बड़ी चिलचिलाती धूप थी, देखा तो एक कुत्ता बड़े आराम से, मेरे दादा जी की खाट के नीचे जहाँ एक बहुत ही बढ़िया कम्फर्ट ज़ोन था...वहाँ बिना इजाज़त, फ़ोकट में, बड़े आराम से टांग-पूँछ सम्हाले हुए कम्फर्टेबली पड़ा हुआ था...मुझे बड़ा गुस्सा आया...इसकी ये मजाल, हमारे सामने कम्फर्टेबल हो जाए...मैंने उसी दम उसे लात मार कर भगा दिया...कह भी दिया उससे...अरे जब कम्फर्ट ज़ोन में जाने का हम इंसानों को अधिकार नहीं, तो तू कौन और तेरी औकात क्या ..हाँ नहीं तो ....!!
लेकिन, मेरी उस लात मारने की भंगिमा से, दिमाग का कम्पूटर चालू हो गया...और विचारों के की-बोर्ड ने ये पोस्ट लिख डाली....अब आप नोश फरमाइए...
कम्फर्ट ज़ोन हम सभी ढूंढते हैं...ये इंसानी तो इंसानी, जनावरी फितरत भी है...परन्तु यहाँ हम सिर्फ इन्सान की बात करेंगे...एक आम इन्सान जब जीवन समर में कदम रखता है, तो पहले नौकरी ढूंढता है, बहुत तीन-पाँच करके, नौकरी पाता है, विवाह करता है, बाल-बच्चे होते हैं...घर-परिवार की देख-भाल, बच्चों का भविष्य बनाते-बनाते ये सोचता रहता है...कि बस ये हो जाए, या वो हो जाए, तो मैं चैन की बाँसुरी बजाऊंगा...कम्फर्टेबल हो जाऊँगा...लेकिन ये कम्फर्ट तो किसी सोन परी की तरह, सामने ही नहीं आती...कम्फर्टेबल होने की आस लगाए लगाए, वो रिटायर भी हो जाता है...फिर भी कम्फर्ट उसके आस-पास नहीं फटकती...और एक दिन इस मुई कम्फर्ट की आस में वो, ऐसी कम्फर्ट ज़ोन में पहुँच जाता है...जहाँ से वापसी की कम्फर्टीबीलिटी उसे नहीं मिल पाती...
कहते हैं, आविष्कार आवश्यकता की जननी है, लेकिन अब आविष्कार कम्फर्ट की जननी है...हर ३ महीने में मोबाईल का दूसरा मॉडल निकाल देता है Apple , और वो पहले वाले से, ज्यादा पोपुलर सिर्फ इसलिए होता है, क्योंकि उसका कम्फर्ट ज़ोन, पिछले वाले से बेहतर होता है...पहले हम पैदल चलते थे, उसके बाद रिक्शा में जाते थे, फिर बस में और अब कार में...ये पैदल से कार तक की दूरी तय की गई है...कम्फर्ट ज़ोन की तलाश में...पहले पंखा भी नहीं था, फिर पंखा लगा, फिर कूलर और अब ए.सी...बहुत कम्फर्टेबल लगता है न...!
हम घर में क्यों रहते हैं...किसी पहाड़-पर्वत, गुफा, तराई में जाकर नहीं रहते...हम घर में रहते हैं, क्योंकि हम वहाँ कम्फर्टेबल
होते हैं...अरे जनाब घर की बात छड्डो हम तो अपना सोफा तक नहीं छोड़ते...इस दुनिया का सारा का सारा मामला ही कम्फर्ट का है जी...
सच पूछा जाए, साधारण लोगों (दुनिया की ९९% आबादी) के जीवन का मकसद ही है कम्फर्ट की तलाश...वर्ना इतने सारे आविष्कार दुनिया में जिन्होंने किये, वो सब पागल करार दिए जायेंगे...और उनको अपनाने वाले हम-आप महापागल...
कुछ समय पहले कहीं पढ़ा था कि, साड़ी में काम करना, खाना पकाना, कम्फर्टेबल नहीं
होता...वेस्टर्न ड्रेस ज्यादा कम्फर्टेबल है...अब बताइये बात तो फिर वहीँ आ गयी न...कम्फर्ट की :):) जब इन बातों में
कम्फर्ट की इतनी ज़रुरत है, तो फिर पूरा जीवन कम्फर्टेबल बनाने के लिए, शादी करके कम्फर्ट ज़ोन में जाने में का दिक्कत है भाई...हमरे हिसाब से तो कोई बुराई नहीं है...अरे ! हमरी किस्मत फूटी थी कि, हमरे लिए किसी multimillionaire का रिश्ता नहीं आया, न माँ-बाबा ही देखे, नहीं तो हम भी आज कम्फर्ट ज़ोन में झूला झूल रहे होते....ऐसन खटे हैं हम कि हमरे घर में एक चम्मच भी खरीदे हैं, तो अपनी मेहनत की कमाई से...ई अलग बात है कि माँ-बाप ने इतना काबिल बना दिया था हमको, कि आज चम्मच की दो-चार फैक्टरी तो खोल ही सकते हैं...बाकि multimillionaire भी मिलता तो हमको कौनो परहेज़ नहीं था...;):)
माँ-बाप जब अपनी पढ़ी-लिखी, और ख़ूब क़ाबिल बेटी के लिए भी, जीवनसाथी ढूँढते हैं..तो ये देखते हैं कि लड़का पढ़ा-लिखा, अच्छी नौकरी वाला, अच्छे परिवार से आता हो, थोड़ी संपत्ति हो....ताकि, कभी बुरा वक्त आ जाए तो, बेटी को कोई तकलीफ न हो...हम हिन्दुस्तानी आज के लिए कम, भविष्य के लिए ज्यादा जीते हैं...और ऐसा सोचना कतई गलत नहीं है...ऐसी सोच रखते हुए, बेटियों को क़ाबिल बनाने में, आजकल के माँ-बाप पूरा सहयोग देते हैं...हमसे पहले की पीढ़ी ने बेशक लड़के-लड़की का भेद-भाव रखा है...लेकिन हमारी पीढ़ी इन बातों से बहुत ऊपर उठ चुकी है...आज हम अपने बच्चों को सामान दृष्टि से देखते हैं..चाहे वो लड़की हो या लड़का...
लड़कियों को भी अपने पाँव में खड़े होने की हर संभव कोशिश करनी चाहिए...क़ाबिल लड़की अपने वैवाहिक जीवन में और अपनों के जीवन के स्तर में इज़ाफा ही करती है...आज आम हिन्दुस्तानी जोड़े प्रगति कर रहे हैं..उनका जीवन स्तर समृद्ध है, इसका सबसे बड़ा कारण है..महिलाओं की ओर से अपने परिवार में आर्थिक योगदान...'आमदनी इक रुपिया, खर्चा अठन्नी'...
आज का मध्यमवर्गीय युवा वर्ग, शादी सिर्फ कम्फर्ट के लिए नहीं करता...उनमें कुछ करने की ललक देखने को मिलती है...यूँ तो शादी शब्द के ख़याल से ही, किसी भी उम्र के नोर्मल इन्सान के मन में , जो ख्याल आता है, उसमें 'प्रेम', पवित्रता, समर्पण, परिवार इत्यादि शामिल होते हैं...समाज को अनुशासित रखने वाली, पवित्र संस्था का नाम है 'विवाह'....जो पूर्णता का अहसास दिलाती है...उपलब्धि का
बोध कराती है...साधारण लोगों को एक उद्देश्य देती है...कह सकते हैं, शादी एक बहुत ही महत्वपूर्ण वजह है, जिसके कारण, समाज में बुराईयाँ अपनी पराकाष्ठा तक नहीं पहुँच पायीं हैं...परिवार की जिम्मेदारी, बच्चों का स्नेह, पत्नी का प्रेम, पति का प्यार, दुनिया के बहुत
से पति-पत्नियों को एक दिशा देती है और अनुशासित रखती है...वर्ना दुनिया का क्या हश्र
होता...यह भगवान् ही जानता है....
बचपन में पढ़े थे..पहले कर्तव्य होता है, उसके बाद अधिकार...अब यहीं देखिये न...नारी के अन्दर उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करने की इतनी कोशिश करना...इसे क्या कहेंगे आप...अधिकार या कर्तव्य ? :):) जैसा कि ज्ञात है, अधिकार से
पहले कर्तव्य आता है...और अधिकार पाने के लिए परिश्रम करना पड़ता है...हम जब भी नए परिवेश में जाते हैं...वो पहले दिन से ही, हमारे अनुकूल नहीं
होता...चाहे वो नया घर हो, स्कूल हो, कॉलेज हो...बस हो ट्रेन हो, प्लेन
हो...हर जगह हम अडजस्ट करते हैं....और ये तो बहुत बेवकूफी होगी कि हम घर
से उम्मीद करें, वो अडजस्ट हो जाए हमारे हिसाब से...या फिर स्कूल के सारे
टीचर्स, स्टुडेंट्स से अपेक्षा करें कि वो बदल जाएँ हमारे हिसाब से...जी नहीं हम बदलते हैं उनके हिसाब से...
ठीक वैसे ही, नयी बहू जब अपने नए ससुराल आती है, तो उसके लिए जगह बदलता है, सामान बदलता है, परिवेश बदलता है...उसे वहां अडजस्ट
करना पड़ता है...जूता-छाता, झाडू ब्रुश सब कुछ बदल जाता है...लेकिन वहाँ रहने वालों के लिए कुछ नहीं बदलता...इसलिए अडजस्ट नयी बहू को ही करना पड़ता है... हाँ, ससुराल के लोग, बहू को, अडजस्ट करने में मदद करते हैं, और करना भी चाहिए...ससुराल वालों का व्यवहार अच्छा होना ही चाहिए, यह एक बुनियादी बात है...लेकिन जो खडूस हैं, वो रातों-रात न तो खडूस बने होते हैं, न ही खाडूसियत छोड़ सकते....ये उनके जन्मजात लक्षण होते हैं...और हम हिन्दुस्तानियों में इस गुण की भरमार है ...ब्लॉग जगत में ही कौन सी कमी है इसकी..
हाँ अगर, ससुराल या ससुराल वालों से दूर ही रहना है...तो सबसे अच्छा होगा, शादी करके सीधे ससुराल नहीं जाकर...अपना ही बसेरा बनाया जाए...फिर ज़रुरत ही नहीं होगी किसी को भी झेलने की...वैसे हम लडकियाँ सेतु होतीं हैं...दो परिवारों के बीच...हमारा
कर्तव्य न सिर्फ ससुराल और सास-ससुर के प्रति होता है... अपने माता-पिता, के प्रति भी
होता है...उनके बुढापे का सहारा बनना भी हमारा ही कर्तव्य है...हम सिर्फ अपने
बारे में सोच कर अपनी जिम्मेदारियों से अगर भागना शुरू कर दें, तो जितने
भी बुजुर्ग हैं, सबका बुढ़ापा अंधकारमय हो जाएगा...हिन्दुस्तान अभी तक
individualistic society नहीं है...यहाँ विवाह एक सामाजिक रिवाज़ है..अगर
ऐसा नहीं होता...तो हिन्दू शादी में भी, कागज़ी करवाई होती...लेकिन ऐसा
नहीं होता...यहाँ विवाह, समाज के सामने, समाज को साक्षी मान कर हो जाता है,
और सारी उम्र निभ भी जाता है...अगर हमारी माओं ने भी अपने अधिकार को इतनी
ही तवज्जो दी होती तो...जितनी हमसे देने की अपील की जाती है, तो हमारे भी
५-७ बाप हो चुके होते...जैसे वेस्ट में होता है...हाँ अगर अपने ज़मीर को
मार कर और सिर्फ अपने लिए ही जीना है...तो बात अलग है...
याद आता है मुझे, जब स्कूल से हम कॉलेज गए थे, तो हमारी रैगिंग हुई थी...वो स्टुडेंट्स सिनिअर थे...कॉलेज में उनका आधिपत्य था...वो वहाँ कम्फर्टेबल थे...उनके पास स्वघोषित अधिकार था, जुनिअर्स के साथ कुछ भी कर जाने का....हम जुनिअर्स सब बर्दाश्त कर गए थे...क्योंकि हम और कुछ नहीं कर सकते थे...एक कहावत सुनी थी 'जल में रह कर मगर से बैर नहीं करना चाहिए'...अगर हम उनसे उलझ गए होते, तो हमारे कॉलेज की शुरुआत ही रोंग फूटिंग पर होती...फिर हम कितने कॉलेज बदल सकते थे...और क्या गारंटी थी कि दूसरा कॉलेज, इस बात से अछूता होगा...लिहाज़ा हमसे कहा गया नाचो...हम नाच कर निकल लिए...अगर न नाचते तो अगले चार साल हम उलझते-सुलझते रहते....फिर, धीरे-धीरे, हमने अपनी पहचान बना ली...हमारा नाम होने लगा...फिर तो, हम ही हम थे हर जगह ...हा हा हा...धीरे-धीरे वही सिनिअर्स, हमें न सिर्फ अपना दोस्त मानने लगे...हमारे लिए जान देने को तैयार हो गए....हमने वो जगह, वो अधिकार अपने संयम, अपने धीरज से पा ली...जो हम पाना चाहते थे
ठीक वैसे ही, नयी बहू को भी अधिकार अर्जित करना पड़ता है, धीरे-धीरे, धीरज के साथ.... बदकिस्मती कहिये या खुशकिस्मती, कोई नयी बहू, लाठी-बल्लम ले कर नहीं जाती अपने ससुराल और पहले दिन
से ही, कुंगफू नहीं करने लगती है....हालांकि कुछ समाज सेविकाएँ चाहती हैं कि पहले दिन
से ही वो उतर जाएँ मैदाने जंग में, देती जाएँ ईंट का जवाब पत्थर से...और कभी-कभी ऐसा भी होता है...लेकिन फिर वो बातें सारी उम्र रह जातीं हैं...और कटुता मरते दम तक नहीं जाती...न उस बहू के मन से न ही उसके परिजनों के मन से...
एक घटना ४-५ साल पहले की है...
मेरी एक परिचिता की बेटी की शादी कनाडा में हुई...लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है, नहीं मालूम लेकिन, शक्ल से आधुनिका है...वेस्टर्न ड्रेस पहनती है...शादी करके वो भारत से कनाडा आई थी...जाहिर सी बात हैं, माँ-बाप की याद आती थी तो, रोज़ ही फ़ोन किया करती थी अपने माँ-बाप, अपने दोस्तों और अपने रिश्तेदारों को...उसके ससुराल वालों को बुरा नहीं लगता था...फिर फ़ोन के बड़े-बड़े बिल आने लगे घर पर...क्योंकि फ़ोन पर जब भी वो बात करती, घंटा-दो घंटा लगा देती...इस चक्कर में घर का काम भी करना उसे अच्छा नहीं लगता...बल्कि घर के काम के लिए, वो कह देती, उसे आता ही नहीं है...खाना उसने कभी बनाया ही नहीं, न ही खाना बनाने के लिए वो यहाँ आई है...बल्कि प्याज की छौक से उसे अलेर्जी हो जाती है....उसकी इन बातों से, धीरे-धीरे रिश्तों में कडवाहट आने लगी...अब वो अपने पति से भारत में बसने की जिद्द करने लगी...पति ने उससे कहा कि उसका सारा परिवार यहाँ है, उसकी नौकरी यहाँ है...वो कैसे जा सकता है...लेकिन उसने दबाव डालना कम नहीं किया...पति ये भी कहता, मैं भारत जाकर काम भी क्या करूँगा...लेकिन वो नहीं मानती, अब उन दोनों में रोज़ ही झगडा होने लगा...घर की शांति भंग हो गयी...एक दिन उसकी किसी बात पर उसकी सास ने उसे डांट दिया...बस उसने आव देखा ना ताव.. सास को पीट दिया....जब ससुर ने छुड़ाना चाहा , उसने उनको भी धक्का देकर गिरा दिया...लड़के से माँ-बाप का ये अपमान नहीं देखा गया...उसने उसी वक्त उसे घर छोड़ कर चले जाने को कहा...शादी टूट गयी....अधिकार पाने का ये तरीका क्या कारगर था...? अब दोबारा उसकी शादी हो गयी है...लेकिन उसके पति और उसकी उम्र में बड़ा फर्क है, दूसरा पति पहले की अपेक्षा ज्यादा अनुशासन प्रिय है...अब वो लड़की ज्यादा नम्र रहती है...मोरल ऑफ़ दी स्टोरी...उफनती नदी किनारे तोड़ कर सर्वनाश ही करती है....गरिमा में रह कर बहने वाली नदी, जीवन दायिनी होती है...कभी-कभी नदी कुछ गंदगियों को भी समेटती है...मनुष्यों के अत्याचार भी सहती है...
हम सब इंसान हैं..और कुछ भावनाएं प्राकृतिक रूप से हमारे अन्दर हैं...जिनको अगर हम बदलना चाहते हैं, तो खुद पर हमें काम करना पड़ता है...जैसे पिता को दामाद से चिढ होती है और माँ को बहू से जलन...ऐसी भावनाओं का, बड़ा ही लोजिकल एक्सप्लेनेशन है....वो माँ जिसने बेटे को जन्म दिया, तिल-तिल करके बड़ा किया, जिस लड़के ने उसकी एक भी बात ऐसी नहीं, जो न मानी हो...अचानक एक दिन एक लड़की आती है, और अपना पूरा अधिकार उसपर जमा बैठती है, एक दिन उस माँ को पता चलता है कि, अब उसका बेटा उसकी नहीं, बहू की बात मानता है...जलन की शुरुआत कर देता है...लड़कियों को उनका अधिकार मिलना
ही चाहिए...लेकिन अगर बहू भी सास की मनोदशा समझ कर थोड़ी समझ से काम ले, अपने पति को, एक माँ का बेटा भी बने रहने दे, तो कोई समस्या नहीं होगी....
मुझे याद है मेरी सास ने एक दिन मुझसे कहा था 'सपना तुम मेरी बहू नहीं हो...ये सुनकर मैं डर गयी थी...मैंने पूछा था ऐसा क्यूँ कह रही हैं माँ...उन्होंने आगे कहा था...तुम मेरी बेटी भी नहीं हो...तुम मेरा बेटा हो....मैं आज तक उनकी इस बात को नहीं भूल पायी हूँ...
हम समाज में रहते हैं...एक अच्छे नागरिक का कर्तव्य निभाते हैं...शहर को साफ़ रखने में, अपना योगदान देते हैं, सरकारी संपत्ति को सम्मान देते हैं...देश के नेताओं की बकवास झेलते हैं...लेकिन जो हमारे अपने बन जाते हैं, उनके साथ ताल मिला कर चलने से पहले, अपने अधिकार की बात करें, तो किसी को अच्छा नहीं लगता...एक एम्लोयर भी, अपने एम्लोई से ये उम्मीद करता है कि...पहले अच्छा काम कर के विश्वास जीते, फिर तनखा बढाने की बात करो...नई बहू बिलकुल उसी एम्लोई की तरह होती है...सारी नज़रें उसपर टिकी होतीं हैं...और सबको उससे उम्मीद होती है...उसे भी सबका विश्वास जीतना होता है...अब ये उस पर है, कि वो कैसे ख़ुद को साबित करती है...और ऐसा करने में कई बार उसे कुछ बातों को सहना भी पड़ता है...
हमने बचपन में एक कहावत सुनी थी...
कम खाना और ग़म खाना
न हकीम को जाना न हाकिम को जाना
नारी, का मनोबल पुरुष से कहीं ज्यादा मजबूत मनोबल होता है....तो फिर ये शक्ति, सिर्फ अधिकार के लिए ही क्यों, कर्तव्य के लिए भी क्यों नहीं....हाँ अत्याचार सहना गलत है, और अत्याचार करना भी...हमारी पीढ़ी की मानसकिता बदल रही है...हमलोग अडजस्ट करना सीख चुके हैं...अब बहुत बदलाव आ रहा है...बहुएं अपनी ज़द में रहकर अपना अधिकार और कर्तव्य समझतीं हैं...सास-ससुर भी अब पहले की तरह नहीं हैं...उनको भी मालूम है, अगर उन्हें प्यार और प्रतिष्ठा चाहिए तो, उन्हें प्यार और प्रतिष्ठा देनी होगी...समय बदल रहा है...हमलोग बदल रहे हैं...
हाँ नहीं तो..!!