जाने क्यों मुझे लगता था
मैं हमेशा कुछ ढूंढ रही हूँ
परन्तु नहीं जान पाती थी
क्या ढूंढ रही हूँ !
मेरी खोज गहरी होती जाती थी |
और भी गहरा जाती थी,
हर दिन मेरी अंतर्यात्रा की शुरुआत |
फिर...
एक दिन मैं दंग रह गयी,
तुम अमूर्त सी रचना नज़र आये,
मेरे अंतर के तार झनझनाए,
कहीं कोई कहानी नज़र नहीं आयी,
न ही नज़र आये सवालों के प्रतिबिम्ब,
मेरी चाहत मुझसे परे,
तुमसे सामंजस्य बिठाने लगी,
मेरे सपने किसी जादूई तूलिका में,
इन्द्रधनुष से उतरने लगे
भावनाएं आहिस्ता आहिस्ता,
व्यक्त होने लगीं,
व्यक्त होने लगीं,
और राहें सृजनात्मक लगने लगीं |
ज्यों-ज्यों मैं इन राहों पर बढ़ने लगी,
तुम्हारे प्रेम और मेरी साधना ने,
मेरी अंतर्यात्रा को और प्रशस्त कर दिया |
जबसे मेरी आकांक्षाओं ने मेरे भय को
पराजित किया है,
तब से जीवन सत्य लगने लगा |
तुम चटख रंगों का अमूर्त सृजन हो,
जिसकी अभिव्यक्ति मुझ पर,
असर डाल रही है,
और धीरे धीरे मुझे वास्तविकता की सीमाओं से परे,
कहीं दूर लिए जा रही है....
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