Tuesday, November 24, 2009
आँचल और घूंघट
आज कई पोस्ट पढ़ी जिनमें आंचल से लेकर पायल तक की बात देखी.....
पढ़ कर बड़ा ही अजीब लगा की मेरे सर पर आँचल हो या न हो या यह तो मेरी ही मर्ज़ी पर है...भला इस पर किसी और का क्या इख्तियार....???
और अगर कोई इस बात को तूल देता है की आपको अपने सर पर आँचल रखना ही होगा तो वो या तो धरम स्थल होगा या फिर कोई सिरफिरा.....
अब इस तरह की बात हमारी ही पीढ़ी थोपेगे अगली पीढ़ी पर....क्यूंकि हमसे पिछली पीढ़ी या तो है ही नहीं और अगर है भी तो इस काबिल नहीं की वो कुछ कह सके....
इससे पहले की मैं बात करूँ मैं अपनी शैक्षणिक योग्यता और अपनी पहचान बता दूँ....
मैं कनाडियन गवर्मेंट में काम करती हूँ और प्रोजेक्ट मेनेजर हूँ......शिक्षा M.Sc (Zoology) , MCA, B.Ed है... मैंने अपनी ज्यादातर पढाई शादी के बाद की...और मुझे किसी ने नहीं रोका....मैंने अपने पुरुषार्थ से कनाडा आने का निश्चय किया और नितांत अकेली आई हूँ....मुझे किसी ने नहीं रोका..सबने मेरा अनुसरण ही किया......
आज की नारी को रोक पाना असंभव है....अगर वो सही रास्ते पर है तो.....जाहिर सी बात है...अपनी व्यक्तिगत योग्यता भी मायने रखती है....किसी भी तरह के निर्णय के लिए.....
बचपन में जब मैं दादा-दादी के घर जाती और कोई कुछ बेचने आता तो दादा जी उससे चीज़ें लेकर अन्दर भेजा करते थे...दादी के approoval के लिए अगर दादी ने हाँ कहा तो ही वो चीज़ खरीदी जाती थी वर्ना नहीं......सबको लगता था की दादा जी की चलती है लेकिन असल में पूरे घर का हैंडल दादी के ही हाथ में था.....
फिर देखा माँ को ..मेरी माँ तो खैर क्लास वन ऑफिसर थी...३ जिला की विद्यालय निरीक्षिका थी.....अब अवकाश प्राप्त कर घर पर हैं........इसलिए हर निर्णय वो खुद ही करती थी/हैं .....लेकिन जब भी मेरे दादा जी आते थे वो सर पर आँचल ज़रूर रखती थी...इसलिए नहीं कि वो बाध्य थी ...बल्कि इसलिए कि यह एक तरीका है आदर जताने का....अब कोई इसे उनकी कमजोरी समझे तो यह उस व्यक्ति सोच की कमी है...
सर पर आँचल रखना मेरे विचार से प्रगति में बाधा का द्योतक या हमारी बेड़ियाँ नहीं दर्शाता है.......यह बड़ों को सम्मान देना बताता है..और इसे कोई भी अपनी प्रगति में बाधा न समझे....
बाधा है घूंघट या पर्दा .....लेकिन अब पर्दा कहाँ है...मैंने तो गाँव में भी पर्दा का जोर-शोर से बहिष्कार देखा है....मेरे ही घर में रांची झारखण्ड में...मेरी चाचियाँ पहले पर्दा करती थी अब नहीं ...अब वो बाकायदा घर के निर्णयों में भी अपना मंतव्य देती हैं....अब तो गाँव में भी शर्ट-पैंट पहनती हैं लडकियां.....लडकियां अब अपनी पहचान खूब जानती हैं...और पुरुष भी अब महिलाओं का सम्मान करते हैं......
मुझे याद हैं मेरे पिता जी कभी भी हमें गोद में नहीं उठाते थे...लेकिन मेरे पति हमेशा बच्चो को पीठ पर बाँध कर चलते थे...मेरे पिता जी ने कभी माँ का जूठा नहीं खाया...लेकिन मेरे पति खाते हैं...यह सब बदलाव ही तो है...
दुनिया का कोई भी रिश्ता....आपसी समझौते पर ही होता है....और शादी तो सिर्फ और सिर्फ समझौता ही रह जाता है.....हम सभी अपने अहम् को किनारे रख देते हैं इसलिए नहीं कि हम कमजोर हैं ...बल्कि इस लिए कि कई और जीवन हमसे जुड़े होते हैं.....जिसे हम संतान कहते हैं....अपने बच्चो के लिए अगर हम थोडा सा त्याग करते हैं तो क्या यह अनुचित है...??? और यह त्याग सिर्फ माँ नहीं करती पिता भी करते हैं.....उनके त्याग को कोई अहमियत नहीं देना सर्वथा अनुचित है...वो भी सारी रात जागते हैं....वो भी बच्चों के भविष्य के लिए दिन-रात एक कर देते हैं....
हर वक्त अपने अधिकार का डंडा लेकर खड़ा रहना ....जीवन से मिठास ले जाता है....पत्नी के अधिकार और कर्तव्य को रहने दीजिये ...लेकिन एक माँ का कर्तव्य एक प्रगतिशील नारी बन कर भी हम पूरा कर सकते हैं और ...आप में से हर एक कर रही है....मेरे हिसाब से जीवन घूम फिर कर बच्चो पर ही आ जाता है....और तब हम सिर्फ 'माँ' बन जाते हैं 'नारी' नहीं....
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आप कुछ संस्मरण भी लिखा कीजिये आज पढ़ कर बड़ा अपना सा लगा. आपने विषय के दोनों पहलुओं का संतुलन बना कर रखा है सम्मान और बंदिश के फर्क को सही अलग किया है. बधाई.
ReplyDeleteआप कुछ संस्मरण भी लिखा कीजिये आज पढ़ कर बड़ा अपना सा लगा. आपने विषय के दोनों पहलुओं का संतुलन बना कर रखा है सम्मान और बंदिश के फर्क को सही अलग किया है. बधाई.
ReplyDeleteबहुत संतुलित आलेख .. अति हर चीज की बुरी होती है .. आपसी सामंजस्य बनाकर चला जाए तो कुछ भी गडबड नहीं !!
ReplyDeleteसारा मुद्दा आदर, अपनत्व, समर्पण, सावधानी, चेतावनी, दुलार करने-दिखाने के प्रतीकों का है।
ReplyDeleteरही बात पर्दे की, तो अब भारत आ कर देखिएगा। साइकिल, बाईक में आगे पीछे बैठी लड़कियाँ नकाबपोश बनी, लड़कों से चिपटी नज़र आएँगी, चाहे मौसम कैसा भी हो। इस पर्दे को क्या नाम दिया जाएगा, पता नहीं।
आपका यह स्वभाविक आक्रोश पसन्द आया।
बी एस पाबला
बहुत सटीक बात कही है,आपने....(भला हो इस 'आँचल और पायल' की चर्चा का हमें इस बहाने आपका पूर्ण परिचय भी मिल गया :) )....इसका निर्णय महिलाओं पर ही छोड़ देना चाहिए...कोई बात अगर जबरदस्ती थोपने की कोशिश की जाती है तो स्वतः ही उसका विरोध होने लगता है. धीरे धीरे सुविधा असुविधा का ख्याल करते हुए चीज़ों में बदलाव खुद ब खुद आ जाता है.आज बच्चों के स्कूल,बाज़ार,बैंक,कई जगह महिलाओं को जाना पड़ता है वे,सर पे आँचल रख और पायल पहन कर तो नहीं जा सकतीं,ना.और नौकरी करने वाली महिलाओं के लिए भी ये नामुमकिन है.समय के साथ परिवर्तन को खुले मन से स्वीकारें,यही अपेक्षित है.
ReplyDelete@रश्मि
ReplyDeleteजी आपसे बिल्कुल सहमत हूँ कि समय के साथ परिवर्तन नितान्त आवश्यक है । लेकिन परिवर्तन ऐसा हो कि जससे हमारी पहचान है हम उसे ही खो दें इस परिवर्तन के चक्कर में । मैं ये नहीं कहता कि आँचल या पायल को जरुरी बनाके किसी भी औरत के उपर थोपा जाये , ये शायद ठीक भी ना होगा । वर्तमान समय में जैसा आपने बताया ये शायद संभव नहीं है परन्तु ये कह के कि पूराने समय या वैदिक काल की घटिया परंपरा है या ये कहना कि पायल तो पैरो में बेड़ियो जैसा था तो यहाँ मन थोड़ा दुःखी जरुर होता है , आप उसका पालन करें या ना करे लेकिन ये कहकर इंकार करना कि वह ठिक नहीं , ये बात शायद ठीक ना होगी ।
@दीदी चरण स्पर्श
आप ने बहुत ही बढिया तरीके से अपनी बात रखी और मन खूश कर दिया ।बहुत-बहुत शूक्रिया आपका , कम से कम कुछ बातों को आपने साफ कर दिया। अन न पता कि नारी ब्लोग की प्रतिक्रिया क्या होगी इसपर ।
aaapki is lekhnee ko salaam....
ReplyDeletelove u for this lekh.....
बड़ा अच्छा लगा मिथिलेश जी,आप हमारी बात से सहमत हैं,पर आप शायद थोड़े confused हैं....."परन्तु ये कह के कि पूराने समय या वैदिक काल की घटिया परंपरा है या ये कहना कि पायल तो पैरो में बेड़ियो जैसा था तो यहाँ मन थोड़ा दुःखी जरुर होता है ,"..;;;ये शब्द मेरे नहीं हैं....मैंने ये कहा था कि आँचल और पायल आज भी लडकियां पहनती हैं पर अवसर बदल गए हैं...आप अपने ब्लॉग पर मेरा रिप्लाई देखें.मैं जो कहती हूँ,संभल कर और उसपर अंत तक कायम रहती हूँ.
ReplyDeleteअच्छा लगा!
ReplyDeleteसत्यं शिवम् सुन्दरम्!
ऐसा प्रतीत हो रहा है कि आप निर्वैयक्तिकता का सारा आवरण उतारकर एक आत्मीय की भांति अत्यंत निजी ढ़ंग से बातें कर रही है। आप बहुत सूक्ष्मता से एक अलग धरातल पर चीज़ों को देखती हैं। इस तचना को पढ़कर एक भावनात्मक राहत मिलती है।
ReplyDeleteआंचल या घूंघट नही तह्जीब , और सलीका जरूरी है जो आपके लेख से स्पष्ट है
ReplyDeleteमुझे लगता है मनुष्य की निजता ,उसका स्वत्व बहुत मायने रखते हैं !
ReplyDeleteकिसी को अपने तरीके से जीवन जीने की स्वच्छन्दता होनी चाहिए !
मूल्यों का थोपना अक्सर उल्टा प्रभाव डालता है !
आपकी बातों से पूर्ण सहमति !
नारी सशक्तीकरण के नाम पर स्त्री व पुरुष के सामंजस्य की स्थापित व अनुभवसिद्ध मान्यताओं को चोट पहुचाने वाली प्रवृत्तियों को सही आइना दिखाने वाली सराहनीय पोस्ट .
ReplyDeleteएक बात अभी बाकी है, पुरुषार्थ जैसे शब्दों से मुक्ति. स्त्रीत्व उतना ही अर्थपूर्ण है जितना पुरुषार्थ. आदर.
ReplyDeleteरश्मि जी ये बाते मैंने आपके लिए नहीं कही , मेरा कहना था आँचल और पायल के विरोधीयों के लिए । और ये लाईनें आपकी समर्थन प्राप्त नारी की कहनी है ।
ReplyDeleteये है साफगोई...आपको बधाई जो इसे ऐसे लिखा आपने..दी..!!!
ReplyDeleteयह अपने अपने विचारो की बात है .......... अगर आप पर्दा पसंद है तो आप पर्दा करे वर्ना नहीं तो नहीं !
ReplyDeleteमेरे अपने घर में दोनों माहौल है - परदे का भी और बे परदे का भी | फर्क इतना होता है कि आप स्थान, काल और पात्र का धयान रखे | मतलब यह कि पर्दा कहाँ करना है, किस समय करना है और किस के सामने करना है !
यही बाते आपने भी अपने लेख में काफी बढ़िया तरह से बताई है !
आपकी लेखनी और स्वर दोनों बहुत मधुर है,पढ़कर अच्छा लगा...पहले लिखी टिप्पणियों में सारी बाते आ गयी है...आपकी आवाज में ''तेरी आँखों के सिवा...''और श्री शैल साहब की आवाज में ''पुकारता चला..'' सुना..दोनों बहुत अच्छे लगे...पर आपकी आवाज पूरी खिंच नहीं रही थी...शैल साहब अधिक लय में थे...आपकी आवाज प्रभावित करती है आपके गीत ''ऐसा हो नहीं सकता में...''तीन चार बार सुन चुका हूँ..और मन मैं आपका गीत स्पर्श करता सा लग रहा है.
ReplyDeleteआप ने वो सब बाते लिखी जो मै अकसर सोचता हुं, लेकिन लिख नही पाया, लेकिन आप की एक एक बात से सहमत हुं
ReplyDeleteधन्यवाद इस अति सुंदर लेख के लिये
मातृशक्ति तुझे सलाम...नारी को सृष्टि की जननी यूंही नहीं कहा जाता...
ReplyDeleteअदा जी, आपकी पोस्ट से दो बातें साफ हो गईं...
पहली-
आप धोनी के शहर रांची की हैं...इसलिए विचारों के धरातल पर दूसरों के छक्के छुड़ाना बखूबी जानती हैं...
दूसरी-
M.Sc (Zoology) , MCA, B.Ed...आगे से बहस करते वक्त गांठ बांध कर रखूंगा..
जय हिंद...
सही संतुलित भाषा में आपने अपना मत रखते हुए आक्रोश जाहिर किया है..अच्छा लगा!
ReplyDeleteआपसे बिल्कुल सहमत हूँ
ReplyDeleteबात बार बार वस्त्रों की समानता पर ही आकर क्यों अटकती है ...जब स्त्री और पुरुष सामान है ही नहीं ...दोनों अलग व्यक्तित्व है ...शारीरिक संरचन अलग है तो मुक्ति के नाम पर पुरुषों की बुरी आदतों को अपना लेना कैसे समानता के खांचे में समाएगा ...समानता हो ....शिक्षा ...नौकरी ...व्यवसाय , बौद्धिकता , विचारों में ...बहुत सही कहा आपने ....!!
ReplyDeleteअदा जी,
ReplyDeleteपर्दा चूड़ी कंगना पायल ,...
बिंदी मेहँदी टीका आँचल.....
सब औरत को निखारने के लिए ही होते हैं...
अगर कोई इनसे परहेज करता भी है तो कोई बात नहीं...
लेकिन कोई विरोध करता है तो गलत बात है.....
और.....हर वक्त अपने अधिकार का डंडा लेकर खड़ा रहना ....हाँ, कभी कभी जीवन से मिठास ले जाता है....
सुन्दर और सटीक लेख!
ReplyDeleteसर पर आँचल प्रायः अपने से बड़ों के समक्ष ही डाला जाता है और यह बड़ों के प्रति सम्मान प्रकट करने का एक तरीका है। इसे बन्धन समझना मूर्खता है।
क्या चीज लोक व्यहार है और क्या बन्धन, इस विषय में आज बहुत से लोग भ्रमित से जान पड़ते हैं। यह भ्रम हमारी कुशिक्षा के कारण ही है।
ada aap bhi choice ki hi baat keh rahee haen
ReplyDeletekapadae koi bhi ho chunae kaa adhikaar apna swa ki hona chahoiyae
आपके विचारों से सहमत ।
ReplyDeleteपहला वाक्य "मेरी मर्ज़ी .." बस यही सारी बुराई की जड है, आन्चल-पायल बडों का आदर है जो( समाज के नियम ) प्रबुद्ध स्त्री-पुरुष( सारे समाज) दोनों ने मिलकर बनाये हैं । यदि मर्जी ही सब कुछ है तो सडक पर क्यों ट्रेफ़िक रूल की बात होती है? सभी एक समान बुद्धिमान नहीं होते, इसीलिये नियम बनाये जाते हैं। बस नियम मनुष्य के लिये हों, नकि मनुष्य नियम के लिये---अति सर्वत्र वर्जयेत ।
ReplyDeleteआपका अपनी डिग्री का वर्णन करना अहं का परिचायक है, डिग्री से कोई विद्वान व ग्याता नहीण हो जाता, फ़िर टेकनिकल डिग्री का इस बहस में कोई मूल्य नहीं।
डॉक्टर साहब, शायद आप ठीक कहते हैं...लेकिन मेरी यहाँ अपनी डिग्री का जिक्र करने के पीछे एक मात्र मंशा यह थी कि अगर नारी चाहे तो कुछ भी कर सकती है....उसके रास्ते में आँचल पायल कभी नहीं आयेंगे....क्यूंकि मैंने भी पढाई शादी के बाद बच्चों के साथ कि है...और क्यूंकि यह एक वाजिब मांग थी सबने मेरा साथ दिया ...
ReplyDeleteमेरा बिलकुल भी इरादा दंभ दीखने का नहीं था...
क्षमाप्रार्थी हूँ अगर ऐसा लगा हो तो...
विनीत..
स्वप्ना मंजूषा
सही है ,नारी चाहे तो सब कुछ कर सकती है , वैसे इसे व्यक्ति तक बढ़ा देना चाहिए (मेरी समझ में) ताकि नर-नारी अंतर ही न रहे | किसे भी कार्य में दोनों में से कोइ भी कम नहीं,क्यों हो आखिर ईश्वर ने दोनों को कोटि-पूरक बनाया है, बराबर वस्तु -भाव ही कोटि-पूरक होता है|
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