Saturday, March 20, 2010

व्यवस्था..........


व्यवस्था के मोहरे
व्यवस्था की आड़ में
व्यवस्था के सहारे  
नित नई व्यवस्थित चाल
चल रहे हैं
और भेंट चढ़ जाते  हैं
कितने ही व्यवस्थित
जीवन,
समझ कहाँ पाते
इस व्यवस्था को
जो सिर्फ झूठ के
फर्श पर खड़ी  है
न जाने कितने छेद लिए हुए 
वो भी बिना पैरों के
समझने से पहले ही

ये फर्श बन
जाती है,

और तब तुम सिर्फ
अपना सर ही पटक सकते हो......


मयंक की चित्रकारी.... 


24 comments:

  1. बहुत गंभीर रचना

    और

    मयंक की चित्रकारी-क्या कहने!

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  2. और भेंट चढ़ जाते हैं
    कितने ही अव्यवस्थित
    जीवन,
    और फिर व्यवस्थित जीवन भी तो इन चालों से अव्यवस्थित हो जाते हैं.

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  3. व्यवस्था के मोहरे
    व्यवस्था की आड़ में
    व्यवस्था के सहारे
    नित नई व्यवस्थित चाल
    चल रहे हैं
    और भेंट चढ़ जाते हैं
    कितने ही अव्यवस्थित
    जीवन


    सुन्दर संयोजन
    स्वागत

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  4. भारत में रोज़ व्यवस्था के आगे सिर ही तो पटकना पड़ता है...शायद यही हमारी नियति है...

    मयंक को दस में से दस...

    जय हिंद...

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  5. बहुत ही सुन्‍दर प्रस्‍तुति ।

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  6. गहरी अभिव्यक्ति .......मयंक कि चित्रकारी लाजवाब .

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  7. अदा जी!
    अकविता लिखने में भी आपका जवाब नही है!
    व्यवस्था पर आपकी कविता बहुत अच्छी बन पड़ी है!

    प्रियवर मयंक के उज्जवल भविष्य की कामना करता हूँ!

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  8. सबसे पहले तो मयंक से कहिये..कि हमारी टोपी हमसे पूछे बिना इस्तेमाल ना करे...

    :)


    और दूसरा...


    व्यवस्था ....
    समझ कहाँ पाते
    इस व्यवस्था



    और कहना कि जब वो इस व्यवस्था को समझ ले...जान ले...
    तो बिना अपने फायदे की सोचे....इसे तोडना शुरू कर दे....
    पर ध्यान से...

    इस व्यवस्था तोड़ने का फायदा बहुत से असामाजिक तत्व भी उठाते हैं..
    ठीक वैसे ही...
    जैसे ग़ज़ल के कायदे तोड़ने का फायदा वो लोग भी उठा जाते हैं जो शायर नहीं होते....

    आर्ट के कायदे तोड़ने का फायदा वो लोग जो...

    एनीवे....

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  9. "अपना सर ही पटक सकते हो......"

    सकते हो?

    सिर ही तो पटक रहे हैं।

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  10. बहुत सुंदर और ’व्यवस्थित’रचना

    व्यवस्था के मोहरे
    व्यवस्था की आड़ में
    व्यवस्था के सहारे
    नित नई व्यवस्थित चाल
    चल रहे हैं
    और भेंट चढ़ जाते हैं
    कितने ही व्यवस्थित
    जीवन,

    वाह!अव्य्वस्था का कच्चा चिट्ठा खोल कर रख दिया है आप ने

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  11. सच यही है।
    उम्दा रचना।

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  12. बहुत यथार्थपरक रचना. मयंक की ब्रश मे एक मंजा हुआ चित्रकार दिखाई देरहा है मुझे तो. शुभकामनाएं.

    रामराम.

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  13. व्यबस्था...दाल ही काला है...और सारा गुड़ गोबर.....
    ...........
    विश्व गौरैया दिवस-- गौरैया...तुम मत आना....
    http://laddoospeaks.blogspot.com

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  14. बहुत गंभीर भाव लिये है आप की यह कविता

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  15. व्यवस्था से फ़ैली अव्यवस्था के जिम्मेदार कौन ....
    समंदर के किनारे बैठ कर गहराई की बात नहीं किया करते ...
    व्यवस्था को मात व्यवस्था का अंग बन कर ही दी जा सकती है ...
    स्पाईडर मैंन अच्छा लग रहा है ...!!

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  16. वाणी जी,
    व्यवस्था में तो आप भी हैं...ठीक कीजिये न :)

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  17. कई व्यवस्थित चाल तो हमें भी अव्यवस्थित कर जाती हैं ।
    बढ़िया प्रस्तुति और मयंक की चित्रकारी के तो क्या कहने ।

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  18. सब व्यवस्था के ही मारे है..और सब ही अव्यवस्थित ... इसकी भी हमे आदत लग जाती है..

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  19. व्यवस्था के प्रति विद्रोह की बिलकुल सही मानसिकता इस कविता मे दृष्टिगोचर होती है .. इसमें छेद ही सही लेकिन इसे भेदना ही होगा ।

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  20. बहुत बढ़िया

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