएगी 
कगार पर आ गई है 
मेरी सोच
पायल की रुनझुन
ने चिटकनी खोल दी 
दौड़ गए हैं बाहर
मेरे भी कुछ 
धधकते से विचार 
निर्वस्त्र होकर 
अब नहीं पहनेंगे
वो तुम्हारे 
चुने हुए कपड़े
पहन भी लें तो क्या
तुम तो उन्हें निर्वस्त्र ही देखते हो ..!!


मयंक कि चित्रकारी :
 

Thursday, March 18, 2010

इतना तन्हाँ है, कितना तन्हाँ होगा...


अब और इस दिल का क्या होगा
इतना तन्हाँ है, कितना तन्हाँ होगा

सारे के सारे अक्स मुझे फ़रेब लगे 
कोई चेहरा तो कहीं सच्चा होगा

मुझे सच का आईना दिखाने वाले 
शायद तेरी आँखों का धोखा होगा

देखा कई बार मैंने पीछे मुड़ कर  
मेरे लिए भी कहीं कोई खड़ा होगा

हम उन आँखों को मय समझ बैठे 
कोई दीवाना भला मुझसा कहाँ होगा

कब आओगे आ भी जाओ मेरी जाँ
इतंजार कर इंतज़ार थक गया होगा

और अब मयंक कि चित्रकारी...
तस्वीरों को क्लिक करके बड़ा कर सकते हैं....



Wednesday, March 17, 2010

सबने उसे बहुत सताया है...





कई दिन बाद वो घर आया है
पर चेहरे से लगता वो पराया है

दामन से उसके लिपटे, सो गए
आधी रात उसने जगाया है

यकीं नहीं उसे मेरी मोहब्बत का
सबने उसे बहुत सताया है





न  चिनार के बुत
न शाम के साए
एक सहज सा रस्ता
न पिआउ न टेक
बस तन्हाई से लिपटे
मेरे कदम
चलते ही जाते हैं
मिले थे चंद निशाँ 
कुछ क़दमों के
पहचान हुई थी
चल कर कुछ कदम
अपनी राह चले गए
फिर मैं और
तन्हाई से लिपटे मेरे कदम
चल रही हूँ न...
मैं... 
अकेली.. !!

अब गीत ...ओ हंसिनी मेरी हंसिनी...
आवाज़ ..संतोष शैल 



मयंक की चित्रकारी...


तस्वीर पर क्लिक करके बड़ा किया जा सकता है ....

Tuesday, March 16, 2010

समय.......गीत....ये समा समा है ये प्यार का


याद है मुझे,
जब मैं छोटी बच्ची थी,
झूठी दुनिया की
भीड़ में, भोली-भाली
सच्ची थी,
तब भी सुबह होती थी
शाम होती थी,
तब भी उम्र यूँ ही
तमाम होती थी,
लगता था पल बीत रहे हैं
दिन नहीं बीता है
मैं जीतती जा रही हूँ,
वक्त नहीं जीता है,
पर,अब बाज़ी उलटी है पड़ी,
वक्त भाग रहा है,और मैं हूँ खड़ी
वक्त की रफ़्तार का
नहीं दे पा रही हूँ साथ,
इस दौड़ में न जाने कितने
छूटते जा रहे हैं हाथ
अब समय मुझे दिखाने लगा अंगूठा
कहता है, तू झूठी,
तेरा अस्तित्व भी झूठा
जब तक तुम सच्चे हो
तुम्हारा साथ दूंगा
जब कहोगे,जैसा कहोगे,
वैसा ही करूँगा
अच्छाई की मूरत बनोगे तो
समय से जीत पाओगे
वर्ना दुनिया की भीड़ में
बेनाम खो जाओगे
आज भी समय जा रहा है भागे
सदियों पुरानी सच्चाई की मूरत
अब भी हैं आगे
ये वो हैं जिन्होंने
ता-उम्र बचपन नहीं छोडा है
वक्त ने इन्हें नहीं,
इन्होने वक्त को मोड़ा है
सोचती हूँ
कैसे लोग बच्चे रह जाते हैं
झूठ की कोठरी में रह कर भी
सच्चे रह जाते हैं,
अभी तो मुझे
असत्य की नींद से जागना है
फिर समय के
पीछे-पीछे दूर तक
भागना है ....

और अब गीत....
ये समा समा है ये प्यार का ... 
आवाज़  ..'अदा'



मयंक की चित्रकारी :

Monday, March 15, 2010

मुर्दों का शहर....

मुर्दों का शहर है ये
जहाँ हर कोई
अपना जनाज़ा खुद उठाये
चला जा रहा है
बस फर्क सिर्फ इतना है
कफ़न अब रंग-बिरंगे
हो गए हैं
मातम ने खुशियों
के मुखौटे पहन लिए हैं
और सभी लाशें
सीधी खड़ी हैं
क्योंकि दफ़नाने को
जगह बची नहीं है.....



वीराना.....

तन्हाई ने तन्हाई से 
घबराकर
वीराने से पूछा
तुम इतने वीरान क्यों हो
वीराने ने ठंडी आह
भरी और कहा
मेरा घर इस वीराने 
में अकेला खड़ा है
तुम चली आओ न
तो इस वीराने में
तन्हाई के साथ
अकेले जी लेंगे....

मयंक की चित्रकारी...ज़रा अलग हट कर है ...आज...
 

जीत ही लेंगे बाज़ी हम तुम ...खेल अधूरा छूटे न...
आवाज़ सिर्फ़ 'अदा' की...

Sunday, March 14, 2010

'अदा'........जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे


जब से तेरे नैना मेरे
फिल्म :  सांवरिया 
गायक : शान 
गीतकार :  समीर
संगीतकार : मोंटी शर्मा
यहाँ आवाज़ है  'अदा' की ...



[लागे रे  लागे रे लागे रे नैननवालागे रे लागे रे] - 2

जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे 
जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे  
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
सब से बेगाना हुआ
रब भी दीवाना लगे रे ओये ओये
रब भी दीवाना लगे रे हो होहोहो
जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
सब से बेगाना हुआ
रब भी दीवाना लगे रे ओये ओये
रब भी दीवाना लगे रे हो होहोहो
जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे

धिन ताक धिन ताक धिन ताक धिन

दीवाना ये तो दीवाना लगे रे

हो... जब से मिला तेरा इशारा
तब से जगीं हैं बेचैनियाँ
जब से हुई सरगोशियाँ
तब से बढ़ी है मदहोशियाँ

जब से जुड़े यारा
तेरे मेरे मन के धागे
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
सब से बेगाना हुआ
रब भी दीवाना लगे रे ओये ओये
रब भी दीवाना लगे रे हो होहोहो

हो जब से हुई है तुझसे शरारत
तब से गया चैनों करार हो हो
जब से तेरा आँचल ढला
तब से कोई जादू चला

जब से तुझे पाया
ये जिया धक धक भागे रे
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
तब से दीवाना हुआ आ...हा...
सब से बेगाना हुआ
रब भी दीवाना लगे रे ओये ओये
रब भी दीवाना लगे रे हो होहोहो
जब से तेरे नैना मेरे नैनों से लागे रे


Saturday, March 13, 2010

उम्मीद का दामन .....



ठोकर खाकर मैं गिरती जब तक,
थामने को उठे कई हाथ,
निकल रहा था मेरा दम,
कि हवाओं ने दिया झूम के साथ
कितना घना अँधेरा था,
जब वजूद बना एक बिसरी बात
तब तारे झुक झुक आये मुझे तक
स्याह रात बनी उजली रात
तन्हाई के आगोश में अब तो
महफूज़ हैं मेरे हर जज़्बात
तेरा क्यूँ मैं सोग मनाऊँ,
जब उम्मीद खड़ी है थामे हाथ...

और अब मयंक की चित्रकारी....


Friday, March 12, 2010

मैं हूँ न !!!!


मैंने  फिर, अपने वजूद को,  झाडा, पोंछा, उठाया दीवार पर टंगे, टुकडों में बंटें आईने में खुद को कई टुकडों में पाया....लेकिन समेट लिए हैं सभी टुकड़े और पंख बना लिए हैं रोक सको तो रोक लो....ये मैं चली जूऊऊऊउSSSSSS
हाँ नहीं तो....!!


आज जो भी मैं कहने जा रही हूँ, बहुत संभव है आप अपने-अपने घरों में ऐसा ही कुछ करते हैं.....ये आलेख बस मैं आपको याद दिलाने के लिए लिख रही हूँ....अगर आप सचमुच ऐसा ही करते हैं फिर धन्यवाद स्वीकार कीजिये मेरा...

किसी एक महिला के साथ जुड़ी मात्र मातृत्व अथवा अर्धांगिनी की भूमिका को आज की नारी ने अपने संबल से असत्य सिद्ध कर दिया है, नारी सिर्फ़ माँ, बहन, पत्नी, पुत्री नहीं इससे भी ज्यादा बहुत कुछ है, आज के इस युग में न सिर्फ वो पुरुष के साथ कंधे से कन्धा मिला कर चल रही है, अपितु कई क्षेत्रों में उसने पुरुषों से भी बाज़ी मार ली है, निःसंदेह आज की नारी न तो अबला रही न ही पुरानी विचारधारा के अनुसार पुरुषों के पाँव की जूती....

अधिकतर, निम्न-माध्यम वर्गीय या माध्यम-वर्गीय परवारों में तो पुरुषों ने महिलाओं को प्रोत्साहन देने हेतु नौकरी करने के लिए प्रेरित किया है अथवा स्वार्थ या मजबूरी के लिए महिलाओं को कामकाजी होने के लिए बाध्य किया है..
 

तुलनात्मक दृष्टि से अगर विचार करें तो हम देखते हैं कि आज के युग में नारी पुरुष की अपेक्षा कई क्षेत्र में, अधिक कुशल, दूरदर्शी, परिश्रमी एवं ईमानदार साबित हो रही है, तो फिर दोनों ही क्षेत्रों में उसकी सफलताओं एवं उपलब्धियों को कैसे नकारा जा सकता है ?? अगर आप अपने घरों में या आस-पास देखेंगे तो पायेंगे कि महिलाएं बड़ी मुस्तैदी से दोनों ही कार्य क्षेत्रों में अर्थात घर तथा बाहर ,  फिर चाहे वह दफ्तर, स्कूल, अस्पताल इत्यादि कोई भी जगह हो, में सफलता पूर्वक काम कर रही हैं, 





लेकिन अगर आप और अधिक सूक्ष्मता से विचार करेंगे तो पायेंगे कि नारियाँ, ख़ास करके माध्यम वर्गीय परिवारों में अपने घरेलू काम के बोझ तले पिस जातीं हैं,  संयुक्त परिवारों में तो ऐसी महिलाओं की स्थिति प्रायः और भी जटिल है , शारीरिक परिश्रम तो होता ही है, मानसिक तनाव को झेलना, भी उन्हें अपने स्वभाव में शामिल करना पड़ता है ... संयुक्त परिवार हो या एकल परिवार, नारी की दयनीय  स्थिति उस समय और दयनीय हो जाती है जब उसके अपने पति का अहम छोटे-छोटे घरेलू कामों को न करने की आदत या करने में शर्म अथवा लज्जा महसूस करने की प्रवृति या फिर 'लोग क्या कहेंगे' जैसी सोच , पत्नी के काम के बोझ से टकराती है... अधिकतर पति अपने समकक्ष या उच्च स्तर वाली पत्नी को सह पाने की विवशता भी दिखाते हैं...

घर और बाहर के पाटों के बीच में पिस रही महिला चाहती है कि, सदियों पुरानी पुरुष मानसिकता और रवैया अब बदल जाए लेकिन अगर, पुरुष मन में ऐसी धारणा बना ले कि अमुक काम सिर्फ पुरुष के हैं और अमुक काम सिर्फ स्त्री के तो समस्या का समाधान कठिन है




परिवर्तन तो संसार का नियम है, अगर महिलाओं में परिवर्तन आया है, उन्होंने घर की दहलीज से बाहर कदम रख कर काँधे से काँधा मिलाया है, घर की अर्थव्यवस्था में अपना खून-पसीना लगाया है, बेशक चाहे परिस्थियां इसका कारण रहीं हों,  पति की इच्छा हो या स्वयं का संतोष, तो क्या पुरुष को भी अपने आप में समयानुसार बदलाव नहीं लाना चाहिए ??

अगर पुरुष अधिक न भी करे कुछ ही छोटे-छोटे कामों को अपने हाथ में ले ले तो स्त्री (पत्नी) को बहुत राहत मिल सकती है, इस प्रकार थोड़ा-बहुत अपने साथी का साथ देने से न सिर्फ स्त्री इस दयनीय स्तिथि से उबरेगी अपितु उसके आत्मबल को भी बल मिलेगा, घर का वातावरण सौहार्दपूर्ण होगा ...याद रखिये जब एक-एक घर मुसुकुरायेगा तो समाज मुस्कुराएगा और तब ही राष्ट्र खिलखिलाएगा  ......आमीन ...!!

और अब बारी है मयंक की चित्रकारी की ...ये पता नहीं क्या बनाया है उसने वही जाने लेकिन बना है कुछ देखिये ज़रा... 



और अब गीत सुनिए ...
नैनों में बदरा छाये.....आवाज़ .वही...'अदा' की..