दृष्टिपथ..
धूमिल हो जाता है
धूमिल हो जाता है
संघर्षरत जीवन का,
कहाँ देख पाता है
अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित
और प्रस्फुटित काल को?
इक पल को ठहर जाओ,
थोड़ी दूर खड़े हो जाओ,
इस महार्ध्य सम्पदा को
ठीक से पहचान लो,
तभी देख पाओगे
अपरिमित गगन पर
अंकित विशाल चित्र को
जब...
सही परिपेक्ष्य मिल जाएगा,
वास्तविक मुग्धता
उजागर होगी, और
उलझी हुई गुत्थियाँ
सुलझ जायेंगी,
टूटी हुई कड़ियाँ जुड़ जायेंगी.....
किसने कहा हुज़ूर के तेवर बदल गए....शायर 'सरोश'...आवाज़ 'अदा', संगीत 'अदा'
किसने कहा हुज़ूर के तेवर बदल गए....शायर 'सरोश'...आवाज़ 'अदा', संगीत 'अदा'
अदा जी,
ReplyDeleteबहुत प्यारी सी ग़ज़ल,किसने कहा हुज़ूर के........, आपकी प्यारी सी आवाज़ में सुन के तबियत ख़ुश हो गई.ग़ज़ल के निम्न शेर:-
उस अंजुमन से जब भी उठे सरगिराँ उठे,
उस अंजुमन में जब भी गए सर के बल गए.
की
तो जितनी तारीफ की जाये कम होगी.
आपकी आवाज़ का तो मैं fan हूँ ही.इस ग़ज़ल में आपकी आवाज़ ने कमाल ही कर दिया.
ग़ज़ल चार बार सुन चुका हूँ. अभी आपकी कविता नहीं पढ़ पाया हूँ.माफ़ करियेगा.
behad umda....
ReplyDeleteजब दिखने लगता है तो दिशा भी मिल जाती है।
ReplyDeleteथोड़ी दूर खड़े हो जाओ,
ReplyDeleteइस महार्ध्य सम्पदा को
ठीक से पहचान लो,
तभी देख पाओगे
अपरिमित गगन पर
अंकित विशाल चित्र को
इसके लिया धन्यवाद कहना बनता है... :)
मुग्ध हुआ...
चित्र एवं गीत के लिए भी बहुत आभार!
आपकी इस सुन्दर रचना की चर्चा बुधवार के चर्चामंच पर भी लगाई है!
ReplyDeleteएक पल को ठहर जाओ ...
ReplyDeleteथोड़ी दूर ठहर कर देखने में ही नजर आती है सारी तस्वीर साफ़ ....
बात में दम तो है ....!
सुन्दर रचना आभार.....
ReplyDeleteसत्य कहा आपने जब अंतर्दृष्टि जगती है तभी सच्चे सौन्दर्य का दर्शन होता है....
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर रचना...
आपकी कविता के लिये ’आमीन’....
ReplyDeleteगज़ल के लिये सरोश साहब और गायन एवम संगीत के लिये आप ’वाह-वाह’ के हकदार हैं। कई बार सुन चुका हूँ, मन नहीं अघाता - बेहद खूबसूरत अल्फ़ाज़ और वैसी ही अदायगी। फ़िर से वाह-वाह।
सुन्दर रचना!
ReplyDeletevery well sung gazal!
तभी देख पाओगे
ReplyDeleteअपरिमित गगन पर
अंकित विशाल चित्र को
दूर खड़े हो कर ही समग्र दिखाई देता है ..
लक्ष्य निर्धारण के लिए सभी आयाम देखना ज़रुरी है ये तो समझा पर समय को ठहरना क्यों है ?
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