'देवदासी' इस नाम का अर्थ होता है 'ईश्वर की सेविका', किन्तु यह एक प्रथा है, यूं तो इस प्रथा को भारत में १९४० में निषिद्ध कर दिया गया था, परन्तु यह प्रथा आज भी मौजूद है,
भारत के दक्षिण राज्यों में आज भी यह प्रथा बहुत आराम से चल रही है.... कर्नाटक, आन्ध्रप्रदेश, उडीसा जैसे राज्यों के मंदिरों में देवदासियों का चलन जोरशोर से बरकरार है, हालांकि मानवाधिकार, नारीवादी संगठन और शिक्षाविद इसे एक सामाजिक समस्या ही मानते हैं...और इसे बलात वेश्यावृत्ति के रूप में देखा जाता है ...सच पूछा जाए तो 'देवदासी' संस्कृति और आस्था के बीच एक नुकसानदेह तंतु की तरह नज़र आती है...
इस परम्परा का विकास वैदिक युग के बाद हुआ था ....अब आप ये जानिये कि देवदासियाँ बनतीं कैसे हैं ? परिवार से किसी भी बालिका का चयन माँ-बाप स्वयं करते हैं, उसे मंदिरों के समारोहों में नृत्य करने को प्रेरित करते हैं, उसमें ईश्वर के प्रति समर्पण का भाव जगाने का प्रयत्न करते और बाद में उसे 'देवदासी' के रूप में मंदिर को दान कर देते हैं...साथ ही यह प्रचलित कर दिया जाता है कि इस कन्या का विवाह भगवान् से हो चुका है... और वो पुजारियों के सुपुर्द कर दी जाती है, ताकि ये धर्म के ठेकेदार उसे अपनी यौन तुष्टि की सामग्री बना सके...इन लड़कियों को विवाह करने की आज्ञा नहीं होती ...क्योंकि जैसा मैंने कहा उनका विवाह 'ईश्वर' से कर दिया जाता है.....
आदिकाल में ये देवदासियाँ दक्ष नृत्याँगनायें, संगीत में प्रवीण और अच्छी सलाहकार हुआ करतीं थी...ये मंदिरों के आयोजनों में बढ़-चढ़ कर भाग लेतीं थीं...लेकिन अब ऐसा नहीं है... ये देवदासियाँ सीधे-सीधे 'सेक्स वर्कर' के रूप में काम करतीं हैं, जिनका इस्तेमाल मंदिर के कार्यकर्त्ता और गाँव के वरिष्ठ नागरिक बिना किसी रोक-टोक के आसानी से करते हैं...और त्रासदी यह है कि इसे बुरा भी नहीं माना जाता है...मंदिरों के संरक्षक अपनी मनमानी प्राचीन काल से करते आ रहे हैं...
वर्षों से यह प्रथा बेलगाम, बीजापुर, रायचूर, कोप्पल, धारवाड़, शिमोगा, हावेरी, गडग और उत्तर कर्नाटक के अन्य जिलों में प्रचलित है.. कर्नाटक में आज 25,000 के आसपास देवदासियाँ हैं..इन सभी राज्यों में यह कुरीति, सामाजिक रूप से स्वीकृति प्राप्त कर चुकी है...बहुत ही चतुराई से इस प्रणाली को ईश्वर के नाम से चलाया जाता है, अशिक्षित माता-पिता को यह महसूस कराया जाता है कि यह सब भगवान् के लिए किया जा रहा है..और इससे उन्हें आशीर्वाद ही मिलना है...यह सुनिश्चित किया जाता है कि मंदिरों में जो शोषण हो रहा उससे किसी को आपत्ति न हो...और समाज के धर्मभीरु लोग भगवान् के नाम पर अपनी बेटियों का बलिदान ख़ुशी ख़ुशी कर देते हैं...
देखने वाली बात ये भी है कि इस प्रथा में आम तौर पर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जन जाति और पिछड़े वर्ग के ग़रीब परिवार की बालिकाएं ग्रास बनती हैं.. वाह रे दोहरापन ! जिस वर्ग के लोग मंदिर में पाँव नहीं धर सकते, उसी वर्ग की कन्याएं इस योग्य अवश्य मानी जाती हैं, जो तथाकथित पुजारियों की और गाँव के विशिष्ठ लोगों की अंकशायिनी बन सकें...इसका एकमात्र कारण बस इतना ही हो सकता हैं कि ये परिवार न तो आर्थिक रूप से सबल होते हैं ना ही विरोध की आवाज़ उठा सकने योग्य होते हैं...इसतरह का परिवार सिर्फ़ इस बात से ख़ुश रहता है कि उसने अपनी बेटी ईश्वर को दान कर दिया और बदले में उन्हें अपने परिवार के भरण-पोषण के लिए कुछ पैसे मिल रहे हैं...यह सरासर वेश्यावृति है.... लेकिन हमारा समाज बस आँखें बन्द करके इस अति को पत्थर के भगवान् और छद्मी पुजारियों के नाम से स्वीकार किये बैठा है....
हाँ नहीं तो....!!
देवदासियों के बारे में एक आर्टिकल यहाँ पढ़ा जा सकता है....
http://www.indiatogether.org/2007/apr/soc-devadasi.htm
http://www.indiatogether.org/2007/apr/soc-devadasi.htm
ये देवदासियाँ हीं हैं....!!
कुरीतियों का विरोध होना ही चाहिये। और यदि यह अपने धर्म से संबंधित हों तो हमारे लिये और भी ज्यादा जरूरी है ये।
ReplyDeleteशोषण का एक सरल तरीका है ये, धर्म का नाम देकर जो भी ऐसी बातों का समर्थन करते हैं उनके लिये यह आवश्यक होना चाहिये कि पहले अपने परिवार की स्त्रियों, अपनी बहन-बेटियों को इस पुनीत कार्य के लिये समर्पित करें।
विचारपूर्ण आलेख।
ऐसा हो रहा है तो ये बहुत दुखदायी है तथा विरोध के लायक है.
ReplyDeleteहलाकि,मैंने ऐसी चर्चा भारत में सुनी नहीं.
कुरीतियों को लगातार निकालते रहना वाला समाज ही प्रगति करता है।
ReplyDeleteपरम्पराएं बदलने में तो बहुत वक़्त लगता है; कुछ कुछ पुरानी आदतों सी ही होती है, जैसे आप वजह बेवजह अपना तकिया कलाम हर पोस्ट की अंत में जोड़ देतीं है,वैसी ही कुछ बाकी परम्पराओं के साथ भी होता है, बहुत यत्न से ही छुटती है .... ... बाकी वैश्यावृति पर हमारे फलसफे तो एक टिपण्णी में समाने नहीं वालें, अभी तो हम बस इतनी दुआ कर सकते है की जो लोग जैसे है, वहाँ खुद को स्वीकार कर पाए, हमारे देखे तो दुनिया सौदेबाजी पर ही टिकी है, शोषण तो सर्वभौमिक सिद्धांत है... कभी तबीयत से रांट लिखेंगे इस पर भी ...
ReplyDeleteलिखते रहिये ...
सरकार और समाज दोनों ही इस के लिये दोषी हैं.
ReplyDeleteऐसा आज भी अगर हो रहा है तो यह निहायत शर्म की बात है..वैसे हमारे देश में धर्म के नाम पर अनेक कुरीतियाँ फलफूल रहीं हैं जिनका विरोध होना आवश्यक है..
ReplyDeleteधर्म के नाम पर बहुत सी कुरितियॉ हमारे समाज में फैली हुई है। ये तो बस एक बानगी भर है।
ReplyDelete---अच्छा आलेख है...वास्तव में ही देवदासी प्रथा वैदिक युग के पश्चात ( क्योंकि तब मन्दिर नही होते थे..) वैदिकधर्म के पतन( शायद महाभारत युद्ध के प्रभाव) व बौद्ध व जैन प्रभाव के कारण एवं न्रित्य व कला को एक विशेषग्यता के रूप में प्रतिष्ठित करने के कारण, मन्दिरों में कलासंस्थान( शिक्षालय) बने जो बाद मेंअव्यवस्था, भ्रष्ट आचरण, अग्यान, और गरीबी के कारण शोषण का फ़िर देह शॊषण का केन्द्र बन गये...ठीक उसी तरह जैसे आज मसाज केन्द्र,काल सेन्टर,पार्लर, न्रत्य-कलाकेन्द्र, फ़िल्म संसार,बडे बडे स्कूल-कालेज, संस्थान, होस्टल,आदि---महिलाओं के शोष्ण के स्थान बनते जारहे हैं...
ReplyDeleteधर्म के नाम पर अंधे और स्वार्थी लोगों द्वारा महिलाओं का यौन शोषण अति निंदनीय है ।
ReplyDeleteइसे रोका जाना चाहिए ।
@ मजाल साहेब आदतों और कुरीतियों के सुधार में थोड़ा सा फर्क होना ही चाहिए...हमारी कुछ आदतें लोगों को नाराज़ कर सकती हैं लेकिन कुरीतियाँ ज़िंदगियाँ तबाह कर देती हैं..पीढियां बर्बाद हो जातीं हैं...मेरी 'हाँ नहीं तो' आपको बुरी लगती होगी...लेकिन इससे किसी के जीवन में भूचाल नहीं आएगा...ये मेरा आपसे वादा है...
ReplyDeleteहाँ नहीं तो..!! :)
‘ मंदिरों में देवदासियों का चलन जोरशोर से बरकरार है,...’
ReplyDeleteयह चलन उतना आम नहीं है जो जोरशोर से चले! हां, कुछ मंदिरों में ऐसी प्रथा सुनने में आती है, पर कहां तक चलन है यह गौर करने की बात है। शायद हकीकत सेअ अधिक अफ़ाएं ही है :)
cmpershad ji, --सही कहा आज के आधुनिक युग में जब हर आधुनिक जगह स्त्रियां क्रीति-दासी की भांति प्रयोग होरहीं हैं चाहे राजनीति-जगत हो या खेल, शासन, दफ़्तर, अस्पताल,संस्थान,ब्यूटी-क्लिनिक, जिम,हर जगर स्त्रियों क देहिक शोषण हो रहा है...उसकी तुलना में देवदासी प्रथा कहीं नहीं है, न उसकी किसी को जरूरत पड रही है....
ReplyDeleteयौन शोषण के लिए ईश्वर के नाम का इस्तेमाल एक बहाने जैसा है !
ReplyDeleteइस बार के चर्चा मंच पर आपके लिये कुछ विशेष
ReplyDeleteआकर्षण है तो एक बार आइये जरूर और देखिये
क्या आपको ये आकर्षण बांध पाया ……………
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (20/12/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.uchcharan.com
यह प्रथा ईश्वर के नाम पर खुले आम व्यभिचार के सिवा और कुछ नहीं है ...
ReplyDeleteयदि वर्त्तमान में भी ये प्रथाएं प्रचालन में हैं तो बहुत दुखद और शर्मनाक है !
यह कुरीति ईश्वर की सेवा के नाम सिर्फ व्यभिचार है ...
ReplyDeleteयदि इस समाज में अभी भी यह स्वीकार्य है तो इससे दुखद और शर्मनाक कुछ नहीं है !
कुरीतियाँ मिटनी ही चाहिए । अच्छी पोस्ट , शुभकामनाएं । पढ़िए "खबरों की दुनियाँ"
ReplyDeleteअदा जी, सर्वप्रथम इस सार्थक लेख के लिए बधाई स्वीकारें। दरअसल मैं भी इस विषय पर 'तस्लीम' में लिखना चाहा रहा था, पर फिरभी आज-कल के रूप में टलता जा रहा था। आपने इस दिशा में पहल की, अच्छा लगा। आशा है आगे भी ऐसे ही समाज के लिए नासूर बने विषयों पर आपकी लेखनी का नूर बरसता रहेगा।
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