Friday, November 14, 2014

अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे ....



अवधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद में भूपति लै निकसे ।
अवलोकि हौं सोच बिमोचन को ठगि-सी रही, जे न ठगे धिक-से ॥
'तुलसी' मन-रंजन रंजित-अंजन नैन सुखंजन जातक-से ।
सजनी ससि में समसील उभै नवनील सरोरुह-से बिकसे ॥

 

तन की दुति श्याम सरोरुह लोचन कंज की मंजुलताई हरैं ।
अति सुंदर सोहत धूरि भरे छबि भूरि अनंग की दूरि धरैं ॥
दमकैं दँतियाँ दुति दामिनि ज्यों किलकैं कल बाल बिनोद करैं ।
अवधेस के बालक चारि सदा 'तुलसी' मन मंदिर में बिहरैं ॥


वर दन्त की पंगति  कुंद कली,अधराधर पल्लव खोलन की    
चपला चमके घन बीच  जगे, ज्यूँ मोतिन माल अमोलन की     
घुन्घरारी लटें  लटकें मुख  ऊपर    ,कुंडल लोल कपोलन की
 न्योछावरी प्राण करें तुलसी, बलि जाऊं लला इन बोलन  की

Monday, November 3, 2014

TROPHY WIVES... !!


तलाक़-तलाक़-तलाक़...
इस्लामी शरीयत में ये शब्द मात्र शब्द नहीं हैं, ये है शब्दों की सुनामी...जो पल भर में ही पति-पत्नी के रिश्तों को तहस-नहस करके इतना सड़ा-गला देती है...जिनको फिर से खड़ा करना मुश्किल ही नहीं, असंभव हो जाता है और इसके co-lateral damage बनते हैं, बच्चे, बूढ़े माँ-बाप, और न जाने कौन-कौन । कितनी ही जिंदगियों के भूत-वर्तमान-भविष्य मटिया-मेट हो जाते हैं...लेकिन सबसे ज्यादा आहत होती है, वो परित्यक्ता स्त्री जिसके स्वाभिमान, सम्मान, अभिमान और मनोबल की धज्जियाँ, चिंदी-चिंदी होकर उसके सामने बिखर जातीं हैं...जिनको समेटने में उसकी उम्र भी कम पड़ जाती हैं । हर मुस्लिम औरत, चाहे वो अभिजात्य वर्ग की हो या मामूली घराने से या कि किसी निचले तबक़े से, इसी दहशत में उम्र गुजारती है..न जाने कब ये क़हर, किस दम उसपर टूट पड़े...

इस्लामी शरीयत द्वारा, मुस्लिम पुरुषों को दिया गया ये एक ऐसा वीटो पावर है..जिसपर प्रश्न करने का अधिकार किसी को नहीं होता । यहाँ तक कि उसकी अपनी पत्नी तक को नहीं होता । 'तीसरा' शब्द 'तलाक़' का, ताबूत पर आखरी कील की तरह होता है । निक़ाह का क़ानून शरीयत में बिलकुल माफ़िया क़ानून की तरह है..जिसमें आप आते तो अपनी 'तथाकथित' मर्ज़ी से हैं, लेकिन जाते आप दूसरी पार्टी की मर्ज़ी से हैं...

त्रासदी यह है जो निक़ाह, बिना स्त्री के मर्ज़ी के हो ही नहीं सकता.…जिस शादी को जायज बनाने के लिए, क़ाज़ी बार-बार दुल्हन से पूछता है...क्या आपको ये निकाह क़बूल है...और जो निक़ाह दुल्हन के 'क़बूल है' कहने पर ही मक़बूल होता है..उसी शादी को, नाजायज़ बनाने के लिए...सिर्फ और सिर्फ शौहर की मर्ज़ी मानी जाती है...उस एक शक्स के हाथ में ये पावर किस हिसाब से दे दिया जाता है ??? उस शादी में तलाक़ बिना स्त्री के मर्ज़ी के, किस आधार पर और कैसे हो जाता है...???

क्या पत्नी को भी, सिर्फ तीन शब्द 'तलाक़' के बोल कर, अपने पति को तलाक़ देने का अधिकार है ???? क्योंकि ये तो हो नहीं सकता, स्त्री में ही सारी कमियाँ होतीं हैं...अगर पति नकारा हो, दुर्गुणों की खान हो और उसकी पत्नी उसके साथ नहीं रहना चाहती, तो उसके लिए क्या प्रोविजन है ???

'हलाला'....एक अलग प्रकरण है...जिसमें नारी के अपमान की सभी हदें पार हो जातीं हैं...अगर पति या दम्पति, तलाक़ हो जाने के बाद यह महसूस करता है कि यह गलत हुआ...और वो इस ग़लती को सुधारते हुए, दोबारा एक साथ अपना जीवन बिताना चाहते हैं...तो वो सीधे-सीधे पुनर्विवाह नहीं कर सकते...इसमें भी औरत को ही बलि का बकरा बनना पड़ता है...

अपने पति (जिसने उसे तलाक़ दिया है ) से पुनर्विवाह करने के लिए, औरत को किसी दूसरे व्यक्ति से विवाह करना पड़ता है...ज़ाहिर सी बात है कि उस विवाह के लिए भी उसे 'क़बूल है' कहना पड़ता है...इतना ही नहीं उसे उस व्यक्ति के साथ निर्धारित अवधि के लिए हम-बिस्तर भी होना पड़ता है...जो सरासर वेश्यावृत्ति है...फिर अगर दूसरा पति उस स्त्री को तलाक़, जो फिर एक बार उस पुरुष की इच्छा पर निर्भर करता है, दे देता है, तब जाकर यह जोड़ा, पुनर्विवाह कर सकता है...इन सारी टेक्निकालिटी में एक और परिवार हलाक़ होता है...
एक स्त्री की अस्मिता को, तार-तार करने का इससे बेहतर तरीक़ा और क्या हो सकता है भला !! ये एक बिलकुल सोची-समझी साज़िश है...ताकि वो औरत अपनी नज़र में ऐसे गिरे कि फिर कभी उठ ही न पाए...

इस सारे प्रकरण में, स्त्री अपने हक़ का इस्तेमाल, सिर्फ 'क़बूल है' तक ही कर सकती है । उसे वो निक़ाह 'क़बूल' करना होता है जब उसका पहला निक़ाह होता है, उसे वो तलाक़ 'क़बूल' करना होता है जो उसके पहले पति ने उसे दिया होता है, उसे वो शादी 'क़बूल' करनी होती है जो वो दूसरे पति से करती है । फिर उसे दूसरा तलाक़, जो उसे दूसरा पति, अपने साथ अपना अच्छा-ख़ासा समय बिताने के बाद देता है...उसे 'क़बूल' करना होता है...और अंत में वो अपनी शादी, पहले पति से 'क़बूल' करती है....न ही उसे अपने मन पर कोई इख्तियार होता है, न ही तन पर....वो तो कुछ समय तक, बस एक गेंद होती है, दो टीमों के बीच और बाद में बन जाती है एक ट्रोफी, जिसे जीतने वाला अपने साथ ले जाता है..एक जीती हुई ट्रोफ़ी की तरह ...वाह वाह ..!!  कौन कहता है हम सभ्य नहीं हैं...:):)

हाँ नहीं तो..!!

Tuesday, October 21, 2014

विजय की दुंदुभि....! (पुरानी पोस्ट)


ये उन दिनों कि बात है जब हम कनाडा नए-नए आये थे, पति श्री संतोष शैल को तुंरत ही भारत जाना पड़ा, IGNOU में अपना प्रोजेक्ट ख़तम करने और मैं बच्चों के साथ कनाडा में अकेली रह गई । बच्चे काफी छोटे थे ५,४,२ वर्ष, उन दिनों मैं Carleton University में एक course भी ले रही थी और पढ़ा भी रही थी । संतोष जी को भारत गए हुए ६ महीने हो गए थे, अकेले सब कुछ सम्हालना बहुत कठीन हो रहा था लेकिन हम औरतें बड़ी जीवट होतीं हैं, सम्हाल ही लेती हैं सब कुछ, सो मैंने भी सम्हाल ही लिया । क्योंकि University से घर और घर से University यही मेरी दिनचर्या थी इसलिए जीवन भी बड़ा सपाट सा था । 

उनदिनों मैं ड्राइव नहीं करती थी इसलिए कहीं घूमने जाना भी मुश्किल था । घर का सामान University आते-जाते ही ले आया करती थी । नयी जगह थी इसलिए पहचान के लोग न के बराबर थे और अगर घर में कोई पुरुष ना हो तो हम महिलाएं वैसे भी लोगों से कन्नी कटा ही लेतीं हैं । खैर ६ महीने तक लगातार नए देश की परेशानियों का मुकाबला करते-करते कुछ अच्छा सा और कुछ नया सा करने की सोच बैठी मैं । मैंने सोचा क्यों न मेरे क्लासमेट्स, जिनसे अब मेरी अच्छी पहचान हो गयी है, उन्हें घर बुला कर खाना खिला दूँ । इससे घर में थोड़ी चहल-पहल भी जायेगी और मेरा, मेरे बच्चों का थोड़ा मन भी लग जायेगा । मैंने अपने क्लास की पांच लड़कियों को आमंत्रित कर लिया, और हमारे प्रोफ़ेसर Wornthorngate, जिनसे ये लड़कियाँ काफी घुली-मिली थी, उन्हें भी बुला लिया ।

सबने अपनी तरफ से इच्छा व्यक्त कि मैं फलाँ चीज़ बना कर ले आऊँगी, मुझे फलाँ चीज बनाना अच्छी तरह आता है, मैं समझ नहीं पा रही थी कि जब आमंत्रण मैं दे रही हूँ तो खाना लाने कि बात ये क्यों कर रही हैं, मुझे मामला समझने में थोड़ा वक्त लगा लेकिन बात समझ में आई, वो 'potlak ' करने की बात कर रही थीं । ये एक नयी खबर थी मेरे लिए, हम हिन्दुस्तानी तो मेज़बान के घर सिर्फ मेहमान बन कर ही जाते हैं । खाना लेकर जाने की परम्परा हमारी है ही नहीं ।

खैर जब मुझे बात समझ में आई तो मैंने बड़े साफ़ शब्दों में मना कर दिया कि दावत मैं दे रहीं हूँ इसलिए खाने की जिम्मेवारी सिर्फ और सिर्फ मेरी है । सारी लड़कियाँ मुझसे सहानुभूति जताती रहीं, पूछती रहीं 'Are you sure ? और मेरी गर्दन 'Absolutely sure ' में हिलती रही । वह सोमवार का दिन था और पार्टी शनिवार को थी, सबने मुझे एक और सलाह देना शुरू कर दिया कि तुम रोज-रोज कुछ-कुछ बना कर freez करती जाओ तो आसानी रहेगी । अब यह भी मेरे लिए नयी खबर थी, पार्टी जब शनिवार को है तो मैं सोमवार को खाना क्यूँ बनाऊं ? आमना (५ सहेलिओं में से एक ) ने कहा हम तो ऐसे ही करते हैं, पार्टी के ५-७ दिन पहले से ही खाना बनाना शुरू करते हैं freezer में रखते जाते हैं, और पार्टी वाले दिन गरम करके परोस देते हैं । मैं तो आसमान से गिर गयी !! मुझे सबसे पहले मेरे बाबा की याद आ गई। सुबह की बनी हुई सब्जी अगर शाम को दिखा भी दो तो चार बातें सुना देते हैं और अगर जो कहीं ई पता चल जावे कि खाना सात दिन पुराना है, तब तो ऊ घर छोड़ हरिद्वारे में जा बैठते।  हम सबसे कह दिए कि भाई-बहिन लोग हम कौनो ५६ भोग नहीं बनाने वाले हैं, कुल मिला के जो ५-६ आईटम होगा हम उसी दिन बनावेंगे। लेकिन हमरी इस बात पर इस पार्टी की सफलता संदेहास्पद हो गयी थी और सबलोग हमको अविश्वास भरी नज़रों से देखने लगीं थीं ।


खैर, राम राम करके वो दिन आ ही पहुँचा, मैंने सुबह उठ कर सारा घर ठीक-ठाक किया, बच्चों ने भी दौड़-दौड़ कर मेरी पूरी मदद की, घर चमचमा उठा और हम सबके चेहरे महकने लगे । कितने दिनों बाद घर में कुछ अलग सा हो रहा था, सारे पकवान बस बनते चले गए । कहीं कोई परेशानी नहीं हुई, बच्चों ने टेबल ठीक किया, खुशबूदार मोमबत्ती जला कर हम मेहमानों के आने का इंतज़ार करने लगे । 

ठीक टाइम से सभी मेहमान आ गये, कुछ फूल लेकर आये, और कुछ wine ।  हमारे प्रोफ़ेसर साहब भी wine लेकर आये । दावत शुरू हो गयी, पीने के लिए पानी, जूस, कोला वैगेरह सामने रख दिया गया था । सभी अपने अपने तरीके से खाने में जुट गए, कोई सिर्फ चिकन खाता तो कोई सिर्फ सब्जी, किसी ने दाल को soup ही बना दिया, किसी ने सलाद से प्लेट भर ली, मेरे और बच्चों के लिए यह एक नया अनुभव था, हम आपस में एक दूसरे को कनखियों से देख मुस्कुराते रहे । सबने खाने की बहुत-बहुत तारीफ की । 

मैंने प्रोफ़ेसर साहब से कहा कि 'संतोष जी' तो यहाँ हैं नहीं इसलिए जो wine आपलोग लेकर आये हैं, आप लोग ही पी लीजिये। सबको यह आईडिया बहुत पसंद आया, wine की बोतलें खुल गयीं, साथ ही बातों का सिलसिला भी शुरू हो गया । सबको मेरे और मेरे घरवालों के बारे में जानने की उत्सुकता थी जो-जो वो पूछते गए मैं बताती चली गई । इसी दौरान प्रोफ़ेसर साहब ने पूछ ही लिया 'तुम्हारे पति कबसे बाहर हैं ? मैंने कहा जी ६ महीने से, उनकी आखें फटी कि फटी रह गयी ६ महीनेनेनेने से ? इतना खींच कर और इतना जोर देकर उन्होंने कहा कि मैं सोचने लगी कहीं मैंने गलती से ६ साल तो नहीं कह दिया। अंग्रेजी में बात कर रही थी क्या पता मेरी ज़बान शायद फिसल गयी हो, मैंने दोबारा कहा 'yes 6 months ' और इस बार मैंने याद भी रखा की 6 महीने ही कहा है । तुम्हारे पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है ? उनके चेहरे पर आश्चर्य के इतने भाव आ गये कि मैं घबड़ा गयी, जल्दी से मैंने कहा उन्होंने मुझे छोड़ा नहीं है वो प्रोजेक्ट पूरा करने भारत गए है, मेरी बात को फुस से हवा में उड़ाते हुए उन्होंने कहा 'फिर भी जिस पति ने तुम्हें ६ महीने से छोड़ रखा है ऐसे पति की तुम्हें ज़रुरत क्या है ?' मुझे यूँ लगा किसी ने मेरे गाल पर कस कर चाँटा मार दिया हो, मैं कुछ कहना चाह रही थी मगर कैसे कहूँ एक तो वो मेरे मेहमान, दूसरे मेरे प्रोफ़ेसर, तीसरे अंग्रेज, चौथे सारे स्टूडेंट्स के सामने, मैं कुछ कहूँगी तो इनको कहाँ बात समझ आएगी ?? मैं उस दिन कुछ भी बोल नहीं पाई । 

वो कहते जा रहे थे, तुम्हें कोई दूसरा आदमी देखना चाहिए, ऐसा करता हूँ और आमना की तरफ मुख़ातिब होकर कहा ; तुम आज रात इसे बाहर ले जाओ, किसी नाईट क्लब में, लोगों से मिलाओ, अगर थोड़े दिनों तक लोगों से मिलती रहोगी तो कोई न कोई तो मिल ही जाएगा और हाँ अपने उस पति को छोडो जिसे तुम्हारी बिलकुल परवाह नहीं हैं, क्यों उसके लिए बैठी हो ? मैं स्तब्ध होकर सबका मुँह ताकती रह गयी । आमना मुस्कुराती हुई मेरे पास आई, कहा 'ठीक है मैं रात ९:३० बजे आऊँगी तैयार रहना, तब-तक तुम्हारे बच्चे भी सो जायेंगे, तुम्हें २ बजे रात तक मैं वापस छोड़ जाऊँगी, कोई दिक्कत भी नहीं होगी । मैं आवक, मुंह बाए देखती रह गयी, मैंने कहने की कोशिश की कि रात के ९:३० बजे घर से बाहर ?? वो टाइम तो घर में रहने का होता है बच्चों के साथ, सबने एक सुर में कहा 'It will be fun' आमना ने मेरे बड़े बेटे को बुलाया और कहा 'Your mom will be going out tonight, so take care of your brother and sister, OK ! मेरे बेटे ने स्वीकृति में सर हिला दिया, शाम के ६:३० बजे सबने प्रस्थान करने से पहले मुझे भरपूर हिदायत दी कि 'अच्छे' कपडे पहनूँ, और खुद को presentable बनाने की कोशिश करूँ।

उनके जाते ही मैंने दरवाजा भड़ाक से बंद कर दिया, मेरी आँखों से आँसू थम ही नहीं पाए मैंने अपने तीनो बच्चों को खुद से चिपका लिया। बच्चे टुकुर-टुकुर मेरा मुंह ताक रहे थे और पूछ रहे थे 'क्या हुआ मम्मी', मैं बस 'कुछ नहीं, कुछ नहीं ' कहती जा रही थी और मेरे आँसू बहते जा रहे थे । मेरे बड़े बेटे ने कहा 'मम्मी आप चिंता मत करो मैं निकी और चिन्नी को देख लूँगा, आप जाओ अपने फ्रेंड्स के साथ'। अपने ५ साल के बेटे से ऐसी बात सुनकर मेरा कलेजा मुंह को आ गया मैं मन ही मन कोस रही थी.. फ्रेंड्स ? ये फ्रेंड्स हैं ? ये अगर फ्रेंड्स हैं तो दुश्मनों की क्या ज़रुरत है ? फ्रेंड्स वो होते हैं जो टूटते घरों को टूटने से बचाते हैं, और ये दोस्त जहाँ ना आग है ना धुवाँ, वहाँ हाथ सेकने पहुँच गए, ६ महीने की परेशानी के लिए मेरे सात जन्म का रिश्ता इनके ९:३० से २ बजे तक में ख़त्म हो जायेगा.... कभी नहीं..., मैंने मेरे बेटे से कहा ' नहीं बेटा हम कहीं नहीं जा रहे है, आज तो हम बिलकुल भी कहीं नहीं जायेंगे, घर पर रहेंगे , तुम लोगों के साथ , जैसे रोज रहते हैं ' यह सुनकर मेरे बेटे के चेहरे पर जो ख़ुशी की लहर मुझे दिखी वो ख़ुशी यहाँ की ७००० क्लबों में ७००० वाट की ७००० बल्बस भी नहीं देंगी, मैंने उसी वक्त अपने पति को फ़ोन किया और कह दिया ' देखो !! तुम यहाँ की बिलकुल चिंता मत करो यहाँ सब कुछ ठीक है तुम आराम से अपना काम करो'। 

उस रात ९:३० बजे मेरे घर के दरवाज़े की घंटी बजती रही, लेकिन मैंने अपने बच्चों को और जोर से अपने से चिपका लिया और बिस्तर में और अन्दर दुबक गयी, सुख के सागर ने मुझे और मेरे बच्चों को अपने में समेट लिया, दरवाजे की घंटी, घंटी नहीं थी मेरे विजय की दुंदुभि थी, जो बजती ही जा रही थी....

Tuesday, October 14, 2014

यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ..? (Repeat)





मंजू दी, बस देख रहीं थीं अपने सामने अस्पताल के बेड पर पड़े, रमेश जीजा जी के निर्जीव शरीर को। छह फीट का इंसान, चार फीट का कैसे हो जाता है ?  वो चेहरा जो कभी, मन मंदिर का देवता था ..आज ....!!! मंजू दी की आँखों में अजीब सा धुवाँ समाने लगा था । पुरानी संदूक से निकले, फटे चीथड़ों सी यादें आँखों के सामने लहराने लगीं, पर एक मुट्ठी लम्हा भी वो समेट नहीं पायीं, जो उनका अपना होता । उनकी आँखों में सूखे सपनों की चुभन, हमेशा की तरह आज भी उन्हें महसूस हो रही थी । 

मंजू दी को आज नियमतः रोना चाहिए था, क्योंकि आज वो विधवा हो गयीं हैं,  और विधान भी यही है । लेकिन वो चाह कर भी रो नहीं पा रही थी । अन्दर ही अन्दर वो आधी कीचड़ में डूब गईं थीं, अगर जो कहीं वो रो पड़ीं, तो शायद भरभरा कर ढह जायेंगी । कमरे में डॉक्टर, नर्स,  मशीनों को और जाने क्या-क्या, अगड़म-बगड़म समेटने में लगे हुए थे । सबके चेहरों पर वही रटी-रटाई ख़ामोशी की चादर चढ़ी हुई थी । कुछ इस्पाती नज़रें, मंजू दी पर, इस आस से टिकी हुई थीं कि अब उन्हें बुक्का फाड़ के रोना चाहिए । लेकिन उनकी आशा के विपरीत मंजू दी ने अपना पर्स उठाया, डॉक्टर से कहा कि "बोडी मेरा छोटा भाई ले जाएगा ।" डॉक्टर ने अपनी तरफ से उन्हें याद भी दिलाया "मिसेज पाण्डेय आई एम रीअली सॉरी फ़ॉर योर लोस...वी डिड आवर बे ..." बीच में ही मंजू दी ने बात काट दी "इट्स ओ . के ....रीअली ..." और वो इत्मीनान से बाहर निकल आयीं ।

मंजू दी की 30 साल की गृहस्थी में से 25 साल की गृहस्थी की कुल जमा पूँजी थी अविश्वास और धोखा । रमेश पाण्डे अपने आप में एक बड़ा ही मशहूर नाम था, उस ज़माने में, ख़ास करके रांची जैसी छोटी जगह के लिए । हैंडसम इतना कि ग्रीक गॉड पानी भरते नज़र आते थे, उसपर से उनका डॉक्टर होना, मतलब ये कि एक तो करेला ऊपर से नीम चढ़ा । अगर जे डॉक्टर नहीं बनते तो हीरो बन ही जाते, धर्मेन्द्र भी उनसे उन्नीस ही पड़ते।

मंजू दी मेरी मौसेरी बहन थीं । मेरी मौसी ने एक चाईनीज डेंटिस्ट से शादी की थी । रांची में पहले सारे डेंटिस्ट चाईनीज ही हुआ करते थे । खैर, मेरे चाईनीज मौसा का क्लिनिक रांची के बहुत ही मेन इलाके में था/है और उनका नाम भी बहुत था, इसलिए मेरी मौसी का घर, रांची के गिने-चुने अमीरों में माना जाता था । कालान्तर में मौसी के दो बच्चे हुए, मंजू दी और प्रदीप भैया । पैसा, पावर, पोजीशन ने, हमेशा ही हमारे परिवार के बीच एक फासला रखा । ऐसा नहीं था कि हमारे परिवार के बीच प्रेम नहीं था, था बिलकुल था, लेकिन कहीं, कोई एक अनकहा सा फासला तो था ही ।

मंजू दी उन दिनों मास्टर्स कर रहीं थीं । पता नहीं क्यूँ अचानक उनके बाल बहुत गिरने लगे । सारे घरेलू नुस्खे आजमा लिए गए, लेकिन कुछ कारगर नहीं हुआ । हार कर उन्होंने डॉक्टर के पास जाना ही उचित समझा । खैर, किसी ने नाम बता दिया "डॉक्टर रमेश पाण्डे", बहुत अच्छे हैं ऐसी बातों के लिए । बस मंजू दी पहुँच गई उनको दिखाने । डॉक्टर रमेश की दवा का असर हुआ या नहीं ये तो मालूम नहीं, लेकिन डॉक्टर रमेश का असर ज़रूर हुआ था । फिर जैसा कि होता है, ख्वाहिशों, सपनों ने, हकीक़त के मुखौटे पहन लिए । शिद्दत ने मुद्दत की मियाद कम कर दी और एक दिन, मंजू दी मिसेज पाण्डे बन गयीं । मैं छोटी थी, लेकिन गयी थी उनकी शादी में, बाल मंजू दी के कम ही दिखे थे मुझे, लेकिन चेहरे पर खुशियों का अम्बार लगा हुआ था । मौसी भी फूली नहीं समा रही थी, सबकुछ पिक्चर परफेक्ट लग रहा था।

थोड़े ही दिनों में, डॉ. रमेश, जो अब मेरे जीजा जी भी थे, ने अपना क्लिनिक मौसी के क्लिनिक में शिफ्ट कर लिया । जगह के बदलते और एक नामी क्लिनिक में जगह मिलते ही, रमेश जीजाजी की प्रैक्टिस चमचमा गई । मंजू दी की ज़िन्दगी बड़े सुकून से बीतने लगी, और इसी बीच उनकी 2 बेटियाँ भी हो गयीं ।

अब, प्रदीप भैया (मंजू दी के छोटे भाई) की भी शादी हो गयी । घर में जब, नई बहू आई तो हिस्से की बात भी हुई । वो क्लिनिक जिस में, रमेश जीजाजी ने अपनी प्रैक्टिस चला रखी थी, अब प्रदीप भैया को भी चाहिए थी क्योंकि प्रदीप भैया भी डेंटिस्ट थे । यहीं से खटराग शुरू हो गया । रमेश जीजाजी जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे और प्रदीप भैया उनको देने को तैयार नहीं थे । मंजू दी इनदोनों के बीच पिस रही थी । आखिर दीदी ने जीजाजी से कह ही दिया, मेरे छोटे भाई का हक मैं नहीं मार सकती, आपको ये जगह छोडनी ही होगी । फ़ोकट की जगह छोड़ना, नयी जगह ढूंढना, फिर से क्लाएंट बनाना, उतना आसान नहीं था । फिर जीवन का स्तर भी तो बहुत ऊँचा था, वहाँ से नीचे उतरना भी कब किसे मंज़ूर होता है ! लेकिन उसे मेंटेन करना भी मुश्किल था ।

खैर, रमेश जीजाजी ने, दूसरी जगह अपना क्लिनिक खोल तो लिया लेकिन वहाँ वो बात नहीं बनी जो उस नामचीन क्लीनिक में थी । अब वज़ह क्या थी, ये नहीं मालूम । किस्मत ने साथ नहीं दिया या रमेश जीजाजी मेहनत से क़तरा गए, पता नहीं । लेकिन कुल मिला कर बात ये हुई कि उनकी प्रैक्टिस लगभग ठप्प हो गयी । किसी के पास कुछ न हो, तो उसे उतना बुरा नहीं लगता है, संतोष कर लेता है इंसान कि चलो जी, हमारे पास तो है ही नहीं । लेकिन अगर किसी को सब कुछ मिल जाए और फिर छिन जाए तो उसे झेल पाना उतना आसान नहीं होता । कुछ ऐसी ही हालत, रमेश जीजाजी की भी हो गयी थी और इसी बात के लिए एक तरह से उन्होंने दीदी को सज़ा देना शुरू कर दिया । वो अपने क्लिनिक जाते ही नहीं घर का ख़र्चा चलाना मुहाल हो गया । दीदी को हार कर नौकरी करनी पड़ी । ख़ैर, जैसे-तैसे मंजू दी ने सब सम्हाल लिया । देखते-देखते पांच साल बीत गए । रमेश जीजाजी ने घर के लिए कुछ भी सोचना बंद कर दिया था, उनको हमेशा यही लगता रहा कि उनको, उनका हक नहीं मिला ।

ख़रामा-खरामा ज़िन्दगी, मुट्ठी से रेत की तरह फिसलती जा रही थी और मंजू दी अपने स्याह-सफ़ेद बेजान रिश्ते में रंग भरने की भरपूर कोशिश करती रही ।  ये कोशिश शायद रंग भी ले आती, अगर उस दिन अप्रत्याशित रिश्तों का बम, अपने रिश्तों पर न फूटता ।

वो एक आम सी सुबह थी, मंजू दी हर दिन की तरह, सारे घर के काम निपटाने में लगी हुई थी, उसे ऑफिस भी तो भागना था । सुबह के आठ बजे थे, कॉल बेल  बजने की आवाज़ से ही, मंजू दी झुंझला गयी, "कौन है ...??" का जवाब जब नहीं ही मिला तो, उन्होंने दरवाज़ा खोल ही दिया । सामने एक औरत और उसके साथ 3 जवान लडकियां खड़ीं थीं.. उन्हें लगा शायद कुछ बेचने, या चंदा माँगने आयीं हैं, झट से मना करके वो वापिस मुड़ी । "जी हमें डॉ. रमेश पाण्डे जी से  मिलना है", एक लड़की ने कहा । "अच्छा ! क्या काम है उनसे ? आपलोग क्लिनिक में क्यूँ नहीं जातीं, वो घर पर मरीजों को नहीं देखते हैं।" "जी हम मरीज नहीं हैं, ये मेरी माँ  हैं" थोड़ी अधेड़ उम्र की महिला की तरफ उस लड़की ने इशारा किया "और हम तीनों बहनें हैं। डॉ . रमेश हमारे पिता हैं ।" "क्याआआ ???" मंजू दी इतने जोर से चीखी, कि वो चारों भी एक बार को सहम गयीं । अब मंजू दी, आपे से बाहर हो गयीं "क्या समझती हो तुमलोग खुद को, किसी के घर पर आकर, कुछ भी अनाप-शनाप बक जाओगी ।" मंजू दी की आवाज़, बहुत तेज़ होती जा रही थी । शोर सुन कर रमेश जीजाजी भी आ गए, चारों स्त्रियों को देख कर, वो सकते में आ गए, उनकी चोर नज़रों ने,  इस बात की पुष्टि कर दी कि वो चारों सच कह रहीं थीं। जीजाजी ने उनलोगों का सामान, जो उस दिन घर के अन्दर पहुँचाया, फिर कभी वो सामान बाहर नहीं आया ।

पथराना किसे कहते हैं, वो हमने तब ही देखा था । उस दिन उस घर के दरवाज़े से, कुछ अनजाने, अनचाहे, अनबूझे रिश्ते अन्दर आये और, भरोसा, विश्वास, यकीन, जैसे भाव बाहर चले गए और साथ में चली गयी मंजू दी के होंठों की मुस्कान । रिश्तों की गर्माहट अब पूरी तरह ठंडी हो गयी थी । उसकी जगह शुरू हो गया, नित नए तजुर्बों का घाल-मेल, और नए ढर्रे से, पुराने रिश्तों को घसीटती हुई ज़िन्दगी । इत्ता बड़ा धोखा दिया था रमेश जीजाजी ने । अपनी पहली शादी की बात उन्होंने कभी नहीं बताई थी मंजू दी को, उसपर से 3 जवान लडकियां ?

अब शुरू हो गयी, कभी न ख़त्म होने वाली, जिम्मेदारियों की दौड़ । मंजू दी पर, अपनी दो बेटियों की जिम्मेदारी के अलावे, रमेश जीजाजी की 3 और बेटियों की जिम्मेदारी भी आ गयी । जद्दो-जहद की हर आँधी को चीरती हुई मंजू दी आगे बढ़तीं गईं, उन्होंने रमेश जीजाजी की लड़कियों की शादी की, अपनी बच्चियों का पढाया-लिखाया, उनको अपने पैरों पर खड़ा किया । इसी बीच रमेश जीजा जी बीमार हो गए, उनकी तीमारदारी में भी, कभी कोई कमी नहीं की, मंजू दी ने ।

आज जीजाजी अपने जीवन की आखरी घड़ियाँ गिन रहे थे अस्पताल में, और मंजू दी बैठीं थीं उनके सामने, उनकी आँखों में आँखें डाल कर और पूछ रहीं थीं उनसे, मैंने तो तुमसे माँगा था, हंसी-ख़ुशी का एक छोटा सा घोंसला और तुमने मुझे थमा दिए, बदरंग रंगों में लिथड़े कई अनचाहे रिश्ते । आखिर क्यों किया तुमने ऐसा ?   क्या जवाब देते जीजाजी, खैरात की ज़िन्दगी की मियाद पूरी हो चुकी थी और पाबन्दियाँ ख़त्म । और मैं सोचती रह गई, यहाँ मर्ज़ क्या था और मरीज़ कौन ???

Wednesday, October 8, 2014

दुर्गा पूजा और माँसाहार .....!

 

कई जगहों पर दुर्गा पूजा के दौरान माँसाहार खाने वालों के लिए छी-छी दुर-दुर होते हुए देखा । लेकिन इस त्योहार में माँसाहार सदियों पुरानी परंपरा है,  हमारे झारखंड-बिहार में आज भी बँगाल का प्रभाव देखने को मिलता है, क्योंकि दुर्गा पूजा का आविर्भाव ही बंगालियों की देन है । आज भी कई घरों में सप्तमी को मछली खा कर अष्टमी का व्रत किया जाता है । इन प्रदेशों में नवमी के दिन तो माँसाहार नितांत आवश्यक है, ग़रीब से ग़रीब इन्सान के घर में माँस पकता ही है । नहीं पकने का तो प्रश्न ही नहीं उठता । नवमी की सुबह मीट की दुकानों में भीड़ सुबह चार बजे से लग जाती है और मीट का भाव बढ़ ही जाता है । 

 

दुर्गा पूजा में मान्यता यह है कि माँ दुर्गा अपने मायके आईं हुईं हैं इसलिए उनके आने की ख़ुशी में खान-पान में कोई कमी नहीं रखी जायेगी । आज भी घर में कोई मेहमान आये तो उसके स्वागत लिए नॉन-वेज बनाना हमारे प्रदेशों की परम्परा है । हमारे घर कोई हमारे जैसा मेहमान आये और हम उसे कढ़ी-चावल या राजमा-चावल परोस दें तो वो दोबारा नहीं आएगा और बदनामी करेगा सो अलग :) अगर ये हमारी सदियों पुरानी परम्पराएँ हैं तो इसपर प्रश्न चिन्ह लगाने वाले दूसरे कौन होते हैं ???? 

 

जो परम्परायें हमें विरासत में मिली हैं उनका निर्वहन हर कोई अपनी-अपनी तरह से और अच्छी तरह से करने की कोशिश करता है । ये सोच लेना कि मेरी परम्परा उसकी परम्परा से बेहतर है और उसे साबित करने के लिए 'व्यंग', 'कटाक्ष', 'नेम कॉलिंग', भला-बुरा कहना मेरे विचार से कहीं ज्यादा 'हिंसात्मक प्रवृति' है । हैरान करने वाली बात यह है कि कुछ लोगों को सिर्फ़ अपनी भावनाओं की ही फ़िक्र रहती है, वो ना तो दूसरों की भावनाओं के बारे में सोचते हैं ना दूसरों की परम्पराओं को सम्मान देने का विचार करते हैं ।

जब मैं छोटी थी तब से मैंने मेरी दादी, चाची, माँ सबको देखा है जीउतिया का व्रत रखने के एक दिन पहले मछली-भात खाते हुए मेरी कुछ बँगाली दादियों को तो छोटी सी ज़िंदा मछली निगलते भी देखा है जीउतिया (अहोई) व्रत करने से पहले, तो क्या उनको 'क्रिमिनल' माना जाएगा ??? या कि वो सारी बेहतर इन्सान ही नहीं थीं ??? मछली को वँश विस्तार का प्रतीक माना गया है और जिउतिया बच्चों लिए ही किया जाता है इसलिए आज भी शादी-विवाह में बँगाल-बिहार-झारखण्ड के कई ईलाकों में इसकी उपस्थिति अनिवार्य मानी जाती है । 

आज भी जीउतिया से एक दिन पहले घर में मछली बनती ही है,  दुर्गा पूजा के सप्तमी को मछली बनती है और नवमी के दिन मीट बनता ही है… अब अहिंसा के पुजारियों दे दो हम सबको फाँसी, क्योंकि हम अगर ज़िंदा रहे तो ऐसा होता ही रहेगा !! 

जापान की ७५% आबादी बौद्ध धर्म का अनुकरण करती है, लेकिन वो सभी माँसाहारी हैं, तो इसका क्या अर्थ हुआ कि वो लोग अच्छे बौद्ध नहीं हैं ?

अंतरजाल पर जब कुछ लिखा जाता है तो वह सिर्फ़ उत्तर भारत या मध्य भारत या दक्षिण भारत के लिए नहीं लिखा जाता है,  या यों कहें सिर्फ भारत के लिए नहीं लिखा जाता, यह पूरे विश्व के लिए लिखा जाता है.…ये सभी परम्पराएँ इन त्योहारों के उद्गम के दिन से ही शुरू हुईं हैं और आज भी विद्यमान हैं । सच्चाई को ज़बरदस्ती नकार देने से साक्ष्य नहीं बदल सकते । 

मैं माँसाहार की हिमायती नहीं हूँ, लेकिन मांसाहारियों के लिए घृणा पालने के पक्ष में भी नहीं हूँ क्योंकि ऐसा हुआ तो मुझे बहुतों से घृणा करनी पड़ेगी, मसलन मेरे माँ-बाप, भाई-बहन, चाचा-चाची, दोस्त-मित्र, मेरे बहुत सारे हिन्दुस्तानी, कैनेडियन, अमेरिकन रिश्तेदारों से.… 

फिर मुझे घृणा करनी होगी ईसा मसीह जैसे पैगम्बर से जिन्होंने माँसाहारी होते हुए भी पूरी दुनिया को प्रेम और शान्ति का सन्देश दिया, मदर टेरेसा से, फिर मुझे घृणा करनी होगी उन सभी हिन्दू ग्रंथों के पात्रों से जो आखेट में जाया करते थे … बड़े-बुजुर्ग कह गए हैं,  भोजन अपनी पसंद का ही करना चाहिए।

 

बाक़ी भी पढ़ ही लीजिये कैसे हुई थी शुरुआत दुर्गा पूजा की एक बँगाली परिवार द्वारा .…

हाँ नहीं तो !!!

http://www.jagran.com/bihar/rohtas-9777741.html

डेहरी आन-सोन (रोहतास) : शहर में प्रथम दुर्गोत्सव का श्रेय बंगाली परिवार का रहा है। इस परम्परा का इतिहास सौ साल से ज्यादा पुराना है। यहां 1908 में बतौर स्टेशन मास्टर आए मनमुसुनाथ मित्रा ने दुर्गा पूजा की बुनियाद रखी। उन्होंने पाली रेलवे गुमटी अवस्थित देवी मंदिर को शारदीय नवरात्र के दौरान मां दुर्गे की पूजा-अर्चना के लिए चयनित किया। कोलकाता से मूर्तिकार को आमंत्रित किया। उसी मूर्तिकार पुआल के ढांचे पर मिंट्टी की गढ़न से पहली बार मां दुर्गे की प्रतिमा बनाई।

मनमुसुनाथ मित्रा के 95 वर्षीय पुत्र रविन्द्रनाथ मित्रा (एलआईसी के सेवानिवृत्त वरीय प्रबंधक) बताते हैं कि यहां 1956 में रामकृष्ण आश्रम का निर्माण हुआ। तब से दुर्गा पूजा यहां होने लगी। बंगाली समाज तब से यहां लगातार भव्य पूजनोत्सव का आयोजन परंपरागत ढंग से करता आ रहा है। आज भी रामकृष्ण आश्रम की ओर से प्रतिवर्ष पूजा स्मारिका प्रकाशित होती है। इस स्मारिका के विज्ञापन के लिए रामकृष्ण आश्रम से जुड़े युवा काफी मेहनत करते हैं। पितृपक्ष बीतते ही उत्सव की तैयारियां शुरू हो जाती है। आयोजन को ले कई बैठकें होती हैं। विशेषकर बंगाली परिवार नवरात्र शुरू होने के दस दिन पहले ही उत्सवी रंग में डूबा नजर आता है। इनका उल्लास व भक्ति भाव देख ऐसा लगता है, मानो आप डेहरी में नहीं कोलकाता में हैं।
शारदीय दुर्गोत्सव के अध्यक्ष प्रदीप दास उर्फ गोरा दा बताते हैं कि परंपरा के अनुसार आज भी यहां मूर्तियां कोलकाता से आए मूर्तिकार ही बनाते हैं। इस वर्ष मूर्तिकार बुद्धदेव पाल ने प्रतिमाओं का निर्माण किया है। पुरोहित चंचल राय तथा ढाक बजाने वाले कलाकार भी कोलकाता से आए हैं। प्रतिदिन मां को भोग लगाया जाता है। वे कहते हैं कि संस्थागत पूजा बहुत बाद में शुरू हुई। काफी समय तक सबसे पहले आश्रम की प्रतिमा विसर्जित होती थी उसके बाद ही शहर की दूसरी प्रतिमाओं का नम्बर आता था। आज कल रामकृष्ण आश्रम की पूजा का भार मुख्य रूप से पल्लव कुमार मित्रा, बादल चक्रवर्ती, तपन कुमार डे आदि पर है।
रेल रूट, चूना भट्ठी व रोहू ने लुभाया

दर्जनों बंगाली परिवार के बीसवीं सदी की शुरूआत में डेहरी में बसने की वजह भी कम रोचक नहीं है। उन्हें पश्चिम बंगाल से आवागमन की सहूलियत, उद्योग-धंधे की संभावना तथा खाने में प्रिय मछली की प्रचुर उपलब्धता नजर आई। इस कारण एक-एक कर बंगाली परिवार बसते गए। स्थानीय समाज में खुद तो रचे बसे ही अपनी परम्पराओं व संस्कृति को भी स्वीकार्य बना दिया।
याद दिला दें कि वर्ष 1900 में कोलकाता से दिल्ली को ट्रेन रूट से जोड़ने के लिए महानद सोन पर विश्व के सबसे लम्बे रेल पुल का निर्माण कराया गया। कैमूर पहाड़ी में चूना पत्थर प्रचुर मात्रा में था। इस कारण यहां चूना भट्ठियां स्थापित कर व्यवसाय की बेहतर संभावना थी। दरअसल उस दौर में भंवन निर्माण में चूने का ही इस्तेमाल होता था। इसके अलावा बंगाली परिवार मछली के प्रेमी होते हैं। यहां सोन नद की रेहू मछली स्वाद में बेजोड़ है ही।



http://navbharattimes.indiatimes.com/festivals/-/articleshow/3560541.cms

नवरात्र ऐसा समय है, जब संपूर्ण भारत भक्ति में आकंठ तक डूबा रहता है। मां को प्रसन्न करने का इससे पावन समय साल में दोबारा नहीं मिलता। अपने देश का हर प्रदेश इस दौरान उत्साह और उल्लास से भरपूर रहता है। नवरात्र में मां की पूजा यूं तो हर प्रदेश में अपने ही ढंग से होती है, लेकिन बंगाल की खड़ी के तटवर्ती प्रदेश बंगाल की बात ही कुछ निराली है। आपको शायद यह जानकर आश्चर्य हो कि रसगुल्ले के लिए मशहूर बंगाल में शक्ति स्वरूपा को प्रसाद के रूप में इस मिठाई का भोग नहीं लगाया जाता।

बंगाल में मां दुर्गा की पूजा की शुरुआत षष्ठी से होती है। इसे वहां के लोग 'अकाल बोधन' भी कहते हैं। इसी दिन मूर्ति के आगे से पर्दे को हटाया जाता है और मां की प्राण-प्रतिष्ठा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि मां को अब पंडाल स्थित मूर्ति में आने का निमंत्रण दे दिया गया है। इसके बाद दशमी तक विधि-विधान से मां की आराधना की जाती है। पूजा-अर्चना का सारा काम काम पुरोहित करते हैं। इनकी संख्या एक या दो हो सकती है। इनकी सहायता के लिए बड़ी संख्या में भक्तजन मौजूद रहते हैं। मूर्ति की स्थापना सामान्यतया पंडालों में की जाती है। दिल्ली में यह कार्य कई सोसाइटी भी करती हैं।
प्रसाद

प्रसाद के रूप में षष्ठी को मुख्यत: सूखी मिठाई चढ़ाई जाती है। इनमें बताशा, संदेश, फल आदि रहते हैं। फलों में सेब, केला और अन्य मौसमी फलों की ही अधिकता रहती है। पूजा के फूलों में विदेशी फूलों का कोई स्थान नहीं होता। यही वजह है कि जब आप इनके पंडाल पर जाएंगे, तो गुलाब नहीं दिखेगा। अगरबत्ती, धूपबत्ती, घी आदि से अलग तरह का माहौल पैदा हो जाता है। इस दिन अधिकतर लोग उपवास नहीं रखते। वैसे, चंडी पाठ इसी दिन से शुरू हो जाता है। षष्ठी से ही आरती भी की जाने लगती है। इसके बाद प्रसाद वितरण होता है।

भोजन

बंगाल के लोगों के बीच दुर्गा पूजा को लेकर एक ही मान्यता है कि इस दिन मां अपने मायके आती हैं, तो हमें खुशी मनानी चाहिए। न कि कष्ट उठाकर और खुद को दुखी करके मां की पूजा करें। यही वजह है कि इनके बीच नवरात्र में भी मांसाहारी भोजन पर रोक नहीं होती। दिल्ली में जॉब कर रहीं और मूल रूप से बंगाल की रहने वालीं सोमा और मोनाली बताती हैं, 'हमलोग दुर्गा पूजा में मांस-मछली खाने को अधिक तरजीह देते हैं। जब मां अपने घर आई हैं, तो सभी को उत्साह पूर्वक रहना चाहिए। हां, पूजा में हम कोई विघ्न नहीं होने देते।'

Sunday, August 31, 2014

भारत सेक्स क्रांति के कगार पर!



यह आलेख यहाँ से लिया गया है :


भारत में स्त्री-पुरुषों के संबंधों में जितना बदलाव पिछले दस सालों में आया है उतना शायद पिछले तीन हज़ार सालों में भी नहीं हुआ है. सेक्स अब रज़ाइयों के दायरे से निकल कर बैठकों की दहलीज़ को छू रहा है.
संबंधों का पुराना फ़ार्मूला था पहले शादी, फिर सेक्स और उसके बाद प्यार. नए फ़ार्मूले में सबसे पहले प्यार आता है, फिर सेक्स और सबसे बाद में शादी.
कोलंबिया विश्वविद्यालय से एमबीए कर चुकी इरा त्रिवेदी अपनी किताब "इंडिया इन लव मैरिज एंड सेक्सुअलिटी इन ट्वेंटिएथ सेंचुरी", में कहती हैं कि भारत एक बड़ी सामाजिक क्रांति की दहलीज़ पर बैठा हुआ है. अरेंज्ड शादियाँ कम हो रही हैं, तलाक की दर बढ़ रही रही है, सेक्स और संबंधों के नए प्रतिमानों की न सिर्फ़ खोज हो रही है बल्कि उन पर रोज़ नए-नए परीक्षण भी हो रहे हैं.
इरा का मानना है कि इसके पीछे कई कारण हैं. वे कहती हैं, "सबसे बड़ा कारण आर्थिक है. भारत में जो आर्थिक उदारवाद और उपभोक्तावाद आया है यह तो उसके पीछे है ही. साथ ही सेक्सुलिटी और विवाह से संबंधित कई कानूनों में भी बदलाव हुए हैं. बाहर के भी प्रभाव पड़े हैं...चाहे वो इंटरनेट हो...या एम टीवी हो. भारत का बहुत तेज़ी से वैश्वीकरण हो रहा है. भारत में जो विदेशी कंपनियां आ रही हैं, वे न सिर्फ़ नौकरियाँ ला रही हैं बल्कि बहुत सारे सांस्कृतिक बदलाव भी ला रही हैं."

प्रीमैरिटल सेक्स कोई नई चीज़ नहीं

डॉक्टर संजय श्रीवास्तव इंस्टीट्यूट ऑफ़ इकॉनॉमिक ग्रोथ में समाजशास्त्र विभाग के प्रमुख हैं जिन्होंने भारतीय सेक्सुअलिटी पर ख़ासा काम किया है.
बीबीसी से बात करते हुए उन्होंने बताया, "पहले की फ़िल्मों के बारे में अगर आप सोचें तो पहले हीरो की एक गर्लफ़्रेंड हुआ करती थी, जो उसकी पत्नी नहीं बन सकती थी, क्योंकि पत्नी की छवि एक सती सावित्री जैसी होती थी. अब वह स्थिति नहीं है. कम से कम शहरी इलाकों में अगर लड़की शादी से पहले ब्वॉय फ़्रेंड के साथ रहती है तो उसे ज़िंदगी भर के लिए कलंक नहीं माना जाता. फ़िल्मों में भी अब वैंप का रोल एक तरह से ख़त्म हो गया है क्योंकि जो काम वो पहले किया करती थी वह अब पत्नी करने लगी है... जैसे रेस्तराँ जाना, डांस करना, शराब पीना, सिगरेट पीना... वगैरह-वगैरह."
एक अध्ययन के अनुसार भारत में विवाह पूर्व यौन संबंधों में ज़बरदस्त उछाल देखने में आ रहा है. शैफाली संध्या, "लव विल फ़ॉलो: वाई द इंडियन मैरिज इज़ बर्निंग" में लिखती हैं कि एक अनुमान के मुताबिक शहरी भारत में 18 से 24 वर्ष के एज ब्रैकेट में 75 फ़ीसदी लोगों ने शादी से पूर्व सेक्स का अनुभव किया है.
भारत के जानेमाने सेक्सोलॉजिस्ट डॉक्टर प्रकाश कोठारी का भी मानना है, "विवाह से पूर्व सेक्स कोई नई बात नहीं है. प्राचीन भारत में भी इसके उदाहरण मिलते हैं. मैंने मुंबई में के ई एम अस्पताल में सेक्सुअल मेडिसिन विभाग स्थापित किया था. अब तक मैं पचास हज़ार से ज़्यादा मरीज़ देख चुका हूँ और अपने अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि प्रीमैरिटल सेक्स शहरी भारत के साथ-साथ ग्रामीण भारत में भी है. शहरी भारत में शायद थोड़ा ज़्यादा है."
वे कहते हैं, "एक ज़माना था कि लोग समझते थे कि मोहब्बत की आखिरी मंज़िल हमबिस्तरी हो सकती है और हमबिस्तरी की आख़िरी मंज़िल मोहब्बत होना ज़रूरी नहीं है. अब इस विचार में काफ़ी बदलाव आ चुका है...यानि मोहब्बत कम और उससे आगे की चीज़ ज़्यादा..."

पोर्न देखने में भी भारतीय पीछे नहीं

गूगल के एक सर्वेक्षण के अनुसार ऑनलाइन पोर्नोग्राफ़ी देखने में भारत का स्थान दुनिया में छठा है. इंडिया टुडे के सेक्स सर्वे के अनुसार अहमदाबाद में जबसे ज़्यादा 78 फ़ीसदी लोग (महिला और पुरुष दोनों) ऑनलाइन पोर्न देखते हैं.
कुछ साल पहले भारत में एक कॉमिक सीरीज़ सविता भाभी काफ़ी लोकप्रिय हुई थी जिस पर बाद में भारत सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया था. इरा त्रिवेदी का मानना है कि सविता भाभी की सफलता का मूल कारण था कॉमिक का लोकल फ़्लेवर होना जिससे लोग अपने आप को रिलेट कर पाते थे.
वह कहती हैं, "जो सविता भाभी थीं वो गुजराती हाउसवाइफ़ थीं. छोटे शहर में रहती थीं. अपने पति, सास-ससुर और रिश्तेदारों का ख़्याल रखती थीं लेकिन उनकी ज़बर्दस्त सेक्स ड्राइव भी थी. उनके अलग-अलग यौन संबंध होते थे आसपास के लोगों के साथ...किराने वाले के साथ, ब्रा बेचने वाले के साथ...घर आने वाले मेहमानों के साथ...उनका एक पति भी है जो बहुत बोरिंग हैं...हर समय काम करता रहता है. दूसरी तरफ सविता भाभी में काफ़ी सेक्सुअल लिबीडो है."
इरा कहती हैं कि इस कॉमिक सीरीज़ को देखकर कुछ लोग फ़ेंटेसाइज़ ज़रूर करते होंगे लेकिन वास्तव में ये सीरीज़ अधिकतर भारतीयों के सेक्स के प्रति उनके संकोची और असहज दृष्टिकोण का मज़ाक उड़ाती है.

देह व्यापार

समाजशास्त्री केके मुखर्जी और सुतापा मुखर्जी ने 10,000 यौनकर्मियों के बीच किए गए सर्वेक्षण में पाया कि भारत में यौनकर्मियों की संख्या तीस लाख से बढ़कर पचास लाख हो गई है और ये आंकड़े 2006 के हैं.
भारत में वेश्यावृत्ति का पुराना इतिहास रहा है. वीना ओल्डेनबर्ग अपनी किताब 'लाइफ़स्टाइल ऐज़ रेज़िज़टेंस : द केस ऑफ़ कोर्टिज़ांस इन लखनऊ' में लिखती हैं, "1857 के ग़दर में हर चार में से एक ब्रिटिश सैनिक गुप्त रोग से पीड़ित था और इस दौरान लड़ाई से ज़्यादा सैनिक गुप्त रोगों से मरे थे."
इमिग्रेशन अधिकारियों का आकलन है कि हर साल मध्य एशियाई देशों से भारत के लिए जारी किए गए 50,000 वीज़ा में से कम से कम 5000 वीज़ा का संबंध देह व्यापार से होता है.
साल 2011 में जब भारत सरकार ने इन देशों में अपने दूतावासों को दिशा-निर्देश जारी किए कि इस देश से वीज़ा का आवेदन करने वाली 15 से 40 वर्ष का महिलाओं को वीज़ा देते समय बहुत सावधानी बरती जाए, तो कीव में टॉपलेस महिलाओं ने भारतीय दूतावास के सामने बाक़ायदा प्रदर्शन किया.

'अच्छी' लड़की बनाम 'बुरी' लड़की

भारत में आमतौर से लड़कियों के बारे में धारणा है कि वे या तो 'अच्छी' होती हैं या 'बुरी'. कहा जाता है कि 'अच्छी' लड़कियाँ 'सेक्सुअली फ़ोर्थकमिंग' या सक्रिय नहीं होतीं. इरा त्रिवेदी कहती हैं कि भारतीय पुरुष इन तथाकथित 'बुरी' लड़कियों से सेक्स संबंध तो बनाना चाहता है लेकिन जब शादी की बात आती है तो वह तथाकथित 'अच्छी' लड़कियों को ही चुनता है.
डॉक्टर संजय श्रीवास्तव का कहना है कि लोग चाहते हैं कि उनकी पत्नियाँ काम करने वाली भी हों. वह इतना कमाएं कि घर में फ़्रिज हो, गाड़ी हो, एयरकंडीशनर हो... लेकिन वो इतना भी न कमाएं कि बिल्कुल स्वतंत्र हो जाए...या पति से ज़्यादा ही कुछ बन जाएं. भारतीय लोगों को सबसे ज़्यादा वह शादियाँ पसंद हैं जो लव कम अरेंज्ड मैरिज हों. वो घबराते भी हैं कि उन्हें ऐसी पत्नी न मिल जाए जो उन पर हावी हो जाए.
महिला-पुरुष संबंधों में आ रहे बदलाव के बावजूद कुछ चीज़ें ऐसी हैं जिन्हें कोई नहीं बदल सकता. इस विषय पर डॉक्टर प्रकाश कोठारी की राय सबसे अलग है. कोठारी कहते हैं, "मर्द प्यार देता है सेक्स पाने के लिए जबकि औरत सेक्स देती है प्यार पाने के लिए."
डॉक्टर प्रकाश कोठारी कहते हैं, "सेक्स के मामले में भारतीय बहुत भोले हैं. उनकी दिक्कत है कि वे अंधविश्वासों को बहुत तवज्जो देते हैं और सेक्स करते समय बहुत बड़ा मानसिक बोझ लेकर जाते हैं. उनकी सेक्स समस्याएं दो कानों के बीच की हैं न कि दो पैरों के बीच की!"
भारतीय पुरुष अपने शयन कक्ष में कई प्रयोग कर रहा है. डॉक्टर संजय श्रीवास्तव कहते हैं, "वह प्रयोग ज़रूर कर रहा है लेकिन उसे यह डर भी है कि कहीं उसकी पत्नी को इसमें आनंद न आने लगे. अगर ऐसा है तो क्या सचमुच वह ऐसी महिला है जिसे मेरी पत्नी होना चाहिए. उसे आनंद भी चाहिए लेकिन उसे इस बात से परेशानी भी है कि इस चक्कर में उसकी मर्द होने की हैसियत कहीं कम न हो जाए. उसे इस बात की भी आशंका है कि उसकी पत्नी कहीं ऐसी औरत न निकल जाए जिसे उसकी गर्लफ़्रेंड होना चाहिए था."

शादी के विज्ञापनों की भाषा

जहाँ तक शादी की बात है, ताज़ा ट्रेंड जानने हों तो शादी के लिए दिए जाने वाले विज्ञापनों को देखिए. इनके गढ़ने का अंदाज़ और इनकी शब्दावली अलग से एक शोध का विषय हो सकता है.
इरा त्रिवेदी ने कई मैरिज ब्रोकरों को बहुत नज़दीक से काम करते देखा है. वह कहती हैं, "शादी के विज्ञापनों में एक अजीब तरह का विरोधाभास दिखाई देता है. लोग कंज़रवेटिव के साथ-साथ आधुनिक लड़की की मांग करते हैं. अकेले पुत्र होने का मतलब होता है, संपत्ति का उत्तराधिकारी होना. लोग ब्रोकरों से शादी के बारे में इस तरह बात करते हैं जैसे वो कार खरीदने जा रहे हों. पहले जाति पर आधारित बहुत विज्ञापन आते थे लेकिन अब डॉक्टर इंजीनियर और एमबीए जैसे प्रोफ़ेशन भी एक तरह की जाति हो गई है."

लिव-इन संबंध

तमाम बदलावों के बावजूद अविवाहित जोड़ों का साथ रहना अभी भी आम बात नहीं हो पाया है. साल 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फ़ैसले में लिव-इन संबंधों को वैध घोषित किया था. अदालत का कहना था कि अगर दो विपरीत सेक्स के लोग बिना विवाह किए एक छत के नीचे रहना चाहें तो यह अपराध नहीं है.
लेकिन अभी भी इस चलन को भारतीय अभिभावकों की मान्यता नहीं मिली है. यह सही है कि लोग अपने संबंधों में कई प्रयोग कर रहे हैं.
एक अंग्रेज़ी पत्रिका द्वारा कराए गए सर्वेक्षण में कहा गया है कि 94 फ़ीसदी भारतीय अपने संबंधों से "ख़ुश" ज़रूर हैं, लेकिन इनमें से अधिकतर लोगों का कहना है कि अगर उन्हें दोबारा विकल्प दिया गया तो वह उसी व्यक्ति से शादी करना या किसी से भी शादी करना पसंद नहीं करेंगे.

कहना शायद ग़लत नहीं होगा कि मध्यम वर्ग की सोच में हो रहे बदलाव के कारण पुरुष-महिला संबंधों के नए प्रतिमान गढ़े जा रहे हैं.

Saturday, August 30, 2014

ज़िक्र होता है जब.... !

आँखें बंद करके सुन रहे हैं हम बस्स्स्स !!



Monday, August 25, 2014

मेरी मासूम हिमाक़त के सिवा कुछ भी नहीं.....




अब दोस्ती, प्यार, चाहत के सिवा कुछ भी नहीं
ज़िन्दगी क्या है मोहब्बत के सिवा कुछ भी नहीं

अगले जन्मों में मेरे साथ सफ़र का वादा
तेरी इक और शरारत के सिवा कुछ भी नहीं

प्यार औरों को मिला और मेरी क़िस्मत में
एक पत्थर की इबादत के सिवा कुछ भी नहीं

चीरकर सीना मेरा आप तसल्ली कर लें
दिल में आपकी सूरत के सिवा कुछ भी नहीं

अपने हाथों की लकीरों में सजाना तुमको
मेरी मासूम हिमाक़त के सिवा कुछ भी नहीं

ख़्वाहिशे-वस्ल न शिकवे न शिकायत दिल में
आख़िरी दीद की हसरत के सिवा कुछ भी नहीं

ऊँचे क़द वालों से ज़रा फ़ासला ही रख्खो 
वर्ना हाथ आएगी, ज़िल्लत के सिवा कुछ भी नहीं

ख़्वाहिशे-वस्ल = मिलन की इच्छा 

Thursday, July 24, 2014

हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे, बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे.....




ज़िन्दगी के लिए कुछ नए रास्ते हम बनाते रहे फिर मिटाते रहे 
थी वहीँ वो खड़ी इक हसीं ज़िन्दगी हम उससे मगर दूर जाते रहे 

रात रोई थी मिल के गले चाँद से और अँधेरे अँधेरा बढ़ाते रहे 
आँखें बुझने लगीं हैं चकोरी की अब दूर तारे खड़े मुस्कुराते रहे 

बिखरे-बिखरे थे मेरे वो सब फासले हम करीने से उनको सजाते रहे 
अब समेटेंगे हम अपनी नज़दीकियाँ दूरियों को गले से लगाते रहे 

वो पेड़ों के झुरमुट से अहसास थे और ख्वाबों की बेलें लिपटती रहीं 
हम हक़ीक़त के हाथों यूँ मरते रहे बढ़ के पेड़ों से बेलें हटाते रहे

वो तो भूखा मरा मंदिर के द्वार पर लोग प्रतिमा को लड्डू चढ़ाते रहे
इक कली जिस गली में बलि चढ़ गयी वहीँ देवी का मंडप सजाते रहे




Monday, July 21, 2014

'एकलखोड़ों' की ज़मात'.......


एकल = अकेला 
खोड़ = जिस ज़मीन पर कभी फ़सल नहीं लगाई गई हो 
कहीं एक शब्द पढ़ा 'एकलखोड़'.......इस बहुत ही हलके शब्द का प्रयोग, उनके लिए किया गया है, जो विवाह के बँधन में नहीं बँधे हैं, अर्थात जिनका अपना 'व्यक्तिगत परिवार' नहीं है 

'एकलखोड़ों' की जिस तरह फ़ज़ीहत करने की कोशिश की गई, हम भी सोचे कि 'एकलखोड़ों' पर हम भी रिसर्च कर ही लेवें
तो हाज़िर है कुछ भारतीय 'एकलखोड़ों' के नाम, जिनके होने से शायद कुछ लोग शर्मसार होंगे:( 
लेकिन हम नहीं हैं। हम तो सलाम करते हैं इनको।

१. अटल बिहारी बाजपेई 
२. अब्दुल क़लाम 
३. अन्ना हज़ारे 
४. बाबा राम देव 
५. संजीव कुमार 
६. करन जौहर 
७. उमा भारती 
८. जय ललिता 
९. लता मंगेशकर 
१०. रेखा 
११. सुरैया 
१२. राहुल गाँधी 
१३. राहुल बोस 
१४. रतन टाटा 
१५. सलमान ख़ान
१६. नरेन्द्र मोदी भी एकलखोड़ ही रहे 
१७. युवराज और कोहली भी अभी तक एकलखोड़ ही हैं आगे ख़ुदा ख़ैर करे :)
१८. मिलिंद सोमन 
१९. ममता बैनर्जी 
२०. मनीष मल्होत्रा 
२१. साध्वी प्रज्ञा 

एक 'एकलखोड़' ने तो ईश्वर को ही जन्म दे दिया, जिनको हम मदर मेरी (मरियम) के नाम से जानते हैं। 
और हिन्दू धर्म में भी कई 'एकलखोड़' हुए हैं, जिनमें सबसे अग्रणी हैं 'भीष्म पितामह:'

अब बात करते हैं दुनिया के कुछ नामचीन 'एकलखोड़ों' की। अगर ये 'एकलखोड़' नहीं होते तो हमारे पास बहुत कुछ नहीं होता। जैसे न्यूटन, जॉर्ज ईस्टमैन ( जिनके कैमरे से फोटो खींच-खींच कर सुबह-शाम लोग लगाते हैं और ख़ूब वाह-वाही लूटते हैं :), पास्कल, लियोनार्दो दा विन्ची इत्यादि। 

हर किसी को अपने जीवन के बारे में फैसला करने का अधिकार है, कौन कैसी ज़िन्दगी जीना चाहता है ये किसी भी व्यक्ति की निजी पसंद होनी चाहिए। 
इस तरह का असंवेदनशील व्यवहार किसी के साथ भी उचित नहीं है। ऐसा करना न सिर्फ़ ग़लत है, अमानवीय भी है। 

Famous bachelors from across the world have always inspired their buffs to staysingle. And indeed, sometime it feels that folks who write about fairytales of marital life don’t have any goddam clue about the actual mechanism of married life. With the spirit of helping out, TopYaps is listing ten most famous bachelors of the world who decided to skip the “I do” step.
10. George Eastman:
Even if you avoid the camera and photography thing; you’ve to go for it one day when your wife will snap some ‘angle best’ photos as a keepsake of your memorable honeymoon. But here’s a point to be noted that the man who is behind “locking” some of the best moments of your married life, never walked down the aisle throughout his life. Founder of the Eastman Kodak Company and the discoverer of roll film, George Eastman has had a great romance and a sensuous affair, but only with his camera.

9. James Buchanan:

James Buchanan was the 15th President of the United States, who lived and died abachelor. During the days of struggle, Buchanan was engaged to Ann Caroline Coleman, daughter of a wealthy businessman; but due to some unexplained reasons their engagement was called off. This incident was a terrible blow for the him, and it escalated to the uttermost altitude when Ann died soon after the separation.(img source: imagenoise.com)

8. Dr. A. P. J. Abdul Kalam:

Best known as the “Missile Man of India”, Dr. Kalam is an eminent nuclear scientist as well as a notable aerospace engineer who also served as the 11th President of India from July 25, 2002 to July 25, 2007. Widely admired for his foresightedness and shatterproof determination, Dr. Kalam’s affection for space science and the glowing fire on his wings of aspirations overstepped the desire of walking on the marital landscape.

7. Al Pacino:

“The Godfather” knows the “Scent of a Woman”, but he prefers the single status. However on “Any Given Sunday”, he has courted some of the knockout beauties of movie industry, but till the date, he is the longest serving bachelor of Hollywood. Our beloved Michael Corleone is screaming towards his mid seventies (currently sitting on the cliff of 72), but he still hopes to tie the knot. Tony, we’re waiting for the day when you’ll finally introduce us with our Godmother but will feel sorry to see you going out from this list.

6. Edward Heath:

Sir Edward Richard George “Ted” Heath was a notable politician of the Conservative Party and also served as the Prime Minister of the United Kingdom from 1970-1974. A buff of music in classic sense, Sir Heath was also known for having number of female friends. He had been expected to marry one of his childhood friends Kay Raven, but he preferred to not go to the Church to say “I do” in front of a holy man and remained a lifelong bachelor.
5. Isaac Newton:
The man, who revolutionized the entire world by his staggering discoveries and in-depth researches, is also known for being one of the most famous bachelors throughout the existence of human race. He stayed single during his life span of 83 years and amazingly repelled the love-bug from his very own dimension.
4. Voltaire:
In the list of famous bachelors of the world, Voltaire ranks fourth. Apart from being the great grandfather of satire, he is also highly regarded for his advocacy of freedom of expression and civil liberties. Voltaire’s life was full of series of intellectual mistresses but instead of tying the knot for at least once, he favoured and maintained the “being single” status forever.
3. Blaise Pascal:
The no. 3 famous bachelor of this list is a radical inventor without whom we can’t imagine the wholeness of mathematics and physics. Blaise Pascal was a computing genius who gave innumerable significant explanations in the field of science. During his short life span of 39 years, he opened the gateways of complex theories but kept closed the doors for the marriage thing.
2. Ludwig van Beethoven:
For music lovers, there will never be words to show affection and respect for Beethoven and his historic masterpieces. This German composer is a crucial figure in music world who contributed a lot for the Western art music. He marked his presence on the planet earth for 57 year with romantic attachment with number of interesting women. However, his companionships with ladies never blossomed and decided to remain single throughout his life.
1. Leonardo da Vinci:
Leonardo da Vinci—the most famous bachelor of the world, was a godsend soul with quenchless curiosity for almost everything in this world. Best known for being the most gifted person ever to have lived, Da Vinci’s private life was extremely secret and which has been a potent subject of analysis for historians. He died at the age of 67, finding happiness in a never-married life.