Friday, November 6, 2009
बाहुबली की बेटी ...(भाग-३)
मैं अब तक नहीं समझ पायी कि मैं पिस्तौल कैसे छीन पायी, हलाँकि सिंह जी कोई बहुत बलिष्ठ व्यक्ति नहीं थे, लेकिन फिर भी भरी हुई पिस्तौल छीनना मुझे खुद ही अच्च्म्भे में डाल रहा था...., यह होना संभव ही नहीं था अगर मरियम ने, सिंह जी के दोनों पैरों को कस कर नहीं पकडा होता, मरियम जिस तरह से उनके पैरों से लिपट गयी थी सिंह जी खड़े भी नहीं हो पा रहे थे, गिरने की ही हालत हो रही थी उनकी, जैसे ही उन्होंने दीवार पकडा मैंने पिस्तौल छीन ली.....पिस्तौल मेरे हाथ में आते ही उसका मुंह मैंने सिंह जी को ओर किया और उनके बाकी के चमचे डर गए शायद यही वजह थी कि उन्होंने गोली नहीं चलाई वर्ना वो चला सकते थे मेरा रवैया भी उन्हें कुछ अच्छा नहीं नज़र आया था शायद इसीलिए सिंह जी ने जल्दी से कहा था 'समझा देना अपने भाई को हम फिर आवेंगे, बार बार पैर छुडाने कि कोशिश कर रहे थे इ लड़की छोड़ पैर ...अरे...छोड़ ना .., और पता नहीं कितनी गलियाँ देते जा रहे थे ......मरियम ने पाँव छोड़ दिया था, पाँव जैसे ही आजाद हुए सिंह जी दरवाज़े कि ओर भागे और पीछे पीछे चमचे, ......मैं पिता जी को कई बार गिरी हुई पिस्तौल उठाने का इशारा कर चुकी थी लेकिन वो समझ ही नहीं पाए , .....जीवन में पहली बार मैंने पिस्तौल इतने करीब से देखा था, वो भी loaded , मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि इसको रक्खा कैसे जाए, अगर कहीं गलती से चल जाए तो ?........ मैं भाइयों के हाथ में भी थमाना नहीं चाहती थी कहीं कोई लेकर आवेश में बाहर निकल गया तो ? ...... मेरे घर में अब दो पिस्तौल आ गयीं थी, एक मेरे पास दूसरी जो पिता जी ने गिराई थी, मैंने दोनों पिस्तौल अपने कब्जे में कर लिया, ......और धीरे से पिता जी को देकर छुपा देने का इशारा कर दिया ......मुझे डर था अगर मेरे भाइयों के हाथ आ जाये तो कुछ भी अनर्थ हो सकता था, ......
काफी रात तक हमलोग बातें करते रहे, मेरे दोनों भाई जवाबी हमले की ही बात करते रहे, .........हम नहीं छोडेंगे, ऐसा करेंगे, वैसा करेंगे, आवेश से सबका मुख लाल था, लेकिन इन सब बातों में एक शख्स बिलकुल ख़ामोश था....... जय किसी से कुछ भी नहीं कह रहा था.......उससे भी कोई कुछ नहीं कह रहा था, क्योंकि अब यह समस्या सिर्फ जय कि नहीं रह गयी थी, सबकी थी और हम सब साथ थे, रात बहुत हो चुकी थी लेकिन मेरा घर दोपहर सा जागृत था, बातें ख़तम होने को ही नहीं आती थी, मरियम को कुछ याद आता कि छोटा वाला बदमाश कैसे कर रहा था कभी मुझे याद आ जाता कि सिंह जी कैसे देख रहे थे वैगरह वैगरह, इस पूरी घटना की विवेचना करते-करते रात बीतती जा रही थी, ......मैंने माँ-पिताजी से सोने के लिए कहा, हलाँकि मुझे मालूम था उन्हें नींद नहीं आएगी फिर भी सोना जरूरी है ऐसा कह कर कमरे में भेज दिया, मैं मेरे भाई और मरियम बातें करते रहे, ......जय अब भी चुप था , मैंने कहा क्या बात है बाबू तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो ? ...... चिंता मत करो हमलोग हैं ना ? वो फफक-फफक कर रो पड़ा, 'आज मेरी वज़ह से आप सबकी जान जाते-जाते रही, मैंने सोचा भी नहीं था कि ऐसा हो जायेगा, आज के बाद मैं किसी उमा को नहीं जनता हूँ,........' मुझे बहुत चैन मिला, मैं उसे ऊपर उसके कमरे में ले गयी, इस समस्या का एक ही समाधान था, यह सम्बन्ध ख़तम करना और जय तैयार था, इसलिए नहीं कि वो डर गया था इसलिए कि वो हम सबसे बहुत प्यार करता था, मैंने पुछा कोई चिट्ठी वैगरह तो नहीं है ........शायद यह सब वापस कर दें और कह दें कि अब वो लोग हमारी तरफ से निश्चिंत रहे तो शायद मामला ठंडा हो जाये, जय ने मुझे दो-चार चिट्ठियां निकाल कर दी, कुछ कार्ड्स भी थे और कुछ छोटे मोटे गिफ्ट थे, ......मैंने सब कुछ अपने पास रख लिया और अगली रण-नीति बनाने में जुट गयी,
अब सुबह हो चुकी थी, मरियम ऊँघ रही थी लेकिन मैंने और जय ने तो पलकें झपकाई भी नहीं थी, मरियम को उठाया मैंने........बाहर के आँगन को झाडू करते समय उसे दो गोलियां मिली, गोलियों का साइज़ देख कर बदन में एक झुरझुरी दौड़ गयी , मैंने वो भी सम्हाल कर रख लिया, शायद भागते वक्त बाकी निशानचियों की पिस्तौल से गिरी होगी, अब पड़ोसियों की भी दबी-छुपी सहानुभूति हमें मिलने लगी थी, लोग छुप-छुप कर आने लगे थे, कोई भी खुल्लम-खुल्ला नहीं मिल रहा था, ......सब अन्दर से हमारे साथ थे लेकिन कोई भी दीखाना नहीं चाहता था, मगर मेरा दीमाग कुछ और ही सोच रहा था...... मुझे लगा कि एक लड़की के जीवन का सवाल है, मैं सारी चिट्ठियां उमा को या उसकी माँ को दे दूंगी और हमारी तरफ से निश्चिंत रहने के लिए कह दूंगी तो बात शायद इंतना टूल न पकडे अब.......परन्तु इस काम के लिए मुझे उनके घर जाना होगा जो एक बड़ा मसला था,
मुझे पता था अगर मैंने घर में बताया कि मैं सिंह जी के घर जा रही हूँ, तो सब एक सुर में कहेंगे 'तुम्हारा दीमाग ख़राब हो गया है ' इसलिए यह काम मुझे अकेले करना पड़ेगा, ......यह काम शेर के मुंह से दांत निकालने जैसा था, फिर भी मुझे करना ही था, मैंने मरियम को तैयार कर लिया साथ में चलने के लिए, मैंने सारी चिट्ठियों, कार्ड्स इत्यादि का एक पुलिंदा बनाया और लेकर चल पड़ी, गली में मेरे पहुँचते ही एक सनसनी सी फ़ैल गयी, सबकी डरी हुई नज़र मुझपर टिकी हुई थी, अजीब सा माहौल था, मैंने सामने रहने वाली अलिंदर कि माँ जिन्हें मैं चाची कहती हूँ , मुस्कुरा कर प्रणाम किया लेकिन वो मुस्कुरा नहीं पायी, पूछने लगी कहाँ जा रही हो, मैंने कहा 'उमा के घर' उनका मुंह खुला का खुला रह गया, बोलीं क्या..... ? मत जा बउवा... काहे वास्ते जात हौवा (मत जाओ, किस लिए जा रही हो) मैंने कहा ना चाची जायेके पड़ी (नहीं चाची जाना ही पड़ेगा) , सबकी आँखों में सहानुभूति और अवसाद का मिश्रण था, मरियम और मैं धीरे धीरे उमा के घर कि ओर बढ़ रहे थे, दिल ऐसे धड़क रहा जैसे लोहार कि भाँती चल रही हो, अब मैं गेट के सामने खड़ी थी, गेट खोल कर अन्दर जाने कि हिम्मत नहीं हो रही थी, गली में हर कोई अपने दरवाजे पर खडा होकर झांक रहा था और आगे की घटना का इंतज़ार कर रहा था....
मरियम ने मुझे डोर-बेल दिखाया मैंने बटन दबा दिया और अब प्रतीक्षा शुरू हो गयी, गेट खोलने के लिए कल रात जो आये थे चमचे उनमें से ही एक था, मुझे देखते ही बिना कुछ बोले वो अन्दर भागा, अब हम आने वाली मुसीबत का इंतज़ार कर रहे थे, ........दौड़ते हुए क़दमों कि आवाज़ तेज होती जा रही थी और शोर भी, देखा उमा भागी चली आरही थी और पीछे पीछे सभी, सिंह जी, मालती आंटी, दो-चार चमचे, उमा चीखती जा रही थी मुझे ले जाइये दीदी आपने वादा किया है, मैं यहाँ नहीं रहूँगी, दीदी....दीदी... ये लोग मेरी शादी कर रहें हैं दीदी , आपके भाई को बोलिए दीदी.... मैं हाथ जोड़ती हूँ ... और उसके हाथ जुड़ गए.... सिंह जी ने उमा के बाल पीछे से पकड़ लिए, मुझ पर गालिओं की बौछार होती जा रही थी, उमा को अब वो चमचों के हवाले कर चुके थे, अब मालती आंटी ने उमा को थप्पडों से मारना शुरू कर दिया और जितनी गलियां दे सकती थी देती जा रहीं थीं, मैं खतों का पुलिंदा दिखाने की और बात करने कि बहुत कोशिश कर रही थी, लेकिन ना मेरी बात कोई सुन रहा था, ना ही मेरी आवाज़ उनतक पहुँच रही थी, उमा चीखती जाती थी और मार खाती जाती थी, इतने में ही धायँ... धायँ... कि आवाज़ हुई, एक चमचे के हाथ में पिस्तौल थी जो अब धुआं उगल रही थी, मैंने खुद को टटोला, मैं ठीक थी, मरियम को देखा तो उसके कान से खून की धार किसी खुले हुए नल की तरह बह रहा था......और मरियम को पता ही नहीं था...मेरी फटी हुई आँखों से शायद उसे कुछ भान हुआ ....और इतना खून देख कर और शायद तब तक दर्द भी शुरू हो चूका हो ......वो बिलबिलाने लगी ..... मैंने उसे सम्हाला , गली में सबने अपने दरवाजे बंद कर लिए थे, वो चमचा विजयी नज़रों से मुझे देख रहा था, मैंने भी एक भेदती सी नज़र उसपर डाली, सिंह साहब मुझे खा वाली नज़रों से देखते जा रहे थे.....और हुंकारते जा रहे थे 'खबरदार जो तुम्हरा घर का कोई भी आदमी इ गली में दिखा तो जिंदा नहीं बचेगा , मैंने खतों का पुलिंदा दिखाया और कहा कि हम तो उमा का कुछ सामान देने आये थे और यही कहने आये ..... बस मैं इतना ही कह पायी मरियम गिरने लगी थी, मैंने पुलिंदा और मरियम दोनों को सम्हाला गोली कान को क्षत-विक्षत करती हुई निकल गयी थी शायद, मैंने मरियम से पूछा और कहीं दर्द तो नहीं हो रहा है ? लेकिन वो ज्यादा बात नहीं कर पा रही थी , मैं किसी तरह मरियम को घसीटती हुई घर कि तरफ चल पड़ी, रास्ते में दो पडोसी बाहर आ गए और मरियम को सम्हाल लिया, पीछे से सिंह जी कि मोटी-मोटी गालियों कि आवाज़ अब भी आ रही थी ...
क्रमशः
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कर्नल रंजीत, इब्ने सफी, वेद प्रकाश शर्मा, सुरेन्द्र मोहन पाठक याद आते चले गए।
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा
बी एस पाबला
agli kadi ki besabri se pratiksha hai :) ...jaldi likhiyega jara
ReplyDeleteअगली कड़ी की प्रतीक्षा
ReplyDeleteह्म्म्म ... इंटरेस्टिंग... लेकिन पहले पिछली दो कडियाँ पढ़ लूं...
ReplyDeleteअंतिम कड़ी का इंतजार है...
ReplyDeleteमेरा रवैया भी उन्हें कुछ अच्छा नहीं नज़र आया था शायद इसीलिए सिंह जी ने जल्दी से कहा था 'समझा देना अपने भाई को हम फिर आवेंगे,
रवैया नहीं अदा जी,
आपकी जांबाजी को वो हजम नहीं कर सके...
......जय अब भी चुप था , मैंने कहा क्या बात है बाबू तुम कुछ बोल ही नहीं रहे हो ? ......
कुछ नहीं कहा जा रहा..आगे कमेन्ट भी नहीं हो रहा ..
अब तो लगता है कि आप कविता से बढ़िया भी और कुछ लिख सकती है। बहुत बेहतरीन एहसास रहा पढ़ने के बाद। अगली कड़ी का इन्तजार रहेगा। और अन्त में आपसे विनम्र निवेदन है कि आप ऐसे सुन्दर फोटो को ना लगाया किया करिये, ऐसे भारतीय परिधान में इतनी सुन्दर यूवतीं को देखकर कहानी से ध्यान हट जाता है।
ReplyDeleteBahut hi romanchak di ab sabra nahin ho raha saara ek hi din me likh do aap to...
ReplyDelete:)
Jai Hind...
अगली कड़ी का इंतिज़ार मुझे सता रहा है
ReplyDelete---
चाँद, बादल और शाम
एक सांस में पढ़ गया -आपने एक साँस में लिखा भी हो शायद ! यह खूनी खेल खेलने की क्या आन पडी थी ?
ReplyDeleteहमें पूरी कथा बहुत अच्छी लगी.......
ReplyDeleteपर यह बताइए...... कि यह ठांय-ठांय पीस का फोटुवा कहाँ से ले आयीं आप ? पूरा concentration ही बिगाड़ दिया आपने........
चलिए ! इसी बहाने हमें eye-tonic मिल गया..... हेहेहेहेहे ........
ये तो खून खराबा शुरू हो गया ..कितने जासूसी उपन्यासों को पीछे छोड़ दिया है ...ये तो पुरानी ऐतिहासिक कहानी मालूम होने लगी है ...अगली कड़ी की प्रतीक्षा में ..
ReplyDeleteये तो चम्बल की प्रेम कहानी बनती जा रही है...और ये सिंह जी ने तो गब्बर को भी पीछे छोड़ दिया है...
ReplyDeleteजय हिंद...
"........ मैं भाइयों के हाथ में भी थमाना नहीं चाहती थी कहीं कोई लेकर आवेश में बाहर निकल गया तो ? ...... "
ReplyDeleteविचलित कर देने वाली मनःस्थिति में भी आपकी बुद्धि सामान्य तौर पर विचार कर रही थी! धन्य हैं आप!! अत्यन्त रुचिकर, रोमांचकारी, भयावह किन्तु सुन्दर संस्मरण!!!
अगली कड़ी की प्रतीक्षा है।
तस्वीर बदलने के लिए शुक्रिया अदा जी...
ReplyDeleteपहले वाली तस्वीर किसी भी तरह से कहानी के साथ और आपके ब्लॉग के साथ न्याय नहीं कर पाने में कामयाब नहीं हो रही थी...
जबरदस्ती की लग रही थी..
अब ठीक है..
दीदी चरण स्पर्श
ReplyDeleteआपका भी जवाव नहीं, अब हुई ना बात ये फोटो मैच कर रहा है आपके लेख के अनुसार।
maine phle bhi yh pdhi thi aur aaj bhi utne hi utsah se pdh rhi hoo
ReplyDeleteपाबला जी ने सही फरमाया है....
ReplyDeleteवाकई मैम, आपके हिम्मत की दाद देनी पड़ेगी। एक अपनी बहनों को देखता हूँ....हाय रेssss!
हमें पूरी कथा बहुत अच्छी लगी......
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