चीकट हुई रजाई से
झाँकती चीकट रूई
बिना खोल के
चीकट तकिया
बरसों पुरानी
चीकट चादर
भूरे से धब्बे
कितना गंधाते हैं
अपनी विवशता बताते हैं
सामने दीर्खा पर
अंग-भंग शंकर की मूर्ति
टंगा है अलने पर
मैला-कुचैला
खद्दर का कुरता
ज़ेब में थोड़ी सी रेजगारी
टूल पर रखा
टूटा सा चश्मा
एक 'अतिरिक्त' व्यक्ति
का कमरा
कुछ ऐसा ही नज़र आता है
हर वक्त बताता है
महसूस कराता है
तुम 'अनावश्यक' हो ...!
कितना दर्द है अतिरिक्त में ही.
ReplyDeleteमार्मिक रचना.
सब समय की बात हैं, वरना ये जो आज ’अतिरिक्त और अशक्त’ हैं कभी अपरिहार्य माने जाते रहे होंगे।
ReplyDeleteमार्मिक पोस्ट।
‘टूल पर रखा’
ReplyDeleteटूल या स्टूल?
बुढापा ऐसा ही होता है.... छठी उंगली :(
@ होता तो स्टूल ही है...बाकी हम टूल भी कह देते हैं ना !
ReplyDeleteसंवेदन शील रचना पढने के बाद निशब्द कर देती है सुंदर भावाव्यक्ति अच्छी लगी
ReplyDeleteसंवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteटूल शब्द कोलकता में सूना था ...स्टूल ही जानती थी ..बहुत देर तक समझ नहीं आया की टूल ( औज़ार ) क्यों और कौन सा माँगा जा रहा है ?
दीर्खा ----शायद दीर्घा होना चाहिए ...दीर्खा शब्द से अनजान हूँ ..
संगीता दी,
ReplyDelete'दीर्खा' देशज शब्द है...गाँव के घरों में दीवार में जगह बनाई जाती है जिसमे दीया-बत्ती रखी जाती है..
जी हाँ!
ReplyDeleteदीर्खा को हमारे यहाँ दीवट भी कहते हैं!
--
सुन्दर रचना!
--
कभी उच्चारण पर भी पधारा करें!
मार्मिक,हृदयस्पर्शी चित्रण
ReplyDeleteसच तो ये है कि:-
ऐसे लाखों ग़रीब बसते हैं,
दाल-रोटी को जो तरसते हैं.
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - सांसद हमले की ९ वी बरसी पर संसद हमले के अमर शहीदों को विनम्र श्रद्धांजलि - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
न अनावश्यक और न ही अतिरिक्त।
ReplyDeleteसही कहा है कई घरो में मैंने आप की कविता में वर्णित दृश्य को देखा है | कभी घर के आघार स्तम्भ रहे जर्जर हो जाने पर अतिरिक्त ही बन जाते है |
ReplyDeleteदुख की बात यह है कि अब इस अतिरिक्त को अनावश्यक सिद्ध करने का चलन भी बढता जा रहा है ।
ReplyDeleteस्वप्न ....
ReplyDeleteशुक्रिया शब्द का अर्थ बताने के लिए ...हम लोंग उसे आला बोलते है :):)
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
@ संगीता दी,
ReplyDeleteअब तो मैं भी कन्फुज हो गई हूँ...जहाँ तक मुझे याद है यही कहते हैं लेकिन लगता है फ़ोन करके पूछना पड़ेगा मुझे ..घर में...:):)
अनावश्यक और अतिरिक्त ...
ReplyDeleteबना दिए जाते हैं लोंग ...
उनसे उनका सब कुछ छीन लेने के बाद ...
कुछ न कुछ और पास छिपा होने का भ्रम ...इतनी कुटिलता आवश्यक है आवश्यक बने रहने के लिए ...
मार्मिक ....सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का एक कटु सत्य !
वाणी गीत जी से सहमत.
ReplyDeleteहमारे गांव में तो दीर्खा नहीं ताखा बोलते है . हा हा .
ReplyDeleteबड़ा मार्मिक लगा ये अतरिक्त को अनावश्यक को महसूस करना ... सुन्दर रचना.. दिल को छू गयी..
ReplyDeleteहमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...
ReplyDeleteजय हिंद...
बहुत मार्मिक रचना...दर्द ने निशब्द कर दिया...कटु सत्य को बड़ी कुशलता से उकेरा है. आभार
ReplyDeleteओह...दिल दहला देने वाली मार्मिक रचना...
ReplyDeleteबुढापे को अभिशप्त साबित करती युवा पीढी यह भूल जाती है कि प्रतिपल वह भी तो उसी तरफ बढ़ रही है...
bahut marmik hai atirikt se anavashyak ban jana.....
ReplyDeleteमार्मिक रचना पर कटु सत्य! सुंदर भावाव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही विचारणीय कविता.मार्मिक प्रस्तुति . दिल को छू गयी
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