Sunday, November 8, 2009
बाहुबली की बेटी...(अन्तिम)
उसके बाद बहुत दिनों तक सब कुछ सामान्य चलता रहा, कोई उठा-पटक नहीं, हमलोग भी खुश थे, हमने उस गली से जाना ही छोड़ दिया, जय भी खुद को खुश दिखाने कि भरपूर कोशिश करता था , मतलब यह कि जीवन भी शनै - शनै सामान्य होता जा रहा था,
एक शाम हम सभी भाई-बहन बैठ कर अन्ताक्षरी खेल रहे थे, इतने में किसी को गेट के अन्दर आते देख हम सबकी नज़र उधर उठ गयी, एक महाशय चले आरहे थे और कहते जा रहे थे ' अरे इहा से कौन बार-बार मेरा कम्प्लेन करता है , बार-बार डी.सी.ऑफिस से पिटीशन पर पिटीशन आ जाता है, जब वो नज़दीक आये तो मैं पहचान गयी अरे यह ये तो श्री बिक्रमादित्य सिंह जी हैं वो वर्दी में नहीं आये थे, मैंने तुंरत खड़े होकर कहा 'आइये, आइये सिंह जी, इ गलती तो हम ही कर रहे हैं, पहचाने तो नहीं होंगे आप हमको' हम आये तो थे आपके पास लेकिन आप तो कहने लगे कि जगदीश सिंह हमपर गोली चलाकर एकदम ठीक काम किये हैं, श्री बिक्रमादित्य सिंह जी की नज़र हम पर पड़ी फिर हमारे पूरे घर का मुआइना करने लगी , अच्छा आप हिया रहते हैं, मैंने तपाक से कहा 'तो आप का समझे थे हम गेल-बीतल घर से आये हैं,' तब तक पिता जी भी बाहर आ चुके थे, उन्होंने सिंह जी को नमस्कार किया और अपना परिचय दिया , मेरी तरफ इशारा करके सिंह जी ने पुछा नाथ जी इ आपकी कौन हैं, पिताजी ने कहा यह मेरी बेटी है, सिंह जी बोले 'एतना छोटी है ....लेकिन बहुत बोलती है ' मैं कहाँ चुप रहती 'हां इ बात तो है अगर हम बोलते नहीं तो आप दरसन देते का ?' पिता जी ने मुझे बार-बार चुप रहने का इशारा कर रहे थे, बिक्रमादित्य जी के बात करने अंदाज़ तो आज कुछ और ही था, बहुत ही मित्रता दीखते रहे , बहुत ही अच्छे से बात-चीत की सबसे कहने लगे, ऐसा कोई दिन नहीं बिताता है जिस दिन डी.सी. मदन मोहन झा आपके बारे में पूछ ताछ नहीं करते हैं, आपलोगों की सुरक्षा की जिम्मेवारी अब हमपर ही आगई है, हमसब की ख़ुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा, मैंने बिक्रमादित्य जी कहा आप जगदीश सिंह जी कह दीजिये वो उमा की शादी जहाँ मर्जी वहां कर दें , हमलोगों का पूरा सहयोग होगा, बिक्रमादित्य जी ने हर तरह से आत्मीयता दीखाई, हमलोगों को कटहल के पेड़ की देखभाल कैसे करनी चाहिए बताते रहे और जाते वक्त २-४ कटहल भी तोड़ कर ले गए,
खैर, घर का माहौल अब काफी खुशगवार हो गया था, सबके चहरे पर इत्मीनान के भावः दिखने लगे थे, और घर और मोहल्ले में मेरी धाक जम चुकी थी, अब मैं सबकी दीदी बन चुकी थी, अब तो लोग मुझसे अपनी परेशानी भी शेयर करने लगे थे,
डी.सी. श्री मदन मोहन झा जी का भी तबादला हो गया था उसी वर्ष ..लेकिन उनके जाने से पहले.....मिल आई थी उनसे और उनकी पत्नी से ....पिताजी भी साथ गए थे ...धन्यवाद के साथ जब दोनों के पाँव छुए थे मैंने तो उनके आर्शीवाद से भरे हाथ मेरे सर पर उसके बाद हमेशा महसूस किया था....कहा था उन्होंने......नहीं भूल सकता सारी उम्र जिस तरीके से तुमने जगाया था मुझे.....और खबरदार जो इस जूनून को कम होने दिया तुमने...फिर पिताजी से कहा था मास्साब.....ये धन-मिरचाई है.....एक बेटी ऐसी हो जाए तो बेटे की क्या जरूरत है..? मैं सकुचा के रह गयी थी....
फिर खबर मिली उमा की शादी बहुत बड़े घर में ठीक हो गयी है, हमलोगों ने कहा चलो अच्छा हुआ, वो अपने घर खुश हम अपने घर खुश, उसकी शादी में हमारा शामिल होना असंभव था और हमलोग ऐसा कुछ सोच भी नहीं रहे थे, शादी का दिन करीब आता जा रहा था, मैंने आपको पहले ही बताया था हमारे घर से कोई भी अब उस गली से जाता ही नहीं था, इसलिए क्या तैयारी हो रही थी, इसका आँखों देखा हाल नहीं बता पाऊँगी, हाँ जो उड़ती-उड़ती खबर मिलती थी वही हमें पता था, गली के मुहाने पर खड़े होने पर कुछ दीखाई दे सकता था लेकिन हमने ऐसी कोई कोशिश भी नहीं कि , मोहल्ले वाले आते और बता जाते, जय उदास दीखता था, लेकिन कुछ भी कहता नहीं था, मैं पूछती तो बात गोल कर जाता था, घर में सबको उसके मन कि दशा का अनुमान था, लेकिन कोई इस विषय में बात ही नहीं करता था,
वो उमा की शादी का दिन था, सुबह से ही मन हल्का-हल्का लग रहा था, जैसे कोई बहुत बड़ा बोझ धीरे-धीरे उतर रहा हो, घर में हमलोग खुश थे की चलो उमा अपने घर चली जायेगी तो हमलोग अच्छी सी लड़की देख कर जय की भी शादी करा देंगे, और यह सब बीता कल हो जायेगा, मोहल्ले में इतनी बड़ी शादी थी सब लोग जारहे थे, बस हमलोगों को ही न्योता नहीं मिला था,
दोपहर का समय था, आज ही बारात आनी थी उमा के घर में, खाना-वाना खाकर हमलोग आराम कर रहे थे, घर का ग्रिल भी बंद किया हुआ था (जब से यह घटना हुई थी हम लोग ग्रिल बंद ही रखते थे ), अचानक जोर-जोर से कोई ग्रिल पीटने लगा, दीदी.......दीदी..... खोलिए जल्दी......जल्दी कीजिये..... मैं हडबडा कर जागी और भाग कर ग्रिल कि चाभी ढूंढने लगी, चाभी लेकर मैं ग्रिल तक आगई, सामने अलिंदर खड़ा था, मैंने अरे.. क्या हुआ ? क्या बात है ? दीदी....उमा ज़हर खा गयी है, उसको अस्पताल ले जा रहे हैं, नहीं बचेगी दीदी ऐसा ही लग रहा है, बहुत देर से ज़हर खा कर अपने कमरे में थी, साँस तो चल रहा है लेकिन उम्मीद नहीं है, अब क्या होगा दीदी ? मैं तो धम्म से बैठ गयी, मेरी आँखों के सामने उमा का चहरा घूमने लगा, उसकी चीखें उसका हाथ जोड़ना, उसका मेरे घर आना और वापस नहीं जाने कि जिद्द करना सब कुछ, माँ-पिता जी भी उठ कर बाहर आ गए, जय भी ऊपर अपने कमरे में ही था, मैं उससे कुछ बताना नहीं चाह रही थी लेकिन अलिंदर उसके कमरे में पहुँच चुका था और यह ख़बर जय को भी मिल चुकी थी, मैं जय के सामने जाना नहीं चाह रही थी, समझ में नहीं आ रहा थी कि अपना दुःख मैं किस रिश्ते के नाम से प्रकट करूँ, हमलोग सभी एक अजीब से भावः से गुजरने लगे, ना यह कह सकते, ठीक हुआ, ना यह कह सकते बुरा हुआ, ना ही यह कह सकते हमारा क्या जाता है, बस हमलोग अपने-पराये को सोच में झूलते रहे, शाम होते-होते बुरी ख़बर आग कि तरह फ़ैल गयी , उमा के घर से रोने कि आवाजे मेरे घर तक आ रही थी, हमारे घर में भी हम सभी रो रहे थे बस आँसू नहीं बह रहे थे, जय अपने कमरे में ही बंद रहा,
जिंदगी इतने सारे हादसों से गुजर कर फिर एक बार अपने पटरी पर आ गयी, उमा के गुज़रे हुए शायद दो महीने ही हुए होंगे, कि पता चला जगदीश सिंह जी नहीं रहे, रोड में कोई हादसा हो गया, वो बहुत स्पीड से सरिये से भरा ट्रक लेकर जा रहे थे, किसी को बचाने के चक्कर में जोर का ब्रेक लगाया था, ट्रक की रफ़्तार इतनी तेज़ थी कि सारे सरिये ड्राइवर की सीट को छेद कर उनकी बॉडी में घुस गए, उनको गाड़ी से निकलना मुश्किल हो गया था, कहते हैं उनका अंग-भंग करना पड़ा था,
मालती आंटी अकेली रह गयीं थीं उस महल में...वो भी दो वर्ष के बाद नहीं रहीं....कहते हैं उनके देवर विद्या सिंह ने उनको ज़हर दे दिया था.....
और, जय !! , उमा कि मृत्यु के एक वर्ष बाद "ठीक उसी दिन" हमें छोड़ कर चला गया, डाक्टर ने ह्रदयगति रुकने की बात बताई थी, १९ वर्ष कि आयु में हृदयगति का रुकना कुछ अजीब नहीं लगता ?
मेरे बच्चों को पता ही नहीं चला कि उनका छोटू मामू कैसा था.?
पिछले साल जब भारत गयी तो उसी गली में चली गयी.....पावों ने क्या महसूस किया बता नहीं पाऊँगी.....बहुत कुछ बदल गया है वहाँ.....मैं रुकी थी उसी जगह जहाँ वो गेट अब भी है......पर कहाँ ठहर पायी मैं.... उमा की चीखें.....मेरा पीछा करने लगीं और मैं भाग आई ....वहां से !!!
समाप्त
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
rongte khade ho gaye ant tak pahunchte pahunchte.... aur aankhe apne aap hi baras padeen... un sachche premiyon ko meri shraddhanjali.. Di
ReplyDeleteरुचिकर, रोमांचकारी, भयावह होते होते अन्त में दुखान्त हो गया यह संस्मरण।
ReplyDeleteसमय हर घाव को भर तो देता है किन्तु यादें उसे ताजा कर देती हैं।
भूल जाओ बहन इन बातों को।
पर
"खबरदार जो इस जूनून को कम होने दिया तुमने ..."
बहुत ही सुन्दर प्रस्तुतिकरण!!!
सस्मरण जो आँसू ला दे ---
ReplyDeleteकथ्य जो रूला दे ---
भावपूर्ण रचना . यादे कभी जेहन से नहीं जाती है और यादे घावो को भरने का काम भी करती है .. आभार
ReplyDeleteभावपूर्ण रचना . यादे कभी जेहन से नहीं जाती है और यादे घावो को भरने का काम भी करती है .. आभार
ReplyDeleteओह ओह ओह
ReplyDeleteएक सात्विक प्रेम का अति भयावह और दुखद लौकिक अंत -चलिए याहं इसके निः सरण से आपका भी ग्लानि - बोध शायद तनिक हल्का हो ले .....
ReplyDeleteलिपट कर चिरागों से वे सो गये,
ReplyDeleteजो फूलों पे करवट बदलते रहे।
उसको कसम लगे जो बिछड़ के एक पल भी जिए, हम बने तुम बने एक दूजे के लिए। बहुत ही मार्मिक संस्मरण है। जय और उमा जहां भी हों, खुश रहें। उम्मीद है कि ईश्वर ने दोनों को अगले जन्म में ज़रूर मिलाने का कोई ना कोई जतन किया होगा।
ReplyDeleteइस पर कुछ लिखने से पहले इसकी प्रकृति तय होना भी जरूरी है. ये एक संस्मरण है, कथा है या फिर दिल को दुखाने वाली यादों का गुलदस्ता... मैंने पहले भी पढा था इसको, तब मैं इसमें चाबियाँ मिलने के रोमांच भरे दृश्य के विवरण से कई दिनों तक अवचेतन में चौंक जाया करता था. ये एक रहस्य से भरा घटनाक्रम था. जिसमे इस दुनिया से इतर किसी और के वजूद का आभास हुआ था. आपने इस सच्ची घटना का ब्यौरा इस रूप में प्रस्तुत किया है कि ये किसी भी काल्पनिक गल्प को अपने से बहुत पीछे छोड़ जाता है. मैं कहानियां लिखता हूँ उनमे कुछ देखी भाली हैं परन्तु कभी अपनी लिखी कहानी को पढ़ कर रोंगटे खड़े नहीं हुए, आप इसे फिर से पढिये हिल जाएँगी. अल्बेयर कामू की एक पंक्ति मैंने अपने ब्लॉग पर लगा रखी है तो सत्य है कि मैं उसमे विश्वास भी करता हूँ, आप उसे भी पढिये फिर पाएँगी कि आपका लेखन सूरज है मेरा शाम का धुंधलका.
ReplyDeleteमुझे आशा नहीं थी कि आप इसका अंतिम भाग इतना जल्दी लगा देंगी परन्तु बड़ा अच्छा किया. मैं बेचैनी से प्रतीक्षा कर रहा था. कल डी एम साहिब से आपकी मुलाक़ात के बाद से ही सोच रहा था कि सत्य में कितना बल होता है और उस स्वर की आवृति कितनी होती है कि बहरे भी जाग जाया करते हैं. जय किसी फिल्म की दास्ताँ होता तो भी मैं उसे चौबीस घंटे तक अपने से अलग नहीं कर पाता फिर ये तो आपका भाई था बताओ कैसा फील कर रहा हूँ मैं ?
मैं आपको कुछ और लिखना चाहत हूँ जैसे कि आप चित्त को एकाग्र कर के कुछ उपन्यास लिखिए, जिन के पास सामान ज्यादा होता है उनके पास समय कम होता है इसलिए कुछ निरंतर करिए जो चिर स्थायी हो सके. मेरी शुभकामनाएं आपके लेखन और परिवार के साथ हैं.
mai fir khoogi phle bhi pdhi thi par aaj usse bhi jyda anhke bheeg gai .
ReplyDeleteishvar uma aur jay ki atma ko shanti de .aapke dard me ham aapke sath hai aap bahumukhi prtibha ki dhani hone ke sath hi dabng vyktitv ki bhi malik hai .
uma ki cheekhein,
ReplyDeleteaap ko kabhi bhi sunaai nahi deen..
bechaari UMA.....
ReplyDeleteमार्मिक दास्तां
ReplyDeleteबी एस पाबला
अदा जी,
ReplyDeleteमाफ़ कीजिएगा...अब मुझे समझ आया आपके उखड़े होने का राज़...मेरी भी एक ही बहन है और मैं घर में सबसे छोटा हूं...मेरी बहन मुझे हमेशा मां की तरह ही प्यार देती है...मैं समझ सकता हूं छोटे भाई के लिए आपकी भावना...उमा और जय जिस दुनिया में भी हों...खुश रहें...
जय हिंद...
मैने तो ये अंतिम किश्त ही पढी है पर कहानी एकदम सेफ हो गई । एक दुखान्त प्रेम कहानी । आप पर क्या बीती होगी ............
ReplyDeleteबहुत दुखद स्तब्धकारी वाकया ....इससे ज्यादा कुछ लिख ही नहीं पा रही हूँ ...मन बहुत भारी हो गया है.... गहन प्रेम का ऐसा दुखद अंत ...!!
ReplyDeleteबहुत दर्दनाक अंत है । शायद इसे इतनी जल्दी मे नही होना चाहिये था .. आपको नही लगता ऐसा ?
ReplyDeleteaansoo to nahi nikal rahe, par haan... rula diya aapne... di...
ReplyDeleteIts too emotional aur apane bilkul baandh ke rakh diya khaani ke saath....
ReplyDeleteस्तब्ध हूँ...
ReplyDeleteबस इससे ज्यादा और कुछ नहीं लिख पाऊँगा अभी।
फिलहाल आपकी दूसरी पोस्टें पढ़ने जा रहा हूँ। इस पर लौट कर दुबारा आऊंगा।
साँस ही रुक गयी थी इस किस्से को पूरा पढ़ते-पढ़ते.. और पूरे प्रकरण का इतना दुखान्त समापन...
ReplyDelete..सच कहूँ तो इस तथाकथित इज्जत नाम की चिड़िया जिसके लिये लोग जान देने को तैयार रहते हैं..और लेने को भी..मुझे आज तक पता नही चला के किस पेड़ पर रहती है, कैसी दिखती है..और हमारा और कौन सा पार्ट संतुष्ट होता है ...इस इज्जत के लिये अपनो के सपनों का खून कर के, हमारे इगो के अलावा...
..मैने भी ऐसी कई घटनाएं/वारदातें देखी हैं अपने बचपन के वक्त मे...कोई फ़र्क नही है ना यू पी और बिहार मे...आप जानते हो.
मगर अच्छी बात यह है कि अब वक्त बदल रहा है..जिसे पिछली एक पीढ़ी बिगड़ना भी कहती है...
..मगर उस जमाने मे इस किस्म की बहादुरी दिखाना जिसे हम बस किस्सों मे पढ़ते और पिक्चरों मे देखते थे..हजारों मे किसी एक मे होती है..और सच बोलूँ तो..फ़र्क वही लोग लाते है जमाने मे...
आपकी हिम्मत और परिवार के लिये आपके जज़्बे को सलाम के साथ..
फिर से आया था पढ़ने इस लाजवाब कथा के अंत को....
ReplyDeleteसोचता हूं कि अब क्या बीततई होगी उस बाहुबली पर???
और जय????
आह!