Sunday, December 12, 2010

'अनावश्यक' और 'अतिरिक्त'.....


चीकट हुई रजाई से 
झाँकती चीकट रूई
बिना खोल के 
चीकट तकिया
बरसों पुरानी
चीकट चादर
भूरे से धब्बे 
कितना गंधाते हैं
अपनी विवशता बताते हैं
सामने दीर्खा पर 
अंग-भंग शंकर की मूर्ति 
टंगा है अलने पर
मैला-कुचैला 
खद्दर का कुरता 
ज़ेब में थोड़ी सी रेजगारी    
टूल पर रखा 
टूटा सा चश्मा 
एक 'अतिरिक्त' व्यक्ति
का कमरा 
कुछ ऐसा ही नज़र आता है 
हर वक्त बताता है 
महसूस कराता है
तुम 'अनावश्यक' हो ...!



25 comments:

  1. कितना दर्द है अतिरिक्त में ही.

    मार्मिक रचना.

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  2. सब समय की बात हैं, वरना ये जो आज ’अतिरिक्त और अशक्त’ हैं कभी अपरिहार्य माने जाते रहे होंगे।
    मार्मिक पोस्ट।

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  3. ‘टूल पर रखा’

    टूल या स्टूल?

    बुढापा ऐसा ही होता है.... छठी उंगली :(

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  4. @ होता तो स्टूल ही है...बाकी हम टूल भी कह देते हैं ना !

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  5. संवेदन शील रचना पढने के बाद निशब्द कर देती है सुंदर भावाव्यक्ति अच्छी लगी

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  6. संवेदनशील रचना ...

    टूल शब्द कोलकता में सूना था ...स्टूल ही जानती थी ..बहुत देर तक समझ नहीं आया की टूल ( औज़ार ) क्यों और कौन सा माँगा जा रहा है ?

    दीर्खा ----शायद दीर्घा होना चाहिए ...दीर्खा शब्द से अनजान हूँ ..

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  7. संगीता दी,
    'दीर्खा' देशज शब्द है...गाँव के घरों में दीवार में जगह बनाई जाती है जिसमे दीया-बत्ती रखी जाती है..

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  8. जी हाँ!
    दीर्खा को हमारे यहाँ दीवट भी कहते हैं!
    --
    सुन्दर रचना!
    --
    कभी उच्चारण पर भी पधारा करें!

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  9. मार्मिक,हृदयस्पर्शी चित्रण
    सच तो ये है कि:-
    ऐसे लाखों ग़रीब बसते हैं,
    दाल-रोटी को जो तरसते हैं.

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  10. न अनावश्यक और न ही अतिरिक्त।

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  11. सही कहा है कई घरो में मैंने आप की कविता में वर्णित दृश्य को देखा है | कभी घर के आघार स्तम्भ रहे जर्जर हो जाने पर अतिरिक्त ही बन जाते है |

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  12. दुख की बात यह है कि अब इस अतिरिक्त को अनावश्यक सिद्ध करने का चलन भी बढता जा रहा है ।

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  13. स्वप्न ....

    शुक्रिया शब्द का अर्थ बताने के लिए ...हम लोंग उसे आला बोलते है :):)


    चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
    को ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..


    http://charchamanch.uchcharan.com/

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  14. @ संगीता दी,
    अब तो मैं भी कन्फुज हो गई हूँ...जहाँ तक मुझे याद है यही कहते हैं लेकिन लगता है फ़ोन करके पूछना पड़ेगा मुझे ..घर में...:):)

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  15. अनावश्यक और अतिरिक्त ...
    बना दिए जाते हैं लोंग ...
    उनसे उनका सब कुछ छीन लेने के बाद ...
    कुछ न कुछ और पास छिपा होने का भ्रम ...इतनी कुटिलता आवश्यक है आवश्यक बने रहने के लिए ...
    मार्मिक ....सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्था का एक कटु सत्य !

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  16. वाणी गीत जी से सहमत.

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  17. हमारे गांव में तो दीर्खा नहीं ताखा बोलते है . हा हा .

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  18. बड़ा मार्मिक लगा ये अतरिक्त को अनावश्यक को महसूस करना ... सुन्दर रचना.. दिल को छू गयी..

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  19. हमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...

    जय हिंद...

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  20. बहुत मार्मिक रचना...दर्द ने निशब्द कर दिया...कटु सत्य को बड़ी कुशलता से उकेरा है. आभार

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  21. ओह...दिल दहला देने वाली मार्मिक रचना...

    बुढापे को अभिशप्त साबित करती युवा पीढी यह भूल जाती है कि प्रतिपल वह भी तो उसी तरफ बढ़ रही है...

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  22. bahut marmik hai atirikt se anavashyak ban jana.....

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  23. मार्मिक रचना पर कटु सत्य! सुंदर भावाव्यक्ति

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  24. बहुत ही विचारणीय कविता.मार्मिक प्रस्तुति . दिल को छू गयी

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