हमने जिसको शहर समझा जंगल है वो मकानों का
और पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का
मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
रिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का
जगी रात है, रात भर शम्मा भी अब सोने चली
ऐसे में अब फ़िक्र किसे क्या हाल हुआ परवानों का
मन का पाखी उड़ चला दिल है कुछ खोया-खोया
प्रीत का बाजा ढोल बजा औ शोर हुआ अरमानो का
धज्जी-धज्जी है पैरहन आँखों में है खुमारी सी
मजनूँ सी सीरत लेकर क्या होगा तुम दीवानों का
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
मुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का
"और पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का"
ReplyDeleteसच है, देवताओं के बीच राहु भी तो नहीं पहचाना गया था।
जिसको हमने शहर समझा जंगल है वो मकानों का
ReplyDeleteऔर पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का
मकानो के इस जंगल मे जंगली इंसान भी तो रहते है.
जिसको हमने शहर समझा जंगल है वो मकानों का
ReplyDeleteऔर पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का
jesa shahar vesa insaan..waah kyaa baat likhi he.
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
मुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का
nishabd hoo adaji, baad me yadi tippani likh payaa to jaroor likhna chahunga..bahut behtreen gazal he.
मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
ReplyDeleteरिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का
ख़ूबसूरत अंदाजे बयां ..क्या कहने....
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
ReplyDeleteमुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो काभई आप की गजल का हर शॆर बबर शेर से कम नही. बहुत सुंदर
धन्यवाद
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
ReplyDeleteमुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का
बहुत खूब बहन मंजूषा। रचना पसन्द आयी।
मंदिर को जोड़ते जो मस्जिद वही बनाते
मालिक है एक फिर भी जारी लहू बहाना
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
qqq.manoramsuman.blogspot.com
waah....bahoot khoob likha hai...saadhuwad.
ReplyDeleteताजा हवा के एक झोंके समान ...इस ग़ज़ल को पढ़ कर मैं वाह-वाह कर उठा।
ReplyDeleteआज पहली बार आपके ब्लॉग पर आया हूँ. निहायत आला और नफ़ीस खयालात हैं आपके. पूरी रचना (ग़ज़ल?) बहुत ख़ूबसूरत है. ये पंक्तियाँ बहुत पसंद आईं:
ReplyDeleteजिसको हमने शहर समझा जंगल है वो मकानों का
और पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का
मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
रिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का
महावीर शर्मा
आपने बहुत अच्छा लिखा है। विचार और शिल्प प्रभावित करते हैं। मैने भी अपने ब्लाग पर एक लेख लिखा है-घरेलू हिंसा से लहूलुहान महिलाओं का तन और मन-मौका लगे तो पढ़ें और अपनी राय भी दें-
ReplyDeletehttp://www.ashokvichar.blogspot.com
मेरी कविताओं पर भी आपकी राय अपेक्षित है। यदि संभव हो तो पढ़ें-
http://drashokpriyaranjan.blogspot.com
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ReplyDeleteबस इतना ही कहना है-
ReplyDeleteखुद में सिमटकर रहना छोडो, घर से बाहर आओ तो,
और भी हैं फनकार बहुत 'शाहिद' गज़लों की दुनिया में
शाहिद मिर्ज़ा शाहिद
बहुत खूब लिखती है आप , शुभकामनाएं !
ReplyDeleteहमने जिसको शहर समझा जंगल है वो मकानों का
ReplyDeleteऔर पहचान कहाँ हो पाती है इंसान बने शैतानों का
जंगल बने मकानों में इंसान के रूप में शैतानों को पहचाना ...बहुत खूब ...क्या लिखती हैं आप भी समसामयिक रचना ...!!
Di.. kafi achchhi gazal ban padi hai... khaskar ke bhav saundarya ke to kya kahne..
ReplyDeleteJai Hind...
मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
ReplyDeleteरिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का
सबसे प्यारा शे'र लगा अदा जी,
साकी क्या ....पीने वाले को तो पैमाने..सोडा वाटर, आइस-क्यूब ...... और वो मूंग की दाल वाली नमकीन.....!!!
हा हा हा हा हा ..... ( उसे हम बचपन में शराबियों वाली नमकीन कहते थे...)
किसी भी चीज की जरूरत नहीं होती.....
फिर भी साकी ...साकी ही होता है....
उसे ही पता होता है के कितनी पी चुका है..कब संभालना है पीने वाले को...
साकी बस...अच्छा होना चाहिए...
धज्जी-धज्जी है पैरहन आँखों में है खुमारी सी
मजनूँ सी सीरत लेकर क्या होगा तुम दीवानों का
ये शे'र पढ़कर आपके ही ब्लॉग पर देखि मजनू-लैला की एक तस्वीर याद आ गयी.....
और आप ही का एक शे'र भी...
ज़माना हो दीवाना कब ...ऐसे ही कुछ था...
कोई दोस्त है न रकीब है
ReplyDeleteतेरा शहर कितना अजीब है...
मैं किसे कहूं, मेरे साथ चल,
यहां हर सिर पे सलीब है...
तेरा शहर कितना अजीब है,
कोई दोस्त है न रकीब है...
जय हिंद...
वाह !
ReplyDeleteबहुत सुंदर लिखा है...
"हमने जिसको शहर समझा जंगल है वो मकानों का"
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
ReplyDeleteमुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का ...
kamal ka sher hai ...
Bahut dino baad aaya hun, poori ghazal bahut sundar hain
ReplyDeleteBadhaai.
"धज्जी-धज्जी है पैरहन आँखों में है खुमारी सी
ReplyDeleteमजनूँ सी सीरत लेकर क्या होगा तुम दीवानों का"
इन दो पंक्तियों{शेर नहीं कहूंगा} पे करोड़ों दाद देता हूं मैम। महावीर जी को अपनी टिप्पणी में इस लाजवाब रचना के लिये ब्रैकेट में ग़ज़ल को प्रश्नवाचक चिह्न के साथ लिख छोड़ना देख कर आपसे लड़ने-झगड़ने का मन मरने लगता है मैम...
आप समझ रही हैं ना क्यूं? इन बेमिसाल मिस्रों को ग़ज़ल के फार्मेट पर न बिठाना ज़ुल्म है इन मिस्रों के साथ...
---बहुत खूब, आदाब---अर्ज है--
ReplyDelete"या रब तेरी दुनिया में क्या ऐसा भीकोई तौर है,
रिन्दों को भी ज़न्नत मिले जब रुखसते पयाम हो।"
कोई मरे है राम पर कोई अल्लाह को जाँ नवाजे
ReplyDeleteमुर्दों को दरकार कहाँ दुनिया के इबादतखानो का
wah lagta hai koi professonial writer banne wala hai...
Ek baat batao jab aapki kitab chapegi to usmein mera naam bhi 'Acknowledgments' main hoga naa?
Mujhe to lagta hai hoga...
Aur haan manu ji ke comment ko wo last wale mote page main zarror daalna...
aur haan ek baat aur royalti main 2-3 % mujhe bhi dena.
hahahaha
:)
मयखाने में साकी को अब क्या है ज़रुरत रहने की
रिन्दों की है पाँत लगी और दौर चला पैमानों का
ismein manu ji ka comment mera maana jaiye.
Bachwa.
शम्मा भी अब सोने चली!
ReplyDeleteऐसी भी शम्मायें होती हैं क़िबला ?