Friday, January 18, 2013

महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है...

महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है। अब मैं जो लिखूंगी उससे बहुतों को एतराज़ हो सकता है, लेकिन यह भी सत्य है कि स्त्री को शोषित करके देवी बना देने का फार्मूला बहुत पुराना है।

सबसे पहले बात करते हैं 'सीता' की। आप सभी इस कथानक से वकिफ़ हैं, लेकिन यहाँ इसका ज़िक्र करना उचित होगा।

सीता ने राम का साथ देते हुए, वनवास पाया। राम पुरुष थे, उन्होंने जो उचित समझा वही किया और सीता, स्त्री होने के नाते, बिना कोई सवाल किये, उनके साथ हो लीं। सीता का हरण पुरुष रावण ने किया, सीता अपनी मर्ज़ी से नहीं गयीं थीं। रावण ने न  सिर्फ अपने पौरुष, बल्कि अपने वर्चस्व का भी उपयोग कर, सीता को बलपूर्वक अपने पास रखा, उनके विलाप का कोई असर नहीं हुआ। मंदोदरी जो रावण की पत्नी थी, उसके विरोध का भी असर नहीं हुआ। राम ने, सीता को छुड़ा कर अपना पौरुष दिखाया, जो अच्छी बात थी। लेकिन सीधे-सीधे उन्हें अपनाया नहीं। निर्दोष सीता की अग्नि-परीक्षा ली गई। जब वो इस अग्नि परीक्षा में पास हुईं, तभी उनको राम ने वापिस अपनाया। अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी सीता के प्रति, न समाज का मन साफ़ हुआ न ही राम का। एक बार फिर, एक अदना पुरुष (धोबी) की बात ही सुन कर, गर्भवती सीता को जंगल में अकेला छोड़ आने का आदेश, राम ने, लक्ष्मण को दे दिया। तब भी सीता कुछ नहीं कह पायी। सीता ने न जाने कैसे, किस अवस्था में अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया होगा, उन्होंने क्या-क्या सहा होगा, इसकी खबर तक लेने की राम ने कोई ज़रुरत नहीं समझी। बाद में राम, अपने ही बच्चों से युद्ध करने को तैयार हो गए। बेशक ये काम उन्होंने अनजाने में किया। लेकिन क्या एक पिता को इतना भी अनजान होना चाहिए था ?? वो न सिर्फ एक पति और पिता थे, एक राजा भी थे। एक स्त्री और उसके पुत्र किस अवस्था में हैं, क्या इस बात जानकारी एक राजा होने के नाते उन्हें नहीं रखनी चाहिए थी? अपनी प्रजा का इतना ख्याल रखने वाले राजा को अपनी पत्नी और पुत्रों की कोई जानकारी नहीं थी कि वो जिंदा हैं या मर गए!!!! ये बात गले नहीं उतरती। ये तो भला हो सीता का, जो बीच में आ गयीं। वर्ना पुत्रों की हत्या पिता के हाथों हो जाती। सीता ने ही उन्हें इस घोर पाप से भी बचा लिया। शायद राम को अपनी ग़लती का अहसास हुआ होगा, तभी तो उन्होंने पत्नी सीता और पुत्रों को घर वापस लाना चाहा। दूसरा और कोई कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि सीता वही थी, प्रजा वही थी, और धोबी भी रहा ही होगा। उस वक्त उनका हृदय क्यूँ कर बदला ??? लेकिन स्वाभिमानिनी सीता ने, बिलकुल सही कदम उठाया। उसने आत्महत्या कर ली। जब मर्ज़ी अपना लो, जब मर्ज़ी त्याग दो, उसके अपने सम्मान का क्या कोई मतलब नहीं था क्या ?? तात्पर्य यह कि, सीता एक ही काम अपनी मर्ज़ी से कर पाई, वो है 'आत्महत्या'...!! लेकिन पुरुष प्रधान समाज भला कैसे, इतनी आसानी से इसे पचा पाता, आज तक इन सारी घटनाओं को, बिना मतलब की काल्पनिक बातों का तड़का लगा कर हम सबके सामने पेश करने की हज़ारों कोशिश की जाती है, और ये कोशिश आगे भी जारी रहेगी । सीता के साथ इतना घोर अन्याय करने के बाद, उसे देवी बना कर, अपनी सारी ग़लतियों को ढाँप दिया गया। लेकिन bottom line सिर्फ इतनी ही है, कि सीता का शोषण हुआ था । कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो, ये होता ही नहीं, लेकिन वो क्यों भूल जाते हैं कि अतिथि का सत्कार करना भी हमारे ही संस्कार में शामिल है।

अहल्या, का बलात्कार इंद्र द्वारा हुआ, लेकिन त्याग अहल्या का हुआ। इंद्र ने न जाने कितने बलात्कार किये लेकिन फिर भी वो देवराज ही बने रहे। अहल्या का भी उद्धार तब ही हुआ, जब उसने राम के पाँव पकड़ कर माफ़ी मांगी, जबकि दोष उसका नहीं था।

द्रौपदी को वस्तु बना कर सबने आपस में बाँट लिया, पांच पतियों को वरण करना उसकी नियति बनी। एक जीती-जागती स्त्री को सामान का दर्ज़ा देना ही, उसके आस्तित्व के आकलन पर प्रश्न चिन्ह लगाता है और फिर उसे दांव पर ही लगा देना उसके शोषण की पराकाष्ठा है। 

राधा कभी कृष्ण की पत्नी नहीं बन पाई, उसे उपेक्षित जीवन ही जीना पड़ा। अब उसे अलौकिक प्रेम का जामा  पहना कर, जितनी मर्ज़ी कोई राधा की पूजा करे, किसे परवाह है। सच्चाई सिर्फ इतनी है, उसका जीवन नरक ही बना रहा और उसका शोषण हर तरह से हुआ। कृष्ण  ने न जाने कितने विवाह कर लिए लेकिन राधा, जिसने उनके ही कारण अपना विवाह ख़त्म कर दिया था, उसकी कोई सुधि उन्होंने नहीं ली।

कुंती कुंवारी माँ ही बन पाई। क्या सचमुच ऐसा कोई वरदान हो सकता है, जिसमें आप जिस देवता की अराधना करते हैं, वो बच्चा पकड़ा कर चला जाता है ... वरदान में महल-दोमहले काहे नहीं दिए गए, बच्चा क्यों दिया गया ? यह भी शोषण था।

दमयंती को नल ने ऐसा बिसारा कि बिसार देना ही अपने आप में एक उदाहरण बन गया। अपनी पत्नी को ऐसा भी कोई भुलाता है भला ??? शोषण का यह भी एक उदाहरण है।

सती को अपने पति के सम्मान के लिए सती होना पड़ा ...अपमान पति का हुआ और सती पत्नी हो गई, ये कहाँ का इन्साफ है ?
ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं, जो स्पष्ट रूप से स्त्रियों के दोहन-शोषण को बताते हैं।
सदियों से नारी, पतिव्रता, सती, जैसे विशेषणों से विभूषित होकर जी रही है। जो अपने आप में एक शोषण से कम नहीं।आज तक किसी पुरुष को 'पत्निव्रता' या 'सता' होते नहीं देखा।

आज सदियों बाद, स्त्री ने जब सिर उठाना शुरू किया है, तो हर तरह के अंजाम वो भुगत रही है। आज़ादी कोई भी हो, आसानी से नहीं मिलती, खून बहाना ही पड़ता है, यहाँ स्त्रियाँ अपनी अस्मिता लुटा रही हैं ।  'दामिनी' इसका ज्वलंत उदाहरण है।  खाप पंचायतों की कहर और ऑनर किलिंग जैसे हादसे, स्त्री स्वतंत्रता की राह पर स्त्रियों का बलिदान मांग रहे हैं, और स्त्रियाँ दे रहीं हैं ये बलिदान ।शायद आने वाले दिन स्त्री के लिए अच्छे होंगे, क्योंकि अब वो अपनी पहचान बनाने के लिए कटीवद्ध है। इतने बलिदानों के बाद भी अगर, समाज में नारी ने एक इंसान का ही दर्ज़ा पा लिया, तो वही काफी होगा, देवी बनने की चाह न उसे पहले थी और न अब है।

(समयाभाव के कारण, अब इस पोस्ट पर टिप्पणी करने का प्रावधान स्थगित किया गया है, क्षमाप्रार्थी हूँ !) 

126 comments:

  1. एक बार मैंने आपसे अनुरोध किया था कि चूंकि पुराण कथाओं का आपने अच्छा अध्ययन किया है ( प्रमाणस्वरुप आपकी कुछ उत्कृष्ट काव्यात्मक पोस्ट प्रविष्टियाँ मैंने देखी थी) आप एक काव्य संकलन को पूरा करें -मगर कोई ओबियस कारण रहे होंगें आपने इधर ध्यान नहीं दिया !
    इस पोस्ट पर मुझे अलग से कुछ नहीं जोड़ना है -यह जरुर कहूँगा कि जिन कथाओं का जिक्र आपने किया है वे उस काल की हैं जब स्त्री का एकनिष्ठ पतिव्रता को बहुत श्रेष्ठ माना जाता था,पर पुरुष आकर्षण, पुनर्विवाह तक वर्जित था -यही नहीं उस समय यह भी सामाजिक व्यवस्था थी कि "जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड़कर एनी स्त्री से समागम करेगा उसे भ्रूण ह्त्या पाप लगेगा (आदिपर्व अध्याय 122, श्लोक 28) " अर्जुन ने जयद्रथ वध की प्रतिज्ञा में यह भी सौगंध लिया था -अगर मैं यह प्रतिज्ञा न पूरी कर सका तो मुझे वह गर्हित लोक मिले जो पर स्त्री गमन करने वाले को मिलता है .....इतनी कठोर सामाजिक व्यवस्था में एक लोक नायक क्या कर सकता था? राम ने तो सदैव उच्च मानव मूल्यों का ही निर्वाह करना चाहा -अब वे समाज का मुंह तो नहीं बंद कर सकते थे -रावण के यहाँ रहकर सीता पवित्र हैं यह वे भले समझते थे मगर लोक क्या समझता? तनिक राम की पीड़ा को भी समझिये -सीता का त्याग किया मगर पुनर्विवाह नहीं किया !
    बहरहाल आपकी पयः पोस्ट मन को गहरे झंकृत तो करती है! एक लम्बे समय बाद मैं आपकी पोस्ट पर कमेन्ट कर रहा हूँ -आपने कभी एक कमेन्ट प्रकाशित नहीं किया था तब से कमेन्ट करने की इच्छा ही नहीं रही -इस विवेचन को निजी आग्रहों से मुक्त रखा जाय यही अनुरोध है !

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    1. अरविन्द जी,
      स्वागत है आपका ...
      किसने रोका था राम को विवाह करने से, लेकिन सीता के साथ जो अनुचित हुआ, शायद यही बात उन्हें रोकती रही। अगर राम ने दूसरा विवाह नहीं किया तो सीता ने भी नहीं किया। राम तो फिर भी वैभव का जीवन जीते रहे लेकिन सीता अपने दूध-मुहे बच्चों के साथ वन में भटकती रही। राम ने सिर्फ 14 वर्ष वनवास काटा, लेकिन सीता के वनवास का अंत ही नहीं हुआ। सीता के दुखों का राम के दुखों से कोई तुलना नहीं है।
      ऐसा भी नहीं है कि उन दिनों दूसरे विवाह की प्रथा नहीं थी, मंदोदरी का दूसरा विवाह हुआ, विभीषण से, बालि के वध के बाद तारा का भी विवाह सुग्रीव से हुआ था। सीता का त्याग का अर्थ ही था विवाह का अंत, फिर भी सीता हर कष्ट सहती रही।

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    2. आर्यों में नहीं मान्य थे दूसरा विवाह -आपने राक्षसों का उदाहरण दिया है !

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    3. आर्यों में तलाक़ का प्रावधान था क्या ?

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    4. राम ने तलाक तो नहीं दिया! त्याग और तलाक समानार्थी नहीं -उन्होंने केवल जन भावनाओं का सम्मान किया -एक नाचीज धोबी तक की बात शिरोधार्य कर ली -और कोई राज ऐसा करता भला -इसलिए ही समाज ने उन्हें पुरुषोत्तम की गद्दी पर विभूषित कर दिया .... आर्यों में तलाक भी वर्जित था! हाँ पुरुष कई विवाह कर सकते थे। राम ने नहीं किया!

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    5. तलाक़ कहिये या त्याग, छोड़ी सीता ही गयी ।
      सही कहा आपने, राम ने जनादेश का पालन किया, जनता खुश हो गयी, राम को पुरुषोत्तम की पदवी मिल गयी और वो महान हो गए, लेकिन बेचारी सीता अपने बच्चों सहित बन गयी कोलेटेरल डैमेज ...

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    6. @ तो इसका अर्थ ये हुआ कि आर्यों से बेहतर राक्षसों और वानरों की सोच थी, कम से उन्होंने अपने समाज की स्त्रियों को अहमियत दी थी ...

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    7. जहाँ तक मुझे जानकारी है, बहुविवाह आर्यों में भी मान्य था, तभी तो दशरथ ने तीन विवाह किए...

      श्वेतकेतु, ऋषि उद्द्यालक के पुत्र ने एक नयी वैवाहिक और सामाजिक संरचना का सूत्रपात किया जिसे, राम ने, अपने पिता की दयनीय स्थिति और राजमहल के प्रपंचों को देखते हुए, न हीं अपनाया अपितु जीवनपर्यंत पालन भी किया...

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  2. अच्छा है।
    दो दिन पहले राम-सीता के किस्से पर कुछ विद्वान लोगों ने यह राय जाहिर की कि राम का सीता को त्यागना अनुकरणीय तो कतई नहीं है, खराब आचरण था। यह सत्ता और आमजन के व्यवहार का भी परिचायक है। वनवासी राम सीता के लिये साधनहीन होते हुये भी शक्तिवान रावण से भिड़ गये वही राम राजा बनते ही निरंकुश हो गये। सीता को त्याग दिया। बाद में वनवासी पुत्रों से पराजित भी हुये। यह घटना यह भी बताती है कि निरंकुश सत्ता विवेक का हरण कर देती है।

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    1. आपकी बातों का समर्थन करने को जी चाहता है :)

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    2. अनूप जी जिन्होंने लोकतांत्रिक मूल्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दिया उन्हें आप निरंकुश और विवेक हीन कह रहे हैं ?

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    3. मैंने कुछ विद्वान लोगों ने यह राय की राय बताई। अपनी बात नहीं कही।

      मेरे अनुसार भी राम का सीता जी के प्रति आचरण कतई अनुकरणीय नहीं कहा जा सकता। यह राजा राम के सत्ता से जुड़ने के बाद का चरित्र है।
      यह निरंकुशता ही तो है कि पत्नी को सुनी-सुनायी बातों के आधार पर त्याग दिया। विवेकहीनता भी। यह सत्ता का चरित्र है।

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    4. जैसा आडियेंस देखा पब्लिक देखी वैसा बोल दिए -सोम ठाकुर की एक एक मशहूर कविता है वाचाल मुर्दों पर :-)

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    5. अनूप शुक्ल और राम के विवेक और निर्णय में फर्क तो होगा ही :-)

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    6. anoop shukl sir - aapki baat se sahmat NAHI hoon.

      jo raajaa monarchy ke samay me bhi apne prajaa kee baat itnaa sune jitne aaja hamare neta democracy em bhi nahi sunte use nirankush aur vivekheen kahna, uchit nahi lagta

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    7. मैंने लिखा:
      दो दिन पहले राम-सीता के किस्से पर कुछ विद्वान लोगों ने यह राय जाहिर की कि राम का सीता को त्यागना अनुकरणीय तो कतई नहीं है, खराब आचरण था। यह सत्ता और आमजन के व्यवहार का भी परिचायक है। वनवासी राम सीता के लिये साधनहीन होते हुये भी शक्तिवान रावण से भिड़ गये वही राम राजा बनते ही निरंकुश हो गये। सीता को त्याग दिया। बाद में वनवासी पुत्रों से पराजित भी हुये। यह घटना यह भी बताती है कि निरंकुश सत्ता विवेक का हरण कर देती है।

      यह बात 15.01.13 को मानस संगम के संस्थापक डा. श्री बद्रीनाथ तिवारी के घर में आयोजित गोष्ठी में हुई। गोष्ठी में प्रो.इंदु प्रकाश पांडेय ने एक सवाल के एक श्रोता के सवाल ( राम द्वारा सीता के त्याग को आप किस तरह देखते हैं? ) के जबाब में अपनी राय जाहिर की-दो दिन पहले राम-सीता के किस्से पर कुछ विद्वान लोगों ने यह राय जाहिर की कि राम का सीता को त्यागना अनुकरणीय तो कतई नहीं है, खराब आचरण था। उनके साथ ही प्रख्यात साहित्यकार गिरिराज किशोर भी थे। उन्होंने अपनी राय जाहिर की- वनवासी राम सीता के लिये साधनहीन होते हुये भी शक्तिवान रावण से भिड़ गये वही राम राजा बनते ही निरंकुश हो गये। सीता को त्याग दिया। बाद में वनवासी पुत्रों से पराजित भी हुये। यह घटना यह भी बताती है कि निरंकुश सत्ता विवेक का हरण कर देती है।

      प्रो.इंदु प्रकाश पांडेय और गिरिराज किशोर जी जैसे अनुभवी विद्वानों की इस मसले पर राय मैंने बताई। अब यह दुबारा बताया भी कि मैंने कुछ विद्वान लोगों ने यह राय की राय बताई। अपनी बात नहीं कही।
      मैंने अपने बात भी कही- मेरे अनुसार भी राम का सीता जी के प्रति आचरण कतई अनुकरणीय नहीं कहा जा सकता। यह राजा राम के सत्ता से जुड़ने के बाद का चरित्र है।

      अब आपको जो समझना है समझिये। प्रो. इंदु प्रकाश पांडेय और गिरिराज किशोर की कही बात को मैंने यहां पेश किया। विस्तार से लिखने में समय लगता इसलिये उनका जिक्र दो विद्वानों के रूप में किया। प्रो.इंदु प्रकाश पाण्डेय जी का ई-मेल उनकी साइट में हैं। गिरिराज किशोर जी का फोन नंबर 09839214906 है। आप उनसे उनकी कही बातों की पुष्टि कर सकते हैं। आगे बहस भी कर सकते हैं अगर वे चाहें।

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    8. शिल्पाजी,
      आप असहमत हो। अच्छी बात है।

      राम जी मर्यादा पुरुषोत्तम भले थे लेकिन सीताजी को बेबुनियाद बात के लिये त्यागना उनकी पति के रूप में निरंकुशता और विवेकहीनता ही थी मेरा समझ में। जिस पत्नी के ऊपर पति को स्वयं अगाध विश्वास हो उसे किसी के कहने पर त्याग देना कहीं से अनुकरणीय नहीं लगता मुझे तो। बाकी जस्टीफ़ाई तो कुछ भी किया जा सकता है।

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    9. आपकी बातों से पूर्णतः सहमत हूँ अनूप जी ...

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    10. अनूप शुक्ल जी ,
      आप अपनी जिम्मेदारी लें ,मानस व्यासों की संख्या कम नहीं ..गिरिराज जी से हम परिचित हैं और वे एक अच्छे चिन्तक हैं ,आश्चर्य है की जैसा अपने उद्धृत किया उन्होंने ऐसा कहा होगा -हम आज के मानदंडों पर राम को नहीं परख सकते -वैसे मनुष्य और मनुष्यता के कुछ शाश्वत जीवन मूल्य होते हैं जो हमेशा एक सा ही रहते हैं -आज भी व्यभिचार समाज में सोचनीय है ,क्षम्य नहीं है -पुरुष या पत्नी दोनों का ....
      राम राज्यारोहन के बाद आम आदमीं भी नहीं रह गए थे -जब सीता के चरित्र पर उंगली उठी तो क्या वे जा जाकर लोगों के सामने सफाई देते ....जबकि लोगों के मन में यह गहरा संशय घर कर गया था कि रावण जैसे प्रतापी और विद्वान् के घर इतने समय रहने के बाद भी सीता पवित्र कैसे रह गयीं होंगी ? राम के पास क्या तर्क था -वे आम आदमी नहीं थे -तत्कालीन सामाजिक मूल्यों की रक्षा के लिए उनके पास सीता के त्याग के अलावा कोई चारा न था ......यह उनका एक बड़ा त्याग था .......मन को मथ देने वाला ? क्या वे उस समय आप जैसे विवेक का परिचय देते -आज का आदमीं तो पत्नी के चरित्र पर शंका होने पर उसकी हत्याएं तक कर दे रहा है ? आप अति सक्रियता से ग्रस्त नारीवादियों का मन कब तक बहलाते रहेगें?

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    11. डा.अरविन्द मिश्र,
      चीजों को तोड़-मरोड़ कर देखने और पेश करने का आपका हुनर जबरदस्त है।
      मैंने अपनी तरफ़ से कुछ नहीं कहा था। दो विद्वानों की कही बातों को जो इस पोस्ट को पढ़ने के बाद याद आईं यहां रखा।

      प्रो.इंद्र प्रकाश पाण्डेय ने कहा राम का सीता को त्यागना अनुकरणीय तो कतई नहीं है, खराब आचरण था।
      अनुकरणीय माने अनुकरण करने योग्य। अनुकरणीय आदर्श माने किसी के किये हुये को आदर्श मानकर उसके जैसा करना। अगर वह अनुकरणीय है तो वह आज भी किये जाने योग्य है। क्या आज के समय में यह बात अनुकरणीय कि किसी के लांछन लगाने पर अपने जीवन साथी को त्याग दिया जाये वह भी ऐसे समय जब उसको देखभाल की आवश्यकता हो।

      क्या राम द्वारा सीता को त्याग देना अनुकरणीय आदर्श है? कोई हमारे जीवन साथी के बारे में मिथ्या बात कहे जिसके बारे में मुझे पता है कि वह सही नहीं है। उसके बाद भी उसको त्याग देना चाहिये इसलिये कि ऐसा मर्यादा पुरुषोत्तम ने किया था।

      प्रो. इंदुप्रकाश पाण्डेय की बात के बाद गिरिराज किशोर जी ने अपने बात कहते हुये राम के चरित्र के बारे में अपनी बात कहते हुये कही कि राम के दो रूप हैं एक वनवासी राम का और दूसरा राजा राम का। वनवासी राम के रूप में राम का चरित्र लोक से जुड़ा है। संवेदनशील है। लोक से जुड़ने के कारण उनमें इतना साहस आ जाता है कि वह साधनहीन होते हुये भी शक्तिशाली रावण को पराजित करते हैं। राजा बनने के बाद वे लोक से कट जाते हैं। जिस सीता को वापस पाने के लिये वे बिलखते, भटकते और युद्द करते रहे उनको त्याग दिया क्योंकि उनको जनता के सामने आदर्श प्रस्तुत करना है। मर्यादापुरुषोत्तम बनना है। यह राजा का आचरण है। सत्ता निरंकुश होती है। वह अपने बचाव के लिये कुछ भी कर सकती है। सीता को त्यागना राम का एक पति के रूप में आचरण नहीं है। एक राजा के रूप में आचरण है। एक संवेदनशील पति ऐसा कभी नहीं कर सकता। एक पति के रूप में राम का आदर्श अनुकरणीय कत्तई नहीं है। खराब आचरण है।

      राम कथा के न जाने कितने संस्करण/रूप उपलब्ध हैं। सैंकड़ों कथायें प्रचलित हैं। न जाने कितनी रामकथाओं में (कई अवसरों पर) राम/लक्ष्मण के चरित्रों की निंदा की गयी है। उनके रचयिताओं ने अपनी-अपनी नजर से राम को देखा। एक मिथकीय चरित्र को अपने-अपने हिसाब से देखने/परखने का सबको हक है। आज के संदर्भ में अगर उनसे जुड़ी कोई बात अनुकरणीय नहीं है तब भी क्या उसका इसलिये अनुकरण करना उचित होगा कि उसे किसी मिथकीय चरित्र द्वारा किया गया था।

      जिन लोगों ने यह विचार व्यक्त किये वे अपने-अपने क्षेत्र के विद्वान हैं। उनकी बात से मैं सहमत हूं इसलिये कहा।

      यह देखकर अफ़सोस होता है कि आप चीजों को तरह छीछालेदर करते हुये व्यक्तिगत होते हैं। बातों को अपने हिसाब से तोड़ते-मरोड़ते हैं। ब्लॉग की बातें फ़ेसबुक पर घसीटते हैं। जहां पंकज चतुर्वेदी कहते हैं मिश्राजी ये ब्‍लाग वगैरह पढता ही कौन है अगर कोई अगला आपके बारे में व्यक्तिगत बातें कहे तो आप उसको बर्दाश्त नहीं कर पाते।



      बाकी और कुछ कहने का मन नहीं है।


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    12. अनूप जी ,मैंने आपकी बात को कहीं तोडा मरोड़ा नहीं -बहत सावधानी बरती-आपने जो कहा उसे कोट भी कर दिया।।।।।
      राम एक जैसे ही हैं राजा बनने के पहले और बाद भी -बल्कि राजा बन जाने पर और उदार और प्रजाप्रेमी! हम तनिक भी व्यक्तिगत नहीं हुए हैं बल्कि चेहरों से नकाब उठाने की विनम्र कोशिश ही रहती है !

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    13. आपकी इस कोशिश में ईश्वर आपको सफलता दे ..
      एक खुश खबरी ये भी है, कुछ नकाब हमने भी उतरते देख ही लिया ..

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    14. हां आपने पूरी सावधानी बरती कि मूल बात को हटाकर उसके विस्तार के लिये कही बात को फ़ेसबुक पर लाकर छीछालेदर करी। मेरी एक सहज टिप्पणी को "अति सक्रियता से ग्रस्त नारीवादियों का मनबहलाव की हरकत बताया "। इससे अधिक सावधानी की अपेक्षा आपसे करना आपके साथ अन्याय करना होगा। इतनी समझ की अपेक्षा तो हर किसी से रखी जा सकती है कि वह दो असमान चरित्रों की तुलना न करे। रामजी जैसे मिथकीय लोक चरित्र की मुझ जैसे एक अदने इंसान से तुलना कैसे हो सकती है? अफ़सोस हुआ पंकज जी टिप्पणी से जिसमें वे यह लिखते हैं कि ब्लॉग पढ़ता कौन है? आप भी उस बात पर चुप रहते हैं। जबकि आपके न जाने कितने लेख हिन्दी के प्रतष्ठित अखबार बिना पैसा दिये छापते रहते हैं। Pankaj Chaturvedi जी को यह कौन बतायेगा कि ब्लाग हिन्दी अखबारों में कांट्रैक्ट पर काम करने वाले संपादक पढ़ते हैं और अपने अखबारों में ब्लागरों को बिना कुछ मानदेय दिये छाप देते हैं। उनके टिप्पणी से अफ़सोस हुआ कि हमारे देश के एक प्रतष्ठित हिन्दी प्रकाशन संस्थान के संपादक की समझ और जानकारी अभिव्यक्ति की नव्यतम विधा के बारे कितनी सतही है। अफ़सोस ही कर सकते हैं

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  3. हेलो स्वप्ना जी - पोस्ट अच्छी है, स्त्री के दर्द को आप महसूस भी कर रही हैं और प्रकट भी - यह बहुत अच्छी बात है । दामिनी को भी देवी बनाने के प्रयास हमारे समाज में, और ब्लॉगजगत में - दोनों जगह चल रहे हैं - और आप भी वहां मेरे साथ अपनी आपत्ति दर्ज कर आयीं, अच्छा लगा ।

    लेकिन आपकी पोस्ट में जो पुराने तथ्य हैं - राम-सीता, शिव-सती , या राधा कृष्ण के बारे में - उनसे मैं सहमत नहीं हूँ ।

    यहाँ बहस नहीं करना चाहूंगी, क्योंकि बात बहुत ही लम्बी है - जो हमारे ब्लॉग जगत के माहौल में सार्वजनिक मंच पर संभव है ही नहीं, क्योंकि इस ब्लॉग जगत में अधिकतर जन अपने निहित उद्देश्यों पर चलते हैं और बात को कहीं का कही पहुंचा दिया जाता है । यहाँ विरोध करने को आपके और मेरे निजी युद्ध की सूरत देते कोई समय नहीं लगेगा :) :) ,,, जबकी आप और मैं दोनों ही जानते हैं कि हम दोनों पहले ही से इस विषय पर असहमत हैं, और असहमति के साथ ही हम दोनों एक दुसरे को बहुत पसंद भी करती हैं ।

    सिर्फ सार्वजनिक मंच पर यह कहना चाहूंगी कि जब घटनाएं होती हैं, तब वे कुछ होती हैं, किसी कारण से होती हैं । हज़ारों वर्ष बीतते बीतते हम तक वे किसी और रूप में पहुँचती हैं । इसलिए , इनमे से कौनसी बात हुई , कौनसी नहीं, किसने क्या किया, क्या नहीं किया, क्यों किया, क्यों नहीं किया - इस पर मत विभिन्नता है - कौनसी बात सत्य है और कौनसी झूठ - कोई नहीं जानता । तो इस पर हम कभी और कहीं और बात कर लेंगे :)

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    1. शिल्पा,
      तुम अपनी बात बेधड़क रखो। मैंने वैसे भी ब्लॉग जगत की ऐसी बातों को कभी तूल नहीं दिया है। हम सभी परिपक्व लोग हैं, इतनी आसानी से डिगने वाले नहीं। हो सकता है तुम्हारी बातों से मुझे भी कोई रौशनी नज़र आये।

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  4. आज़ादी कोई भी हो, आसानी से नहीं मिलती,
    its important to first understand that woman are as free as any one else . all these stories that we read may have happened in history or may be just mythology created but they have always shown woman as a property for the prime reason that all these epics have been created by MAN .
    ITS ONLY when woman started writing , started debating that things started changing but this change in woman that "she is born equal " is not acceptable to indian society as yet

    highly educated people call woman with names like "raand , chhinaal " etc when ever any woman raises her voice or wants to spread a word about equality

    राम की पीड़ा को भी समझिये -सीता का त्याग किया मगर पुनर्विवाह नहीं किया !

    see the paradox " raam ne sita kaa tyaag kiyaa and punar vivah nahin kiyaa " so u should see his pain . simply means that if a married man does not remarry after throwing away his wife from his home ITS HE WHO IS DOING A SACRIFICE . where as the situation is that he has done a domestic violence and he needs to be punished for the same . but the society is not willing to punish him on the contrary feels he has the right to remarry after such an act

    DISCLAIMER RAAM IS BHAGWAAN IN HINDU RELIGION AND I STAND BY HINDU RELIGION .

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    1. मुझे भी गर्व है कि मैं हिन्दू हूँ, लेकिन गलतियों को घुमा-फिर कर और उनको जबरदस्ती सही बना कर अपनाना मुझे मंज़ूर नहीं।

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    2. राम ने सीता के वियोग में ही दूसरा विवाह नहीं किया ....उन्हें यह दुःख शेष जीवन रहा कि लोकमत के चलते उनसे एक अनुचित हो गया ...
      आत्महत्या सीता ने किया और राम ने भी किया ! बहुत दुखद अंत है दोनों का!

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    3. आत्महत्या सीता ने किया और राम ने भी किया !

      राम ने आत्म हत्या इस लिये की होगी क्युकी वो अवतार थे और उनकी मृत्यु हो ही नहीं सकती थी
      सीता को "अग्नि परीक्षा " देनी पड़ी थी http://bharatdiscovery.org/india/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF_%E0%A4%AA%E0%A4%B0%E0%A5%80%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%B7%E0%A4%BE
      और धरती में सीता तब समाई थी जब ये पूर्णता सिद्ध होगया था की लव कुश राम की ही संतान हैं सीता का लक्ष्य पूरा हुआ था .
      पुरुष के रूप में राम ने अपनी गर्भवती पत्नी को "छल " से वन में भेज कर देश निकला दिया . सीता को उपवन घुमाने के लिये लक्ष्मण ले गए और वहाँ छोड़ कर आये .


      @राम ने सीता के वियोग में ही दूसरा विवाह नहीं किया

      या "सीता जैसी " दूसरी मिली नहीं !!!!

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    4. गर्व तो मुझे भी बहुत है की मैं हिन्दू हूँ. क्योंकि यही वह धर्म है जो मुझसे भी प्रचंड नास्तिक को महर्षि का दर्जा दिया था. महर्षि चार्वाक की बात कर रहा हूँ. वह सहिष्णुता अब पहले जैसी मगर नहीं दिख रही है. देखते हैं कब तक गर्व करने लायक यह धर्म बचे.

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    5. प्रशांत,
      बिल्कुल गर्व करने लायक है ये बात और इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। विभिन्न विचारधाराओं का सम्मान करने से हमें कोई गुरेज नहीं है। उदाहरणत: अपने आराध्य के प्रति कुछ भी अनर्गल न कहने की इस्लामी विचारधारा का अब मैं भी सम्मान करने लगा हूँ।

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    6. अरे अरे, जल्दी में डिस्क्लेमर लगाना भूल गया कि मैं हिन्दू हूँ :)

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  5. आज के संदर्भों में जब स्त्री और पुरुष दो भिन्न रूप में समझे और देखे जा रहे, उन संदर्भों में पुरानी कथाओं का विश्लेषण न्याय सम्मत नहीं है। स्त्री और पुरुष संयुक्त रूप से परिवार की ईकाई है, उसमें भी भेद ढूढ़ लेना घटनाओं को अतिरंजित कर जाता है।

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    1. प्रवीण जी,
      ये कहना कि उस समय के परिवेश का आज के परिवेश से तुलना करना न्याय संगत नहीं है, मुझे लगता है ये कहना भी न्याय संगत नहीं होगा। आखिर हम अपनी पुरानी संस्कृति का ही ढोल पीट रहे हैं अब तक। मुझे ये बताईये आज अगर कोई लड़की तथाकथित सामाजिक मान्यताओं से इतर कुछ भी करती है तो उसे हमारी पुरानी संस्कृति की ही तो दुहाई देते हुए उसकी भर्त्सना की जाती है।

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    2. सामाजिक मान्यताओं को आप पुरानी भारतीय संस्कृति नहीं कह सकते। यदि उछ्रंखलता व असंयम के खिलाफ अनुशासन या संयम के लिए प्राच्य भारतीय संस्कृति की दुहाई दी जाती है तो इसमें बुरा क्या है? बुराई तो उन 'सामाजिक मान्यताओं' रूढ परम्पराओं, कुरीतियों में है जिसका ढोल पीट कर उन्नति और विकास को बाधित किया जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि करे कोई और भरे वह जिससे हमें अरूचि हो? अर्थात् असंगत रूढियों, गलत परम्पराओं और कुरीतियों के ढंढेरे की सजा निर्दोष प्राच्य संस्कृतियाँ क्यों भुगते? महज इसलिए कि हमें दोनो में अन्तर करने की योग्यता नहीं है इसलिए………

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  6. बहस जारी रहे, फिर वापीस आउंगा टिप्पणीयां पढने के लिये।

    शिल्पा जी आप अपने असहमती के तर्क रखीये!

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    1. ashish ji - yahan nahi |

      abhi bahut udaasi hai har or - 16 december se ek hi maheena guzra hai, ham sab revenge mood me hain - including me ... some other day ...


      meanwhile i am doing a series on my blog trying to analyse the devvelopment of the rights and the wrongs in the human society....

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  7. ऐसे तो सबकुछ शोषण ही साबित कर लिया जाएगा. जब सहजीवन होगा साथ साथ जीना होगा तो ऐसी तो हजारों घटनाएँ घटती चली जाएगी. बसँत में कोई फूल भी पहले पुरूष के बाग में खिल गया तो यह नारी का शोषण होगा. शोषण न हुआ जैसे साँस लेने का नाम ही शोषण हो गया.
    सीता महान थी,सत्वशाली थी,सती (सत्य पर अटल के अर्थ मेँ) थी,वह देवी ही थी,दिव्यता के सारे गुण उनमें थे. जब उन्होनें दबी जुबा से भी शोषण की शिकायत नहीं की तो उनके आदर्श समर्पण को शोषण नाम देने वाले हम होते ही कौन है? सीता ने अपने समान ही सक्षम राम का वरण किया यह स्वतँत्र निर्णय था. वन मेँ जाने का निर्णय भी मिल बैठ कर सीता का स्वेच्छिक निर्णय था,अपने निर्णय पर ही प्रतिपक्ष से सवाल कैसे हो सकता था?
    आज के युग में निजी स्वार्थ, निजी स्वतंत्रता, स्वहित आदर्श स्थिति हो सकती है पर उस युग में मन वचन और काया से परस्पर पूर्ण समर्पण आदर्श स्थिति ही नहीं आदर्श व्यवस्था थी.

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    1. मैं बिलकुल यही बात कह रही हूँ, शोषित करो और देवी बना दो। अगर सबकुछ इतना ही सही था सीता के लिए और वो इतनी ही खुश थीं सब कुछ करके तो फिर आत्महत्या का विकल क्यों कर चुना उन्होंने ???? अगर सचमुच आदर्श व्यवस्था थी, फिर अग्नि परीक्षा क्यों ?? क्यूँ राम स्वयं सीता का सामना नहीं कर पाए और खुद वन में उन्हें छोड़ कर आये ??? वन में अकेली छोड़ कर भाग जाने का अर्थ क्या है ...??

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    2. "शोषित करो और देवी बना दो", नहीं!!, मै तो यह कह रहा हूँ कि सबसे पहले शोषण के मायने अर्थ और काल अनुसार उसके भावों का निर्धारण हो। फिर हम आदिकालिन शोषण स्थापित करें। आज हमें जो वस्तु पसंद नहीं तो उस आजकी पसंद को भूतकाल पर कैसे थोप सकते है? सभी कुछ काल, स्वभाव, परिस्थिति और नियति अनुसार बदलता रहता है हम बीत चुके या रीत चुके काल के आदर्श बदल ही नहीं सकते, बदलने की छोडो, हम तो अपनी स्वयं की मानसिकता को किनारे रखकर विश्लेषण तक कर पाने के योग्य नहीं है। हमारे लिए तो आज यह सोचना दुष्कर है कि काल विशेष में कौनसा व्यवहार शोषण माना जाय और कौन सा नहीं? इसलिए अनादिकाल की व्याख्या करना और मुक्त मन से सदा-सर्वदा के लिए शोषण आरोपित कर देना वस्तुतः अनधिकार चेष्टा है।

      आज की तरह पहले देवीय गुण त्यक्त नहीं थे, देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था। क्या स्त्री क्या पुरूष सभी देवीय गुणवान बनने और कहलवाने को तत्पर रहते थे। आज की तरह देवी कहलवाना बुरा या निंदा आलोचना का कारण नहीं बना करता था इसलिए लोग अपनाते थे, लालायित रहते थे। त्यागते नहीं थे। सीता का अन्तिम प्रयाण आत्महत्या नहीं, नश्वर संसार से मुक्ति जीवन प्रयोजन पूर्णता के निर्णय रूप समाधी या निर्वाण था। बस इसी तरह शब्द पर सवार होकर संदेह चले आते है। राम कथा के विभिन्न स्वरूप प्राप्त होते है, परफेक्ट घटना या असल सम्वाद क्या थे निश्चय से कोई नहीं कह सकता। फिर भी गलत या सही को नापने का एक मोटा तरीका है हमारे पास। इतनी भिन्न भिन्न कथाओं में इतना विशाल काल बीत जाने के बाद भी राम मर्यादापुरूषोत्तम स्वीकार किए जाते है और सीता सर्वश्रेष्ट सती। अवगुणवाद या निन्दा का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।

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    3. "देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था "

      यह अवार्ड तय कौन करता था ??

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    4. जो स्त्री को कष्ट देकर देवत्व प्रदान करवाता था या देवीय बनाता था वही।
      जैसे जो स्त्री को पति की चिता में धकेलता था वही उसे सती की उपाधि प्रदान कर उसका मन्दिर बनवा देता था। और उसको जो पति की सम्पत्ति मिलनी थी वह हड़प लेता था और मन्दिर से भी कमाई करता था।
      घुघूती बासूती

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    5. जो स्त्री को कष्ट देकर देवत्व प्रदान करवाता था या देवीय बनाता था वही।

      जैसे जो स्त्री को पति की चिता में धकेलता था वही उसे सती की उपाधि प्रदान कर उसका मन्दिर बनवा देता था। और उसको जो पति की सम्पत्ति मिलनी थी वह हड़प लेता था और मन्दिर से भी कमाई करता था।
      घुघूती बासूती

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    6. @ क्या बात है !
      शोषण की परिभाषा, पहले स्थापित करनी होगी !
      सबके सामने पत्नी को अपने सतीत्व का सबूत देने के लिए मजबूर करना, अग्नि-परीक्षा से पत्नी को गुजारना, इतना सब कुछ होने बाद भी पत्नी का त्याग कर देना, उसे घर से निकाल देना, बिना बताये छल से जंगल में छोड़ कर आना, ये शोषण में नहीं आता है, है न !

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    7. @ यह अवार्ड तय कौन करता था ??

      साफ है कि क्या स्त्री क्या पुरूष सभी देवीय गुणवान बनने और कहलवाने को तत्पर रहते थे। तो निश्चित है यह अवार्ड स्त्री-पुरूष दोनो से बने मानव-समाज द्वारा तय किया जाता होगा।

      @ जो स्त्री को कष्ट देकर देवत्व प्रदान करवाता था या देवीय बनाता था वही।

      कष्ट महसुस हो तो कष्ट बनता है और कष्ट लेकर भी किसी को सुखी महसुस करने की मानसिकता देवीय गुण बन जाती है। जैसे अपनो के प्रति राग मोह ममता देवीय गुण है, खट कर, कष्ट उठाकर, भी ममता प्रदान की जाती है क्या इसे कष्ट उठाना कहें ममता का लाभ प्राप्त करने वाले को शोषक कहें?
      पता नहीं यह सती शब्द से जलाने की कुप्रथा कब आई किन्तु निश्चित ही यह आदिकालीन नहीं है। रामायण काल में तो सत्यव्रत या सती का अर्थ सत्य के प्रति निष्ठावान के लिए हुआ करता था।

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    8. @ .........ये शोषण में नहीं आता है, है न !

      मै एक उस भूतकाल के भावो को समझने के लिए भविष्यकालिन काल्पनिक उदाहरण से समझाता हूँ......भविष्य मेँ प्रेम करना और विवाह करना भी शोषण माना जाएगा क्योकि उस समय की नारियोँ पूरे यक़िन से कह सकेगी कि पुरूष,प्रेम और विवाह मात्र मातृत्व धारण करवाने के लिए ही करते है और इस प्रकार मातृत्व धारण का भयँकर कष्ट मात्र स्त्री को भोगना होता है.ऐसे माहोल में सहज आकर्षण भी हर दृष्टि मेँ कुटिल अत्याचार ही नजर आएगा. और 'मातृत्व' का महिमा-वचन 'देवी' बनाने जैसी चाल के रूप मेँ ही जाना समझा जाएगा.
      अतीत के प्रश्नों को समझने से पहले युगोँ युगोँ के अंतराल और संस्कृति के विकास क्रम को समझ लेना आवश्यक है.फिर से दोहराता हूँ....रामायण काल बहुत ही प्राचीन है.

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    9. "इतनी भिन्न भिन्न कथाओं में इतना विशाल काल बीत जाने के बाद भी राम मर्यादापुरूषोत्तम स्वीकार किए जाते है और सीता सर्वश्रेष्ट सती। अवगुणवाद या निन्दा का कोई उल्लेख प्राप्त नहीं होता।"
      सुज्ञ की यह बात विचारणीय है !

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    10. अरविन्द जी,
      ये सभी काव्य बस एक बार लिखे गए और वही फाईनल हो गए। तुलसीकृत रामचरित मानस को ही लें, ये अकबर के ज़माने की बात होगी, उस समय का सामाजिक परिवेश (इस्लामिक), और तुलसीदास का अपना व्यक्तिगत अनुभव (रत्नावली द्वारा दुत्कारा जाना ). इसके बावजूद अगर इस काव्य का ही दूसरा, तीसरा एडिशन( पब्लिशिंग नहीं एडिटिंग) निकलता तो शायद, कुछ नयी बातें जुड़तीं ...और अगर किसी महिला का भी हाथ, लेखन में होता तो शायद इसका स्वरुप अलग ही होता। उसके बाद जितनी भी पुस्तकें आयीं, वो सभी वाल्मीकि रामायण से कम प्रेरित रहीं, राम चरित मानस से ज्यादा।

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    11. घुघूती जी,
      आपने सही कहा, कालान्तर में सती प्रथा का उद्देश्य यही रह गया था ...

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    12. सुज्ञजी,
      सुंदर विवेचना लेकिन आज के युग में बॉटम लाईन या निष्कर्ष पहले तय किये जाते हैं और तर्क उसके बाद।

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    13. घुघूती बासूती जी,
      सती प्रथा पातिव्रत्य व्रत की एक अत्यंत उदात्त स्थिति थी- मैं आज व्यक्तिगत रूप से इसका समर्थन तो नहीं करता मगर प्रमाण हैं कि कभी स्त्रियाँ पति के मृत्यु के बाद इसे स्वेच्छा से वरण करती थीं .....महाभारत में पांडु के साथ माद्री के सती होने का विस्तृत उल्लेख है-कारुणिक प्रसंग है -यह कहना कि उन्हें सती बनाया जाता था सही नहीं है -यह उनकी स्वेच्छा हुआ करती थी .....यह प्रथा अब कानूनी तौर पर निषिद्ध है . त्याग की इन महान परम्पराओं का कृपया उपहास तो न ही उड़ायें -हम और आप इस प्रथा से आज सहमत नहीं हैं तो और बात है!

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  8. umeed hai manthan se kuch niklega..........


    pranam.

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  9. पुराणिक कथाओं के उदाहरण बहुत सही विषय के अनुकूल, तर्कसंगत.... आज समय बदल चुका है पर मानसिकता वही है... नौकरी करती महिलाओं पर दोहरी जिम्मेदारियां... ऐसा नहीं की आज का पुरुष साथ नहीं दे रहा है.. कंधे से कन्धा जरूर मिला लेता है .. पर सोच का विस्तार अभी पूर्णतया खुला नहीं है.. अभी समय लगे...

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    1. नूतन जी,
      आप बिलकुल सही कह रहीं हैं।
      आभार

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  10. बड़े सटीक दृष्टांत दिए हैं। पर सबलोग इनसे सहमत नहीं ही होंगे और अपनी बातों को सही बताने के लिए कोई भी तर्क अपना सकते हैं।

    एक बार मेरे घर पर कुछ ब्लोगर्स इकट्ठे हुए थे (उसमे से ज्यादातर अब ब्लॉगजगत में सक्रिय नहीं हैं, इसलिए नाम नहीं लिख रही ) और इन्ही सब बातों पर विमर्श हो रहा था तो एक प्रतिष्ठित कवि (शरद कोकास नहीं ) ने ये तर्क रखा कि अहिल्या के पति बहुत ही वृद्ध थे इसलिए अहिल्या ने खुद इंद्र से आग्रह किया कि वह इस सुख से वंचित रही है,इसलिए इंद्र ने उनके साथ समागम किया। वह बलात्कार नहीं था। अब बेचारे इंद्र तो इतने भोले थे ,उन्हें सही -गलत का भला क्या ज्ञान??

    मेरा तो यही मानना है, ये सारे ग्रन्थ पुरुषों द्वारा रचित हैं। वे पुरुषों को श्रेष्ठ दिखाएँगे ही ,उन्हें नारी की पीड़ा का क्या अहसास? अगर नारी ने लिखा होता तो सीता, द्रौपदी, अहिल्या, राधा के मन की पीड़ा भी समझतीं। हालांकि ऐसे महान लेखक भी हुए हैं , जिन्होंने नारी -मन की व्यथा समझी हैं . पर उनकी संख्या कम ही है।

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    1. उपर्युक्त उदाहरण मैंने इसलिए दिए कि अब भी हमारे समाज में ऐसी मानसिकता वाले लोग हैं (तथाकथित बुद्धिजीवी भी ) , जो हर हाल में स्त्री का ही दोष मानते हैं। (हाल ही में लोगों के बयान हम देख ही चुके हैं )

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    2. रश्मि,
      तुम्हारी बातों से पूरी तरह सहमत हूँ।
      इतिहास हमेशा राजे-महाराजों लिए ही लिखा जाता है। लिखने वाले पुरुष, और जिनके लिए लिखा गया वो भी पुरुष। अगर राजा की तारीफ नहीं होगी तो किसकी होगी भला ?? चाह कर भी लिखने वाला पुरुष, नारी की भावनाओं को न तो समझ सकता है न ही व्यक्त कर सकता है।
      अब देखो न राम ने पुनर्विवाह नहीं किया ये बहुत बड़ी बात मानी जायेगी, लेकिन सीता ने दो बच्चों को अकेले पाला-पोसा, बिना पति और पिता के, उसकी कोई अहमियत नहीं है। स्त्रियों के बारे में हर बात टेकन फॉर ग्रांटेड होती है। पुरुष अगर विधुर हो जाए तो सबको ये उम्मीद होती है, वो दूसरा विवाह करेगा ही, ये बिलकुल नेचरल बात है, अप्राकृतिक बात तब होगी, जब वो विवाह नहीं करता है, उसे महान की श्रेणी में ले आता है । इसके ठीक उल्टा है, अगर कोई स्त्री विधवा हो जाए या परित्यक्ता हो जाए तो, उसका पुनर्विवाह कर लेना बहुत बड़ी बात होगी। उस स्त्री से यही उम्मीद की जाती है कि वो अपने मरे हुए पति या अपने एक्स पति की याद और उसके बच्चों को पाल कर अपना जीवन जी ले। विवाह कर ले तो फट वो कुलटा हो जायेगी।

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  11. पूरा लेख पढ़ा
    प्रतिक्रियाएँ पढ़ी
    सारे सवाल यहीं मिले
    और
    सवालों के जवाब भी यहीं मिले
    सच है
    देवता अनाचार करे तो नारी शापित हुई
    और
    दानव अत्याचार/अनाचार करे तो उसे मौत मिलती है
    पता नहीं क्या सच है या क्या झूठ

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    1. यशोदा,
      तुम्हारा आना अच्छा लगा :)

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  12. इस तरह के लेखन से अक्सर एक भावना उठती है कि
    पुरूष लम्पट होता है और स्त्रियाँ भोली

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    1. वैसे तो पाबला जी,
      बात ज़रा सी हट कर है, लेकिन कहना चाहूंगी।
      प्रत्येक व्यक्ति के अन्दर किसी भी सन्दर्भ के लिए कोई भी धारणा बनती है, अपने व्यक्तिगत अनुभवों से।
      अनुभवों को ही आधार मान कर हम अपनी धारणा बनाते हैं। फिर अपने आस-पास भी जो, नज़र आता उसका भी असर होता ही है। और फिर हम देखते हैं देश दुनिया को।
      आपने जो बात कही है, उसका उत्तर देना चाहूँगी। जहाँ तक मैं समझती हूँ, यहाँ हम सभी संभ्रांत घरों से आते हैं। मुझे नहीं लगता, कि हम में से कोई भी अत्याधुनिक की श्रेणी में आएगा।
      यहाँ जितने भी पुरुष हैं, उनसे एक प्रश्न पूछती हूँ, आज जो हालात हैं, क्या आप सभी अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं, कि आप अपने घरों की महिलाओं/बच्चियों को सुरक्षित पाते हैं ?? क्या आज उनके ही घर की लड़की जब स्कूल या कॉलेज जाती है तो वो निश्चिन्त रहते हैं ? अगर हाँ तो ये बहुत अच्छी बात है। और अगर ऐसा नहीं है, तो उन्हें किससे भय होता है ...महिलाओं से या पुरुषों से। क्योंकि जहाँ तक मेरा अनुभव है, महिलाओं से ज्यादा पुरुषों को ही पुरुषों पर भरोसा नहीं होता, ख़ास करके अपने घरों की महिलाओं के लिए। आप अगर गौर करेंगे तो पायेंगे, किसी भी घर में पिता या भाई ही दूर रखते हैं अपने घरों की लड़कियों/महिलाओं को पुरुषों/लड़कों से।

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    2. सहमत! हम सभी इस व्यथा से जूझ रहे हैं ! हल क्या हो ?
      क्या अंतर्जाल पर नारी की अतिवादी सक्रियता जो इन दिनों भले ही तात्कालिक प्रतिक्रिया के बतौर कुछ नारीवादियों में मुखरित हुयी है,उचित है ??
      क्या हम भारतीय समाज को जागरूक और भलीभांति शिक्षित किये बिना पश्चिमी जीवन शैली -स्लट वाक् ,रात बिरात लड़कियों के निर्द्वन्द्व घूमने का जोखिम ले सकते हैं? जैसा कि कई कथित आधुनिकाओं के द्वारा उकसाया जा रहा है ?
      माना कि राज्य की जिम्मेदारी है हमारी सुरक्षा मगर हमें अपने सुरक्षा के प्रति खुद सचेष्ट रहना होगा-हमारे बच्चे अपना विवेक न खोएं ...
      आज अतिवादी विचारों के बजाय हम सभी को मिल बैठ समस्या का हल ढूंढना है -
      हिंस्र पशुओं से भरे जंगल में बिना समुचित सुरक्षा के चल पड़ना कहाँ की बुद्धिमानी है ?

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    3. क्या आप सभी अपने दिल पर हाथ रख कर कह सकते हैं, कि आप अपने घरों की महिलाओं/बच्चियों को सुरक्षित पाते हैं ??
      नहीं है सुरक्षित!!समस्या गम्भीर है और जवाबदेह हम स्वयं है. अतंकित करने या उकसाने मेँ सभी का योगदान है. किंतु यह निर्विवाद है कि आज के इन हालातोँ के लिए भारत की अनादिकालिन व्यवस्था या राम का व्यवहार हर्गिज जवाबदार नहीँ है.

      अरविंद जी की बात से पूर्णतया सहमत!!

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    4. यह भी निर्विवाद है कि नारी का दोहन, शोषण अनादिकाल से हो रहा है।

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    5. @ वो हिंस्र पशु कौन हैं ... पुरुष या नारी ??

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    6. क्या हम भारतीय समाज को जागरूक और भलीभांति शिक्षित किये बिना पश्चिमी जीवन शैली -स्लट वाक् ,रात बिरात लड़कियों के निर्द्वन्द्व घूमने का जोखिम ले सकते हैं? जैसा कि कई कथित आधुनिकाओं के द्वारा उकसाया जा रहा है ?


      भारतीये समाज की परिभाषा क्या हैं

      पुरुष का समाज जहां पुरुष अकेला रात को घूम सकता हैं और स्त्री नहीं ??? किस से डर कर स्त्री को अकेले घूमना मना हैं ? क्यूँ पाबंदी पुरुष पर भी नहीं हैं ?? नाईट कर्फ्यू सब के लिये ही क्यूँ नहीं ? महज इस लिये ना की स्त्री का बलात्कार हो सकता हैं ? तो क्या अब भारतीये समाज इंतज़ार कर रहा हैं की कब पुरुष का भी बलात्कार हो तब ही बदलाव संभव होगा ? ज्यादा दूर की नहीं कह रही हूँ रेप की नयी परिभाषा लिंग विबेध से हट कर कानून में आ गयी हैं .
      आधुनिकाओं ??? कौन हैं ये अधुनिकाए ? क्या ये सब हमारे आप के घर में नहीं हैं . आप में से कितने सच बोल कर ये कह सकते हैं की उनकी बेटियाँ जीन्स नहीं पहनती हैं ? सलट वाक एक विद्रोह था "महिला को सलट " कहने के विरोध में विद्रोह करने का का तरीका भी क्या महिला को किसी पुरुष से सीखना होगा ???

      ज्योति पाण्डेय के साथ जो हुआ वो अपवाद नहीं था इस लिये ये कोई @ अंतर्जाल पर नारी की अतिवादी सक्रियता जो इन दिनों भले ही तात्कालिक प्रतिक्रिया नहीं हैं . ये सहिष्णुता का अंत हैं ये आवाहन हैं की नारी समझ चुकी हैं शोषण और बलात्कार हमारे समाज की "रोज की जरुरत हैं " सदियों से होता आ रहा हैं अगर सब ने मिल कर आवाज नहीं उठाई तो रोज कहीं ना कहीं कोई ज्योति गैंग रेप का शिकार होंगी .

      सीता और राम का युग , कृष्ण और राधा से हम सब बहुत आगे आ चुके हैं लेकिन शोषण की परिभाषा को समझने के लिये तैयार नहीं हैं , संविधान में दिये हुए अधिकार की बात को समझने के लिये तैयार नहीं हैं , कानून को मानने के लिये तैयार नहीं हैं अगर तैयार हैं तो बस
      अपनी बेटियों को घर में बंद रख कर उनको सुरक्षा देने के लिये उनको शाप देकर देवी बनाने के लिये और फिर उनको " आधुनिका और नारीवादी " कहने के लिये . उनके विद्रोह को गलत बताने के लिये

      हम सब कुछ कर सकते हैं पर स्त्री और पुरुष समानता की बात नहीं कर सकते . बेटो को रात में घर से बहार जाने की पाबन्दी पर बात नहीं कर सकते बेटी को घर में बंद कर सकते हैं

      हर घर में हर बेटी "आज विद्रोह पर उतारू हैं " पर नहीं चेतना हैं भारतीय समाज को क्युकी भारतीये समाज को "बेटी " नहीं "बेटा" चाहिये .


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    7. @वो हिंस्र पशु कौन हैं ... पुरुष या नारी??
      मैं समझता हूँ दोनों, शिकार तो शेरनियां ही करती हैं!

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    8. मनुष्य एक विवेकवान प्राणी है ,उसे अपनी सुरक्षा का ध्यान पहले होना चाहिए -
      आज भी स्थितियां ऐसी हैं कि कोई भी किसी का शोषण कहीं भी अनुकूल स्थितियों में कर सकता है ,
      मनुष्य तो मूलतः एक पशु ही है हाँ एक सांस्कारिक और सांस्कृतिक पशु -जहाँ उसकी संस्कृति और संस्कार की जड़े
      गहरी नहीं हैं तो वह पशु से भी अधिक आक्रामक और क्रूर हो सकता है -स्व दामिनी की घटना से कई सबक भी मिलते हैं -
      उसमें सबसे बड़ा सबक यह कि ऐसे ही सड़क पर किसी से लिफ्ट मत लो ......स्व दामिनी की घटना इसलिए दिमाग पर भारी है कि
      जो आचरण उन नर पिशाचों ने किया वह जघन्यता की सारी सीमाएं लांघ गया ....क्या मनुष्य इतना बर्बर हो सकता है ? नहीं नहीं
      वे मनुष्य नहीं हैं अभी भी हिंस्र पशु हैं और उन्हें सरे आम गोली मार देनी चाहिए .....मगर क़ानून की बंदिश है .......
      कथित अत्याधुनिकाओं से अनुरोध हैं कि वे इस घटना की हमारे साथ ही प्रबल विरोध करें , आततायियों को शीघ्रातिशीघ्र फांसी दिलाने का
      माहौल बनायें ,मगर प्रोवोकैटिव न हों .....प्रत्येक पुरुष बुरा नहीं है और यह अभियान नारी पुरुष प्रतिशोध के अभियान में बदल कर अपनी महत्ता न खो दे ! हमें संयम रखना ही होगा ....हम प्रकृति प्रदत्त शारीरिक संरचनाओं और विवशताओं से भी बंधे हैं,नारी और पुरुष भले ही एक रथ के दो पहिये हैं मगर दोनों में कई मूलभूत अंतर भी हैं -

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    9. जो देश राम की धरती है, जिस देश में राम भक्तों की संख्या करोड़ों में हैं। जहाँ हर गली, हर कूचे में राम मंदिर हैं, जिस राम की ज़रा सी भी आलोचना लोग बर्दाश्त नहीं करते, जिस राम के नाम पर लोग प्राण लेने-देने को तैयार हो जाते हैं। जो राम भक्त सुबह-शाम अपने ईष्ट के समक्ष शीश नवाते हैं। कभी जिस देश में राम-राज्य था, आज वहीँ हर राम भक्त/भक्तिन असुरक्षित है। और जिससे वो असुरक्षित हैं वो भी खुद को राम भक्त/भक्तिन ही कहते होंगे।
      हैं न गज़ब की त्रासदी !!!

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    10. मुझे यह पता नहीं चलता कि राम और राम से भक्ति ही कटघरे में क्यों है? क्या इस त्रासदी का अन्तिम कारण आपने राम और राम भक्ति में निश्चित ही कर लिया है। इसका एक संकेत यह भी होता है कि दूसरे सारे कारण है ही नहीं। एक मात्र हमारी 'राम संस्कृति' ही कारण है। यह भी ठीक ऐसा ही आरोप है जैसा संस्कारों में विकार का दोष मात्र पश्चिमि संस्कृति को दिया जा रहा था। कहा जा रहा था जिसकी जैसी नियत होती है उसे पश्चिमि संस्कृति वैसी ही नजर आती है। आज भारतीय संस्कृति पर अगुली उठाते हुए दृष्टि और दृष्टिकोण बदल क्यों जाता है?

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    11. @वो हिंस्र पशु कौन हैं ... पुरुष या नारी??
      मैं समझता हूँ दोनों, शिकार तो शेरनियां ही करती हैं!

      शिकार तो शेरनियां 'भी' करती हैं, लकडबग्घे 'भी' करते हैं, उदबिलाव 'भी' करते हैं....

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    12. @फिर भी देखिये शेरनियां कानूनन अबध्य और सुरक्षित हो गयी हैं! :-)
      जबकि लकड़बग्घों के साथ ही उन्हें भी गोली मार देनी चाहिए :-)

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  13. मैंने 12 मार्च 2010 को अपनी पोस्ट में एक सवाल पूछा था...

    सतयुग हो या कलयुग अग्निपरीक्षा हमेशा सीता को ही क्यों देनी पड़ती है?

    इस पर आदरणीय डॉ अजित गुप्ता जी की टिप्पणी थी-

    सीता ने साक्षात अग्नि परीक्षा दी और राम अपनी ही अग्नि में जिन्‍दगी भरे जले। हमारे परिवार के बुनावट ही ऐसी है कि हम एक दूसरे के सहारे जीवन बिताते हैं। लेकिन जब से भोगवाद हमारे जीवन में आया है तभी से नारी को भोग की वस्‍तु मानकर कैद कर दिया गया। लेकिन आज यही भोगवाद नारी पर भी हावी है और वह भी पुरुष को अपनी कैद में करने पर तुली है। जहाँ पूर्व में पति और पत्‍नी के मध्‍य समर्पण था आज अधिकारों ने जगह ले ली है। पति-पत्‍नी, सास-बहु, बाप-बेटा सभी सत्ता के लिए लड़ रहे हैं। परिवारों से निकलकर यह लड़ाई राजनीति में भी जा पहुंची है। मेरे ख्‍याल से हम सभी को आज के युग में अग्नि परीक्षा देनी पड़ रही है।

    और माननीय जी के अवधिया जी की टिप्पणी थी-

    क्योंकि जिस कार्य को करने की क्षमता पुरुष में न हो, उसे नारी को करना पड़ता है। महिषासुर के वध की क्षमता शिव में नहीं थी इसलिये माता पार्वती को दुर्गा का रूप धरना पड़ा था।

    इऩ दो टिप्पणियों में ही शायद सारा यथार्थ है...

    जय हिंद...

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    1. खुशदीप जी,
      आप आये और अपने अमुल्य विचारों से अवगत कराया, आपका धन्यवाद !

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  14. गदर फिल्म का विख्यात सम्वाद है.... कहो पाकिस्तान जिंदा बाद!! -पाकिस्तान जिंदाबाद!!.... अब कहो हिंदुस्तान मुर्दाबाद..... जब तक तुम हिंदुस्तान मुर्दाबाद नहीं कहते हम कैसे मान लें तुम सच्चे मुसलमान हो गए हो?....कुछ ऐसी ही फिलिंग आ रही है....पाश्चात्य संस्कृति पर आरोप लगाना छोडो!!.....हमने कहा हम गलत थे चलो छोड दिया.....अब अपनी सँस्कृति की निंदा भी करो....हमने कहा यह हमसे नहीं होगा....यदि अपनी सँस्कृति की निंदा नहीं करोगे तो कैसे मान लें कि तुम प्रगतिशील हो गए हो!!! :) :):(

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    1. निंदा करना और एक अलग नज़रिया सामने रखना, दोनों में फर्क होता है। एक नारी की दृष्टि से इन बातों को देखना, अगर आपको निंदा लग रही है, तो इसमें हम कुछ नहीं कर सकते। आप अपने नज़रिए से देखिये, हम अपने नज़रिए से, इतनी आज़ादी तो मिलनी ही चाहिए हमें, या वो भी हमें मुहैय्या नहीं होगी । रटा-रटाया अपनाने की आदत नहीं है हमें। और अगर हमारा ऐसा करना हमें प्रगतिशील दर्शाता है, तो फिर इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है भला, क्योंकि प्रगति करना ही हम सबके जीवन का लक्ष्य है।
      भक्त और भगवान् का सम्बन्ध पिता और पुत्र का सम्बन्ध होता है, इस सम्बन्ध में किसीभी प्रकार की शंका का कोई स्थान नहीं होता । पिता अपने पुत्र को उसके समस्त अवगुणों के साथ अपनाता है, और पुत्र भी अपने पिता को उसके सभी अवगुणों के साथ अपनाता है। यहाँ निंदा जैसे तुच्छ भाव का कोई स्थान नहीं होता।

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  15. अहिल्या गौतम ऋषी पत्नी होते हुए छली गई ? जरा विचार कीजिये? किसी स्त्री को अपने पति के पैरों की धमक का ज्ञान हो जाता है तब अहिल्या से यह चुक की सजा दी गई . यहाँ धर्म निर्वहन की बात है शोषण की नहीं ...
    तर्क पर तर्क देना न्याय सगत नहीं . अब द्रौपदी की कहें तो आप एक क्वारी कन्या की उपाधि को प्राप्त स्त्री की चर्चा करें जो आज भी सम्मान पात्र हैं . माता कुंती ने प्राप्त मन्त्रों की परख में सभी वरदानी महापुरुषों को पुत्र के रूप में प्राप्त किया . आपकी विवेचना शायद मात्री शक्ति के दुसरे पक्ष का कर दिया .. यहाँ कभी उनके शोषण की बात नहीं हुई किसी ने यह व्याख्या नहीं की कि देखो द्रौपदी ने पाँचों पांडवों को अंगुली में नचाया और अपने सखी कृष्ण की मदद से कौरव और पांडव वंश की ऐसी तैसी कर दी . आज भी उन्हें प्रत्येक हिन्दू शादी में क्वारी भोज में याद कर शादी के संस्कार को पूरा किया जाता है। शेष फिर कभी .....वैसे आपकी पोस्ट सदैव ठनकती है
    राधा कृष्ण के अमर प्रेम को कभी इस तराजू पर मत तौलिये अन्यथा हमारा दिल दुखता है . प्रेम को यूँ परिभाषित मत करिए जी ......हाँ आपका आक्रोश आज जायज है . आप आदेश करिए बहन बेटी माँ के लिए क्या किया जाये? चन्द नालायकों के लिए ज्यादा गुस्सा मत खरचिये .

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    1. yadi ahalyaa jaanti bhi thee - to ???

      adhik se adhik pati aur patni ek doosre se sambandh vicched kar sakte hain - shaareerik yaatna kaa adhikaar nahi hai pati ko |

      kyon nahi indraani ne indr ko yahi shraap diye ahalya ke saath "bina chhale gaye" gaman karne ke liye ?

      raavan kee patni mandodari ko "satee" kahaa jaata hai ki par stree gaman ke baavjood vah pati ke saath rahi - aur gautam ka patni par itna sakht anyaay justify kiya jaata hai yah kah kar ki "shayad" ahalya jaanti thee ?

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  16. Replies
    1. ye galt hai..........kahiye jai siyaram.....



      pranam.

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    2. sanjay ji and sanjay ji :) jay siya ram ji :) :)

      --------------------

      @ swapna ji - to me - these couples - rama and seeta, shiva and parvati, radha and krishna - are not humans..... they are sacred, about whom i feel myself too small to pass comments about their behaviors and practices....

      their histories, their stories are "daiveeya" to me - so i would like to keep away from any discussion tending to judge them by our "human" standards. it is like trying to test a diamond by methods of testing glass.

      regarding "shoshan" of women by men or not - we have plenty of examples to quote WITHOUT involving our aaraadhyaas - so please excuse me on the q of the recognized daiveey personas of our hindu beliefs ... because in my view, that's how we tend to weaken our own selves.

      i understand your approach, and believe me i have no objection to you or anyone else following their own thought processes, but to me, these topics are sacred, hence i would like to refrain .....

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    3. शिल्पा जी,
      इस बात से मुझे भी इनकार नहीं ये सभी ईश्वर का ही स्वरुप हैं, जिन्होंने इस धरती पर मानव जन्म लिया और मानव का ही जीवन जिया। जब ये मनुष्य बने तो मनुष्यों के लिए उदहारण ही बनने के बने होंगे....मैं उनके इसी जीवन की बात कर रही हूँ ....
      Sometimes it takes a good fall to really know where you stand...

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    4. @ जब ये मनुष्य बने तो मनुष्यों के लिए उदहारण ही बनने के बने होंगे

      बिलकुल उदाहरण प्रस्तुत करने के लिए ही उन्होने मानव देह धरी……… किन्तु स्वार्थी व वक्र(टेढ़े)मानव नें उसका यथार्थ सार ग्रहण तो नहीं किया जो वे देना चाहते थे, मानव ने वक्रबुद्धि से उन्ही उदाहरणों में कितने ही किन्तु परन्तु खडे कर दिए, अपनी वक्रजड बुद्धि का प्रयोग किया और उन्ही उदाहरणों को चुनौती देने लगा।
      उदाहरण की कैसे ऐसी तैसी की जाती है एक कथा सुनिए……एक राजा अपने 50 हजार के सैन्य के साथ एक वन से गुजर रहा था। रास्ते में राजा ने एक घनघोर सुन्दर फले फूले वृक्ष को देखा, उसकी पत्तियाँ बडी सुन्दर थी राजा नें चार छः पत्तियाँ तोड ली और आगे बढ़ा। संयोग वश दूसरे दिन ही उसी रास्ते से लौटना पड़ा। उस जगह आने पर राजा उस सुन्दर वृक्ष को नहीं पाता, उस जगह एक पतझड सा ठूंठ खडा होता है राजा नें मंत्री को पूछा ऐसे कैसे हो सकता है कि एक सुन्दर वृक्ष एक रात में ही ठूँठ बन जाय? मंत्री ने कहा राजन जैसे ही आपने चार छः पत्ते तोडे उसका अनुगमन पूरे सैन्य नें किया और वृक्ष का यह हाल हुआ। वह राजा के चितरंजन का मामूली व्यवहार था जिसे उदाहरण मानकर सेना ने अर्थ का अनर्थ कर दिया।

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    5. नामराशि भाई और शिल्पा बहन,
      ’जय सिया राम’ कहने में कैसी शर्म?

      जय श्री राम, जय सिया राम:)

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  17. आपके अनुसार स्त्री को देवी बनाकर शोषित करने का फ़ार्मूला बहुत पुराना है, देवी बना देने से शोषण होता है। बहुत अच्छी बात है कि भारतीयों की इस साजिश को आधुनिक, साक्षर, आत्मनिर्भर, प्रगतिशील नारी समझ चुकी है। यदि ऐसा है तो पति को परमेश्वर बनाने से पुरुष का शोषण होना चाहिये। आप स्त्रियाँ देवी नहीं बनना चाहती तो मत बनिये , अपने अपने पति को परमेश्वर बनाकर उनका शोषण करिये। आपका शोषण भी नहीं होगा और सदियों से भारत में नारियों पर हुये शोषण का प्रतिकार भी हो जायेगा। आशा है इससे भारत की किसी हिन्दु स्त्री को शोषित नहीं होना पड़ेगा।
    फ़िलहाल इतना ही, शेष फ़िर।

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    1. संजय जी,
      आपसे गलती से मिश्टेक हो गया ...:)
      इसलिए पूरा कमेन्टवे गड़बड़ा गया है ....
      हम कहे 'स्त्री को शोषित करके देवी बना देने का फार्मूला बहुत पुराना है।' न कि 'स्त्री को देवी बनाकर शोषित करने का फ़ार्मूला ',
      लेकिन आपको कैसे पता चला कि हम आजकल अपने पति देव को परमेश्वर बना कर शोषण कर रहे हैं ??

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    2. जी, जरूर मुझसे ही मिश्टेक हुआ होगा, दृष्टिभ्रम की पुरानी आदत जो ठहरी मेरी और आपने पोस्ट में edition\deletion किया होता तो आप स्वीकार भी कर लेतीं। खैर, जो आपने कहा, वही सही।

      और मैंने जो कहा, वो कुछ पता होने के आधार पर किसी व्यक्तिविशेष को नहीं कहा, बल्कि विकल्प दिया है। तो अब सुधरा विकल्प ये हुआ कि आप नारियाँ भी अपने अपने पति का शोषण करें और उन्हें परमेश्वर बनायें। इस विकल्प पर गौर किया जाये।

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    3. "विकल्प ये हुआ कि आप नारियाँ भी अपने अपने पति का शोषण करें और उन्हें परमेश्वर बनायें।"

      नारियां, पुरुषों की नक़ल क्यूँ करें? वे जियो और जीने दो में विश्वास रखती हैं और शायद यही बुनियादी फर्क है । पुरुषों को न वो अपना दुशमन मानती हैं, न ही उन्हें कोई देवता।
      पुरुष अपना व्यक्तित्व कायम रखें, और स्त्रियाँ अपना व्यक्तित्व
      न पुरुष स्त्रियों का शोषण करें, और न स्त्रियाँ ऐसा करें ....क्या ऐसे समाज की स्थापना नहीं हो सकती ??

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    4. ख्याल अच्छा है।
      कुछ और अच्छे ख्याल बताता हूँ -
      - न कोई अमीर हो न गरीब।
      - सब सबल हों, कोई निर्बल न हो।
      - समाज में कोई अपराधी न हो।
      - समाज में कोई बेईमान न हो।
      आदि आदि।

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    5. अर्थात ....

      अगर समाज में
      अमीर-गरीब हैं
      सबल-निर्बल है
      अपराधी हैं, बेईमान हैं
      फिर पुरुष और स्त्री का रिश्ता भी शोषक और शोषित का ही होगा ??

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    6. आदरणीय संजय जी,

      आपने पोस्ट में edition\deletion किया होता तो आप स्वीकार भी कर लेतीं।

      आपने सही कहा, अगर मैं ऐसा कुछ करती तो अवश्य स्वीकार कर लेती, लेकिन ऐसा कुछ किया नहीं है मैंने। आपके ही देखने में त्रुटि हुई है। अक्सर ऐसा होता है, इंसान वही देखता है जो देखना चाहता है। बाकी आपसे मैंने थोडा सा मजाक किया था, क्षमाप्रार्थी हूँ

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  18. अनादिकाल से स्त्रियों को दासी का सहचरी का या देवी का दर्जा दिया जाता रहा है। उसका स्वतंत्र अस्तित्व कभी भी स्वीकार नहीं किया गया। वह भी एक अलग व्यक्तित्व की मालकिन है ,यह बात कभी नहीं समझी गयी .उसे हमेशा एक (प्रोपर्टी ) जायदाद के रूप में देखा जाता है। अब जायदाद की रक्षा के लिए चाहे युद्ध कर लिया जाए, या उसे दांव पर लगा दिया जाए या उसे उपहारस्वरूप किसी को दे दिया जाए या उसकी देखरेख न की जाए या फिर उसकी बिलकुल ही उपेक्षा कर दी जाए, यह सब जायदाद के मालिक की इच्छा पर निर्भर है। यानि कि अपने भूत-भविष्य-वर्तमान के लिए स्त्रियों को हमेशा पुरुषों के ऊपर ही पूरी तरह निर्भर रहना पड़ा है .(आज भी स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है ) .और जिसके ऊपर सम्पूर्ण स्वामित्व हो फिर उसका शोषण ही अधिक होता है .

    आज स्त्रियाँ उच्च शिक्षा ग्रहण कर, आत्मनिर्भर होकर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बना रही है, तो उन्हें हर तरह के विरोध का सामना करना ही पड़ेगा। तुमने सही लिखा है, "शायद आने वाले दिन स्त्री के लिए अच्छे होंगे, क्योंकि अब वो अपनी पहचान बनाने के लिए कटिबद्ध हैं । पर इन अच्छे दिनों के आने के लिए एक लम्बा संघर्ष करना पड़ेगा, जो जारी ही है।

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    1. रश्मि,
      पूरी तरह सहमत हूँ।
      आज भी आम घरों में ही ऐसी दासियों की कमी नहीं है। निम्न आय वाले घरों में तो इस तरह के शोषण की भरमार है। अगर पति कमाऊ है और बीवी घर में रहती है, तो एक एक पैसे के लिए पत्नी को तरसते देखा है। पत्नी एक गुलाम से अधिक कुछ नहीं होती।

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  19. इस पोस्ट पर सुज्ञजी और डाक्टर मिश्र की प्रतिक्रियाओं ने कायल कर लिया, दोनोंजन साधुवाद स्वीकारें।

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  20. .
    .
    .
    अदा जी,

    १- आपने पुरातन कथाओं से जो भी उदाहरण गिनाये हैं वह सब सच हैं, और सभी में स्त्री के साथ अन्याय हुआ है... हद तो यह है कि उस अन्याय के होने को स्वीकार करना तो दूर, उन अन्यायों को बेआवाज झेलने के कारण नायिका को पूज्य बना दिया गया है... समाज का एक बहुत बड़ा तबका इन धर्मग्रंथों व इन कथाओं को आज भी अनुकरणीय मानता है...अब तक की पूरी टिप्पणियाँ पढ़ीं... कुछ केवल अपने धार्मिक विश्वास व आस्था को डिफेंड करने के लिये घुमा फिरा कर आपकी कही बातों का विरोध कर रहे हैं, और कुछ तो हैं ही पक्के धर्म-मंडक... मैं नहीं समझता कि ऐसे में यह बहस किसी अंजाम तक पहुंचेगी... :)

    २- देवीय श्रेणी पाना अवार्ड हुआ करता था...यह अवार्ड तय कौन करता था ??
    जो स्त्री को कष्ट देकर देवत्व प्रदान करवाता था या देवीय बनाता था वही।
    जैसे जो स्त्री को पति की चिता में धकेलता था वही उसे सती की उपाधि प्रदान कर उसका मन्दिर बनवा देता था। और उसको जो पति की सम्पत्ति मिलनी थी वह हड़प लेता था और मन्दिर से भी कमाई करता था।
    घुघूती बासूती


    अरविन्द मिश्र जी भले ही कह रहे हों कि "सती प्रथा पातिव्रत्य व्रत की एक अत्यंत उदात्त स्थिति थी- मैं आज व्यक्तिगत रूप से इसका समर्थन तो नहीं करता मगर प्रमाण हैं कि कभी स्त्रियाँ पति के मृत्यु के बाद इसे स्वेच्छा से वरण करती थीं .....महाभारत में पांडु के साथ माद्री के सती होने का विस्तृत उल्लेख है-कारुणिक प्रसंग है -यह कहना कि उन्हें सती बनाया जाता था सही नहीं है -यह उनकी स्वेच्छा हुआ करती थी .....यह प्रथा अब कानूनी तौर पर निषिद्ध है . त्याग की इन महान परम्पराओं का कृपया उपहास तो न ही उड़ायें "

    पर ब्रिटिश काल के कई निरपेक्ष ऑब्जर्वर्स द्वारा बड़े विस्तार से यह वर्णित है कि किस तरह महिला को अफीम या अन्य नशा खिला कर, ढोल नगाड़े व अन्य वाद्मयंत्र बजा व कीर्तन आदि कर एक तरह का मास हिस्टीरिया पैदा कर एक बेबस को धधकती चिता में धकेला जाता था... कई बार तो यह तक होता था कि पीड़िता आग से जलती बाहर भागती थी तो लंबी लाठियों द्वारा फिर उसे धकेल दिया जाता था... कलेजा कांप उठता है उन रिपोर्ताज को पढ़ कर... अच्छा ही है कि इस अमानुषिक प्रथा को खत्म कर गये अंग्रेज जाने से पहले... आजाद भारत में हो सकता है कि आस्थाओं से छेड़छाड़ न करने की नीति के चलते इसे भी जारी रखा जाता और जगह जगह सतियों के मंदिर और नई सतियों को पैदा कर रहे होते...

    ३- आपने बहुत सही कहा है कि हम में से कईयों को नारी को एक 'इंसान' का दर्जा देना सीखना होगा, जिस दिन हम यह कर लेंगे बहुत सी चीजें खुद ही सुलझ जायेंगी...



    ...

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    1. प्रवीण जी,
      शुक्र है ...!
      आपकी टिप्पणी अँधेरे में एक किरण जैसी लगी ...
      जी हाँ मैंने भी वो रिपोर्ट्स पढ़ी है, जिसमें सती होती हुई लड़की, अगर चिता से उठ कर भागती थी तो उसे लाठियों से कोंच-कोंच कर चिता में वापिस डाला जाता था।
      कितना विभत्स होता होगा ये सब ...
      आपका हृदय से आभार

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    2. तनिक भी चिंतित न हों प्रवीण जी, प्रस्तुत आलेख धर्म-मण्डको का नहीं धर्म-खण्डको का है, धर्म मण्डक तो शोषण के मिथ्या आरोपण को देखकर पूरी तरह डिफेंड मोड में यहाँ आए है. वस्तुतः सम्वेदनाओं और पीडा की ओट लेकर, धर्म को हर हाल में अपराधी सिद्ध करने की कलुषित मानसिकता से बाहर आकर, कईयों को झूठे आरोपोँ से अनावश्यक धर्म का अपमान न करने की इंसानियत व सौजन्य सीखना होगा.जिस दिन हमें यह ज्ञात हो जाएगा कि सात्विक या कलुषित वृतियाँ हम मानवोँ का स्वभाव होता है धर्म बुरी वृतियाँ नहीँ सिखाता, उलट अधर्मी सदाचारोँ से अधिक दूर रहते है.जिस दिन यह बात समझ आ जाएगी बहुत सी चीजें खुद-ब-खुद सुलझ जायेंगी...
      धर्म-मण्डक तो अच्छे से जानते है ऐसे आलेख समय समय पर धर्म-द्वेषियों को उर्जा प्रदान करने के लिए अवतरित होते है. पर चिँता नको... साँच को आँच नहीँ.

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    3. मेरी इस पोस्ट पर आई सामंतवादी विचार वाले पुरुषों की टिप्पणियां भावनात्मक शोषण करने की कोशिश का ज्वलंत उदाहरण हैं ....यहीं देखिये मैंने ज़रा सी लीक से हट कर बात की, तो लोगों को तकलीफ हो गयी। सिर्फ बात भर करने से पुरुष वर्ग कैसा तिलमिलाया है, यह भी तो एक प्रकार का शोषण है। क्या यह ज़रूरी है कि जैसा आप सोचते हैं, मैं भी वैसा ही सोचूं ...? नहीं हरगिज़ नहीं, अब स्त्रियाँ ऐसा कुछ नहीं करेंगी, हमारे पास भी हमारा अपना विवेक है , सोचने की क्षमता है, हमें भी व्यक्त करना आता है ... जब आज के प्रजातंत्र के युग में ये हाल है तो फिर तब क्या होता होगा ? धर्म-मण्डक बनने का शौक आपको है, मुझे नहीं ....मैं तो सच के साथ हूँ, और अगर ऐसा कहना मुझे धर्म-खण्डक बनाता है, तो यही सही, मुझे वो भी सहर्ष मंज़ूर है, जो गलत हुआ या जो गलत होता आ रहा है, उसके विरुद्ध खड़ी थी/हूँ और रहूंगी ....अगर कोई हिन्दू फ़तवा जारी करना है आपलोगों को तो मैं उसका हृदय स्वागत करती हूँ ....
      मेरी अपनी सोच है, मैं उसे व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र हूँ, आपको नहीं मानना है तो आप मत माने, आप अपनी असहमति, आपत्ति व्यक्त कर सकते हैं, लेकिन अपनी सोच थोपने की कोशिश में अपनी सीमा मत लांघें । राम सिर्फ आपके नहीं हैं, मेरे भी हैं, और मुझे पूरा अधिकार है, मैं उनके बारे में जो सोचती हूँ, वो खुल कर कहूँ । अगर मैं भी आपकी हाँ में हाँ मिलाती रहूँ तो मैं बहुत अच्छी नज़र आउंगी, अगर मैं भी आपके सुर में सुर मिलाती रहूँ तो आप सभी बहुत खुश होंगे, लेकिन मैं ऐसा कुछ भी नहीं करुँगी, क्योंकि मुझे इसकी कोई आवश्यकता नहीं है । मैं अपनी बातों पर दृढ़ता पूर्वक कायम हूँ ...आपको अच्छा लगे या बुरा।

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    4. प्रवीण शाह जी ,
      जूल्स वर्न ने एराउंड द वर्ल्ड इन एट्टी डेज में वैसा ही वृत्तान्त दिया है जैसा कि आपने कहा है -यह कभी मत भूलिए अंग्रेजों ने हमें हमेशा असभ्य और गंवार बर्बर ही देखने का पूर्वाग्रह बनाया हुआ था ....मैं भी सती प्रथा को अमानुषिक मानता हूँ ....मगर हम जिस काल देश की बात कर रहे हैं तब की तत्कालीन सामाजिक मूल्य क्या थे ? भारत में सतियों का एक महिमामंडित संदर्भ रहा है -और जैसा मैं आत्मसात कर पाया हूँ यह उनकी अपनी निजी इच्छा हुआ करती थी ..एक सती तो पति के जीवन के लिए यमराज से जा भिड़ी ...हाँ यह एक कथा है मगर सामाजिक परिवेश के बारे में भी बताती हैं .....आप को शायद आश्चर्य हो एक वृत्तांत यह है कि यूनानी फ़ौज में एक केटियस नामका भारतीय क्षत्री सेनापति था ,उसके मरने पर उसकी दो पत्नियों में सती होने के लिए तकरार हुयी ..अंत में बड़ी के गर्भवती होने के कारण सती न होने दिया गया और छोटी स्त्री को यह 'गौरव' मिला -यह वृत्तांत एक यूनानी डायरी में है ... दृष्टांत पर मत जाईये इसके पीछे की भावना को समझिये -भारत में पातिव्रत्य को जो दर्जा प्राप्त था वह विश्व में कहीं भी दृष्टव्य नहीं -हाँ कालान्तर में जैसे कि हिंदू धर्म में अनेक बुराईयाँ आयीं वैसे ही सती प्रथा भी स्त्री की इच्छा के विरुद्ध का कार्मकांड हो गया और अच्छा हुआ इस रूप में यह अब कानूनन प्रतिबंधित है .हम अपने अतीत को पानी पी पीकर मत कोसें -विपुल अध्ययन करें और बातों को सही परिप्रेक्ष्य में समझें -आपसे तो मेरी उम्मीद हमेशा कायम है ! यू आर डिफरेंट! हाँ आप जिद करेगें तो आपकी बात मैं मान लूँगा -आपका इतना सम्मान मेरे मन में है ! इसलिए की आप तार्किक हैं और आपका मन भी (मेरी तरह खुला है ) :-)

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    5. यही है अपेक्षित जवाब। हाँ में हाँ न मिलाना सामंतवादी विचार वाले पुरुषों द्वारा भावनात्मक शोषण करने की कोशिश ही है। और हिन्दू फ़तवों से तो इतिहास जैसे भरा ही पड़ा है। वाह, क्या निष्कर्ष निकाले हैं।

      इस पोस्ट पर प्रतिक्रियास्वरूप मैंने भी बहुत कुछ कहा लेकिन यकीन मानिये बहुत कुछ नहीं कहा। पौराणिक चरित्रों के बारे में कुछ बहस करना अवायड करता रहा हूँ और अब तो कुछ कहने का, सुझाव देने का अर्थ ही नहीं है।

      पढ़ी-लिखी, स्वावलंबी, स्वतंत्र, विवेकी स्त्रियाँ खुद भी हर तरह से सानंद रहें और अन्य शोषित स्त्रियों को भी सामंतवादी पुरुषों के हर शोषण से बचायें, यही कामना है।

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    6. आपसे भी यही अपेक्षा थी मुझे। जो आप मुझसे कह रहे हैं, वही बात आप पर भी लागू है। मैंने हाँ में हां नहीं मिलाया तो मैं धर्म-खण्डक !!

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    7. धर्म-मण्डक बनने का शौक हम क्या करेँगे,यह शब्द तो आप द्वारा समर्थित 'अँधेरे में एक किरण' का दिया हुआ है.हालांकि 'धर्म-मण्डक' बहुत बडी उपमा है हम धर्म की क्या रक्षा करेंगे, वस्तुतः धर्म हमारी रक्षा करता है. हिंदु धर्म मेँ फ़तवा जारी करना शुभ या सद्कर्म नहीँ है, न फतवे की हमारी हैसियत बनती है.आप निश्चिंत होकर किसी भी के विरुद्ध खड़ी रह सकती है.आपके विचार आपके अपने है वे विचार जब तक आप तक ही सीमित हो भला उसका किसी से क्या लेनादेना हो सकता है? लेकिन वे विचार अगर सार्वजनिक व्यक्त होकर दूसरों को प्रभावित करने की सम्भावनाएँ खडी करते है,महापुरूषोँ के चरित्र मेँ भ्रांतियाँ पैदा कर मान और आस्था घटाने में सहयोग करते है तो विनम्रता से सँकेत करना ही पडता है जिसे आप भावनात्मक शोषण कहती है.जानता हूँ हिंदु धर्म के पास आत्मघात की हद तक उदारता है आराध्यों का इतना चरित्र हनन स्वीकार कर लेते है कि वे आराध्य ही ना रहे. फिर न रहेगा बांस ना बजेगी बांसूरी. इसलिए आप भले स्वतंत्रता से आराध्यों का चरित्र हनन सोचें पर उस अपनी सोच को सार्वजनिक थोपने का कोई अधिकार नहीँ है. हमारा मात्र इतना सा प्रतिकार है बस.
      जैसे आप मानती है कि आप सच के साथ है, वैसे ही सभी अन्य भी स्वयं को सच के साथ ही खडा पाते है,राम और सीता के साथ खडा पाते है किंतु स्वयं राम और सीता का सम्मान व अस्तित्व किस में है नहीं जानते.
      बिलकुल हाँ में हाँ न मिलाएँ,अपनी बातों पर दृढ़ता पूर्वक कायम रहें!! अच्छा बुरा लगने का कोई मतलब नहीं है.आपने अपनी बात रख दी उसी पर हमने अपनी बात रख दी. 'बतवा' इतना ही है.

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    8. @ मैंने हाँ में हां नहीं मिलाया तो मैं धर्म-खण्डक !!
      नहीं, आपने 'धर्म-मण्डक' कहने वाले प्रवीण शाह जी की हाँ में हां मिलायी इससे सिद्ध हुआ कि आप धर्म-खण्डक !!

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    9. मैं अपने विचार कहीं भी व्यक्त कर सकती हूँ, सार्वजनिक मंच पर भी, अपने विचार थोपने की कोशिश कभी नहीं की है मैंने । जिस तरह आपके अपने विचार हैं, वो सिर्फ आपके नहीं है, ऐसा सोचने वाले बहुत हैं, उसी तरह जो मैंने सोचती हूँ, ऐसा सोचने वाले भी बहुत हैं ...इसी पोस्ट पर देखिये समर्थन की भी टिप्पणियाँ हैं ....

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    10. @ अगर प्रवीण शाह जी के हाँ में हां मिलाने की ये उपाधि है, तो मुझे स्वीकार्य है ..
      क्योंकि मुझे उनकी बातें बिलकुल सही लगीं।

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  21. बहुत से कमेंट हैं, जोरदार बहस हुई होगी, फुर्सत में पढ़ूँगा...। अभी पोस्ट पढ़ कर इसके प्रथम पैरा के संबंध में कुछ लिखने का मन हो रहा है...

    (1) @सीता ने राम का साथ देते हुए, वनवास पाया। राम पुरुष थे, उन्होंने जो उचित समझा वही किया और सीता, स्त्री होने के नाते, बिना कोई सवाल किये, उनके साथ हो लीं।

    ...गलत। इस प्रकार से लिखना किसी पूर्वाग्रह का द्योतक है। राम के बार-बार मना करने पर भी सीता नहीं मानी। उन्होने अकाट्य तर्कों से राम को चुप करा दिया। राम को विवश होकर सीता को साथ में लेकर वनवास जाना पड़ा।

    (2)सीता का हरण पुरुष रावण ने किया...गलत। सीता का हरण राक्षस रावण ने किया जिसका वध करने करने के लिए भगवान को अवतार लेना पड़ा। सीता मैया को भगवान राम ने पहले ही अग्नि देव को सौंपकर हमारे जैसे नादान मनुष्यों के समक्ष एक लीला की। जिसके जाल में राक्षस फंस गया।

    (3)निर्दोष सीता की अग्नि-परीक्षा ली गई।...नादान मनुष्यों ने समझा कि सीता को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी लेकिन वस्तुतः यह भगवान राम का सीता को वापस लाने का तरीका मात्र था।

    (4) एक अदना पुरुष (धोबी) की बात ही सुन कर, गर्भवती सीता को जंगल में अकेला छोड़ आने का आदेश, राम ने, लक्ष्मण को दे दिया। ...ऐसा उन्हें तत्कालीन राजधर्म को पालन करने के लिए करना पड़ा। जिसे उन्होने व्यक्तिगत रूप से राम द्वारा किया गया अपराध माना।

    (5)अपनी पत्नी और पुत्रों की कोई जानकारी नहीं थी कि वो जिंदा हैं या मर गए!!!! ये बात गले नहीं उतरती।
    ..साधारण मनुष्यों को यह बात गले नहीं उतरती लेकिन यह राजधर्म था। यही पुरूषोत्तम की मर्यादा थी।

    (6)सीता एक ही काम अपनी मर्ज़ी से कर पाई, वो है 'आत्महत्या'...!! ...अर्ध सत्य। सीता ने संपूर्ण कार्य अपनी और भगवान राम की मर्जी से किया। यह एक काम उन्होने सिर्फ अपनी मर्जी से किया। यह उनकी ओर से मर्यादा पुरषोत्तम राम को अर्पित, मर्यादा का सर्वोच्च उदाहरण था। ..सीता मैया की जय।

    .....लेख के बीच के अंश पर फिर कभी। लेख के अंतिम पैरा से पूर्णतया सहमत।...आमीन।

    पुनश्चः पूरूष होने के नाते मेरा यह कमेंट भी पूर्वाग्रह मानकर खारिज किया जा सकता है लेकिन यह भी सत्य है कि पूर्वाग्रह से ग्रसित हो, राम जैसे चरित्र पर अतार्किक ढंग से उंगली उठाये बिना अपनी बात आसानी से कही जा सकती थी।

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    1. पुरुषों द्वारा रचित, पूर्वाग्रह से ग्रसित, अतार्किक बातें, यहाँ पहली बार नहीं कही जा रहीं हैं ....ये सब हम बहुत पहले से सुनते आ रहे हैं।

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    2. देवेन्द्र जी साधुवाद अपनी और से भी बातें स्पष्ट करने के लिए !

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  22. आँखें बंद करके किसी भगवान का भी अनुसरण करना भगवान का स्वयं अपमान है ऐसा मेरा मानना है | भगवान राम ने बहुत से ऐसे कार्य किये जिसे हमें फॉलो करना चाहिए, पर सारे नहीं | उनसे भी गलतियाँ हुई | अगर वो सीता के साथ खड़े होते तो क्या समाज में एक नया सन्देश नहीं जाता की जिसे तुमने अपना जीवन साथी चुना है उसके साथ खड़े रहो, उस पर पूरी तरह विश्वास करो | चलिए मान लेते हैं की उस समय की परिस्थिति ऐसी नहीं थी, पर आज भी क्या हम उसे ही रेफरेंस मानते रहें ? वक़्त बदल गया है , चीज़ों को बदल के देखना चाहिए |जो हो गया, उसमे क्या सही था क्या गलत था इसको समझना और आने वाली पीढी को समझाना , दोनों बहुत ज़रूरी है | वो भगवान् हैं तो उनके सारे कार्य को ज़बरदस्ती उचित ठहरा देना, मेरे हिसाब से गलत है | अगर हम ये कह देंगे की भगवान् राम ने ये गलती की तो इससे उनके द्वारा अन्य किये गए कार्य कमतर नहीं हो जायेंगे , वरन धर्म के नाते ही सही , समाज को पता चलेगा की ये कुछ ऐसा है जहाँ हम सभी को इम्प्रूव करना है |

    और हम कब तक ये "त्याग" करने वाली बात करते रहेंगे ? और अगर भगवान राम को इस बात का दुःख था तो भी क्या ये गलत नहीं था ? पहले तो आपने अपनी ही पत्नी के साथ गलत किया | दूसरा आपने उस धोबी की बात को भी सही बता दिया, जिसकी पत्नी नाव ना मिल पाने की वजह से नदी नहीं पार कर पायी और रात होने से पहले घर नहीं पहुँची| अगर धोबी को इतना विश्वास नहीं था अपनी पत्नी पर तो भगवान् राम का सीता के त्याग से ज्यादा, धोबी की पत्नी का धोबी को त्याग देना , मेरे हिसाब से बड़ा आदर्श माना जाता क्यूंकि अगर शादी का नियम अगर किसी ने तोड़ दिया था तो वो धोबी था, ना की उसकी पत्नी, या भगवान राम या सीता |

    मुझे लगता है की अपने धर्म में सही-गलत का निर्णय करना, हर धर्म के मानने वाले का मौलिक अधिकार है | और जितना मैंने पढ़ा है और समझा है , हिन्दू धर्म का ये हमेशा से सबसे बड़ा स्ट्रोंग पॉइंट रहा है | एक ही विष्णु का अवतार होते हुए भी राम और कृष्ण के बिहेवियर में बहुत बड़ा अंतर है | क्यूंकि परिवर्तन ही प्रकृति का नियम है | जबसे हिन्दू धर्म इन परिवर्तनों के प्रति उदासीन हुआ है, हमारे यहाँ भी कट्टरता बढ़ गयी है और हम पतन की और ही बढे | औरतों के समान अधिकार की बात के साथ-साथ ऐसे और भी कई मुद्दे हैं जो इसी कट्टरता के चलते ही पूरे देश को अन्दर से खोखला बनाते चले आ रहे हैं | पर हम हैं की धर्म के नाम पर कुछ भी करने को आमादा है, चाहे वो गलत हो या सही |



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    1. @ बहुत ही सलीके और संतुलित तरीके से सारे बातें समझा दी आपने, मुझे आपकी बातें बहुत-बहुत पसंद आयीं।
      सचमुच आप जैसे विचार वाले लोगों की बहुत-बहुत आवश्यकता है हमारे देश को, हमारे हिन्दू धर्म को।
      आपका आभार

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  23. सीता का राम के साथ अपनी इच्छा से वनवास जाना या माद्री का स्वेच्छा से सती हो जाने के लिए तैयार हो जाना यही बतलाता है कि स्त्रियों के मन में यह भावना ही भरी गयी थी कि पति के बिना उनकी कोई सद्गति नहीं है। पति का अनुसरण करना ही उनके जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। पति की हर आज्ञा का पालन करना , उन्हें ही अपने जीवन का स्वामी समझना ही परम स्त्रीधर्म है तो वे इस से अलग कोई निर्णय कैसे ले सकती थीं ??

    और इन तथ्यों को भी इतना महिमामंडित किया गया कि आनेवाली पीढ़ियों में भी स्त्रियाँ स्वविवेक से कोई निर्णय नहीं ले पातीं . स्वविवेक से निर्णय लेने का के लिए उनकी बुद्धि को विकसित होने का अवसर ही नहीं दिया गया। धर्मग्रंथों में एक से बढ़ कर एक स्त्रियों के त्याग और बलिदान के किस्से भरे पड़े हैं। जिन्हें पढ़कर आम स्त्री भी उसी राह पर चलने के लिए उद्धत होती है।

    एक आधुनिक युग का उदाहरण है। फिलिस्तीन की स्त्रियों पर एक documentary देख रही थी। वहां लडकियां suicide bomber बनने का ही लक्ष्य पालती हैं। कुछ लड़कियों के इंटरव्यू थे जिसमे उन्होंने कहा था, 'उनके स्कूल में एक सीनियर थी, वो suicide bomber बनने की ट्रेनिंग ले रही थी। सब उसे बहुत आदर से देखते थे और मैं और मेरी सहेलियां, भी उसकी तरह ही suicide bomber बनाना चाहती थीं।'

    कहा जाएगा कि इन लड़कियों ने तो खुद आत्महत्या की राह चुनी पर उनकी मेंटल कंडिशनिंग किसने की? उन्हें सही-गलत को परखने का अवसर तो नहीं दिया गया . उनके सामने suicide bomber को बहुत महिमामंडित किया गया .और उन्होंने वही बनने का सपना पाल लिया
    (यह महज एक उदाहरण है, किसी पौराणिक कथा के पात्र से कोई तुलना नहीं )

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    1. सही कहा स्त्री तो बस त्याग और बलिदान की प्रतिमूर्ति है, जिस स्त्री ने ये नहीं किया वो तो स्त्री कहलाने के योग्य ही नहीं है। भारत के गाँव -देहात में मेंटल कंडिशनिंग की शिकार महिलाएं बहुत देखने को मिलती है। अनगिनत महिलाएं ऐसी ही कंडिशनिंग की शिकार मिलेंगी जिनको पता भी नहीं होता कि उनका शोषण हो रहा है , उन्हें लगता है यही उनका जीवन और ऐसे ही उनको जीना है।

      बहुत सही उदाहरण दिया है तुमने मेंटल कंडिशनिंग का।

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  24. मुझे एक और बात याद आई, जो सोचने वाली है, पहले औरतों को धार्मिक ग्रन्थ पढने की आज्ञा नहीं थी। सोचने वाली बात ये है की ऐसा प्रतिबन्ध क्यों था ?

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    1. @ ताकि वे कुतर्कों से पुरुषों का भेज न खायं (मजाक ) :-) वैसे वैदिक काल में विद्वान् और शाश्त्रार्थ करने वाली विदुषियों का उल्लेख है -
      विद्योत्तमा याद हैं ? और गार्गी? द्रौपदी ने तो अपने तर्कों से पितामह भीष्म के छक्के छुड़ा दिए! बिना अध्ययन किये?

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    2. अच्छा है आपने 'मजाक' कह दिया..
      शायद कारण यह भी रहा हो, जब बिना अध्ययन के स्त्रियाँ छक्के छुड़ा सकतीं हैं तो पढ़ लिख कर बुद्धि-विवेक में ये कहाँ तक पहुँच जायेंगी !!! इसलिए इन्हें रोकना बेहतर होगा ....

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  25. अभी अभी ये समाचार पढ़ा ..आप भी देखिये और ज़रा गौर कीजिये ....हमारे सभ्य सुसंस्कृत समाज के बारे में ...

    http://in.news.yahoo.com/delhi-rape--lawyer-says-hang-victim-s-friend--071313247.html

    Meanwhile, a lawyer who volunteered to defend one of the six accused, Mukesh, brother of the main accused Ram Singh, said the victim and her friend were responsible for the assault.

    Manohar Lal Sharma, a 56-year-old Supreme Court advocate, said the victim's friend was responsible for the attack as the couple should not have ventured out on the streets at night.

    He further went on to say that he never heard of a respectable woman being raped in the country.

    Speaking to The Independent, Manohar said: 'I have not seen a single incident or example of rape with a respected lady. Even an underworld don would not like to touch a girl with respect.'

    Blaming the victim's friend, Manohar told The New York Times: 'This all happened because of the lust of the boy. This is the boy who should be hanged. He's responsible for everything. He should be punished.'

    In an interview with Bloomberg, Manohar was quoted saying that he was 'confident that the men will be proved innocent because there are a number of problems with the police investigation.'

    "We will plead not guilty. We want this to go to trial," Manohar told Reuters.

    "We are only hearing what the police are saying. This is manipulated evidence. It's all on the basis of hearsay and presumption."

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    @ सभी से,

    १- जब डिस्क्लेमर दिये जा रहे हों तो अपना डिस्क्लेमर भी बनता है... :)

    मैं जन्म से सनातनी हिन्दू हूँ, पिता यज्ञोपवीत धारण करते हैं व संध्या पूजा-पाठ भी, माता खाना बनाते व रोजमर्रा का काम करते समय भी मानस, हनुमान चालीसा, आरतियाँ व अन्यान्य श्लोकादि, जो कुछ भी उनको याद हैं गुनगुनाती रहती हैं... मेरे अब तक के अध्ययन व अनुभवों ने जो निष्कर्ष मुझे दिये हैं उनके आधार पर मैं मानता हूँ कि हमारे धर्मग्रंथ उस दौर के इंसान की ही रचना हैं जिस दौर का वह प्रतिनिधित्व करते हैं, रचनाकार अपने अच्छे या बुरे चरित्रों के माध्यम से अपनी सोच को ही पुष्ट कर रहा है यहाँ... इनके चरित्र स्वयं ईश्वर हैं या ईश्वरीय, इसमें मुझे संशय है... अत: मेरे लिखे को इसी दायरे में समझा जाये... अपन किसी की भावना को चोट नहीं लगाना चाहते यहाँ पर... जिसे लग रही हो, इस सब को एक संशयवादी की बक-बक समझ तुरंत खारिज कर सकता है...

    २- एक पोस्ट लिखी थी मैंने मानस में नारी विमर्श के बहाने : मुद्दों को कालीन के नीचे दबा देने से क्या वह हल हो जायेंगे ? (लिंक)... और आश्चर्य होगा सभी को जानकर कि 'नारी के विषय में नारी निंदक उद्गार व्यक्त करते हुऐ यह उद्धरण' अरविन्द मिश्र जी ने ही जाहिर किये थे... मुझे एक शब्द बहुत पसंद है 'क्षेपक'... हर कोई कहता है कि सनातन हिन्दू धर्म गतिशील व लचीला है... यही इसकी ताकत है, यदि यह भी हठी हो जायेगा तो अपना ही नुकसान करेगा... कितना अच्छा हो कि सबकी सहमति से नारी के प्रति अन्याय करते प्रसंगों को 'क्षेपक' मान हटाने की पहल की जाये...

    ३- @ अरविन्द मिश्र जी, सती के मामले में आप मेरी बात मान ही लीजिये... हो सकता है कि कुछ हंसते-हंसते भी सती हुई हों... उस समय इस प्रचलन का इतना गौरवगान व महिमामंडन जो होता था... देश-राष्ट्र व देशभक्ति की अवधारणा व उसके गौरवगान के चलते हंसते-हंसते शहीद आज भी होते ही हैं सिपाही... पर यदि सती प्रथा के मूल में जायेंगे तो यह मृतक की संपत्ति अपने पास रखने व उसकी विधवा की जीवन पर्यंत जिम्मेदारी न उठाने व उस काल में विधवाओं का नारकीय जीवन होने के कारणों से अस्तित्व में आई लगती है...

    ४- और हमेशा की तरह ही आज भी मेरे पास महामना सुज्ञ जी के लिखे का जवाब नहीं है... मैं समझ ही नहीं पाता कि वह क्या कहना चाहते हैं... मैं नतमस्तक हूँ ! आपके चरण कहाँ हैं महामना... :)


    आभार!


    ...

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    1. और हमेशा की तरह ही आज भी मेरे पास महामना सुज्ञ जी के लिखे का जवाब नहीं है... मैं समझ ही नहीं पाता कि वह क्या कहना चाहते हैं... मैं नतमस्तक हूँ ! आपके चरण कहाँ हैं महामना... :)

      :):) और मैं सोचती थी, शायद मैं ही एकमात्र मंदबुद्धि महिला हूँ ...:):) चलिए आज मुझे मेरा, इस बारे में खोया हुआ आत्मविश्वास वापिस मिला, बहुत दिनों से मैं संघर्षरत थी :):)
      आपका आभार !

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    2. चरणों को महत्व देना आपकी विचारधारा की सेहत के लिए उचित नहीं है वाणीदक्ष प्रवीण शाहजी!!:)

      दक्ष से याद आया शिव के अपमान से दुखी शिव पत्नी और दक्ष पुत्री नें उसी यज्ञ मेँ स्वयं को होम दिया था.शिवजी के जीते जी सती हुई थी यह प्रथम सती नाम की सती दाक्षायिणी. उस समय पति के अपमान पर बलिदान का कोई महिमामंडन प्रचलित नहीँ था

      आपको डिस्क्लेमर की क्या जरूरत, आप तो घोषित रूप से धर्म-द्वेषी (एकविशेष), धर्म-खण्डक, ईश-विरोधी और धर्मशास्त्र-निर्पेक्ष है. इन विषयों पर आपके विचार आपके ब्लॉग पर सार्वजनिक है.

      हम भी चाहते है धर्म-ग्रंथों मेँ यदि स्त्रीविरोधी क्षेपण है तो हटा दिया जाना चाहिए. किंतु घुमा फिरा कर उसी मंशा से तैयार अर्थोँ की उपेक्षा करते हुए वास्तविक अर्थ ग्रहण कर फिर भी यदि अभिप्रायः स्पष्ट स्त्रीविरोध ही साबित हो तो विदुषी स्त्रीयोँ की सलाह पर वह क्षेपण अवश्य निकाले जाने चाहिए.

      किंतु आपके लिखे को खारिज क्यों करना, जो है सो है विचारधारा ट्रांसपरेंट ही रहनी चाहिए......कहो मैं तो आपको समझ पाता हूँ,आप भी प्रयास करिए..... फिर भी न हो तो गोली मारिए (मतलब इग्नोर कीजिए)

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  27. आप सभी से ,
    इस पोस्ट का उद्देश्य सफल रहा, कितनी ही बातें जो हम स्त्रियाँ के मन में हमेशा से थीं, हम सोचतीं तो थीं परन्तु कह नहीं पातीं थीं, यहाँ वो बातें कहीं गयीं हैं
    वेद, पुराण, उपनिषद, रामायण, मानस इत्यादि में क्या लिखा गया है, उनका अर्थ क्या है, सच पूछिए तो आम स्त्री को उनसे कोई सरोकार नहीं है, मतलब सिर्फ इस बात से है, कि जनमानस ने क्या सुना और क्या समझा । मैने पचासों स्त्रियों से इस विषय में बात की है, और यकीन कीजिये सबके मन में ये सारे प्रश्न हैं, फर्क सिर्फ इतना है कि वो बोल नहीं पायीं हैं ....
    आप सबका आभार

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