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Sunday, January 10, 2010

कहाँ जा रही हो हिंदी ???



ब्लॉग जगत में हिंदी और देवनागरी लिपि अपने कंप्यूटर पर साक्षात् देखकर जो ख़ुशी होती है, जो सुख मिलता है, जो गौरव प्राप्त होता है यह बताना असंभव है, अंतरजाल ने हिंदी की गरिमा में चार चाँद लगाये हैं, लोग लिख रहे हैं और दिल खोल कर लिख रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है मानो भावाभिव्यक्ति का बाँध टूट गया है और यह सुधा मार्ग ढूंढ-ढूंढ कर वर्षों की हमारी साहित्य तृष्णा को आकंठ तक सराबोर कर रही है, इसमें कोई शक नहीं की यह सब कुछ बहुत जल्दी और बहुत ज्यादा हो रहा है, और क्यों न हो अवसर ही अब मिला है,


इन सबके होते हुए भी हिंदी का भविष्य बहुत उज्जवल नहीं दिखता है, विशेष कर आनेवाली पीढी हिंदी को सुरक्षित रखने में क्या योगदान देगी यह कहना कठिन  है और इस दुर्भाग्य की जिम्मेवारी तो हमारी पीढी के ही कन्धों पर है, पश्चिम का ग्लैमर इतना सर चढ़ कर बोलता है की सभी उसी धुन में नाच रहे हैं, आज से ५०-१०० सालों के बाद 'संस्कृति' सिर्फ किताबों (digital format) में ही मिलेगी मेरा यही सोचना है, जिस तरह गंगा के ह्रास में हमारी पीढी और हमसे पहले वाली पीढियों ने जम कर योगदान किया उसी तरह हिंदी भाषा और भारतीय संस्कृति को गातालखाता, में सबसे ज्यादा हमारी पीढी ने धकेला है, आज पढ़ा-लिखा वही माना जाता है जो आंग्ल भाषा का प्रयोग करता है, हिंदी बोलने वाले पिछड़े माने जाते हैं, आज के माँ-बाप गर्व से बताते नहीं थकते कि उनका बच्चा कैसी गिटिर-पिटिर अंग्रेजी बोलता है, फिर भी आज की पीढ़ी यानी हमारे बच्चे तो हिंदी फिल्में देख-देख कर कुछ सीख ले रहे हैं , लेकिन उनके बच्चे क्या करेंगे?


लगता है एक समय ऐसा भी आने वाला है जब सिर्फ एक भाषा और एक तथाकथित संस्कृति रह जायेगी, जिसमें 'संस्कृति' होगी या नहीं यह विमर्श का विषय हो सकता है


बहुत अच्छी बात यह हुई है कि इस समय लोग हिंदी लिख रहे हैं, वर्ना हम जैसे लोग, जो विज्ञानं के विद्यार्थी  थे,  हिंदी लिखने-पढने का मौका ही नहीं मिला  था, कहाँ पढ़ पाए थे हम हिंदी, एक पेपर पढ़ा था हमने हिंदी का MIL(माडर्न इंडियन लैंग्वेज), न तो B.Sc में हिंदी थी, न ही M.Sc. में, हिंदी लिखने-पढने का मौका तो अब मिला है, इसलिए जी भर कर लिखने की  कोशिश करते हैं


कुछ युवावों को हिंदी में लिखते देखती हूँ, तो बहुत ख़ुशी होती है, लगता है कि भावी कर्णधारों ने अपने कंधे आगे किये हैं, हिंदी को सहारा देने के लिए, लेकिन क्या इतने कंधे काफी होंगे, हिंदी की जिम्मेवारी उठाने के लिए ?? जो बच्चे विदेशों में हैं उनसे हिंदी की प्रगति में योगदान की अपेक्षा करना उचित नहीं होगा, क्यूंकि ना तो उनके पास सही शिक्षा पाने के प्रावधान हैं ना ही कोई भविष्य



हिंदी की सबसे बड़ी समस्या है उसकी उपयोगिता, आज हिंदी का उपयोग कहाँ हो रहा है, गिने चुने शिक्षा संस्थानों में और शायद 'बॉलीवुड' में, 'बॉलीवुड' ने भी अब हाथ खड़े करने शुरू कर दिए है, संगीत, situation सभी कुछ पाश्चात्य सभ्यता को आत्मसात करता हुआ दिखाई देता है, अब सोचने वाली बात यह है  कि 'बॉलीवुड' समाज को उनका चेहरा दिखा रहा है या  कि लोग फिल्में देख कर अपना चेहरा बदल रहे हैं, वजह चाहे कुछ भी हो सब कुछ बदल रहा है, और बदल रही है हिंदी, सरकारी दफ्तरों में भी सिर्फ अंग्रेजी का ही उपयोग होता है,  हिंदी के उपयोग के लिए बैनर तक लगाने की ज़रुरत पड़ती है, कितने दुःख कि बात है !!


मल्टी नेशनल्स में तो अंग्रेजी का ही आधिपत्य है, बाकि रही-सही कसर पूरी कर दी इन 'कॉल सेंटर्स' ने, अब जो बंदा दिन या रात के ८ घंटे अंग्रेजी बोलेगा तो अंग्रेजी समा गयी न उसके अन्दर तक, इसलिए हिंदी का भविष्य उतना उजला नहीं दिखता है, भारत में मेरे घर जो बर्तन मांजने आती है उसके बच्चे भी अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते हैं, और क्यों न पढ़े ? उनको भी अंग्रेजियत में ही भलाई नज़र आती है, तो फिर हिंदी पढने वाला है कौन ?? और पढ़ कर होगा क्या? अपने आस-पास Academicians और professionals में हिंदी के प्रति गहरी उदासीनता देखती हूँ,  सरकार के पास ऐसी योजना होनी चाहिए जिससे हिंदी पढने वालों को कुछ प्रोत्साहन मिले, रोजगार के नए अवसरों की आवश्यकता है, जिससे हिन्दिज्ञं आर्थिक एवं सामाजिक रूप से सबल हो सकें, तभी बात बन सकती है ...


हर हाल में हिंदी पढने वालों को अपना भविष्य उज्जवल नज़र आना चाहिए...
तिमिरता में लिप्त भविष्य कौन चाहेगा भला....??

Friday, January 8, 2010

निःसंदेह दम तोड़ देगी हमारी गरिमा.....

(मैं आज साड़ी कि हिमायत करने जा रही हूँ परन्तु  एक बात स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं यहाँ यह हरगिज  नहीं कह रही कि सबको  प्रतिदिन साड़ी पहननी चाहिए ...इतनी तो पहननी ही चाहिए कि उसका अस्तित्व बना रहे.... कम ही पहने  लेकिन पहने...आप  अपनी मर्ज़ी से पहनें ...और ख़ुद के विवेक से ही काम लें ...और इतना ज़रूर सोचें....कि क्या साड़ी का लुप्त हो जाना सही होगा ?? )

आज कल हर किसी की जुबां से एक शब्द आम सुनाई पड़ता है  Comfort ', अक्सर महिलायें  ये कहती सुनी जाती हैं...मैं साड़ी में comfortable   नहीं फील करती हूँ....साड़ी पहनना मुसीबत है ...बड़ा काम हो जाता है...इत्यादि....  आज कल साड़ी को दकियानूसी परिधान की श्रेणी में रखा जाता है...किसी भी नवयुवती से साड़ी की बात करो....तो चेहरे पर ऐसे भाव आते हैं  जैसे उसे एवरेस्ट पर चढ़ने  को कहा गया हो, लेकिन आज की महिला यह भूल रही है कि  साड़ी हमारी पहचान है...और बहुत  ही गरिमामय पहचान है...

दुनिया के किसी भी कोने में आप चले जाते हैं..आप अपनी त्वचा अपने साथ लेकर जाते हैं...इसे आप  नहीं छुपा सकते हैं....यह त्वचा आपको आपकी जड़ों की याद दिलाती रहती  है....आप चाह कर भी उससे पीछा नहीं छुड़ा सकते... तब यही कुछ चिन्ह आपको सुरक्षित महसूस कराते हैं, आपके आत्मसम्मान को बचाते हैं....और आपके व्यक्तित्व के साथी होते हैं...


भूल जाइए संस्कृति और संस्कार की बातें.....आज हम इनकी बात नहीं करेंगे.....क्यूंकि हर समय संस्कृति का राग अलापना भी बोरिंग हो जाता है....आज बात करते हैं सिर्फ़ 'पहचान' की...हर देश, का अपना भोजन, अपनी भाषा, अपना पहनावा है .....और ये चीज़ीं उनकी पहचान हैं....पहनावा एक  ऐसी पहचान जिसे देख कर आप तुरंत जान जाते हैं कि यह व्यक्ति किस देश का है.....

अगर आप अपनी पहचान से शर्मिंदा हैं और स्वत्व को छोड़ कर दूसरों की पहचान ख़ुद पर लाद रहे हैं...तथा ऐसा करते हुए आपको दूसरे लोग देख रहे हैं तो भला कौन आपका सम्मान करेगा.... ???   दूसरे आपका सम्मान तभी करते हैं जब आप ख़ुद का सम्मान करते हैं.....

जैसे ही आप साड़ी पहनतीं  हैं ...आप अपनी पहचान को पहनतीं हैं........आँख बंद करके लोग जान लेते हैं कि यह पहनावा भारत का है और कहीं का हो ही नहीं सकता ....  तुरंत उनके मन में आपके प्रति आदर के  भाव आ जाते हैं ...वो आपको  सम्मान की दृष्टि से देखते  हैं ....क्यूंकि आप अपनी पहचान का सम्मान कर रहे  हैं...और आपके सम्मान का अपमान करने की हिम्मत  कोई कभी नहीं करेगा....

आप किसी भी अमेरिकन या कनेडियन से भारतीय परिधान 'साड़ी' के बारे में उनके  विचार पूछें तो, आप हैरान हो जायेंगे उनके जवाब सुन कर....आज तक मैंने जिससे भी पूछा  है सबने एक सुर में यही कहा है की ...दुनिया का सबसे खूबसूरत परिधान  साड़ी ही है और यकीन कीजिये यह  अतिश्योक्ति नहीं है.....जब भी मैं साड़ी पहन कर अपने काम पर जाती हूँ...लोगों ने रुक रुक कर तारीफ की है....फिर चाहे कपडे की बात हो या रंग या फिर कारीगरी की ....मेरी कितनी व्हाइट सहेलियों ने मेरे घर आकर साड़ी पहन कर अपने  मन की बहुत बड़ी इच्छा की पूर्ति की है....

कितना ही अच्छा होता अगर हम अपनी तरफ से अपने देश के  कुछ अमूल्य धरोहरों का देश-विदेश में विस्तार करने के बारे में सोचते....लेकिन हमेशा की तरह...हम स्वयं अपनी पहचान से शर्मिंदा हैं.....हमारी  हर चीज़ की कीमत हमें विदेशियों ने ही बताया है...फिर चाहे वो योग हो या गाँधी,  साड़ी की   भी यही हालत हो जाती .....अगर विदेशों की आबोहवा साड़ी के मफ़िक होती तो ....'साड़ी' कब की अगवा  हो चुकी होती और अमेरिका उसे पेटेंट करा चुका होता ...ठीक वैसे ही जैसे 'बासमती' चावल को करवाया गया है...


कुछ स्त्रियों की यह सोच है कि  साड़ी  बड़ी  उम्र की  महिलाओं का परिधान है...साड़ी पहन कर खूबसूरत नज़र नहीं आया जा सकता है....यह बिलकुल गलत है....

नवयुवतियां में यह सोच  कि साड़ी पहन कर वो cool नहीं लगेंगी या आकर्षक नहीं लगेंगी....इस बात में कोई दम नहीं है ....उनका यह भी सोचना की साड़ी पहनना बहुत झंझट का काम है वो भी सही नहीं है......साड़ी बहुत आसानी से पहनी जा सकती है.....और बहुत सुविधाजनक भी होती है.....ज़रुरत है सही मौसम में सही साड़ी के चुनाव की......आज कल युवतियां यह भी सोचती हैं की वो कम कपड़ों में जितनी आकर्षक लगेंगी ...साड़ी में नहीं लगेंगी....तो विश्वास कीजिये यह उनका वहम है....छोटे कपड़ों से कहीं ज्यादा खूबसूरत और उससे ज्यादा आकर्षक  साड़ी में युवतियां लगतीं हैं.......ये पक्की बात है..मेरा आजमाया हुआ है....:)

मैं जीवन में  सुविधाओं के विपक्ष में नहीं हूँ,  लेकिन सुविधा के लिए अपनी पहचान ही गवां देवें ...इसके पक्ष में मैं हरगिज़ नहीं हूँ....पहचान  त्यागना ठीक वैसा ही है जैसे ....अपनी त्वचा  का त्याग करना....और त्वचा के बिना आपकी क्या पहचान...???

धीरे धीरे साड़ी को इस तरह लुप्त होते देख मन बहुत आतंकित है....क्या होगा साड़ी का  ?? क्या यह  बिलकुल ही लुप्त  हो जायेगी....क्या साड़ी का बोझ इतना भारी है कि  आज की महिलाएं इसे सचमुच नहीं उठा पा रही हैं....अगर यही हाल रहा तो अगली एक दो पीढ़ियों में ही ना सिर्फ़ साड़ी लुप्त हो जायेगी...उसके साथ-साथ हमारी पहचान भी गुम जायेगी.....साथ ही बंद हो जाएगा एक बहुत बड़ा उद्योग और उसके साथ-साथ अपने घुटनों पर आ जायेंगे कला के कई सोपान..और निःसंदेह दम तोड़ देगी हमारी अपनी गरिमा.....