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Wednesday, December 7, 2011

तन्हाई, रात, बिस्तर, चादर और कुछ चेहरे.....






तन्हाई, रात, 
बिस्तर, चादर
और कुछ चेहरे,
खींच कर चादर
अपनी आँखों पर
ख़ुद को बुला लेती हूँ
ख़्वाबों से कुट्टी है मेरी 
और ख्यालों से 
दोस्ती 
जिनके हाथ थामते ही 
तैर जाते हैं
कागज़ी पैरहन में 
भीगे हुए से, कुछ रिश्ते
रंग उनके
बिलकुल साफ़ नज़र 
आते हैं,
तब मैं औंधे मुँह 
तकिये पर न जाने कितने 
हर्फ़ उकेर देती हूँ
जो सुबह की 
रौशनी में
धब्बे से बन जाते हैं....

Wednesday, April 14, 2010

कितने तो उन मयखानों में रात गुजारा करते हैं....


पशे चिलमन में वो बैठे हैं हम यहाँ से नज़ारा करते हैं
गुस्ताख हमारी आँखें हैं आँखों से पुकारा करते हैं

कोताही हो तो कैसे हो, इक ठोकर मुश्किल काम नहीं 
मेरी राह के पत्थर तक मेरी ठोकर को पुकारा करते हैं

पीते हैं बस आँखों से और बदनाम हुए हम जाते हैं
कितने तो उन मयखानों में  रात गुजारा करते हैं

हम खानाबदोशों को भी है किसी सायबाँ की दरकार 
नज़रें बचाए जाने क्यों हमसे वो किनारा करते हैं 


जब डूबते हैं पहलू में 'अदा' गोशा-गोशा गदराता है
हम हुस्न-ए-मुजसिम लगते हैं वो नज़र उतारा करते हैं