सोचिये तो बात बहुत छोटी सी है..और अगर विचार करें तो बात बहुत बड़ी, कम से कम मानसिकता का वृहत आकलन तो करती ही है, ये छोटी सी घटना...
साल के, छः से सात महीने यहाँ, कनाडा में, बरफ और ठण्ड का ही जोर रहता है, जब गर्मी आती है, तो बस यूँ समझिये, पंख-पखेरू, जीव-जंतु, इंसान, सभी ज्यादा से ज्यादा वक्त, घर के बाहर ही बिताना चाहते है, हर तरफ ख़ूबसूरती का वो आलम होता है, बस लगता है, जैसे स्वर्ग ही, धरा पर उतर आया हो, प्रकृति अपने रंगों की ऐसी छटा बिखेरती है, कि हर दृश्य यूँ लगता है, मानो किसी चित्रकार ने अपनी सारी उम्र की कल्पना, अपनी तूलिका के हवाले कर दी हो..
अब ऐसे ही खुशगवार मौसम में, साईकिल की सवारी से बेहतर विकल्प और क्या हो सकता है, प्रकृति का सानिध्य पाने के लिए, इन देशों में, वेल अवेटेड और वेल डिजर्वड समर में, स्विमिंग और साईकिलिंग, मनोरंजन कहें या व्यायाम, सबके लिए निहायत ही ज़रूरी व्यसन बन जाते हैं, गर्मी का आना और साईकिल की सवारी, बस यूँ समझिये एक दूसरे के पर्याय बन जाते हैं...
हमारा घर भी, कहाँ अछूता है भला ! सब अपनी-अपनी साईकिल की सफाई, और कल पुर्जे ठीक करने में लग जाते हैं, घर में, कई साइकिलें हैं, और सबके लिए एक-एक तो हैं हीं..परन्तु हमारे मृगांक दुलारे को इस बार, ऐसी-वैसी साईकिल नहीं चाहिए थी, लिहाजा जिद्द पर आ गया, कि मुझे स्पोर्ट्स साईकिल ही चाहिए...स्पोर्ट्स साईकिल, इतनी सस्ती भी नहीं आती, और अगर मृगांक खरीदने जाए तो, सस्ती बिलकुल नहीं आएगी, ये मैं जानती थी...फिर सोचा यही तो उम्र है, चलो मुझ जैसे, मुर्दे पर जैसे नौ मन, वैसे दस मन...लिहाजा स्पोर्ट्स साईकिल खरीदी गयी, साथ ही, मेरे अकाउंट में एक और डेंट लग गया...
आखिरकार, मृगांक की पसंद की साईकिल, आ ही गयी घर पर, उसे खरीदने से पहले ही, मुझे उसकी उपयोगिता पर, काफी कुछ समझाया गया..कि किस तरह, घर के इकोनोमी पर इसका, बहुत अच्छा असर पड़ने वाला है...मृगांक बाबू, समझाने लगे, मम्मी मैं कार लेकर जाता हूँ, हर महीने मुझे कम से कम $५००, सिर्फ पार्किंग के देने होते हैं, पेट्रोल का खर्चा अलग, कार की वजह से कभी दोस्तों को भी यहाँ-वहाँ, पहुंचाना पड़ता है, इससे पेट्रोल का खर्चा और बढ़ जाता है...ऐसे में मैं साईकिल से, बस स्टेशन तक जाऊँगा, वहाँ साइकिल रख दूँगा और, बस लेकर, सीधे अपने कोलेज चला जाया करूंगा, वर्जिश की वर्जिश हो जायेगी मेरी और बचाईश की बचाईश होगी आपकी, मात्र $ ७२ के पास में मेरा काम चल जाएगा...प्लान सुपर था, और फ्लॉप होने के चांस बहुत कम, मुझे भी सीधे-सीधे ७००-८०० डॉलर बचते नज़र आये...मैंने कहा चलो साईकिल की कीमत ३-४ महीने में निकल आएगी...साथ ही मेरे लाल मृगांक के थोड़े, डोले-शोले भी निकल आयेंगे...
तो जनाब, मृगांक ने पहला दिन, अपने स्कूल का रास्ता इसी प्लान के तहत, तय किया, उसके बाद, मैंने भी नहीं पूछा, न देखा, सब कुछ वैसा ही सामान्य हो गया, जैसे पहले था, अर्थात मृगांक कार से ही कोलेज जाने लगा...और मेरे घर की इकोनोमी, ज्यों-की-त्यों मुंह बाए खड़ी रही...अब इस एक दिन की तब्दीली, ऐसी भी तो नहीं थी, कि मैं याद करती...तो जी बात आई-गयी होकर, रह गयी...
साईकिल को आये हुए, ३ महीने हो गए होंगे...गर्मियां अब ख़तम वाली थीं, मैं घर के बाहर कुछ काम करने गयी, तो देखा घर के पीछे एक साईकिल पड़ी हुई है, मेरी मेहनत की कमाई का, इतनी बेरहमी से ऐसा दुरूपयोग ?? हम तो जी बस बिफरे हुए अन्दर आ गए, मृगांक को हांक लगाई और डांट लगानी शुरू कर दी , इतनी महंगी साईकिल और ऐसे बाहर फेंक दिया है...हिन्दुस्तानी दिमाग के हिसाब से कह ही दिया अगर कोई उठा कर ले जाता तो ??? आँख मलता हुआ मृगांक बाहर आया और कहने लगा..'अरे मम्मी, कोई नहीं ले जाएगा कुछ भी, आप भी न बस सुबह सुबह शुरू हो जातीं हैं ' 'ये सब कुछ नहीं सुनना मुझे, साईकिल उठा कर लाओ और गैरेज में रखो'...मेरे हुकुम की तामिल हुई, मृगांक घर के पीछे से साईकिल उठा कर ले आया, मुआयना करने के बाद, सिर हिलाता हुआ, गंभीर स्वर में बोला.. 'ये मेरी साईकिल नहीं है'...अब मैंने बारी-बारी से सबसे जवाब-तलब कर लिया...सबने हाथ खड़े कर दिए कि...जी ये साईकिल हमारी नहीं है... अब मेरे लिए तो साईकिल-साईकिल एक ही लगती हैं, जैसे सारे काले एक ही नज़र आते हैं मुझे, या फिर सारे चाईनीज एक से लगते हैं...लिहाज़ा मैंने हुकुम दे दिया, कि इस साईकिल पर नोटिस लगाओ, और बाहर रख दो, जिसकी है आकर ले जाए...
सुबह-सुबह साईकिलों की खोज़-खबर से, एक बात सामने आ गयी कि, मृगांक बाबू की साईकिल घर पर नहीं है, जब मैंने पूछा, इतनी मंहगी साईकिल लेने की जिद्द की तुमने, सिर्फ एक दिन देखा चलाते हुए, उसके बाद कभी नहीं देखा, साईकिल गयी कहाँ...?? अब मृगांक अपनी स्मृति के आईने साफ़ करने बैठ गया...उसे भी, समझ में नहीं आ रहा था, कि आखिर साईकिल गयी कहाँ...कहने लगा मम्मी मुझे जहाँ तक याद है, मैं सिर्फ एक दिन, लेकर गया हूँ साईकिल, बस स्टेशन, वहाँ मैंने साईकिल को, साईकिल स्टैंड पर लगाया, फिर मैंने वहाँ से बस ली...कोलेज गया, लेकिन कोलेज से मैं तो, सीधा ही घर आ गया बस से...मैंने तो बस स्टेशन से साईकिल ली ही नहीं.....और मैं तो एकदम भूल ही गया...अब मेरा गुस्सा नौवें आसमान पर, पहुँच ही गया...हाँ हाँ तुम्हें क्यूँ याद रहेगा, पैसे तो बैंक लूट कर लाती हूँ ना, खरीदने से पहले, इतना भाषण कि, ये होगा वो होगा, इस बात को हुए कितने दिन हो गए..." मैंने डपटते हुए मृगांक से पुछा, पप्पी फेस बना कर बोला 'मम्मी, दिन नहीं महीने हो गए, २-३ महीने तो हो गए होंगे...' लो अब एक और लोस, ३ महीने पहले साईकिल बस स्टेशन पर, छोड़ कर आये हो...अब तक क्या वो वहां, बैठी होगी तुम्हारे इंतज़ार में...भूल जाओ अब उसको, और आज के बाद तुम्हारे लिए, कुछ भी नहीं खरीदना है...मैं बक-बक करती जा रही थी, और मृगांक पजामे में ही, अपनी कार निकाल कर, तेज़ी से निकल गया...
कुछ ही देर में, मृगांक, लौट कर आ गया, मुस्कुराता हुआ...मम्मी साईकिल मिल गयी, वहीँ थी, किसी ने हाथ भी नहीं लगाया था...देख लो, और हाँ, इसको लोस नहीं माना जाएगा हाँ..मेरा गुस्सा काफूर हो चूका था, और वो मुझे खुश करने के अपने सारे हथकंडे अपना रहा था...मुझे मानना तो था ही ...हाँ नहीं तो..!!
तो जनाब..३ महीने तक ब्रांड न्यू स्पोर्ट्स साईकिल, लावारिस पड़ी रही, फेलोफिल्ड बस स्टेशन पर और किसी ने उसकी तरफ, आँख उठा कर देखा भी नहीं...कौन कहता है, राम राज्य नहीं है...है जी बिलकुल है, ई अलग बात है, ई बस राम के राज्य में नहीं है...
और तभी मुझे याद आ गया, एक और वाक्या, हम बहुत छोटे थे, मेरे बाबा साईकिल पर ही जाया करते थे, उस दिन वो घर से तो साईकिल पर ही गए थे, लेकिन लौटे रिक्शे में थे...पूछने पर पता चला, किसी काम से वो, रांची के बड़े पोस्ट ऑफिस गए थे, बस सिर्फ २ मिनट के लिए उन्होंने अपना सिर घुमाया था और जब तक ताला लगाने के लिए, उनका सिर वापिस मुड़ा, उनकी..साईकिल गायब हो चुकी थी...
इसे कहते हैं....मानसिकता का फ़र्क़ ...
हाँ नहीं तो !