‘मांदों, घोसलों मेंभेद कहाँ होता है’होता है ना.... घोंसले में हाथ डाल सकते हैं, मांद में नहीं...:)
घर का मतलब\औचित्य ही जीते जागते सदस्यों से है, ईंट-पत्थर की ईमारत मकान\कोठी तो हो सकती है लेकिन घर नहीं।
समानता के लिहाज़ से लिखी गई ये कविता पूरा असरदार सम्प्रेषण देती है
@ कुँवर जी ,मैंने भुताहे शब्द हटा दिया है...आपका हृदय से धन्यवाद.!
सम्बन्धों से ही घर जीवन्त रहता है।
Domage ! la bariére de la langue nous sépare, un vrai Handicap !!!trés belle photo en page d'acceuil. MERCI. AB
लोगों के बिना घर कहाँ हुआ ...सिर्फ मकान ही हो जाता है...और मकान तो बेजान ही होते हैं ...!
पढते ही सीरियस होकर टिपियाना तय किया पर सी.एम.प्रसाद साहब की चुटकी :) [ सहमत कि घर जान-ओ-बेजान की यकज़हती का दूसरा नाम है ]
रिश्तों और संवेदस्नाओ से ही घर का आस्तित्व है। अच्छी रचना के लिये बधाई।
जुदा जब होते हैं घर से लोगकितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.अनुभवसिद्ध तथ्य.
हमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...जय हिंद...
वैसे तो पूरी कविता संवेदनशील है मगर ये पंक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली बन कर उभरी हैं ,जुदा जब होते हैं घर से लोगकितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
रचना अच्छी लगी। आभार,
बहुत सुंदर रचना .. घर तो रिश्तों से ही बनता है !!
‘मांदों, घोसलों में
ReplyDeleteभेद कहाँ होता है’
होता है ना.... घोंसले में हाथ डाल सकते हैं, मांद में नहीं...:)
घर का मतलब\औचित्य ही जीते जागते सदस्यों से है, ईंट-पत्थर की ईमारत मकान\कोठी तो हो सकती है लेकिन घर नहीं।
ReplyDeleteसमानता के लिहाज़ से लिखी गई ये कविता पूरा असरदार सम्प्रेषण देती है
ReplyDelete@ कुँवर जी ,
ReplyDeleteमैंने भुताहे शब्द हटा दिया है...
आपका हृदय से धन्यवाद.!
सम्बन्धों से ही घर जीवन्त रहता है।
ReplyDeleteDomage ! la bariére de la langue nous sépare, un vrai Handicap !!!
ReplyDeletetrés belle photo en page d'acceuil. MERCI. AB
लोगों के बिना घर कहाँ हुआ ...सिर्फ मकान ही हो जाता है...और मकान तो बेजान ही होते हैं ...!
ReplyDeleteपढते ही सीरियस होकर टिपियाना तय किया पर सी.एम.प्रसाद साहब की चुटकी :)
ReplyDelete[ सहमत कि घर जान-ओ-बेजान की यकज़हती का दूसरा नाम है ]
रिश्तों और संवेदस्नाओ से ही घर का आस्तित्व है। अच्छी रचना के लिये बधाई।
ReplyDeleteजुदा जब होते हैं घर से लोग
ReplyDeleteकितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.
अनुभवसिद्ध तथ्य.
हमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...
ReplyDeleteजय हिंद...
वैसे तो पूरी कविता संवेदनशील है मगर ये पंक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली बन कर उभरी हैं ,
ReplyDeleteजुदा जब होते हैं घर से लोग
कितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
रचना अच्छी लगी। आभार,
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना .. घर तो रिश्तों से ही बनता है !!
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