ब्लॉग जगत में हिंदी और देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर पर साक्षात् देखकर जो ख़ुशी होती है, जो सुख मिलता है, जो गौरव प्राप्त होता है यह बताना असंभव है, अंतरजाल ने हिंदी की गरिमा में चार चाँद लगाये हैं, लोग लिख रहे हैं और दिल खोल कर लिख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो भावाभिव्यक्ति का बाँध टूट गया है और यह सुधा मार्ग ढूंढ-ढूंढ कर वर्षों की हमारी साहित्य तृष्णा को आकंठ तक सराबोर कर रही है, इसमें कोई शक नहीं की यह सब कुछ बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा हो रहा है, और क्यों न हो अवसर ही अब मिला है,
इन सबके होते हुए भी हिंदी का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखता है, विशेष कर आनेवाली पीढी हिंदी को सुरक्षित रखने में क्या योगदान देगी यह कहना कठिन है और इस दुर्भाग्य की जिम्मेवारी तो हमारी पीढी के ही कन्धों पर है, पश्चिम का ग्लैमर इतना सर चढ़ कर बोलता है की सभी उसी धुन में नाच रहे हैं, आज से ५०-१०० सालों के बाद 'संस्कृति' सिर्फ किताबों (digital format) में ही मिलेगी मेरा यही सोचना है, जिस तरह गंगा के ह्रास में हमारी पीढी और हमसे पहले वाली पीढियों ने जम कर योगदान किया उसी तरह हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को गातालखाता, में सबसे ज्यादा हमारी पीढी ने धकेला है, आज पढ़ा-लिखा वही माना जाता है जो आंग्ल भाषा का प्रयोग करता है, हिंदी बोलने वाले पिछड़े माने जाते हैं, आज के माँ-बाप गर्व से बताते नहीं थकते कि उनका बच्चा कैसी गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलता है, फिर भी आज की पीढ़ी यानी हमारे बच्चे तो हिंदी फिल्में देख-देख कर कुछ सीख ले रहे हैं , लेकिन उनके बच्चे क्या करेंगे?
लगता है एक समय ऐसा भी आने वाला है जब सिर्फ एक भाषा और एक तथाकथित संस्कृति रह जायेगी, जिसमें 'संस्कृति' होगी या नहीं यह विमर्श का विषय हो सकता है
बहुत अच्छी बात यह हुई है कि इस समय लोग हिंदी लिख रहे हैं, वर्ना हम जैसे लोग, जो विज्ञानं के विद्यार्थी थे, हिंदी लिखने-पढने का मौका ही नहीं मिला था, कहाँ पढ़ पाए थे हम हिंदी, एक पेपर पढ़ा था हमने हिंदी का MIL(माडर्न इंडियन लैंग्वेज), न तो B.Sc में हिंदी थी, न ही M.Sc. में, हिंदी लिखने-पढने का मौका तो अब मिला है, इसलिए जी भर कर लिखने की कोशिश करते हैं
कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य
कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य
हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है उसकी उपयोगिता, आज हिंदी का उपयोग कहाँ हो रहा है, गिने चुने शिक्षा संस्थानों में और शायद 'बॉलीवुड' में, 'बॉलीवुड' ने भी अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए है, संगीत, situation सभी कुछ पाश्चात्य सभ्यता को आत्मसात करता हुआ दिखाई देता है, अब सोचने वाली बात यह है कि 'बॉलीवुड' समाज को उनका चेहरा दिखा रहा है या कि लोग फिल्में देख कर अपना चेहरा बदल रहे हैं, वजह चाहे कुछ भी हो सब कुछ बदल रहा है, और बदल रही है हिंदी, सरकारी दफ्तरों में भी सिर्फ अंग्रेजी का ही उपयोग होता है, हिंदी के उपयोग के लिए बैनर तक लगाने की ज़रुरत पड़ती है, कितने दुःख कि बात है !!
मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ, सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...
मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ, सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...
हर हाल में हिंदी पढने वालों को अपना भविष्य उज्जवल नज़र आना चाहिए...
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??