Tuesday, November 3, 2009
बाहुबली की बेटी....(भाग-१)
'जयेंद्र नाथ' मेरा सबसे छोटा भाई उससे सम्बंधित यह संस्मरण है...हमलोग प्यार से 'छोटू' कहते थे और दोस्त 'जय'...
उम्र का सबसे खुशनुमा वक्त होता है बचपन और सबसे मदमस्त और अल्हड़ समय होता यौवन, यह वो समय होता है जिसमें दीमाग काम नहीं करता है सिर्फ दिल काम करता है वो भी डबल शिफ्ट, ऐसा ही कुछ मेरे भाई 'जय' के साथ भी हुआ, हमलोग ब्राह्मण हैं (इस संस्मरण में इसकी आवश्यकता है इसलिए बता रही हूँ), और हमारा परिवार रांची में रहता है, जो कभी बिहार का ही अंग था, हमारा घर अच्छा ही है, समाज में थोड़ी इज्ज़त भी है, रुपय्या-पैसा उतना है जितने को देख कर लोग प्रतिष्ठा देने के लिए तैयार हो जाते हैं, शक्ल-सूरत भी सब ठीक-ठाक है, extra-curricular activities में भी सभी भाई ठीक-ठाक हैं, जैसे कोई पहलवानी में मिस्टर B.I.T. तो कोई weight lifting में जिला चैपियन, जय क्रिकेट में माहिर था और आवाज़ का जादू चलाने का भी हुनर जानता था, मतलब बहुत अच्छा गायक था, कहने का तात्पर्य हमारे परिवार में अच्छी लगने वाली बातें ज्यादा थी बुरी लगने वाली बातों की बनिस्पत,
खैर, मैं जय की बात कर रही थी हर युवक की तरह उसे भी कुछ कर दीखाने का सपना था, जितना वो पढाई में होशियार था उतना ही शरारत में भी, पूरे मोहल्ले में बहुत ही प्रिय था,
बिहार में बाहुबलियों का वर्चस्व कोई नयी बात नहीं है, हमारे मोहल्ले में भी एक बाहुबली रहते थे (अब वो नहीं रहे) नाम था जगदीश सिंह, मैं उन्हें "सिंह जी" कहूँगी, एक विशेष जाति से सम्बन्ध रखते थे, हमारे सामने ही एक लोटा और एक खाट लेकर आये थे, देखते ही देखते हमारे इलाके के गणमान्य व्यक्ति में कब तब्दील हो गए हमें पता ही नहीं चला, अब तो हमारे इलाके के थाना-प्रभारी की गाड़ी उनके महल के सामने ज्यादा नज़र आती थी , थाने में कम और हो भी क्यूँ नहीं वो भी 'सिंह जी' हैं थाना प्रभारी श्री बिक्रमादित्य सिंह, हाँ तो मैं बात कर रही थी, बाहुबली श्री जगदीश सिंह जी की, उनकी एक ही सुपुत्री थी नाम, उमा (बदला हुआ नाम है), जय और उमा पता नहीं कब, और कैसे दोस्त बन गए, हमलोगों को इसका कोई इल्म नहीं था, घर में इसकी कोई खबर नहीं थी, हम सब उस तूफ़ान से बिलकुल नावाकिफ थे जो आने वाला था
गोधूलि का समय था, घर में माँ और मैं ही थे, मरियम (नौकरानी) भी हफ्ते भर की छुट्टी लेकर अपने घर गई हुई थी, कामवालियाँ भी ना ऐसे ही समय छुट्टी करती हैं, आप सब जानते ही होंगे घर के लड़के शाम को घरों में नहीं होते, शाम होते ही सब के सब चौक पर पान खाने या दोस्तों से गपियाने चले जाते हैं, उस शाम भी घर में मेरे तीनों भाइयों में से कोई भी नहीं था, ना ही पिता जी घर पर थे, मैंने गेट के अन्दर एक नवयुवती को आते देखा, जब वो करीब आई तो मैंने पहचान लिया, वो उमा थी, मैंने दौड़ कर उसका स्वागत किया, लेकिन वो बिना रुके घर के अन्दर चली गयी, मुझे थोडा अटपटा लगा, अन्दर जाकर वो सीधे रसोई में घुस गयी, रसोई में उस वक्त कोई भी नहीं था, क्योंकि चाय हम पी चुके थे और खाना बनाने का समय अभी हुआ नहीं था, मैं भी पीछे-पीछे पहुँच गयी, और पूछा क्या बात है माँ को ढूँढ़ रही हो क्या, मुझसे नाराज़ हो तुमने बात ही नहीं की मुझसे, उसने मेरे सारे सवालों को अनसुना करके कहा "दीदी अब हम वापस नहीं जायेंगे, हम यही रहेंगे ", मेरी तो समझ में कुछ नहीं आया, कहाँ वापस नहीं जायेंगे ? कहाँ रहेंगे ? फिर उसने कहना शुरू किया मुझे अपना लीजिये, मैं आपके घर की बहू बनना चाहती हूँ, मेरे तीन भाई हैं, मुझे पता ही नहीं चल रहा था कि यह सारी बातें किस भाई के सन्दर्भ में हो रही हैं, ना ही वो नाम लेकर बता रही थी, बस "आपके छोटे भाई" , कहती जाती, मुझसे तो छोटे सभी थे, मैंने जब एकएक कर नाम लेना शुरू किया तब उसने 'जय' के नाम के साथ सर हिलाना शुरू कर दिया, मेरे तो पाँव के नीचे से ज़मीन खिसक चुकी थी, 'सिंह जी' नाम था एक नामी गिरामी बाहुबली का या कहें गुंडे का, सुनते आये थे उसने फ़लाने को उडवा दिया, चिलाने को ॰गायब करवा दिया, मुझे तो यूँ लगा जय ने हम सबका हाथ पकड़ कर बर्रे की छत्ते में डाल दिया हों, सबसे पहली बात जो मेरे दीमाग में आई ....मैंने उसे पूछ ही लिया "कहीं तुमलोगों ने कुछ ऐसा वैसा तो नहीं कर लिया ? नहीं दीदी ऐसी-वैसी कोई बात नहीं है, मेरी जान में जान आई....मैंने उसे मनाना शुरू किया कि अच्छा ऐसा करो अभी तुम् वापस जाओ, हम जय से बात करके तुमको बता देंगे, वो कहने लगी "ठीक, उनको आने दीजिये, हम बैठे हैं' , मुझे इस बात की फिक्र हो रही थी कि अगर जय वापिस आ गया तो बात और बिगड़ जायेगी, बस ये तो जय के आने से पहले चली जाए, उससे भी ज्यादा फिक्र मुझे पिता जी की हो रही थी अगर उन्हें पता चला तो आज वो जय की चमड़ी उधेड़ देंगे, मेरे लाख समझाने पर भी वो वापस जाने को तैयार नहीं थी,
शाम अब रात में तब्दील हो चुकी थी, मेरी बस यही कोशिश हो रही थी, कि किसी के भी घर पहुँचने से पहले और बहुत ज्यादा रात होने से पहले यह लड़की चली जाए, नहीं तो एक बार इसकी खोजाई शुरू हो गयी तो पता नहीं फिर क्या होगा, मैं उमा से बोलती जा रही थी कि वो चली जाए, अब वो ऊपर भाग कर चली गयी मैं उसके पीछे-पीछे दौडी, इससे पहले की वो दरवाजा बंद करले मैंने खुद को कमरे में झोंक दिया, मेरे पास उसके पाँव पड़ने के सिवा कोई चारा नहीं था, मैंने हाथ जोड़ कर उसे अपने पूरे परिवार की दुहाई दी और चले जाने को कहा, उसे मैंने हज़ार बार यह आश्वासन दिया की मैं उसके माता-पिता से उसे माँग कर लाऊँगी, इस फेर में बहुत रात हो रही थी, मैं रोने लगी, मेरा रोना देखकर शायद उमा भी घबडाने लगी, खैर, मैं उससे बात करते-करते उसे नीचे तक ले आई और बाहर ले जाने लगी, अब उमा वापस जाने के लिए थोड़ी सी तैयार नज़र आ रही थी, मैंने उसका हाथ थामा और धीरे-धीरे हजारों वादे करती हुई घर से बाहर आ गयी...
बाहर अँधेरा बढ़ चुका था, और ऐसे में उमा को अकेले घर भेजना भी ठीक नहीं था, मैंने उसका हाथ थामा और गेट की तरफ चल पड़ी, किसी को मेरे चेहरे के भावः तो दीखाई नहीं देते लेकिन गेट से बाहर आते ही मैंने उमा का हाथ छोड़ा और अपना चेहरा हथेली से पोछ लिया, गली में हम आ चुके थे कुछ दूरी पर उमा का घर था, हमने यह भी नहीं सोचा उसके घर में क्या कहेंगे, हम दोनों चुप-चाप चलते रहे, उमा का घर पहुँच गया, गेट खोल कर हम अन्दर आ गये, उमा की माँ 'मालती आंटी' आ गई, अरे कहाँ से आवता ? मुझे देखते ही कहने लगी, अरे सपना बेटा, तुम् आई हो ? इ उमा कहाँ से मिल गयी तुमको ? बस ऐसे ही आंटी, उमा हमको मिल गयी थी बाहर , हम अपने घर ले गए थे, थोडा ज्यादा देर बैठा लिए थे, आप लोग बुरा मत मानियेगा, रात हो गयी थी, इसीलिए छोड़ने आये हैं, उन्होंने खुश होकर कहा अरे नहीं बेटा कोई बात नहीं है, तुम्हारे ही घर गयी थी ना, कोई बात नहीं, अच्छा आंटी अब हम चलेंगे, प्रणाम, अच्छा उमा फिर मिलेंगे,
उमा ने मुझे आशा भरी नज़रों से देखा, लेकिन मुझे मालूम था मैं उन नज़रों की उम्मीद पूरा नहीं कर पाऊँगी, मैं जल्दी से बाहर निकलने लगी, सामने से शायद ५-७-८ मालूम नहीं कितने कुरता-पायजामा पहने हुए, माथे पर तिलक लगाये, पान खाते हुए, मूछों वालें आते दीखाई पड़े, सिंह जी भी उनमें से एक थे, मुझसे उनकी नज़र टकराई, कुछ अस्मजस के भावः उनके चेहरे पर आये मैंने जल्दी से नमस्ते किया और झट दूसरी और नज़र घुमा लिया, लम्बे-लम्बे डग भरती हुई घर की ओर मैं चल नहीं रही थी दौड़ रही थी, घर में पिता जी आ चुके थे, थोडी देर में तीनों भाई एक-एक कर पहुँचते जा रहे थे, सब खाने का इंतज़ार कर रहे थे और सबको आश्चर्य हो रहा था आज खाना अभी तक बना क्यूँ नहीं ?
मैं मौन रोटी बेलती जा रही थी ....
क्रमशः
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मैं इन दिनों और कामों में व्यस्त हूँ नहीं तो बढियां स्क्रीन प्ले भी साथ साथ लिखता जाता -रहस्य रोमाच और रोमांस से भरपूर कथानक है ये तो और सत्यकथा भी ! कोई ट्राई करेगा क्या ?
ReplyDeleteबहुत सुन्दर ..आगे की प्रतीक्षा में....
ReplyDeleteओह! अरविन्द जी ठीक कह रहे
ReplyDeleteरहस्य रोमाच और रोमांस से भरपूर सत्यकथा
अगली कड़ी की प्रतीक्षा
बी एस पाबला
Adaji ...ye bhee ??:))
ReplyDeleteBahut Khoob ..romanchit kar dene wala..agle bhaag ka intezaar .....
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ReplyDeleteजय ब्लोगिग विजय ब्लोगिग
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बहुत ही बढीया लिखा है अदाजी!आगे की प्रतीक्षा में....
क्या कविताओ के लिऎ और इन्तजार करना पडेगा!
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पहेली मे भाग लेने के लिऎ निचे चटका लगाऎ
कोन चिठाकार है जो समुन्द्र के किनारे ठ्हल रहे है
अणुव्रत प्रवर्तक आचार्य तुलसी
मुम्बई-टाईगर
समय-समाज के संदर्भ में असाधारण शक्ति का गद्य। अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
ReplyDeleteबड़ी दिलचस्प मगर खतरनाक बनती जा रही है यह दास्ताँ..ऐसा लगता है जैसे ८० के किसी फ़िल्म का कथानक..पता नही भारत मे कलर्स चैनल वाले पढ़ते हैं आपका ब्लॉग या नही...वरना सीरियल आ जाता..आगे देखते हैं क्या होता है..
ReplyDeleteकथानक अच्छा है। इस पर एक शॉर्ट फिल्म भी बन सकती है। अगर इजाज़त हो तो बात आगे बढ़ाई जाए।
ReplyDelete-पंकज शुक्ल
pankajshuklaa@gmail.com
badhiya hai... movie making seekh raha tha khaali time mein... ab story bhi nahi likhni padegi!!!
ReplyDeleteintazar hai part 2 ka...
jai hind...
wow..its amazing story...waiting for the next part...
ReplyDeleteअदा जी,
ReplyDeleteबड़े दिलचस्प मोड़ पर ला कर आपने ब्रेक लिया है....बेसब्री से इंतज़ार है, उमा और जय की कहानी के अंजाम का...वैसे पंकज शुक्ल भाई की बात पर आप गौर कीजिए...फिल्म लेखन आपका इंतज़ार कर रहा है,,,
जय हिंद...
अगले भाग की प्रतीक्षा है!
ReplyDeleteये प्रतीक्षा ठीक वैसी ही लग रही है जैसे कि कभी मुझे देवकीनन्दन खत्री रचित "चन्द्रकान्ता सन्तति" के एक भाग को पढ़ लेने के बाद दूसरे भाग की रहती थी।
सिर्फ आपके लेख के शीर्षक के आधार पर यह टिपण्णी दे रहा हूँ, आपने अन्दर क्या लिखा है मैंने नहीं पढा :
ReplyDeleteशादी हो गई उसकी परसों गुडगाँव में, धूम धाम से, बाहुबली ने खूब पैसे का जलवा दिखाया, एक नीतिश कटारा मार दिया तो क्या ?
रोमांच , सनसनी , उत्सुकता ...क्या नहीं है इस संस्मरण में ...
ReplyDeleteकिसी ऐतिहासिक प्रेम कथा सा...काश की यह कोई जासूसी उपन्यास होता ...पिछले सिरे से पढ़कर अंजाम तक सरपट भागते ..!!
जल्दी लिखो दूसरी कड़ी ...
जिंदगी की कटु सच्चाई को खूबसूरती से उकेरता सुंदर संस्मरण।
ReplyDelete-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
बहुत इंट्रेस्टिंग लगा. एक फ़िल्म बनाई जा सकती है? आगे का ईम्तजार करते हैं.
ReplyDeleteरामराम.
अदा जी यह कहानी मैने कही पढी है, क्या आप ने दोबारा इसे प्र्काशित किया है? बहुत अच्छी कहानी है, आगे तो मै नही बतऊंगा, लेकिन काफ़ी रोमंचकारी है.
ReplyDeleteधन्यवाद
vaah bahut rochak sansmaran hai agalee kadee kaa intazar rahega shubhakaamanaayen
ReplyDeleteअदा जी,
ReplyDeleteपहले भी पढ़ी लगती है...
आपका कहने का तरीका बहुत अच्छा है ... फिल्म बनाने काबिल...
:)
सीन दर सीन .... कौतुहल बढ़ रहा है..
राज भाटिया जी, मनु जी,
ReplyDeleteआपने ठीक कहा यह हम पहले भी प्रकाशित कर चुके हैं.....
लेकिन फिर से डाल दिया ...कुछ नए पाठक भी हैं जिनसे हम इसे share करना चाहते हैं...
आप दोनों का बहुत बहुत धन्यवाद ...एक बार फिर मेरा साथ देने के लिए...
अदा जी का ये अवतार तो सचमुच अनूठा है....
ReplyDeleteअभी पूरा नहीं पढ़ा है।
फिर से आ रहा हूं तनिक फुरसत निकाल कर!
अदा जी,
ReplyDeleteइस संस्मरण को, मैंने देखा भी है, पढ़ा भी है, और सुनते भी रहे हैं
एक बार फिर पढ़ कर अतीत में मन खो गया है
आपकी बहादुरी के बारे में सच कर मन गर्व महसूस कर रहा है, और आपलोगों की परेशानियों को सोच कर मन उद्विग्न हो गया है.
आपकी लेखनी के प्रवाह में पाठकों को बहा ले जाने की अपूर्व क्षमता है.
बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप.
अदा जी,
ReplyDeleteइस संस्मरण को, मैंने देखा भी है, पढ़ा भी है, और सुनते भी रहे हैं
एक बार फिर पढ़ कर अतीत में मन खो गया है
आपकी बहादुरी के बारे में सच कर मन गर्व महसूस कर रहा है, और आपलोगों की परेशानियों को सोच कर मन उद्विग्न हो गया है.
आपकी लेखनी के प्रवाह में पाठकों को बहा ले जाने की अपूर्व क्षमता है.
बहुत ही अच्छा लिखती हैं आप.
पूरे फुरसत में बैठे हैं आज पढ़ने को...और ग़ज़ब का रोमांच है- कथा में तो है ही...आपकी लेखन-शैली का भी कमाल है।
ReplyDeleteजा रहा हूँ दूसरी किश्त पे...