मुझे ख़ुद पे क्यूँ न ग़ुरूर हो
मैं एक मुश्ते ग़ुबार हूँ
मैं एक मुश्ते ग़ुबार हूँ
समझूँगा मैं तेरी बात क्या
पत्थर की मैं दीवार हूँ
आया हूँ बच के ख़ुशी से मैं
मैं सोग-ओ-ग़म का बज़ार हूँ
उड़ने की है किसे जुस्तजू
मैं ऊँचाइयों का शिकार हूँ
रहमतें मिलीं खुल के मुझे
मैं ज़ुल्मतों का प्यार हूँ
हर दर्द का हूँ मैं देनदार
खुशियों का मैं ख़रीददार हूँ
इतराऊं खुद पे न क्यूँ 'अदा'
पर चलूँ कैसे ? लाचार हूँ
पत्थर की मैं दीवार हूँ
आया हूँ बच के ख़ुशी से मैं
मैं सोग-ओ-ग़म का बज़ार हूँ
उड़ने की है किसे जुस्तजू
मैं ऊँचाइयों का शिकार हूँ
रहमतें मिलीं खुल के मुझे
मैं ज़ुल्मतों का प्यार हूँ
हर दर्द का हूँ मैं देनदार
खुशियों का मैं ख़रीददार हूँ
इतराऊं खुद पे न क्यूँ 'अदा'
पर चलूँ कैसे ? लाचार हूँ
bhut achchi prstuti alfaazon men hr drd ko smet diya he mubark ho. akhtar khan akela kota rajsthan
ReplyDeleteहर दर्द का हूँ मैं देनदार
ReplyDeleteखुशियों का मैं ख़रीददार हूँ ..
और फिर भी ..
मुझे ख़ुद पे क्यूँ न ग़ुरूर हो ...?
चटपटी, कहीं बेस्वादी ग़ज़ल,
ReplyDeleteफीकी, मीठी, कहीं अचार हूँ ...
उड़ने की है किसे जुस्तजू
ReplyDeleteमैं ऊँचाइयों का शिकार हूँ
very nice
हर दर्द का हूँ मैं देनदार
ReplyDeleteखुशियों का मैं ख़रीददार हूँ
बहुत ही सुन्दर पंक्तियां ....।
लाचारी कैसी ???????????? खूबसूरती से लिखे हैं भाव
ReplyDeleteऊँचाईयों का शिकार, सर्वथा नया शब्द, बहुत सुन्दर, वाह।
ReplyDeleteहर दर्द का हूँ मैं देनदार
ReplyDeleteखुशियों का मैं ख़रीददार हूँ ...
बहुत सुन्दर भावपूर्ण अभिव्यक्ति...आभार
आपको पढ़ा भी,सुना भी.
ReplyDeleteआवाज़ का जादू सर चढ़ के बोलता है.
बेहतरीन आवाज़.
bahot achche ... wah wah ...
ReplyDeletenice
ReplyDeleteमैं एक मुश्ते ग़ुबार हूँ
ReplyDeleteन किसी की आंख का नूर हूं.... :(
क्या कहे किसे अच्छा कहे लिखे को या सुने को
ReplyDeleteसमझूँगा मैं तेरी बात क्या
ReplyDeleteपत्थर की मैं दीवार हूँ
सुंदर पंक्तियां.....
’उड़ने की है किसे जुस्तजू
ReplyDeleteमैं ऊँचाइयों का शिकार हूँ’
ऊंचाईयों पर पहुंच चुकों का यह भी एक अनूठा दृष्टिकोण, अच्छा लगा।
@ धीरू सिंह जी:
एक से बढ़कर एक कह देते हैं, सही रहेगा।
वाह बहुत सुन्दर कविता..
ReplyDeleteवाह !! बहुत ख़ूब !!!
ReplyDeleteचटपटी, कहीं बेस्वादी ग़ज़ल,
ReplyDeleteफीकी, मीठी, कहीं अचार हूँ ... ...वाह क्या शानदार समीक्षा है गज़ल की....यही सही है...
खुदी पे इत्ते सारे भरम :)
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