Sunday, December 5, 2010

तोड़ कर अब मैं रख दूँगी यादों की जंजीरें .....


न होंगी अब तेरे पास, कोई ख़त न तसवीरें 
लगतीं हैं अजनबी, तेरी सब वो तहरीरें 

अंधेरों में जो डूबे थे, सागर अब निकल आए 
कितनी साफ़ नज़र आतीं, हैं लहरों की लकीरें 

न चेहरा कोई ज़ेहन में, न आवाज़ कानों में
तोड़ कर अब मैं रख दूँगी, यादों की जंजीरें 

सपने थे, सपने ही, बने रहना तुम उम्र भर
खुलेगी आँख जिस दम, लुट जायेंगी जागीरें

गुलामों को नहीं मिलती, कुछ कहने की मोहलत 
आकाओं से कहाँ जुड़तीं, हम जैसों की तक़दीरें  

23 comments:

  1. न होंगी अब तेरे पास, कोई ख़त न तसवीरें
    लगतीं हैं अजनबी, तेरी सब वो तहरीरें
    वाह अदा जी वाह. मगर इतनी ज़ियादा नाराज़ किससे हो गईं कि पूरी ग़ज़ल पर नाराज़गी काबिज़ हो गई है.ऐसा भी क्या ग़ुस्सा होना किसी से.
    एक शेर add कर देता हूँ:-
    अदा जी,कोई किसको कब भुला पाया है दुनिया में?
    किसी के ख़्वाब की इनमें भी पोशीदा हैं ताबीरें.

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  2. आप तो अपनी आका स्वयं ही बन जाईये।

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  3. लहरों की लकीरें, यादों की जंजीरें, लुटी जागीरें
    देवीजी, मिजाज बिगड़े हैं आपके आज तो, तोड़फ़ोड़ पर उतारू हैं आप:)

    गुलाम भी कह लिया और सब कह भी दिया। आका वाकई तारीफ़ के काबिल है कि ऐसे ऐसे गुलाम हैं।
    हर अंदाज जुदा है आपका, बहुत खूब।

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  4. गुलामों को नहीं मिलती, कुछ कहने की मोहलत
    आकाओं से कहाँ जुड़तीं, हम जैसों की तक़दीरें

    वाह! बेबसी का अच्छा बयाँ है,आपका कलाम!

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  5. मंजूषा जी एक और शानदार ग़ज़ल...हर एक शेर शानदार है...

    पहचान कौन चित्र पहेली ...

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  6. किसकी मति मारी गयी है जो आपसे पंगा ले रहा है,उसको अपने कलाम सुना दीजिये, खुद ब खुद रुखसत हो जाएगा !
    लिखते रहिये .....

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  7. इस यथार्थवादी गजल के लिए साधुवाद!

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  8. @ मजाल साहेब,
    पंगा ले 'रहा' नहीं ले 'रही' है....:):)

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  9. बेहतरीन गजल। हर शेर पहले से बेहतर।

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  10. बेहतरीन गजल। हर शेर पहले से बेहतर।

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  11. वो खत जो तू ने लिखे थे, जला डाले
    गंगा किनारे बैठे-बैठे उन्हें, बहा डाले:)

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  12. बहुत खूबसूरती से लिखे हैं मन के भाव ...

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  13. गहरी अभिव्यक्ति.................

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  14. तोड़ दूँगी यादों की जंजीरें ....
    क्या बात है ... तोड़ फोड़ कौन मुश्किल काम है ...मुश्किल है दिलों को जोड़ना , किसी चेहरे पर मुस्कान लेना ...किसी की ख़ुशी की वजह बनना ...

    गुलामों को नहीं मिलती, कुछ कहने की मोहलत
    आकाओं से कहाँ जुड़तीं, हम जैसों की तक़दीरें ...
    कौन गुलाम , कौन आका ...बस एक ही है हम सबका आका ...उपरवाला ...

    ग़ज़ल शानदार है ...
    पंगा लेने वाले /वालियां मिलती रहनी चाहिए ...जो इतनी उम्दा ग़ज़ल निखर आई ...
    वैसे हम भी बेताब है पंगा लेने वाले /वाली का नाम जानने को ...

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  15. आज वाणी जी के साथ !

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  16. बहुत सार्थक और अच्छी सोच ....सुन्दर गज़ल ..

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  17. एक सार्थक सोच, जीवन में इसी यथार्थ के साथ जीना और जीकर निकल जाना है.

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  18. न चेहरा कोई ज़ेहन में, न आवाज़ कानों में
    तोड़ कर अब मैं रख दूँगी, यादों की जंजीरें

    क्या यादों की जंजीरें तोडना इतना आसान है. बहुत सुन्दर भावपूर्ण गज़ल..आभार

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