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Friday, June 22, 2012

सिंथेसिस ऑफ़ कल्चर्स...

 भारतीय शादी में भारतीय दूल्हा दुल्हन विदेश में 
इन दिनों  एक विमर्श कईं जगह देख रही हूँ, सुहाग प्रतीकों को हिन्दुस्तानी महिलाएं धारण करें या न करें। सच पूछा जाए तो सिन्दूर को छोड़ कर और बाकि जितने भी सुहाग प्रतीक जो माने जाते हैं, बहुत पहले ही वो अपने दायरे से निकल चुके हैं। जैसे चूड़ियाँ, बिंदी, बिछुआ या बिछिया, पायल, मंगलसूत्र ...ये सब कुँवारी लडकियां भी आज से नहीं, बहुत पहले से पहनतीं हैं। यहाँ तक कि विधवाएं भी काली बिंदी और चूड़ियाँ  पहन लेतीं हैं, इसलिए इन प्रतीकों का सुहाग से कोई वास्ता नहीं है। हाँ सिन्दूर ही एक मात्र ऐसा प्रतीक है जिसे सही अर्थों में सुहाग चिन्ह माना जा सकता है। सिन्दूर को छोड़ कर सभी प्रतीक सुन्दरता के लिए ही व्यावहार में लाये जाते हैं। लेकिन वो दिन भी अब दूर नहीं जब सिन्दूर भी फैशन में आ जाएगा। अब नीचे के चित्र में देखिये रेखा ने सिन्दूर लगाया हुआ है। जबकि वो कम से कम अभी तो शादी-शुदा नहीं है। ये किसी फिल्म का दृश्य भी नहीं है, और तस्वीर बहुत हाल की है, तो हम तो इसे फैशन ही कहेंगे।


सुन्दरता का मानक अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग है, जैसे कहीं बहुत दुबला होना खूबसूरत माना जाता है तो कहीं भरा-पूरा बदन खूबसूरत कहा जाता है। यह सच है कि भारत में भारतीय परिधान के अंतर्गत इन सभी प्रतीकों का अहम् स्थान है, लेकिन अब दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। टी. वी., इन्टरनेट के माध्यम से अब हम दुसरे देशों की संस्कृति और पहनावे देख सकते हैं साथ ही उनको आत्मसात भी कर सकते हैं। परिधान हमेशा से संस्कृति का परिचायक रहा है, और संस्कृति समय के साथ बदलती है। मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ डाल  रही हूँ :

मनुष्य की आधारभूत,
भावनाओं पर, 
चढ़ते-उतरते,
नित्य नए, 
पर्दों का नाम ही,
'संस्कृति' है,

संस्कृतियाँ हमेशा, परिवेश के अनुसार बदलती है। हम जहाँ होते हैं उसी के अनुसार हमारी संस्कृति ढल जाती है। अब तो कनाडा में हिन्दू शादियों में दुल्हन सफ़ेद गाउन पहन रहीं हैं, तो क्या वो दुल्हन नहीं है, और क्या वो शादी, शादी नहीं है। एक तरह से आप देखें तो 'सिंथेसिस ऑफ़ कल्चर्स' अब हर जगह नज़र आता है । पहले लोग जहाँ जाते थे वहां की संस्कृति अपने हिसाब से अपना लेते थे, लेकिन अब संस्कृतियाँ लोगों तक पहुँच रहीं हैं। अपनी संस्कृति को बचाते हुए, अपनी संस्कृति में तब्दीलियाँ लाते हुए, दूसरी संस्कृति को अपनाना, मनुष्य की आधारभूत भावना है । इस बचाने-अपनाने में कुछ तो खोना पड़ता ही है, इस बात का खुलासा मैंने बहुत पहले अपनी एक पोस्ट पर किया था 'हिन्दू दुल्हन मुस्लिम दुल्हन ' । परिधान की रूप-रेखा अब सामाजिक ज़रुरत कम व्यक्तिगत पसंद ज्यादा है। पहले हम दूसरों के लिए कपडे पहनते थे, इस बात का ख्याल रखा जाता था कि  'लोग क्या कहेंगे', अब ऐसा नहीं है। व्यक्तिगत मूल्यों ने सामजिक सरोकारों को तूल  देना बंद कर दिया है। 

वैसे भारत में ही इन प्रतीकों के इस्तेमाल में फर्क है, कई स्थानों में हिन्दू विवाहों में, सफ़ेद पोशाक में विवाह का चलन है, जैसे शायद केरल में। जबकि उत्तर भारत में इस रंग को शोक का रंग माना जाता है। भारत में ही पंजाबियों में सिन्दूर का उतना चलन नहीं है। साउथ में भी सिन्दूर नहीं लगातीं हैं स्त्रियाँ। वहां मंगलसूत्र पहना जाता है, जब कि मंगलसूत्र का चलन बिहार और झारखण्ड या बंगाल में नहीं है। 

विदेशों में हो रही हिन्दू शादियों में भी, लाल अथवा पीले वस्त्रों में सजी दुल्हन अब कम ही देखने को मिलती है। विदेशों में तो सिन्दूर लगाई हुई, नयी दुल्हन नज़र नहीं हीं आतीं हैं। यह बदलाव यहाँ के परिवेश के हिसाब से हो रहा है। सिन्दूर जैसे प्रतीक, अपना मूल्य खो रहे हैं और दुसरे प्रतीक उनका स्थान ले रहे हैं, जैसे शादी का प्रतीक यहाँ 'अंगूठी' है, आप किसी के हाथ में, महिला हो या पुरुष अगर अंगूठी देखते हैं तो आप जान जाते हैं कि वो 'शादी-शुदा' है।  कितने पुरुष जब फ्लर्ट करते हैं तो सबसे पहले वो अपनी अंगूठी उतारते हैं, यह दिखाने के लिए कि वो 'अवेलेबल' हैं। :)

साड़ी के साथ सिन्दूर 

पाश्चात्य परिधान बिना सिन्दूर के 

अब इन प्रतीकों का इस्तेमाल ज़रुरत और कम्फर्ट के हिसाब से किया जाता है, मसलन अगर स्त्री साड़ी पहनेगी तो इन प्रतीकों का इस्तेमाल करेगी, क्योंकि ये प्रतीक इस लिबास के हिसाब से माफिक बैठते हैं । लेकिन अगर वही स्त्री कोई वेस्टर्न ड्रेस पहनेगी तो इन प्रतीकों का इस्तेमाल नहीं करेगी, क्योंकि ये प्रतीक उस परिधान के अनुकूल नहीं हैं। जो रोज़ सिन्दूर लगातीं हैं, वो वेस्टर्न ड्रेस नहीं पहनती हैं, और अगर वो वेस्टर्न ड्रेस पहनतीं हैं और सिन्दूर लगाना ही चाहती हैं तो फिर वो ऐसे लगातीं हैं कि नज़र न आये। हाँ भारतीय पति, सास, ननद  ज़रूर चाहते हैं कि उसकी पत्नी या बहू ये सारे प्रतीक पहने, कारण कई हैं:
  1. महिला सुन्दर लगती है।
  2. पति को अच्छा लगता है, उसके नाम का सिन्दूर पत्नी ने लगाया हुआ है।
  3. कहीं परिवार वालों के मन में एक सुरक्षा की भावना आती है, शादी-शुदा स्त्री के साथ कोई बत्तमीजी नहीं करेगा , सिन्दूर का उपयोग एक सुरक्षा कवच देता है। हालांकि ये एक भ्रम ही है।
  4. यह भी भ्रम ही सही, सिन्दूर न सिर्फ पत्नी को सुरक्षा कवच देता है बल्कि पति को भी देता है। इसे नहीं लगाना अशुभ माना जाता है, ख़ास करके पति के जीवन के लिए। पति तो फिर भी झेल जाए सास को अपने बेटे की सुरक्षा की ज्यादा चिंता होती है, इसलिए वो चाहती है बहू  सिन्दूर लगाए।
  5. पति को पत्नी पर अपना आधिपत्य नज़र आता है। उसे इस बात का संतोष होता है कि उसकी पत्नी सिर्फ उसकी है। जिन्हें इसकी आदत होती है, नहीं लगाने पर आशंकित रहते हैं कहीं कुछ अप्रिय घटित हो न जाए।
हमारे पुरखों ने बहुत सोच-समझ कर सिन्दूर का आविष्कार किया था। प्राचीन काल में सिन्दूर पारे से बनता था, और पारा बहुत भारी धातु है, Mercury को Oxidize करके बनता है, मरक्युरिक ऑक्साइड( Mercuric Oxide ) (HgO) जिसका रंग लाल या नारंगी होता है। कहते हैं खोपड़ी के बीचो-बीच, जहाँ अक्सर स्त्रियाँ माँघ  निकालती है, वहाँ एक तंत्रिका गुजरती है, जो शारीरिक उत्तेजना के लिए जिम्मेदार होती है। मरक्युरिक ऑक्साइड जैसे भारी धातु के दबाव से, ऐसी उत्तेजना में कमी आती है, इसलिए हमारे पूर्वजों ने इसका चलन चलाया। ताकि स्त्री की कामेक्षा संयमित रहे।

गौर से देखा जाए तो यह गलत ही हुआ है, स्त्रियों के लिए तो कामेक्षा को वश में करने की औषधि का आविष्कार हो गया, लेकिन पुरुषों के लिए ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया। सिन्दूर का उपयोग, सांस्कृतिक, और सौन्दर्य बोध के लिए तो ठीक है, लेकिन इसके पीछे की मंशा, अप्राकृतिक रूप से इच्छाओं का दमन करना, स्त्रियों का दोहन ही माना जाएगा।

मैं सिन्दूर या अन्य सुहाग प्रतीकों का प्रयोग, स्त्री की अपनी मर्ज़ी से करने में विश्वास करती हूँ। इनके प्रयोग के लिए किसी पर कोई दबाव डालने के पक्ष में नहीं हूँ। अब समय आ गया है, कि हर स्त्री कम से कम अपनी देह पर अपना अधिकार रखे, उसे क्या पहनना है, कैसे पहनना है यह उसके अपने विवेक की बात होनी चाहिए। समाज का इसमें कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। आज तक संस्कृतियों को जीवित स्त्रियों ने ही रखा है, आगे भी जो बदलाव आएगा, वही करेंगी। 

बाकी बातें पति-पत्नी के आपसी प्रेम पर भी निर्भर करता है। ये सारे प्रतीक, थोथे हैं अगर आपस में प्रेम, विश्वास, आस्था नहीं है। आपको पसंद है आप ज़रूर लगाइए, लेकिन अगर कोई नहीं लगाती तो उसकी आलोचना मत कीजिये, न ही उसे बाध्य कीजिये । मैं ये सारे काम इसलिए नहीं करती,  क्योंकि मैंने भारतीय संस्कृति को आगे बढाने का ठेका लिया हुआ है, मैं सिर्फ इसलिए करती हूँ क्योंकि मुझे अपने पति से अगाध प्रेम है, और उनको मुझसे, और मेरे लिए यही सबसे बड़ा सच है।