इन्सान के कन्धों पे, रिवाजों का बोझ है
पाज़ेब है संस्कार की, रस्मों का बोझ है
आँखें वो हवस से भरी, हैं खार चुभोतीं
हैं फूल से बदन, उन निगाहों का बोझ है
हर घर में है रौशनी, और इल्म के हैं तारे
बच्चों के सिर पे कितनी, किताबों का बोझ है
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
चेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है
सन्नाटों की जुबाँ अब यहाँ, समझेगा भला कौन
हर कान से चिपका हुआ, नगमों का बोझ है
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है
बहुत ही बढ़िया अभिव्यक्ति .
सन्नाटों की जुबाँ अब यहाँ, समझेगा भला कौन
ReplyDeleteहर कान से चिपका हुआ, नगमों का बोझ है
kya kahne hain...badhi guddh panktiyan hain..;)
abhar!
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है .........
आज की सच्चाई है ये........सुंदर रचना.....अच्छी लगी।
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है
मन के बोझ को कहती अच्छी गज़ल ...
हमेशा की तरह अच्छी लगी ये रचना भी .. शुभकामनाएं !!
ReplyDeleteकिसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है.
सुन्दर,सही और सार्थक शेर..
लाजवाब...!
ReplyDeleteनगमों के बीच सन्नाटों की प्रार्थना गायब है।
ReplyDeleteइन्सान के कन्धों पे, रिवाजों का बोझ है
ReplyDeleteकमरबन्द संस्कार का, रस्मों का बोझ है
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
चेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है
samay kee qillat hai sabab ki comment nahin kar pata hun.padhta zaroor hun aapki har post !
lekin in do sher ne besakhta waah waah kahne ko majboor kar diya !!!
kitne dino baad padha aapko...kaha kho gai thi aap?
ReplyDeletebahot hi achchi prastuti...
किसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है...
गुमसुम हम भी कई बार सोचते हैं यही ...!
मन के बोझ को कहती अच्छी गज़ल ...
ReplyDeleteकिसको कहें दोस्त और, हमदर्द यहाँ कौन
ReplyDeleteचेहरों पे इनके कितने, नकाबों का बोझ है
चेहरों के नकाब तो फ़िर भी कभी उतर जायेंगे, जेहन का बोझ इंसान को बहुत थका देता है।
बहुत गैप के बाद आपकी पोस्ट आ रही हैं आजकल, प्लस प्वाईंट ये है इसमें कि कमेंट सोचने को वक्त मिल जाता है:))
ये तो थी हंसी की बात, सही में तो आपकी पोस्ट देखना डेली रुटीन में शामिल हो चुका है। आज बहुत अच्छा लगा कि रुटीन अधूरा नहीं छूटा, धनबाद संभाल लीजिये।
कितने अहसानों का बोझ ढोता फिर रहा है आदमी :(
ReplyDeletehmmm
ReplyDeletebadhiyaa likhaa hai...
सन्नाटों की जुबाँ अब यहाँ, समझेगा भला कौन
ReplyDeleteहर कान से चिपका हुआ, नगमों का बोझ है
कितनी गहरी बात है, सन्नाटे वाकई सुने जाने चाहियें।
आपका लिखा हुआ पढना बहुत अच्छा लगा।
गणतंत्र दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई ...
ReplyDeleteगहरी अभिव्यक्ति ! शिकायत ये कि कहां थीं आप ?
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