Wednesday, November 25, 2009
अगर मेरी सोच शरीर से ऊपर उठ जाए तो मैं बुद्ध न बन जाऊं...!!!
कल मैंने खुद से काफी जद्दो-जहद की कि इस बात को लिखूं या न लिखूं......क्यूंकि मामला शरीर का है....और मैं इंसान हूँ...अगर मेरी सोच शरीर से ऊपर उठ जाए तो मैं बुद्ध न बन जाऊं...!!!
खैर अभी मेरी सोच उतनी व्यापक नहीं हुई है......इसलिए इस घटना का ज़िक्र कर ही दे रही हूँ.....बात है बहुत ही छोटी सी.....लेकिन सोचने वाली है.....बस..
इस रविवार मैं सपरिवार मंदिर गयी थी ....यहाँ ओट्टावा में बहुत सुन्दर हिन्दू मंदिर है....अच्छा लगता है अपने भारतीय परिधान में अपने परिवार के साथ मंदिर जाना.....हालाँकि मन्दिर में भी अब मन्दिर सा माहौल नही होता ....औरतें मंदिर में साडी या सलवार कमीज पहनने के बावजूद सर पर पल्लू नहीं रखती हैं.....शायद यह प्रगति का ही द्योतक है.....मुझे इसके विषय में कुछ कहना नहीं है यह उनकी अपनी इच्छा है.....हाँ मुझे सर पर पल्लू रखना अच्छा लगता है...और मैं हमेशा रखती हूँ...बचपन से माँ को यही करते देखा....अब कहाँ छोड़ पायेंगे...अब इससे भगवान् जी को कितना फर्क पड़ता है....मुझे नहीं पता.....और मुझे लोग महा पिछड़ी भी समझते होंगे....उससे भी मुझे कुछ फर्क नहीं पड़ता....लेकिन मंदिर में सर पर पल्लू रखने से मेरे मन को फर्क पड़ता है......शायद यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो.....पल्लू सर पर रखते ही मन में अपार श्रद्धा का भाव स्वयं ही आजाता है.....और मन संयंत हो जाता है.....फिर से कहती हूँ शायद यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव हो.....हाँ अगर मैं देश की प्रधानमंत्री होती और बराक ओबामा से मिलने जाती तो साडी ही पहनती और सर पर पल्लू बिलकुल नहीं रखती.....लेकिन मेरे ससुर और जेठ के सामने रखूंगी ही रखूंगी....
हाँ तो बात मैं कर रही थी मेरे सपरिवार मंदिर जाने की....पूजा अर्चना के बाद ...नीचे हॉल में जाकर प्रसाद के रूप में ......पूरा भोजन हर रविवार को सभी भक्तगण करते हैं......सो हम सभी नीचे आ गए और कतार में खड़े हो भोजन ले लिया..... और पहले से बिछाई हुई चादर की पंक्तियों में बैठते गए ज़मीन पर....
मंदिर हो या गुरुद्वारा पता नहीं क्यूँ इन स्थानों का भोजन वैसे भी विशेष रूप से स्वादिष्ट लगता है अब इसके पीछे कारण क्या है...मालूम नहीं....शायद आस्था का अपना एक स्वाद होता होगा जो इसमें रच-बस जाता है.....
खैर, हम सभी आराम से बातें करते हुए खा रहे थे...हमारी पंक्ति के सामने....कुछ खाली स्थान छोड़ कर एक और पंक्ति थी जिनमें कुछ नवयुवतियां बैठी थी...उनकी पीठ हमारी ओर थी.....लगभग सबने जींस पहना हुआ था.....आज कल के चलन वाला...जिसकी आसनी बहुत छोटी होती है.......आज कल ये फैशन में है बहुत........इस तरह के पैट्स की एक बड़ी समस्या है कि ज़मीन पर बैठ कर खाने पर पैंट काफी नीचे खिसक ही जाती है.....और ...पैंट कोई भी कमर के ऊपर या नाभि के ऊपर चाह कर भी नहीं पहन सकता .....ऐसी जींस जब कोई पहन कर बैठे तो वो कितनी नीचे खिसकती है इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है....उस युवती ने भी वैसा ही जींस पहना हुआ था.......ज़मीन पर बैठने से पीछे से वो जींस काफी नीचे खिसक गयी थी.....इसलिए पीछे से उसके शरीर का बहुत ही निजी हिस्सा साफ़ साफ़ दीखाई पड़ रहा था.....मेरी बेटी के चहरे पर हवाई उडती देख मैंने उसकी नज़र का पीछा किया ......तो आसमान से गिर गयी.......मेरी नज़र उस लड़की से हट ही नहीं पा रही थी...मेरे साथ बैठी मेरी सहेलियां...मेरे बच्चे सभी बहुत ही असहज महसूस कर रहे थे.....मेरे पति तो उठ कर ही चले गए.......हम उससे कुछ कहते भी घबडा रहे थे ...क्या पता वो कह दे ......So what !! This is my body..and this is my choice...who the hell are you ??? बहुतों की नज़र उस पर थी ...कुछ उसे दया भाव से देख रहे थे....कुछ उसे देख कर शर्मिंदा थे और शायद कुछ अपना मनोरंजन भी कर रहे होंगे ....लेकिन वहां उपस्थित ज्यादातर आँखें शर्मसार थी....आखीर मुझसे नहीं रहा गया...मैं उठ कर उसके पास गयी और उसे उसके अंगप्रदर्शन का व्योरा दिया.....मेरी किस्मत अच्छी थी उसने इसे मान लिया और....जल्दी से उठ खड़ी हुई....वर्ना अपनी पसंद का तमाचा वो मेरे मुंह पर मार सकती थी और फिर मैं बेचारी क्या करती......बोलिए !!!
कल से मैं ये भी सोचने लगी कि अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या हम सब इतने असहज होते .....???? हाँ... असहज होते जरूर लेकिन शायद इतने नहीं.....मुझे शर्म कि जगह गुस्सा आता....लेकिन ऐसा क्यूँ हुआ कि अंग उस युवती ने उधाड़े और नग्न मैंने महसूस किया.....???
अब कोई यह कह सकता है की उस शरीर को आप शरीर क्यूँ सोच रही हैं ....आप इस सोच से ऊपर उठिए.....तो भाई......उससे ऊपर कैसा उठा जाता है ये भी तो कोई बताये.....हम ठहरे एक साधारण स्त्री....स्त्रीसुलभ सभी बातें बहुत पसंद करते हैं....और इनको कभी बेडी नहीं समझा... ये मेरे हथियार हैं .....फिर चाहे वो आँचल हो या पायल.....!!!
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abhi aate hain....
ReplyDeleteआपकी बात तो ठीक है, लेकिन हर किसी को समझाना इतना आसान नहीं है... और फिर कोई आपकी बात माने भी क्यों.. हर किसी को तो यही लगता है, कि वो आज़ाद है.. कुछ भी करने के लिए...
ReplyDeleteनारी या पुरुष दोनों के ही प्राइवेट अंगों का चाहे अनचाहे सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन कतई उचित नहीं है -यह जैवीय भावनाओं के लिए तीव्र stimulas बनता ही है! इससे कोई अप्रिय स्थति उत्पन्न हो सकती है ! इसलिए विश्व की लगभग सभी संस्क्र्तियों में इन्हें लेकर वर्जनाएं हैं !
ReplyDeleteआपसे सहमत !
अंग उस युवती ने उधाड़े और नग्न मैंने महसूस किया.....???
ReplyDeleteइसलिए कि आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखती हैं।
धर्म तो एक मिनट में बदला जा सकता है लेकिन संस्कृति बदलने में सदियां लगती है। आप हमारे देश की संस्कृति की वाहक हैं। आपको सलाम।
हम जिस समाज में रहते है उस समाज मे पूरे कपड़े पहनना ही सभ्यता की परिभाषा है इसलिये यह हमे अजीब लगता है । भविष्य़ मे जब सभ्यता की यह परिभाषा बदल जायेगी तब किसी को यह असहज नहीं लगेगा । आदिम समाज मे भी कहाँ लगता था ?
ReplyDeleteदीदी चरण स्पर्श
ReplyDeleteबहुत सही कहा दीदी आपने । हमारा जाता तो कुछ नहीं पर हमे जो सस्कार मिले है शायद वह हमे इसकी इजाजत नहीं देता ,। और देखिये बच के रहियेगा नारी ब्लोग से, इसके पीछे का कारण उन्हे जरुर पता होगा ।
aapke is lekh main kahi har baat dil ke bhaut kareeb lagi..ese vakaye yahan aamtaur par hote hi rehte hain gurudware ,mandir main...par bhai ham kabhi kuch nahi khe paye kisi se...dar gaye apni hi ijjat utarne se.aapne himmat ka kaam kia..agli baar ham bhi karne ki koshish karenge [:)]
ReplyDelete‘कल से मैं ये भी सोचने लगी कि अगर उस युवती के स्थान पर कोई युवक होता तो क्या हम सब इतने असहज होते .....???? ’
ReplyDeleteअसहज तो होते ही... क्योंकि शरीर तो शरीर है- चाहे वह स्त्री का हो पुरुष का!
इसी लिए तो कहा जाता है कि अवसर के हिसाब से कपडे पहनना चाहिए। कोई स्त्री पीताम्बर साडी पहन कर किसी मृतक के घर जाए तो असहज ही कहा जाएगा ना :)
dekhate to sabhi hai par bolane ki jo himmat aapna dikhayee vo jyada jaroori hai.aur hame bolana hi chahiye kyonki ye hamara samaj hai aur isake chalan ko vyavasthit karana hum sabaki jimmedari.
ReplyDeletekavita
ada ji,
ReplyDeletebahut sateek lekh likha hai....bass bade log sharminda ho jate hain par aaj kal ke bachche nahi samjhate....
jagrookta paida karne wale lekh ke liye badhai
अब क्या कहे किसी को समझाने लगो तो आगे से कहदे..So what !! This is my body..and this is my choice...who the hell are you ??? ओर उस पर तुरा कि हमे क्यो घुर रहे हो, हमारे साथ भी एक दो बार हुआ, हम नजरे छुका कर वहा से आ गये, आप ने बहुत सही लिखा. आजादी उसे कहते है जिस से दुसरे की आजादी मै खलल ना पडे,
ReplyDeleteधन्यवाद
अदा जी
ReplyDeleteजब तक हम केवल और केवल नारी को उसके शरीर की परिभाषा मे बांधते रहेगे नारी एक डरी सहमी बनी रहेगी । शरीर को भूलना होगा अगर बराबरी की बात करनी हैं तो । बराबरी का मतलब होता हैं क्षमताओ की पराकाष्ठा उसको अचिएवे करने के लिये जिस की कामना हैं । आप को सर धक् कर जो सुख की अनुभूति होती हैं पायल पहन कर जो अहसास होता हैं वो किसी इंजिनियर को अपना ओवर अल पहन कर हो सकता हैं या किसी नर्से को अपनी स्किर्ट नुमा फ्रोक्क पहन कर हो सकता या किसी डॉक्टर लड़की को अपना कोट पहन कर हो सकता हैं । जब नारी अपने शरीर को भूल जायेगी तो वो उससे जुड़े डरो से भी आज़ाद हो जायेगी । नारी का रेप हो सकता हैं और जो करता हैं सजा उसको नहीं सालो तक जिसका होता हैं उसको मिलती हैं । रेप और यौन शोषण का ट्रौमा मानसिक इतना होता हैं क्युकी शारीरिक पीड़ा का इलाज हो सकता हैं ।
भारतीये समाज मे कभी भी पुरूष के किसी भी कृत्य को प्रश्न चिन्हित नहीं किया जाता । और स्त्री के एक स्किर्ट पहने पर भी सवाल उठते हैं ?? क्या आप को लगता हैं की स्किर्ट पहने सही हैं या नहीं ये सोचने का अधिकार जिसे पहना हैं वो कर सके ।
आप को नहीं लगता नहीं स्त्री को समान अधिकार हो अपनी जिन्दगी अपनी तरह जीने के लिये ।
भारतीयों के साथ यही समस्या है ! अभी हम शरीर को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं । शरीर के उघडे या बंद होने से संस्कृति का कोई लेना देना नहीं है । यह सब भारतीय संस्कृति में विकृति का परिणाम है। और मध्य युग की देन है । जबकि स्त्री हिंसा रोज हो ही रही है । यहॉं पर्दे के पीछे सब गंदगी चलती रहती है और भारतीय संस्कृति को चोट नहीं पहुँचती । मुझे लगता है पाखंड को बनाए रखना ही भारतीय संस्कृति बन गई है ।
ReplyDeleteThis comment has been removed by the author.
ReplyDeleteअदा जी आपका अनुभव सच मे बहुत ही मन को छूने बाला है. पुरुष होते हुए हमे भी कभी कभी लगता है कि अपनी बेटी समझकर टोक दे पर टोक नही पाते. लडकी या लडका क्या पहने ये उस्का अपना चयन और निजी सोच है लेकिन भारत की इस युवतम पीढी से सिर्फ़ अनुरोध है कि जिस मकसद से बस्त्र पहने जाते है उसका खयाल रहे और भीड और अपने परिवार को ऐसी खुली शर्मिन्द्गी से बचाये.
ReplyDeleteसमय मिले तो मेरे ब्लोग तक आये स्वागत है
http://hariprasadsharma.blogspot.com/2009/11/blog-post_25.html
शुभ अभिवादन! दिनों बाद अंतरजाल पर! न जाने क्या लिख डाला आप ने! सुभान अल्लाह! खूब लेखन है आपका अंदाज़ भी निराल.खूब लिखिए. खूब पढ़िए!
ReplyDeleteएक विचारोत्तेजक पोस्ट
ReplyDeleteपरिवार, संस्कृति, लिहाज, हया का समर्थन वही कर पाता है जो इन पर आस्था रखता है।
स्त्री-पुरूष समानता विवाद पर, इसी ब्लॉगजगत पर मैंने कहीं पढ़ा है कि 'स्त्री नम्बर 1 बनें, न कि पुरूष नम्बर 2'
समानता की आड़ में, उद्दण्डतापूर्वक नग्नता का समर्थन करने वालों के प्रति सहानूभूति
बी एस पाबला
जैसे संस्कार प्राप्त किये हैं हमने, वही हमें संचालित करते हैं और यह सब बातें खराब लगती हैं. आप सही कह रही हैं.
ReplyDeleteबहुत हद तक सहमत हूँ ... वस्त्र ऐसे ही होने चाहिए जिसे पहनकर हम अपने पिता और भाइयों के सामने खुद को असहज ना महसूस करें ....सेना में ..या नर्सों की पोशाक में स्कर्ट होती है ...मगर वह कभी असहज नहीं लगती क्यूकी पद की गरिमा से जुडी होती है ...
ReplyDeleteअदा जी,
ReplyDeleteस्त्रीसुलभ सभी बातें बहुत पसंद करते हैं....और इनको कभी बेडी नहीं समझा... ये मेरे हथियार हैं .....फिर चाहे वो आँचल हो या पायल.....!!!
ये बात आपकी बहुत अच्छी लगी...
बाकी बात राही किसने क्या पाहनाना अच्छा
लागता ही और किसे क्या... इस पार आप स्त्रीयान हि क्यून लेख लिखति hain ...?
अगर आज गाने का या शायरी का मूड नाही है तो एक दिन लेत पोस्त डाल दिजीये...
क्यूंकि मामला शरीर का है....और मैं इंसान हूँ...अगर मेरी सोच शरीर से ऊपर उठ जाए तो मैं बुद्ध न बन जाऊं...!!!
अब जिस बात पार आप और रचना जी अपने अपने विचार राख राहे हीन.....( नेत नाही चाल रहा )
वो बेहद मामुली बात है.... और बेहद गैर मामुली भी....
अगर मामुली बात है तो जाणे दिजीये...
और अगर इतनी हि गैर मामुली है......
तो कोई भी इस बात पार बहस नाही कर सकता...कोई नही नाही...
आप जैसी गैर मामुली स्त्री भी नहीं...,..
सो अपने गीत सुनाइये...और एकदम मस्त रहिये......
बहुत सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteसच तो यह है कि हम शरीरधारी हैं, इसलिये शरीर से ऊपर उठ जाने के बाद भी किसी न किसी रूप से शरीर से जुड़े ही रहते हैं।
यदि हमारे पास सोच है तो अच्छे विचारों के साथ ही साथ विकार भी अवश्य ही होंगे। शरीर या अंग का प्रदर्शन विकारों को अधिक उत्तेजित करता है बनिस्बत अच्छे विचारों के।
एक बात और, सोच याने कि विचार। विचार संस्कार के अनुरूप बनते हैं और संस्कार बनता है हमारी शिक्षा से।
अदा जी,
ReplyDeleteकरीब 25 साल पहले अमिताभ बच्चन की फिल्म आई थी- दोस्ताना...इसमें कम कपड़े पहने जीनत अमान को एक मनचला छेड़ देता है...जीनत इंस्पेक्टर बने अमिताभ से थाने में शिकायत करने आती हैं...अमिताभ मनचले की तो खबर लेते ही हैं साथ ही जीनत को भी कहते हैं...मैडम अगर कोई अपना घर खुला रखेगा तो डाका डालने वाले तो आएंगे हीं....
आजकल नोएडा-दिल्ली में ड्राइविंग करते समय विषम स्थिति से गुजरना पड़ जाता है...साथ से लड़कों के पीछे बाइक पर बैठी लड़कियां निकलती हैं तो कई बार जींस इतनी नीचे खिसकी हुई होती हैं कि बेचारी जींस की हालत पर भी तरस आ जाता है...बेचारी जींस यही कह रही होती हैं...इरादा क्या है...या तो पूरी तरह पहन लिया करो या घर पर ही छोड़ कर कोई दूसरी ड्रेस पहन लिया करो...ये आधी सांस की तरह हमें बीच में क्यों अटकाए रखती हो...
जय हिंद...
अदा जी , स्त्रियों की सोच को शरीर से ऊपर उठना होगा बुद्ध बनना या न बन पाना बाद की बात है !शरीर की शुचिता के सवाल को खारिज करुं तभी मुक्ति मिलेगी !
ReplyDelete@mahfooj
ReplyDeletebhai aapne jo kuh bhi kaha uske liye aapko saja to jaroor milegi , aapki himmat kaise huyi ye naari tari kahne ki ha, aur kah rahe hai ki blogar bandhu maph kar denge ,pagal hai kya blogar badhu . Aur aap ye bataiye ki aapko sex ke bare me etna kuch kaise malum hai ?, hamse to kabhi nahi bataye , aur jara gusse par control kariye nahi to nari blog wali bahne aapki what laga dengi aur aap jyada der tak tik nahi payenge yahan samjhe ki nhai............ ye unka adhikar hai samjhe ki nahi aap .........
सच कह रहीं हैं इस तरह की असहजता हमने भी महसूस की है दुर्भाग्य से मंदिर और गुरूद्वारे जैसी ही जगह पर....अधिकांशतः तो व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का मसला मानकर अपनी ही चुप्पी से संतोष किया है...
ReplyDeleteअदा जी,आपने खुद से जद्दोजहद की पर आपका जमीर विजयी हुआ और आपने यह पोस्ट लिख डाली.बहुत अच्छा किया.....सबके मन में यह बात चलती रहती है,पर कहने की हिम्मत बहुत कम लोग कर पाते हैं,खासकर स्त्रियाँ....इस तरह के कपड़ों की वकालत तो कोई भी नहीं कर सकता....अक्सर हम सहेलियां बातें,करते हैं...इन लड़कियों को यह अहसास कैसे नहीं होता?..और सच मानिए पुरुषों को देखकर भी उतनी ही असहजता होती है...मैंने गोद में अपने बेटे को लिए एक पुरुष को ऐसी जींस में देखा था.
ReplyDelete@मिथिलेश ..मैंने कल ही नारी ब्लॉग ज्वाइन किया है और एक पोस्ट डाली है ,"मोनालिसा इज स्मायीलिंग......" लड़कियों के कपड़ों से भी कई इतर बातें हैं करने को...मुझे उम्मीद है,यह पोस्ट अच्छी लगेगी,आपको और देख सकें तो यह फिल्म भी जरूर देखें....उनसे इतना डरिए मत.वे आपकी हर बात का समर्थन नहीं कर सकतीं तो इसका मतलब ये नहीं की आपकी हर बात का विरोध ही करेंगी.
bahut hi umda soch ke sath likha lekh hai .........ye soch , ye sanskar hi hamari dharohar hain aur koi bhi bhartiya in sanskaron ka apman bardasht nhi kar pata .......ab dekhiye us ladki mein bhi kahin na kahin ye sanskar the tabhi wo ek dum wahan se chali gayi..........ye kya kam hai ki pragtisheel desh mein rahte huye bhi abhi bhi hamare sanskar kahin na kahin zinda hain.
ReplyDeleteSoul का 'gender ' define नहीं किया जा सकता और न ही "ईश्वर का!
ReplyDeleteइन्सान बयान के काबिल नहीं, और उसका 'Gender' क्या जिसका ’ Character'ही under
question ho!
दिल करता है, तो कहना ही पडेगा!
"मेरे चेहरे पे पडी गर्द से मायूस न हो,
मैं हसीं रूह हूं, ये धूल हटा कर देखो."
Gender bias की गर्द चेहरे को हटा कर देखें तो हर इंसान में एक हसीं रूह दिखाई देगी!
अदा जी,
आप की आमद का इंतेज़ार है, "सच में" को!
क्या कहें अदा जी ...हमारे तो स्कूल के लड़के ज्यादा अंग प्रदर्शन करने लगे हैं , पेंट बिलकुल नीचे खिसक चुकी है , शर्ट के सामने के बटन हमेशा खुले रहते हैं , कुछ कहो तो सामने तो बटन बंद कर लेंगे लेकिन पीठ के फिरते ही फिर वही ...हाथों में चुदियाँ टाइप के कड़े पहने रहते हैं , इन लड़कों ने लड़कियों को पीछे छोड़ दिया है ...
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