हालात ज़िन्दगी के कुछ, ऐसे बिगड़ गए
बस देखते ही देखते, हम ख़ुद से बिछड़ गए
आज़ादी तो मिली मगर, उड़ने का दम नहीं
'पर' सारे क़ैद में मेरे, जाने क्यों झड़ गए
खिलेंगे फूल फिर यहाँ, अगली बहार में
अफ़सोस है कुछ पेड़ तो, जड़ से उखड़ गए
रुकना है चंद रोज़ अब, किसी सराय में
कल रात आँधियों में कुछ मकाँ उजड़ गए
किस्सा लिखूँ तो अब कहो, किस-किस का मैं लिखूँ
मिलते रहे कितनों से हम, कितने बिछड़ गए
सब्ज़ीवाले की व्यथाकथा.....ये गीत वाणी को समर्पित है, मेरे हृदय में मेरी प्यारी और पड़ोसिन की जगह उसी की है और कोई उसे ले ही नहीं सकता ...:):)
सब्ज़ीवाले की व्यथाकथा.....ये गीत वाणी को समर्पित है, मेरे हृदय में मेरी प्यारी और पड़ोसिन की जगह उसी की है और कोई उसे ले ही नहीं सकता ...:):)
behad khubusuart likha hai ji....
ReplyDeletewaah!
kunwar ji,
खास आश्चर्य नहीं हुआ....आपसे इससे ज्यादा क्या उम्मीद की जानी चाहिए ...:)
ReplyDeleteपड़ोसन की बजाय खुद ही चले जाएये ना ...रोज ताजा हरा पोदीना, धनिया सब मिलता रहेगा ...रोज -रोज कुछ देकर लेने के झंझट से मुक्ति ...वैसे इस सब्जी वाले को अब कोई बचा नहीं सकता ...
हां नहीं तो ....
किस्सा लिखिए आप, चाहे जिसका भी लिखे,
ReplyDeleteयादों में पर उलझे , समझिये सर से धड गए.
लिखते रहिये ...
खिलेंगे फूल फिर यहाँ, अगली बहार में
ReplyDeleteअफ़सोस है कुछ पेड़ तो, जड़ से उखड़ गए
बिछड़े जो तो मिल भी लेंगे पर उखड़ गये तो ...
बहुत खूबसूरत भावनात्मक गज़ल
Kunwar Kusumesh ji ne kaha...
ReplyDeleteअदा जी,
पहले भेजा हुआ matter मैंने sent item में देखा तो सब शब्द बिखरे बिखरे दिखे,इसलिए मैं revised ग़ज़ल दोबारा मेल कर रहा हूँ.
कुँवर कुसुमेश
हालात ज़िन्दगी के सरापा बिगड़ गए,
हम देखते ही देखते ख़ुद से बिछड़ गए.
माना मुझे सैय्याद ने आज़ाद कर दिया,
कैसे उड़ें? क़फ़स में मेरे पर ही झड़ गए.
रौनक़ हमें दिखाएगी अगली बहार फिर,
अफ़सोस कुछ दरख़्त ही जड़ से उखड गए.
आओ किसी सराय में लेने चलें शरण,
कल आँधियों कि ज़द में रहे घर उजड़ गए.
तर्ज़े-बयां करूं तो "अदा" किस तरह करूं,
कितने हबीब आये तो कितने बिछड़ गए.
कुँवर जी,
आपका हृदय से आभार..निःसंदेह अब ये ग़ज़ल बन गई है....
खिलेंगे फूल फिर यहाँ, अगली बहार में
ReplyDeleteअफ़सोस है कुछ पेड़ तो, जड़ से उखड़ गए
बहुत खूबसूरत .... जड़ों से दरख्त उखडते ही हैं .....सबकी मियाद निश्चित होती है ..
मिलने का सुख को बिछड़ने के दुख से अधिक बनाये रखें।
ReplyDelete`अफ़सोस है कुछ पेड़ तो, जड़ से उखड़ गए’
ReplyDeleteइसीलिए तो कहते हैं कि दूब बनकर जियो :)
आज़ादी तो मिली मगर, उड़ने का दम नहीं
ReplyDelete'पर' सारे क़ैद में मेरे, जाने क्यों झड़ गए
बहुत भावपूर्ण ग़ज़ल...आभार
यह कहाँ का लोक गीत है ?
ReplyDeleteजो भी है परन्तु अच्छा लगा ।
दिल को छु लेनेवाली रचना ..आभार !
ReplyDeleteपहले भी शायद इसी गज़ल पर या ऐसी ही किसी गज़ल पर कहा था कि मन को गहरे तक छू जाती हैं ऐसी गज़लें, लेकिन वाह-वाह नहीं कह पाते, यह सोचकर कि क्या मालूम लिखते समय रचनाकार के मन की क्या कैफ़ियत रही होगी।
ReplyDeleteबहुत टचिंग है,सच में।
सब्जीवाले की व्यथा(?)कथा! बहुत व्यथित करने वाली लगी:)
आपकी पोस्ट, हमेशा की तरह लाजवाब।
जो मौजूद हैं उन्हें बिछड़ने से बचाया जाय :)
ReplyDeleteअदा जी नमस्कार . बहुत दिनों से आपका ब्लॉग कुछ कारन से नहीं पढ़ा था . आज तो मेरे दिन ही बन गए . पहले तो आपकी हर रचना सोचने पर मजबूर करती है . और बाद में सब्जी वाले को जो आपने गुहार लगाई है बिना मुस्कराए नहीं रह पाई . बहुत बहुत धन्यवाद.
ReplyDelete