Thursday, December 16, 2010

मेरे घर की उखड़ी साँस....


उजड़ा छप्पर टूटी बाँस
मेरे घर की उखड़ी साँस

यादें सूख पपड़ी भयीं
कहीं फँसी है दर्द की फाँस

लोग कहाँ हैं, बस्ती सूनी
घर में उग आई है काँस

अंत समय क्या चाहे 'अदा'
दू गज कपड़ा आठ गो बाँस



20 comments:

  1. आदरणीया 'अदा' जी


    शानदार जानदार रचना के लिए आभार !

    … लेकिन गीत की प्यास लिए ही लौट रहा हूं …

    शुभकामनाओं सहित
    - राजेन्द्र स्वर्णकार

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  2. काँस का तो मुझे मतलब ही नहीं पता,अदा जी.
    और ये क्या, आपने कोई गाना ही नहीं डाला,अब क्या करें.

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  3. नपे तुले शब्दों में जिन्दगी की जद्दोजहद का हासिल बताती पोस्ट, फ़िर से शानदार अभिव्यक्ति।
    वैसे कुछ समय पहले आपकी ही एक पोस्ट में ’सिर्फ़ दो आलम’ की ख्वाहिश की गई थी।
    दोनों को एक साथ पढ़ें तो - जीते जी दो आलम से कम में काम नहीं चलता और जीवन के बाद दो गज कपड़ा भी ज्यादा है।
    यही सच है।

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  4. हालत सचमुच है नाज़ुक,
    या कविताई से देते झाँस ?

    दू गज कपड़ा आठ गो बाँस ;) लिखते रहिये ...

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  5. बहुत ही सुन्दर रचना।

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  6. आपकी पोस्ट की चर्चा कल (18-12-2010 ) शनिवार के चर्चा मंच पर भी है ...अपनी प्रतिक्रिया और सुझाव दे कर मार्गदर्शन करें ...आभार .

    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  7. बहुत सुंदर अभिव्यक्ति. हर जीवन की यही सच्चाई है.

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  8. ‘अंत समय क्या चाहे 'अदा'

    यह तो दिल दुखाने की बात हुई ना :(

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  9. दू गज कपड़ा आठ गो बांस :)

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  10. क्या बात है!!
    हलके-फुल्के शब्दों में बड़ी गहरी उदासी पिरो दी है आपने..
    अच्छी लगी कविता...
    ब्लॉगिंग: ये रोग बड़ा है जालिम

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  11. @ कुँवर जी,
    काँस..एक प्रकार का घास होती है..

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  12. दू गज कपड़ा आठ गो बांस...... पुरे जीवन का अंतिम सच है ये तो.

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  13. अंतिम सत्य अभिव्यक्त हो गया सहजता से!
    सादर!

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  14. "दूई गज़ कपड़ा अठ गज बाँस"

    आँचलिक खुश्बू से सराबोर बेहतरीन पेशकश 'अदा' जी| बधाई|

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  15. जीवन का उदास सा सच ! बहुत खूब ।

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