Sunday, March 25, 2012

इंसान ग़लतियों का पुलिंदा ...! (एक संस्मरण)


कहते हैं इंसान ग़लतियों का पुलिंदा होता है...उस हिसाब से, हम सभी पुलिंदे हैं...क्योंकि ग़लती हर इंसान से होती है...
जानते बूझते हुए, जो ग़लती बार-बार की जाए उसे 'आदत' कहते हैं...जिसके लिए आप खुद जिम्मेदार होते हैं..लेकिन अनजाने में की गई ग़लती को पहचान लेना, उसपर पछतावा करना...और उसे दोबारा नहीं दोहराने की कोशिश करना अच्छे इंसान की पहचान है और सबसे महत्वपूर्ण बात भी ...
ऐसी ही एक ग़लती मेरे बाबा ने की थी...उस गलती ने उन्हें हिला कर रख दिया था...मैंने अपने बाबा को पहली और आखरी बार..थर-थर काँपते हुए देखा था...

मेरी उम्र शायद ७-८ साल की रही होगी...हमारे घर में भी हर जमींदार घर की तरह कई बंदूकें थीं ...जिन्हें उन दिनों 'स्टेटस सिम्बल' भी माना जाता था...शिकार का शौक मेरे दादा जी को बहुत था, लेकिन मेरे बाबा को कम...मेरे दादा, चाचा, बाबा निकल जाया करते थे, तीतर-बटेर, खरगोश, हरिला मारने, हर वीक एंड पर...अगर कुछ ना मिलता, तो कम से कम अपने निशाने को ही पजा कर वो लोग वापिस घर आ जाया करते थे...घर आकर बंदूकों की डिसमेंटल किया जाता था, कारतूसों को चमड़े के बैग में करीने से रखा जाता था...जिंदा कारतूसों की कतार एक तरफ होती थी और जो कारतूस नहीं चलते उनको एक अलग बैग में, निशान लगा कर रख दिया जाता था...निशान होता था 'NW' यानी Not Working'

हफ्ते-पंद्रह दिनों में बंदूकों की सफाई भी, एक महत्वपूर्ण काम हुआ करता था...सारे अपनी-अपनी बन्दूक साफ़ करने बैठ जाया करते थे...लम्बी तार में मुलायम मलमल का टुकड़ा बाँध कर...बन्दूक की नली में डाल कर...अन्दर तक सफाई की जाती थी...फिर पोलिश करके...करीने से सारे पुर्जे अलग करके रख दिए जाते थे...हमारे घर में बन्दूक कभी भी..बिना डिसमेंटल किये नहीं रखी जाती थी...बल्कि ये एक हास्य का विषय भी हो जाया करता था...कि अगर कभी कोई चोर-डाकू आ जाए तो...इससे पहले कि बदूकों को जोड़ा जाए..वो सब लूट कर, जा भी चुके होंगे...

ऐसी ही एक गर्मी की दोपहर थी...इतवार का दिन था, इतवार बहुत ही ख़ास दिन हुआ करता था, बचपन में...उस दिन मीट जो बनता था...बचपन का हर इतवार, पर्व सा होता था...सब कुछ ख़ास सा लगता था...स्कूल से छुट्टी, माँ की छुट्टी, बाबा की छुट्टी, और स्पेशल खाना, सुबह से ही मसाला पिसाना, मीट लाना, पकाना, घर में माहौल ही बहुत अलग हो जाता था...दोपहर होते-होते सबने खाना खा लिया था...कामवाली लडकियां या तो आराम कर रही थी या फिर बर्तन साफ़ कर रहीं थीं...हर माँ की तरह, मेरी माँ भी बचे हुए समय का सदुपयोग करने में जुटी हुई थी...माँ को बड़ी-अचार बना कर रखने का शौक था...उस दिन बड़ी बनाने की बारी थी....माँ आँगन में बैठ कर, बड़ी सी चटाई पर बड़ियाँ बना रही थी...खजूर के पत्तों से बुनी चटाई पर जब बड़ियाँ सूख जातीं हैं..तो उन बड़ियों के तले पर, चटाई का डिजाईन बन जाता है...मुझे बड़ा मज़ा आता था...बड़ियों को समेटकर..उनके नीचे डिजाईन देखने में...

इधर माँ अपने काम में मशगूल थी, और बाबा अपनी बन्दूक की सफाई में ...मैं साथ में बैठी बाबा को, बड़े मनोयोग से अपनी प्यारी बन्दूक को साफ़ करते देख रही थी...हम बच्चों को, किसी भी पुर्जे को छूने की आज्ञा नहीं थी...हाँ, पास बैठ कर देखने की आज्ञा ज़रूर थी... डिसमेंटलड पुर्जे चमकते जा रहे थे...बन्दूक की नली के अन्दर से बारूदी रंग भी, अब मलमल पर आ चुका था...बाबा बार-बार नली से एक आँख लगा कर, अन्दर तक झाँक कर तसल्ली कर लेते थे, कि अन्दर कोई अवरोध न रह गया हो...मुझे याद है, वो कहते थे, किसी भी बन्दूक, का सबसे महत्वपूर्ण पूर्जा होता है, उसकी 'मक्खी', जो बन्दूक की नली के आखरी सिरे पर, लगा हुआ, धातु का बहुत छोटा सा टुकड़ा होता है...

सफाई करने के बाद, एक बार तसल्ली ज़रूर कर ली जाती थी..कि सारे पुर्जे फिट हो रहे हैं...बाबा ने भी वही किया...सारे पूर्जे फिट हो गए...और अब बन्दूक अपने, लकड़ी के बट्टे, नली, मक्खी के साथ सम्पूर्ण नज़र आ रही थी....और बाबा संतुष्ट...

जाने क्या सोच कर बाबा ने एक 'फुस्स' हुई हुई नकारा सी गोली.. जिसपर निशान लगा हुआ था कि ये काम नहीं करती...बन्दूक की नली को झुका कर डाल दी...'खट' की आवाज़ के साथ बन्दूक, अपनी जगह वापिस आ चुकी थी, अर्थात गन लोडेड हो चुकी थी...जबकि बाबा सौ प्रतिशत श्योर थे कि, gun लोडेड होते हुए भी...बिलकुल भी लोडेड नहीं है...

जैसा मैंने बताया, माँ आँगन में, बैठी चटाई पर बड़ियों की कतार सजा रही थी, मैं बीच-बीच में बड़ियाँ बनाने की जिद्द कर जाती...लेकिन माँ मुझे भगा कर कहती...कुंवारी लडकियां बड़ियाँ नहीं बनातीं...शादी के दिन बना लेना जितना बनाना है....तुम इनपर लाल मिर्चा खोस सकती हो...जिससे किसी की नज़र न लगे....मैंने कई बड़ियों पर 'गोटा' लाल मिर्चा खोस दिया...ये लाल मिर्च मात्र मिर्च नहीं होते..ये आश्वासन होतीं हैं, बनाने वालों के लिए और खाने वालों के लिए...कि कितनी भी बुरे नज़र किसी की क्यों न हो, इन मिर्चों की धाह से पार पाना असंभव है.. मिर्चा खोसते हुए, हींग की खुशबू नथुनों में समां गयी थी, और मैं फिर एक बार जिद्द पर आ गयी थी...'माँ हमको भी बनाना है बड़ी...' 'बहुत जिद्दी है ई लड़की'...माँ बड़बड़ाई  थी...

बाबा आख़िर अपनी प्यारी बेटी की ऐसी तौहीन कैसे देख सकते थे भला, आख़िर कह ही दिया माँ से... 'सुनती हो, मेरी बेटी को क्यूँ डांटती हो...कोई इसको नहीं डांट सकता, डांटओगी तो ठीक नहीं होगा..' कहते हुए, बाबा ने शरारत से मुस्कुराते हुए, बन्दूक की नली माँ की तरफ तान दिया, वो अब भी मुस्कुराते जा रहे थे...उनका हाथ ट्रिगर पर था, और चुहल करते हुआ कहा...ऐ, चला दें गोली...? माँ कौन सी कम थी..उसने भी कह दिया  ''हाँ..हाँ चला दीजिये, हम कौनो डरते हैं का....'  लेकिन पता नहीं क्या बात हुई थी, किस शक्ति ने उस दिन काम किया था, उस दोनों ने अटूट प्यार ने, माँ की प्रार्थना ने, या ईश्वर के आशीर्वाद ने या फिर हम बच्चों की किस्मत ने, या कि उन लाल मिर्चों ने, जो कुछ देर पहले मैं बड़ियों को बुरी नज़र से बचाने के लिए खोस आई थी...बाबा ने हँसते-हँसते बन्दूक की नली...आँगन के खुले आसमान की तरफ कर दिया और ट्रिगर दबा दिया...'धाएँ' की आवाज़ से घर, आसमान गूँज गया...माँ आवाज़ सुन कर एकदम से चौंक गयी...मुड़ कर बाबा को देखा था उन्होंने...और आखों से ही कहा था 'जाईये-जाईये, बहुत देखे हैं निशाना लगाने वाले, हाँ नहीं तो...!' इस अप्रत्याशित अनहोनी से, मेरे बाबा का चेहरा सफ़ेद हो गया...एकबारगी वो पसीने से नहा गए थे, उनके हाथ-पाँव कांपने लगे थे, असमंजस के हज़ारों बादल उनके चेहरे पर छा गए थे... लेकिन माँ एक ज़रा विचलित नहीं थी...उसके चेहरे पर संतोष और विश्वास की आभा कायम थी...बाबा ने बन्दूक रख दी, धप्प से बैठ गए थे वो, कुछ पथराये से लग रहे थे और अपनी सांस पर काबू पाने की कोशिश में जुटे हुए थे...उन्होंने कितनी बड़ी गलती की है...ये वो कह भी नहीं पा रहे थे...मैंने देखा था, उनके हाथ पत्तों की तरह काँप रहे थे, बन्दूक उनसे सम्हल नहीं रही थी,  फिर भी उन्होंने कांपती हाथों से झट से बन्दूक की नली खोली थी....कारतूस के लाल खोके को बाहर निकाल कर देखा था...उसपर अब भी काला निशान लगा हुआ था...NW  (Not Working)...वो बार-बार उस लाल सी चीज़ को देखते, चेहरे पर विश्वास-अविश्वास के अनगिनत भाव लगातार आ जा रहे थे...

अब उनकी सांस काबू में आ चुकी थी...वो बस लगातार माँ को देखे जा रहे थे...उनकी आँखों में क्या जाने क्या-क्या रंग थे...प्यार, विश्वास, दुःख, पछतावा, ग्लानी, क्षोभ, कौन जाने क्या-क्या...सारे रंग गडमड हो रहे थे...लेकिन, कुछ देर बाद, एक रंग आकर उनके चेहरे पर थम गया था..'प्रतिज्ञा' का रंग...अब उन्होंने बन्दूक को टुकड़ों में तब्दील करना शुरू कर दिया था, वो हर टुकड़े को दृढ़ता से अलग करते और, एक सौगंध के साथ उसकी पेटी में रखते, उस दिन वो बन्दूक आखरी बार, साफ़ हुई थी, और आखरी ही बार वो डिसमेटल भी हुई थी, फिर कभी वो बन्दूक जुड़ नहीं पायी...माँ अब भी मजे में , कोंहड़ा बड़ी, तिलौरी और सादा बड़ी बना रही थी...मेरी जिद्द अब भी कायम थी.. 'सुनते हैंSSSS..देखिये फिर जिद्द कर रही है मुन्ना...ले जाईये इसको यहाँ से...काम ही नहीं करने देती है, फिर हमको कब फुर्सत मिलेगा भला...कल से फिर ऑफिस जाना है..' पता नहीं बाबा सुन भी रहे थे या नहीं...!
हाँ नहीं तो...!!