Sunday, January 24, 2010

एक और अहल्या...



निस्तब्ध रात्रि की नीरवता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
अरुणिमा की उज्ज्वलता सी पडी हूँ
कब आओगे ?
सघन वन की स्तब्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
चन्द्र किरण की स्निग्धता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
स्वप्न की स्वप्निलता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
क्षितिज की अधीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
सागर की गंभीरता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?
प्रार्थना की पवित्रता सी पड़ी हूँ
कब आओगे

हे राम ! तुमने एक अहल्या तो बचा लिया
एक और धरा की विवशता सी पड़ी हूँ
कब आओगे ?

10 comments:

  1. प्रशंसनीय ! प्रार्थना का दैन्य भी कितना मुखरित है यहाँ । साथ ही सध गयी है अहिल्या की मिथक कथा !
    सुन्दर शब्दों के प्रयोग ने भरी है ऊर्जा । ’कब आओगे’ की पुनरुक्ति ने दिया है प्रभाव । और अंत में तो कहर ही है -
    "हे राम ! तुमने एक अहल्या तो बचा लिया
    एक और धरा की विवशता सी पड़ी हूँ
    कब आओगे ?"

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  2. हे भगवान इस पवित्र अंतर्नाद से तो बहुत से ब्रह्मव्रतियों के संकल्प टूट जायेगें !
    आपकी काव्य ऊर्जा अब तो उद्दाम उत्कृष्टता की और पुंजीभूत हो चली है ...
    वाचस्पतियों तक के सिंहासन डोल जायेगें ,ब्रह्मतप स्खलित होगें और कायनात काँप उठेगी
    बचो संसृति ! बच सको तो !

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  3. पहले से पढ़ी हुयी लाजवाब कविता....!!!
    बेमिसाल...
    अहिल्या कि बेकसी को खूब शब्द और बिम्ब दिए हैं.....
    क्षितिज की अधीरता सी पड़ी हूँ

    कब आओगे ?....

    प्रार्थना की पवित्रता सी पड़ी हूँ
    कब आओगे....

    काफी हद तक छंदमय भी....

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  4. बहुत खूब आदाजी,

    शायद आपको समभाव की ये एक पूर्व प्रविष्ठी पसंद आए,शौक फरमाइए ...

    http://kavyamanjusha.blogspot.com/2010/01/blog-post_08.html

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  5. कुछ दिन ग़जलगोई को विराम दीजिए। आप स्वयं समझ जाएँगी कि क्या कुछ बाकी है, रह गया !
    एक निश्चित शिल्प में भावों को बाँधने से अभिव्यक्ति का दम घुटता है। विश्वास न हो तो जरा इन पंक्तियों को ग़जल में ढालने की कोशिश कीजिए - वह बात नहीं आ पाएगी जो इस तरह से आ रही है।

    लग रहा है किसी सान्द्र से घोल में स्याही की टिकिया डाल दी गई हो जिससे धीरे धीरे रंग की उठान आकार ले रही हो... जैसे समिधा निर्धूम प्रज्वलित हो और समय को बिलम्बित कर फ्रेमों में बाँट दिया जाए .... कब आओगे?...कब आओगे... और फिर अंत में आखिरी आहुति सी अभिव्यक्ति खुल जाए एकदम - अहल्या, राम, धरा, विवशता ... कब आओगे?

    टिप्पणी भी रचना से ही समृद्ध होती है।

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  6. ye post aapki pahle bhi padhi hai aur hamesha hi ek naya roop dikhayi deta hai aaj bhi na jaane kitni ahilyayein patthar bani padi hain magar aaj raam nhi hai tarne ke liye.

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  7. प्रस्तुत करने का अलग और नया अंदाज है।

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  8. दीदी चरण स्पर्श
    क्या कहूँ, शायद आज आपने कुछ कहने को शब्द ही नहीं छोडे, और यदि मैं आपको शब्दो में व्यक्त करूँ तो शायद शब्द ही कम पड़ जायें ।

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  9. बहुत सुन्दर रचना । आभार
    ढेर सारी शुभकामनायें.

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