Sunday, June 27, 2010

ज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ ...!

वो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ 
आये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ

महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ 
इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ 

कोई बुतखाना,परीखाना कोई मैक़दा नहीं 
ढूँढें इन्हें कहाँ और अब जाएँ कहाँ कहाँ 

बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग 
फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ 

जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
ज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !

20 comments:

  1. बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो
    लोग फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
    --
    बहुत सुन्दर रचना!

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  2. जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
    ज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !

    कोई बात तो रही होगी वरना
    अब कोई रास्ता नहीं भूलता

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  3. महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
    इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ
    वाह! क्या बात है!!

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  4. जाना था तुमको भी उस दूसरी गली
    ज़बरन चले आये तुम भी यहाँ कहाँ !

    सुन्दर रचना , सुन्दर चित्र ( हमेशा की तरह )

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  5. सुन्दर रचना...
    बुतखाना, परीखाना, मयखाना...जहां ये हो..वो शे'र यूं भी हमें अपने से लगते हैं...
    पेंटिंग में लड़की पर ब्रश बड़ा बिंदास चला रखा है...तल्लीनता देखने काबिल है..

    आखिरी शे'र पर बार बार हमारा ध्यान जाता है...

    एक शे'र याद आ रहा है...................
    उनकी गली को निकली हर इक रहगुजर मेरी...
    जो खुद तलक पहुंचता, कोई रास्ता न था...

    उम्मीद है कि अब ओट्टावा का जन-जीवन सामान्य हो गया होगा कुछ...

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  6. बढ़िया प्रस्तुति,बहुत सुन्दर रचना!

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  7. साथिया आज की रात हमें नींद नहीं आएगी,
    सुना है उनकी महफ़िल में रतजगा है...

    जय हिंद...

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  8. बहुत खूबसूरत जज़्बात पेश किये हैं आपने इस रचना के माध्यम से।
    तस्वीर भी मन की उधेड़्बुन को बखूबी बयान करती है।
    और कल की पोस्ट का एक वाह बाकी था, वो भी स्वीकार कर लीजिये। कुछ अच्छा ही लिखा होगा, मुझे समझ नहीं आया तो इसमें आपकी कोई गलती नहीं है।
    बहुत बहुत आभारी।

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  9. महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
    इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ
    बहुत खूब अजी हम हैं ना आपके कद्रदां जरा इधर देख तो नज़र उठा कर मगर नही आपकी नज़र तो आस्मां की तरफ है,बडिया ।हा हा हा शुभकामनायें

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  10. अति उत्तम रचना .....लाजवाब प्रस्तुति

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  11. वो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ
    आये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ
    अजी इस गजल मै तो हम सब प्रदेशियो का दर्द छुपा है, बहुत खुब

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  12. बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग
    फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
    ब्लॉग जगत पर फिट बैठता शे’र, बहुत कुछ सोचने पर मज़बूर कर गया।
    उम्दा ग़ज़ल!

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  13. खेमे में जीते लोग किश्तों सोचतें हैं
    ये लोग ग़ज़ब के लोग चलने से रोकते हैं..?

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  14. वो जश्न वो रतजगे वो रंगीनियाँ कहाँ
    आये निकल वतन से हम भी यहाँ कहाँ .. bahut sach.. bahut khoob.

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  15. एकदम लाजवाब ख्याल है.. पहला शेर तो अप्रवासियों के दर्द को बखूबी बताता है..

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  16. बेहद उम्दा रचना ... !!!

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  17. बस रहे खेमों में हम जैसे हैं जो लोग
    फिर सोचेंगे जाएगा ये कारवाँ कहाँ
    महबूब मेरा चाँद मेरा हमनवां कहाँ
    इस बेहुनर शहर में कोई कद्रदां कहाँ ...
    अपने वतन से जुड़ा होने का दर्द उभर आया है इन पंक्तियों में ...

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  18. बात बिलकुल सही कही है ...

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