तोड़ कर पंख सारे ही, मुझे नाकाम कर डाला
हज़ारों तत्व से बुने हुए, इक जाल में हूँ मैं
नज़र मैं अब नहीं आती, मुझे पहचान नहीं पाते
मगर इतना यकीं मुझको, तेरे ख़याल में हूँ मैं
सियासत की बाज़ी है, कभी रिश्तों का खेला है
शरारत की ये दुनिया है, मगर ज़लाल में हूँ मैं
ये किस्सों की जन्नत है, और परदे पे पर्दा है
नहीं जवाब जिसका कोई, उसी सवाल में हूँ मैं
ज़लाल=क्रोध
आपके प्यार में हम ...
बहुत सुन्दर मञ्जूषा जी....
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ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - देखें - 'मूर्ख' को भारत सरकार सम्मानित करेगी - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा
नज़र अब मैं नहीं आती, मुझे पहचान नहीं पाते
ReplyDeleteमगर इतना यकीं मुझको, तेरे ख़याल में हूँ मैं
बहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति है इस शेर में, अदा जी.
मुझे अपना एक शेर याद आ रहा है:-
माना ख़याले-यार में पिनहा है इज़्तिराब,
लेकिन सुकून भी है निहाँ इज़्तिराब में .
कुंवर कुसुमेश साहब तो खुद शायर हैं, उनके पास हर मिजाज का अपना खुद का शेर है, हमें गुलाम अली साहब की गाई हुई अपनी एक पसंदीदा गज़ल याद आ गई, लगभग मिलते जुलते सेंटीमेंट्स की है, कम से कम अल्फ़ाज़ तो मिलते ही हैं -’चमकते चाँद को टूटा हुआ तारा बना डाला’(यहीं तक)।
ReplyDeleteगज़ल बहुत अच्छी लगी, गीत भी बहुत खूबसूरत लगा और
तस्वीर...पूछिये मत बस्स।
बहुत सुंदर ..
ReplyDelete‘नहीं जवाब जिसका कोई, उसी सवाल में हूँ मैं ’
ReplyDeleteउम्र बीत गई जवाब ढूंढते,अव ज़वाल में हूँ मैं :)
उन सवालों को ढूढ़ते ढूढ़ते तो जीवन निकल जाता है, जिनमें हमारा जिक्र छिपा हो।
ReplyDeleteवाह! क्या बात है, बहुत सुन्दर!
ReplyDeleteहमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...
ReplyDeleteजय हिंद...