Thursday, April 23, 2015

पर पर....:)



सुनो !
अभी रुको !
अब मुझे जाना है :(
पर रुको न, थोड़ी देर,
पर मैं जा रही हूँ
पर.…
पर मैं चलती हूँ
पर… ओके बाय
उसके बाद 
मेरी पर, पर
उसकी पर ने
ऐसा पर मारा कि
मेरे पर बिखर गए
और उसके पर निकल आये
हमदोनों के 'पर'
कितने जुदा थे :)

10 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (24.04.2015) को "आँखों की भाषा" (चर्चा अंक-1955)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।

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    1. राजेंद्र जी,
      आपका बहुत-बहुत आभार !

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  2. सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
    शुभकामनाएँ।
    मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।

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  3. सबके पर अलग अलग होते हैं....और स्व भी.....

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    1. अभिषेक जी,
      सही कहा आपने।

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    2. बहुत-बहुत शुक्रिया मन-के-मनके जी।

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  4. थोड़े शब्दों में बहुत ही बड़ी बात कह दी आपने......बहुत अच्छी लगी यह नज़्म

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