Monday, April 15, 2013

स्त्री देह, ज़ेब से झाँकते हुए नोट की तरह है....!




स्त्री देह, ज़ेब से झाँकते हुए नोट की तरह है, जिसे हर कोई हथियाने को तत्पर होता है, कुछ ऐसे ही भाव यहाँ कहे गए थे।  


मैं अपनी टिप्पणी को पोस्ट बनाने के पक्ष में नहीं रहती लेकिन, आज ऐसा ही कर रही हूँ। टिप्पणी का जीस्ट वही है बस थोडा विस्तार दे दिया है।

दीप जी, आपकी पोस्ट्स इनदिनों महज 'फेमेन' पर ही आधारित है। 'फेमेन' सिर्फ एक संस्था है, जिसमें तीन सौ से ज्यादा सदस्य भी नहीं हैं, और प्रदर्शन में भी इने-गिने प्रदर्शनकारी स्त्रियाँ ही भाग लेंगी, जो नारीगत समस्याओं की तरफ, पुरुषप्रधान समाज का ध्यान आकृष्ट करने के लिए, लीक से हट कर प्रदर्शन कर रहीं हैं। शायद यह रैली दो दिन चले या चार दिन चले। लोग देखेंगे, कुछ कहेंगे, शायद बात आई-गई हो जायेगी, शायद इसका कुछ असर भी हो जाए कहीं, या फिर शायद इसी बात पर दुनिया में भूचाल आ जाए। जो भी होगा देखा जाएगा।

'फेमेन' की ये प्रदर्शनकारी महिलाएं 'टॉप लेस' प्रदर्शन करेंगी, जिसकी वजह से हिन्दुस्तानी ब्लॉग जगत में हडकंप मच गयी है। मुझे ये समझ नहीं आ रहा है, यह प्रदर्शन तो विदेश में हो रहा है, फिर भारत में लोगों को बदहज़मी क्यों हो रही है ?? आप क्यों परेशान हैं ?? दिल्ली की सडकों पर होती ये ऐतिहासिक परेड, तब मैं समझ सकती थी कि दिल्ली वालों की नींद हलकान होने वाली है। बैंक, सेना, पार्लियामेंट सब पहुँच जाते सड़क पर। लेकिन ई सब आपके अंगना में नहीं हो रहा है, न ही भारत की महिलाएँ ऐसा कुछ कर रही हैं, फिर बिन मौसम बरसात यहाँ (भारत) की जनता पर क्यों ? ये सब देख कर तो ऐसा लग रहा है जैसे 'क़ाज़ी जी दुबले क्यों हुए, तो 'फेमेन' की चिंता में'। यह एक बहुत ही छोटा और नगण्य प्रयास है, विरोध का, वो भी इस्लामिक कट्टरपंथियों के ख़िलाफ़। तरीके से लोगों को दिक़्क़त हो सकती है, लेकिन जिस वज़ह से ये हो रहा है, वो भी कम ग़लत नहीं है।  

बहुत पुरानी बात भी नहीं है, सिले हुए कपड़े पहनना भारतीय संस्कृति के विरुद्ध था। स्त्रियाँ ब्लाउज नहीं पहनती थीं। आज भी बंगाल आप चले जाएँ, गाँव में आपको बिना ब्लाउज पहने हुए औरतें, बहुत आम  दिखाई दे जाएँगी। मेरी अपनी दादी ही ब्लाउज नहीं पहनती थीं, बहुत बाद में उन्होंने पहनना शुरू किया ब्लाउज। वो तो अंग्रेजो की जैकेट, 'जाकिट' बन गई।  

स्तन दिखना, कोई बड़ी बात नहीं हैं। बात सिर्फ नियत की है, आप इसे किस नज़रिए से देख रहे हैं। होलीवूड की फिल्में देख लीजिये, कहानी के हिसाब से, ये सब दिखाया ही जाता है, और वो बुरा भी नहीं लगता। अब तो बोलीवूड में भी इफ़रात है ये सब, ये अलग बात है कि कहानी की माँग का कोई लेना देना नहीं होता यहाँ । खुले स्तन, हमलोग तो बचपन से देखते आये हैं। मैं रांची की रहने वाली हूँ, आदिवासियों के बीच ही रही हूँ, बचपन में यही देखा है। आदिवासी महिलाएं ब्लाउज पहनती ही नहीं थीं। घर पर जितनी सब्ज़ी वालियाँ आतीं थीं, ऐसी ही आतीं थीं, खेतों में काम करने वालियाँ, खेतों में काम करतीं रहतीं थीं, नौकरानियाँ बर्तन माँजती रहतीं थी और उनके बच्चे दूध पीते रहते थे। नानी, दादी जितनी भी थीं, सबको देखा है हमने बिना ब्लाउज के भी और बाद में ब्लाउजमय भी ।आज भी बहुत सी ऐसी जनजातियाँ हैं, जो बहुत कम कपडे पहनती हैं। माताओं को स्तन-पान कराते हम सबने देखा है। इसमें इतनी विचित्र बात क्या हो गयी ?? सच पूछिए तो कभी इस बात की ओर ध्यान ही नहीं गया कि कुछ असहज हो रहा है। अगर आप इस विरोध की मंशा को समझेंगे तो कुछ भी बुरा नहीं लगेगा, इतने युगों से शोषित जाति, विद्रोह तो करेंगी ही। जब शोषण करने की ताब रखते हैं लोग तो विद्रोह झेलने का भी माद्दा होना चाहिए। यहाँ विदेशों में बिकनी पहनना बहुत आम है, इसलिए ये मुद्दा इतना भी बड़ा नहीं है जितना आप इसको बना रहे हैं। 

अक्सर मैंने देखा है, स्त्री विमर्श के मामले में बात हमेशा मुद्दे से भटक जाती है। हम स्त्री-विमर्श की जगह पुरुष-विमर्श करने लगते हैं। पुरुष भी अब अपना रोना लेकर बैठ जाते हैं। हमारे समाज में नारी की समस्या 'फेमेन' से कहीं बड़ी है। इस समस्या को आप 'फेमेन' के झंडे तले लाकर इसे छोटा बनाने की कोशिश न करें। नारीगत समस्याओं को पुरुषों ने हमेशा ही, कपड़ों और देह के चक्रव्यूह में फँसा कर दिग्भ्रमित करने की कोशिश की है और नारियां भी इसी झांसे में आकर, खुद को बिना मतलब कपड़ों  और देह जैसे मुद्दों में उलझा कर, स्त्रीवादी क्रांति की कल्पना करने लगतीं हैं। देह और कपड़ों की बातें करके यह जंग कभी नहीं जीती जा सकती। पुरुषों द्वारा स्त्री-विमर्श के नाम पर सिर्फ स्त्री देह और उनके कपड़ों पर भाषणबाज़ी और फिर एक लम्बा प्रतिक्रियावादी विमर्श देखने को मिलता है । सच पूछा जाए तो कोई ठोस, ईमानदार, पहल कभी देखने को नहीं मिलती। इन विमर्शों में अगर कुछ मिलता है स्त्री को, तो धिक्कार और एक लम्बा आह्वान, औरत के संकोची, बुज़दिली, धर्मभीरुता, संस्कारी और सुशील बर्ताव को नहीं भूलने का।

अब दीप जी की ही पोस्ट को ले लें। दीप जी ! आपने, अपनी खुद के बहुत सारे बंधनों की बात कही है, क्या सचमुच वो बंधन इतने कठिन हैं कि आप उनको झेल नहीं पाते ??? स्त्रियाँ तो उन बंधनों के साथ, स्वयं को जन्म से ही एकसार पातीं रहीं हैं। उन सभी बंधनों को अधिकतर स्त्रियाँ, उतना ही स्वीकारती है, जितना आप। उन बंधनों को मानने में अधिकतर स्त्रियों को कोई समस्या नहीं हैं। अगर आप मुझसे पूछें तो मेरी अपनी नज़र में ये बंधन नहीं हैं, इनको अनुशासन कहा जाता है। जिसके बिना किसी भी समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। इन बन्धनों के हिसाब से तो स्त्री-पुरुष एक जैसे ही नज़र आते हैं। 

अब आते हैं, समस्या पर। समस्या की शुरुआत तब होती है, जब स्त्री के अधिकार, समान अवसर, आत्मनिर्भरता, आत्मविश्वास पाने की बात आती है।  यही वो बातें हैं, जिनमें बहुत बड़ा फ़र्क नज़र आता है। स्त्री को भी उतना ही अधिकार चाहिए, जितना पुरुष को है, उतना ही समान अवसर चाहिए जितना पुरुष को मिलता है, आत्मनिर्भर और आत्मविश्वास पाने के लिए, हर पुरुष को जो भी स्रोत दिए जाते हैं, वो सारे स्रोत हर बेटी, हर बहन को चाहिए।  अर्थात वो सारे स्रोत जो बेटे को मिलते हैं, अपने भविष्य या जीवन बनाने के लिए, वही सारे स्रोत बेटी को भी उपलब्ध होने चाहिए। मतलब साफ़ है, उतने ही बंधन जितने आपको मिले हैं और उतना ही अधिकार जितने आप को मिले हैं। न कम न बेसी।

स्त्री के उत्थान के लिए, समान अवसर, आत्मविश्वास प्राप्ति के अवसर, आत्मनिर्भर होने के अवसर, सबकी शुरुआत, माता-पिता के घर से ही होनी चाहिए। पढने-लिखने के जो भी अवसर माता-पिता, पुत्र को देते हैं, वही अवसर और उतना ही अवसर हर बेटी को मिलना चाहिए। बेटों को आत्मविश्वास और आत्मनिर्भर बनाने में माँ-बाप अपनी पूरी पूँजी लगा देते हैं। उनका जो भी होता है, सबकुछ सिर्फ बेटों को ही मिलता है, उतना ही और वही सबकुछ बेटियों को भी मिलना चाहिए ?? माता-पिता की संपत्ति पर बेटी का भी उतना ही हक है, जितना बेटों का, यह भारत का क़ानून है। लेकिन इस क़ानून को ईमानदारी से मानने वाले कितने हैं ??? और ईमानदारी से ये भी बताया जाय कि इस क़ानून को तोड़ने वाले कितने हैं ???? कितने है जो बेटियों से, धोखे से या इमोशनल ब्लैकमेल करके संपत्ति के कागजों में हस्ताक्षर करवा चुके हैं या करवा रहे हैं ??? कितने हैं जो ईमानदारी से अपनी बहनों, बेटियों को उनका हिस्सा अपनी मर्ज़ी से बुला कर देते हैं ??? कितने हैं जो इस बात से भय खाए रहते हैं कि कहीं बहन-बेटी हिस्सा माँग ही न ले। कितने हैं जो बहन-बेटी को ये जताते रहते हैं कि तुम पराई हो, इस घर में एक मेहमान की तरह आओ, रहो और जाओ। जिस दिन बेटी के पास पलटकर वापस आने का संबल अपना ‘घर’ होगा, उसी दिन वो डोली-अर्थी के चक्रव्यूह से मुक्त होगी। अभी भी हम स्त्रियों के सामने यह सवाल मुंह बाये खड़ा है,  कि अपने इस वाजिब हक़ को लेने के लिए प्रेरित करने वाले हमारे भाई-पिता कहाँ हैं ??? हैं भी या नहीं, ऐसे भाई-पिता हमारे समाज में ???

मैंने कई बार लिखा है, बेटी का पिता की संपत्ति पर अधिकार मिलना ही चाहिए, लेकिन इस मामले में ब्लॉग का पुरुष समुदाय, ठीक वैसे ही मौन साधे हुए है, जैसे हमारा समाज। सब आ तो जाते हैं, स्त्री विमर्श के मुद्दे पर तंज़, हमदर्दी, विश्लेषण और न जाने क्या-क्या भाषण बाज़ी करने लेकिन अभी तक कोई माई का लाल नहीं आया यह कहने कि,  नारी के उत्थान की पहली सीढ़ी माता-पिता के घर से ही शुरू होनी चाहिए। और हाँ, हर बेटी को अपना भविष्य बनाने का सुअवसर वैसा ही मिलना चाहिए, जैसे बेटे को मिलता है। उसे भी पिता की संपत्ति में पुत्र के बराबर हिस्सा मिलना चाहिए। ये बात कोई क्यों नहीं कह रहा है ?  सब मौन क्यों साधे हुए हैं ? कहाँ गयी आप लोगों की ईमानदारी और नेकनीयती ? क्या यह माँग गलत है ? स्त्री देह पर न जाने कितने पोस्ट्स, कितने विमर्श, कितनी जानें हलकान हुई पड़ी हैं यहाँ। सबको संस्कृति की नैया डूबती नज़र आ रही है। इसलिए न क्योंकि स्त्री देह विमर्श में उनका कुछ नहीं जा रहा है, किसी और की बीवी और किसी और की बेटी, जितनी मर्ज़ी कलम चला लें, पल्ले से तो कुछ जाना है नहीं ।लेकिन संपत्ति में हिस्सा देने में तो खुद का अंटी ढीला हो रहा है ना !  इसलिए सबका मुँह खपा हुआ है। अगर आप सचमुच स्त्री जाति का उत्थान चाहते हैं, सचमुच चाहते हैं कि हमारा समाज एक सभ्य समाज बने तो, अपने स्वार्थ के दलदल से बाहर आईये। स्त्रियों को उनका जायज़ हक दीजिये, जिसे आप पुरुषों ने दबाया हुआ है। अगर ये सम्बल स्त्रियों को मिलेगा तो किसी में हिम्मत नहीं होगी, स्त्रियों को प्रताड़ित करने की। अगर हिम्मत है तो कोई मेरी इस बात का जवाब दे। 

कोई बेकार की ये दलील देने की कोशिश न करे, कि स्त्री को तो ससुराल में भी सबकुछ मिलता है। हम आप बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि जब स्त्री के अपने पिता-भाई ही उसे अपाहिज बनाने में कोई कमी नहीं रखते तो, उसे ससुराल वाले काहे कुछ देने लगे ?? और अगर ऐसा है तो कितने हैं, जो कह सकते हैं, उन्होंने अपनी पत्नी या बहू के नाम जायदाद लिखवा दिया है अब तक। 

दहेज़ देने की बात पर, यही कहूँगी, दहेज़ जैसी चीज़ का अब लडकियाँ, खुल कर बहिष्कार करें। क्योंकि दहेज़ भी पुरुषों की मांग होती है, और वो लड़कियों के हाथ भी नहीं आता। लडकियां साफ़ साफ़ कहें हमें दहेज़ नहीं, अपने पिता की संपत्ति में हिस्सा चाहिए, जो उनका क़ानूनन हक़ है। इसके लिए सभी माओं को भी सामने आना होगा। माताएं अपनी बेटियों के भविष्य के लिए बेटियों का साथ दें। मैं भी माँ हूँ और मैं अपनी बेटी का साथ, हर हाल में दूँगी।


43 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि-
    आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज सोमवार (15-04-2013) के 'दूसरी गुज़ारिश ' : चर्चा मंच 1215 (मयंक का कोना) पर भी होगी!
    नवरात्रों की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ!
    सूचनार्थ...सादर!

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  2. अगर ये सम्बल स्त्रियों को मिलेगा तो किसी में हिम्मत नहीं होगी, स्त्रियों को प्रताड़ित करने की। अगर हिम्मत है तो कोई मेरी इस बात का जवाब दे।

    स्वप्न शैल मञ्जूषा जी आपको दो निजी उदाहरण देता हूँ मैं स्वयं अपनी बहनों के प्रति समर्पित हूँ ऐसा नहीं की मुझमें कोई राग द्वेष नहीं कमी मुझमें भी है किन्तु लोग कहते हैं भाई हो तो रमाकांत जैसा ....नंबर दो तथागत ब्लॉग के सर्जक श्री राजेश कुमार सिंह जी कोई नहीं जानता की उनकी सगी बहन नहीं वो अपनी चचेरी बहनों को सगी बहन से भी ज्यादा प्यार करते हैं .नंबर तीन श्री सतीश सक्सेना जी का प्यार बिन जाने झलकता है और मो सम कौन .....? भाई संजय अनेजा जी को भी इसी श्रेणी में शामिल करना चाहूँगा ...
    वास्तव में त्रासदी यह है की यह सब व्यक्तिगत हित और स्वार्थ पर जा टिकता है तब मन संकुचित हो जाता है . शेष फिर कभी .....

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    1. भईया,
      मेरा प्रश्न बहुत सीधा है, क्या भाई-पिता अपनी पैतृक संपत्ति में अपनी बहन-बेटी को हिस्सा देंगे, जो उसका जन्मसिद्ध अधिकार है ?

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  3. प्रतिकार यदि कुछ के अन्याय के विरुद्ध सबको दण्ड देने का है तो वह दोषपूर्ण है। समस्या की उपस्थिति और व्यापकता दो भिन्न तथ्य हैं। किसी भी तथ्य को सार्वभौमिक रूप दे देना बौद्धिक उत्पात है। बस यह याद रहे कि प्रतिकार के रूप में एक नयी समस्या आकार न ले ले। प्रकृति साम्य चाहती है और नारी प्रकृति के अधिक निकट है।

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    1. मौन खड़ी भीड़ स्वयं को निर्दोष न समझे। नारी भी सिर्फ यही चाहती है प्राकृतिक साम्यता। इसी साम्यता की गुहार अब नारी लगा रही है। इतने वर्षों की नारी की डिब्बा बंद ज़िन्दगी प्रतिकार तो करेगी ही। अपरोक्ष रूप से ही सही मौन भीड़ ने नारी को डिब्बा बंद करने की स्वीकृति तो दी ही है। जब अन्याय हद से ज्यादा बढ़ जाता है तो उत्पीड़ित प्रतिकार करता है। उत्पीड़ित माप कर प्रतिकार नहीं करता, वह सिर्फ प्रतिकार करता है, तब तक जब तक उत्पीड़ित की बात उत्पीड़क और दम साधे लोग समझ न जाएँ। प्रतिकार के लिए पीड़ित साम, दाम, दंड भेद सभी कुछ अपनाएगा।

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  4. आत्मनिर्भर होने की शुरुआत माता - पिता की ओर से होनी चाहिए , एक दम सहमत हूँ . ये नहीं कि सारा बदला जाकर वे दुसरे के घर निकले , अपना घर पता नहीं कब जाकर बने ! ससुराल में अपनी बेटी के लिए समान अधिकारों की मांग करने वालों को अपने घर में बेटियों को भी यह अधिकार देना होगा भी यह !

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    1. बेटी-बहू दोनों को ससुराल-मायका में सामान अधिकार मिलना ही चाहिए, नारी के उत्थान का यही एक रास्ता है, दूसरा कोई नहीं।

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  5. दीप जी को ये बातें पहले भी समझाइ जा चुकी हैं।पर वे बहस का फोकस नहीं तय कर पा रहे हैं या करना नहीं चाहते।बेटी की संपत्ति की बात ऐसा नहीं है पहली बार आपने ही लिखी है पहले ही पुरुषों द्वारा भी यह मुद्दा उठाया गया है।ये हिस्सा बेटियों को तब तक नहीं मिलेगा जब तक कि बेटी का "ससुराल" जैसी अवधारणा खत्म नहीं होगी।उन्हें लगता है बेटी को देने से घर की संपत्ति बाहर चली जाएगी ।और बेटों को देने के पीछे भी उनका अपना स्वार्थ है भले यह बात कहने में अच्छी न लगे लेकिन अपनी आगे की जिंदगी उन्हें बेटों के साथ ही गुजरनी है।बेटे अगर मदद न भी करे तो भी उन्हें समाज में अपनी इज्जत के लिए उनसे बनाकर रखनी ही पड़ती है।बेटी की दहेज देंगे अच्छे रिश्ते के लिए ज्यादा भी देंगे चाहे मकान जमीन बेचना पड़े।आप कह सकती हैं कि बेटी को नहीं मिलता पर दिया तो जाता है बेटी के लिए ही यूँ ही कहीं भी नहीं ब्याह देते वो बेटी का भविष्य देखते हैं।पर संपत्ति तभी दी जा सकती है जब भाई(कुछ मामलों में भाभी भी) राजी हो लेकिन वो ऐसा क्यों करेंगे वो तो खुद अपने भाई को हिस्सा नहीं देना चाहते।अभी तक ऐसी व्यवस्था नहीं रही इसलिए कोई सोचता ही नहीं।कानून से समाज नहीं बदलता ।

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    1. बेटी को पराया मानना छोड़ना होगा। बेटी भी उतनी ही अपनी है जितना बेटा। अधिकतर मामलों में तो बेटियाँ ज्यादा अपनी होतीं हैं। बेटी को संपत्ति देने से ये सोचना कि संपत्ति बाहर चली गयी, ये सिर्फ़ एक संकुचित सोच है। जब बेटी को ही बाहर निकाल दिया तो संपत्ति उससे भी बड़ी बात बन जाती है क्या ??? संपत्ति से प्रेम है, बेटी ने नहीं ????सच पूछा जाए तो कुछ पीढ़ियों के बाद संपत्ति का क्या होता है, कौन जानता है। लेकिन अपने जीते जी तो कम से कम अपने बच्ची को उसका हक देना ही चाहिए। वैसे अब ससुराल का कांसेप्ट लगभग ख़तम ही हो रहा है, एकल परिवार का ज्यादा चलन है। इस वजह से अब बेटियाँ अपने माँ-बाप की ज्यादा अच्छे से देख भाल करतीं हैं। माता-पिता अब सिर्फ बेटों पर आश्रित नहीं रह गए हैं। ब्लॉग जगत में ही घुघूती जी का उदाहरण है, अपनी माता जी की देख भाल वही करतीं हैं। ऐसे और ना जाने कितने उदाहरण हैं। अब माता-पिता भी बेटियों से सहायता लेने से नहीं कतराते। अब तो कानून भी कहता है, बेटियों को अपने माँ-बाप की जिम्मेदारी लेनी होगी। हम तो सोचते थे कि एक सभ्य समाज क़ानून की इज्ज़त करता है, लेकिन तुम कह रहे हो क़ानून समाज नहीं बदलता ! जो समाज, कानून तक को ठेंगा दिखाए उस समाज के बारे में क्या कहा जा सकता है। और फिर हम भारतीय समाज और संस्कृति का गुणगान करते नहीं थकते। नो वंडर स्त्रियों के प्रति इतने अपराध यूँ ही नहीं हो रहे हैं।

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    2. मैं तो यही कहूँगी, माँ-बाप लड़कियों को पढ़-लिखा कर इस काबिल बनाएँ, कि वो आत्मनिर्भर बने, उसके जीवन साथी के चुनाव में माता-पिता उसकी मदद करें, दहेज़ का बहिष्कार लड़की स्वयं करे, अपने पिता की पैतृक संपत्ति में हिस्सा ले और बुढापे में अपने माता-पिता की देख भाल की जिम्मेवारी भी ले।

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    3. मैंने कहा न कि बेटी के लिए वो हर संभव मदद करेंगे जिसमें उन्हें अडचन नहीं है लेकिन संपत्ति में हिस्सा देते हुए उन्हें अपना स्वार्थ देखना होगा जब तक वो बेटों पर आश्रित है ।हाँ कुछ बेटियाँ मदद जरूर करती हैं पर स्थाई रूप से अभी भी अभिभावकों को बेटों पर ही निर्भर रहना पड़ता है।कुछ उदाहरणों के बल पर तो मैं भी कह सकता हूँ कि बेटियों को संपत्ति में हिस्सा दिया जाने लगा है।और कानून जिसके लिए बना है उसे ही इसका प्रयोग करना चाहिए।वैसे जहाँ तक मुझे पता कानूनन तो पिता अपनी संपत्ति किसीके भी नाम कर सकता है पर बेटियों को अब खुद अपने हक के लिए आवाज उठानी चाहिए।बहुत से पिता भाई मान जाएँगे तो कुछ झगड़ा करेंगें तो वह तो अभी भी हर घर में बँटवारे के समय होता ही है।हाँ ये जरूर अंतर आएगा कि अब दो बहनों में भी झगड़ा हो सकता है(अभी भी होता है पर छोटे कारणों से)।पर पहल तो बेटियों को ही करनी होगी वर्ना वही चलता रहेगा जैसा अब तक चलता आया है।वैसे आपका सवाल मुझ पर लागू नहीं क्योंकि मेरी कोई बहन नहीं पर हाँ यदि होती तो मुझे कोई आपत्ति नहीं होती यदि मेरे पिता अपनी पूरी संपत्ति भी उसके नाम कर देते ।

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  6. एक बेहद उम्दा पोस्ट अदा जी। आपको एक और सच्चाई से रूबरू करवाता हूँ। हमारे उत्तराखंड में श्रीनगर गढ़वाल के समीप एक डैम प्रोजक्ट चल रहा है, जिसकी वजह से आस-पास के अनेक गाँव डूब क्षेत्र में आने की वजह से विस्थापित किये जा रहे है। सरकार इन विस्थापितों को जीवीके कंपनी के मार्फ़त उजड़ने का मुआवजा बाँट रही है। अभी हाल ही में आपको याद होगा कि हमारी इसी महान सरकार ने हिन्दू अधिनियम में संशोधन कर पिता की सम्पति में लडकी का भी हिस्सा तय किया था। इसी नियम के आधार पर जब कुछ उन युवतियों और महिलाओं ने जो विवाहित है, और जिनका मायका इन गाँवों में है, यह कहकर की गाँव डूबने के बात वे भी अपनी जन्म भूमि से हमेशा के लिए महरूम हो जायेगी अत उन्हें भी मुआवजा मिलना चाहिए। ( मै समझता हूँ की यह एक बहुत जायज मांग है ) मगर सरकार ने मना कर दिया की सिर्फ लडको और उनके माँ-बाप को ही मुआवजा दिया जाएगा । अब आप सोचिये जब सरकार हमारी इतनी ग्रेट है तो इस सरकार को बनाने वाले तो और भी ग्रेट होंगे ही :)

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    1. गोदियाल साहेब,
      आपके समर्थन के लिए आपका धन्यवाद !
      भारत की नीतियां हमेशा से ही लचर रहीं हैं, और फिर 'नहीं' देने के लिए तो लूप-होल ढूँढने में हमलोग माहिर ही हैं। जब स्ट्रेट फॉरवर्ड क़ानून की धाराओं को तोड़-मरोड़ कर उसकी धज्जी उड़ा दिया जाता है, तो जहाँ ज़रा भी गुंजाईश हो उसे भला कैसे बक्श दिया जाएगा। नीतियों को एक सही प्रारूप देने की बहुत आवश्यकता है। सच कहूँ तो बेशक हमें आज़ाद हुए ६६ वर्ष हो गए, न तो संविधान को दुरुस्त किया गया है न ही क़ानून की धाराओं को। काम कुछ भी नहीं हुआ है। त्रासदी ये है कि हम अपने नेता भी तो सही नहीं चुन पाते, जो चुने जाते हैं अधिकतर नालायक होते हैं, और जो थोड़े लायक होते हैं, वो नालायकों की राजनीति में किसी लायक नहीं रहते।

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  7. आज के संदर्भ की वैचारिक प्रस्तुति की है आपने
    वाकई देह और कपड़े की चर्चा से नारी मुक्ति की बहस कभी सफल नहीं हो पायेगी
    नारी मुक्ति की सफलता तो जब होगी कि, पुरुष स्वयं स्वीकारे की नारी
    पुरुष के समान दर्जा प्राप्त है
    आपका आलेख
    गहरे तक भेदता है मन को
    उत्कृष्ट प्रस्तुति





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    1. जी हाँ ज्योति जी, स्त्री विमर्श के नाम पर, स्त्री देह और उनके कपड़ों पर विमर्श गल-थेथरी से ज्यादा और कुछ नहीं है।
      इसके न कोई ठोस परिणाम निकलते हैं, न ही नारी की स्थिति को कोई फायदा होता है, बस मनोरंजन के लिए एक मज़मा लगाया जाता है।
      आपने बिलकुल सही कहा, विमर्श ही करना है तो इस बात पर करें, कि नारी, पुरुष के बराबर है।

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  8. Replies
    1. धन्यवाद विकेश !
      अच्छा लगा जान कर कि तुम्हें पसंद आया।

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  9. आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार १६ /४/ १३ को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका वहां स्वागत है ।

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    1. आपका हार्दिक आभार राजेश जी !

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  10. 'फेमेन' जैसी संस्था के आन्दोलन से हमारे ब्लॉगजगत के लोग क्यूँ आतंकित हैं ,समझ में नहीं आता. शायद जरूरत से ज्यादा ही डरे हुए हैं. किसी कवि ने ठीक ही कहा है, "दूर कहीं कोई दर्पण टूटे तड़प के मैं रह जाता हूँ "

    और इस तरह के प्रदर्शन हमारे देश में 2004 में ही हो चुके हैं . जब सेना द्वारा एक लड़की 'मनोरमा ' के कथित बलात्कार और ह्त्या के विरोध में मणिपुर की साठ वर्ष की उम्र तक की महिलाओं ने 'Mothers of Manorma' के नाम से आर्मी हेडक्वार्टर के सामने वस्त्रहीन होकर प्रदर्शन किया था .इस तरह के प्रदर्शन तब होते हैं जब अन्दर का आक्रोश ज्वालामुखी बन फूट पड़ता है. इस प्रदर्शन की कोई परिपाटी नहीं बनी न ही इसका नक़ल किया जाने लगा. किसी दूसरे प्रदेश की महिलाओं ने इस प्रदर्शन से प्रेरणा लेकर अपने कपड़े नहीं उतार फेंके. तो सुदूर देश की महिलाओं के इस तरह के प्रदर्शन से क्यूँ खौफ खा रहे हैं, लोग ? ऐसे प्रदर्शन देखा- देखी या महज fun या मनोरंजन के लिए नहीं किये जाते .

    जो लोग स्त्री देह को जेब से झांकते नोटों की तरह देखते हैं, उनकी नज़र का ही दोष है, कुत्सित नज़र है उनकी. तुमने सोदाहरण बता ही दिया है कि कभी ब्लाउज न पहनना बिलकुल सहजता से लिया जाता था.
    मैं पहले भी कहीं इस घटना का जिक्र कर चुकी हूँ कि लेखिका शिवानी जब शान्तिनिकेतन में पढ़ती थीं. वहाँ घास काटने जो महिलायें आती थीं. वे ब्लाउज नहीं पहनती थीं. शिवानी और उनकी सहेलियों ने उन्हें ब्लाउज सिल कर दिए . उनलोगों ने पहने और फिर उतार कर उन्हें वापस कर दिया कि "ब्लाउज पहनने में शर्म आती है "तो यह तो नज़रों पर निर्भर करता हैं.

    लड़कियों को भी संपत्ति में हिस्सा देने की मांग , आज की जरूरत है. लड़कियों को भी पढने-लिखने ,आगे बढ़ने के सामान अवसर देना हर माता-पिता का कर्तव्य होना चाहिए. अगर माता-पिता की संपत्ति पर उनका भी हक़ हो तो दहेज़, घरेलु हिंसा जैसी कुरीतियाँ अपने आप ख़त्म हो जायेंगी क्यूंकि तब लड़की के पास भी खड़े होने की अपनी जमीन होगी (in literal meaning ) वे डगरे के बैंगन की तरह इधर से उधर नहीं लुढका दी जायेंगी.
    इसमें माँ की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है. हर माँ की ये कोशिश होनी चाहिए कि उसकी बेटी को उस से बेहतर ज़िन्दगी मिले.

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    1. Bravo रश्मि,

      'Mothers of Manorma' का तुमने इतना बढ़िया उदहारण दिया की क्या कहूँ !
      ये बिलकुल सच है, ऐसे आन्दोलन बेवजह नहीं होते, इनके पीछे आक्रोश का ज्वालामुखी ही होता है। जब नारियाँ ऐसे ड्रास्टिक मेसर्स लेतीं हैं, तो कल्पना करना चाहिए कि फ्रस्ट्रेशन की सीमा क्या होती है ? कुछ समय पहले अमेरिका में एक नववधू को शादी से पहले ही उसके पूर्व प्रेमी ने गोली मार दी थी, जिसे उसने बहुत पहले ही छोड़ दिया था। तब उसकी हत्या के आक्रोश में नारियों ने दुल्हन के परिधान में प्रदर्शन किया था। असहयोग,प्रतिकार के अपने अपने सिम्बल होते हैं, और उनको बताने का अपना तरीका। आन्दोलन, प्रदर्शन, सिम्बल को उसी तरीके से लेना चाहिए, आख़िर ऐसा क्यों किया जा रहा है? क्या वजह है ? उसका कारण जानना ज्यादा ज़रूरी है, बनिस्पत इसके कि स्त्री देह को ज़ेब से झाँकता हुआ नोट कहा जाए। ये तो वैचारिक बैंकरप्सी है।
      सभी माओं को इस मामले में खुद से वादा करना होगा, कुछ भी हो जाए अपनी बेटी-बहुओं को उनका अधिकार दिलवा कर रहेंगी। मैंने तो ये वादा कर लिया है, खुद से।

      बहुत ही साधा हुआ कमेन्ट है तुम्हारा, kudos !

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    2. bravo rashmi

      very balanced post swapna.

      i really don't understand WHY these things need to be explained to people ? do they REALLY not know that their views are highly biased ?

      if they do know and they are acting asleep - you can never wake them up - because it is not POSSIBLE to awaken people who are already awake but act asleep ..... :(

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    3. शिल्पा,
      उनके कान के पास इतने जोर का भोंपू बजाना है कि बहरे ही हो जाएँ। क्योंकि सुना है जो बहरे हो जाते हैं, वो गूंगे भी हो जाते हैं।

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  11. बिलकुल नारी को उसके वाजिब कानूनन अधिकार मिलने ही चाहिए

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    1. समर्थन के लिए धन्यवाद अरविन्द जी !

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  12. ये अधिकार मिलना सही मायने में उन्हें सशक्त करना होगा ..... पर दुखद बात ये कि गोदियाल जी कि टिप्पणी के अनुसार जहाँ सरकर ही यह न्यायसंगत कार्य नहीं कर रही वहां परिवारों से क्या आशा रखी जाय , और सामाजिक परिवेश तो शायद यह बदलाव स्वीकार ही न कर पाए , उम्दा विवेचन

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    1. मोनिका जी,
      एकदम परफेक्ट बात कही आपने। लेकिन मैं बहुत आशान्वित हूँ। हम सभी जानते हैं रास्ता कठिन है, लेकिन यही क्या कम है कि रास्ता तो है ! समाज बदलेगा भी और इस बात को स्वीकारेगा भी, देर हो सकती है लेकिन अंधेर नहीं !

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  13. अदाजी , आपको ये जानकर ख़ुशी होगी कि दाउदी बोहरा समुदाय में परम्परा से बेटियों को दहेज़ न दे कर सम्पत्ति में हिस्सा मिलता है. ये समुदाय मुख्यतया मुंबई, गुजरात और कुछ अन्य स्थानों पर रहता है और इस्लाम धर्म को मानता है.

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    1. शोभा जी,
      आपका स्वागत है !
      अँधेरे में रौशनी की तरह लगी है आपकी टिप्पणी। इस जानकारी के लिए आपका हृदय से धन्यवाद!

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  14. बेटि‍यों को सबल बनाने की पहली कोशि‍श उसके अपने घर से ही होनी चाहि‍ए...बि‍ल्‍कुल सही बात। इसके लि‍ए ये भी जरूरी है कि दहेज प्रथा समाप्‍त हो क्‍योंकि कई अभि‍भावकों का मानना है कि बेटि‍यां अपना हि‍स्‍सा दहेज के रूप में ले ही लेती हैं, उन्‍हें और कि‍तना दि‍या जाए.....
    रही प्रदर्शन की बात....तो जो लोग स्त्री देह को जेब से झांकते नोटों की तरह देखते हैं, उनकी मानसि‍कता पर तरस ही आता है। ये अपने नजरि‍ये और सोच ही की बात है।
    मुझे अच्‍छा लगा ये जानकर की आप मेरे ही शहर की हैं...और यकीनन...अब भी देहातों में ब्‍लाउज का उतना चलन नहीं है।

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    1. अरे वाह रश्मि,
      ई तो बहुते बढ़िया बात हुई है, तुम भी रंचियार, हम भी रंचियार, का बात है !
      अब लड़कियों को दहेज़ का बहिष्कार हर हाल में करना होगा। इस बीमारी को जड़ से ख़तम करने का यही एक तरीका है, लड़कियों को उनका सम्मान भी मिलेगा और वो सबल भी होंगी। इतना ही नहीं दहेज़ के नाम पर उनके साथ जो पाशविकता होती है वो भी ख़तम होगी। माँ-बाप पर जो अलग बोझ होता है वो भी समाप्त होगा, लड़कियों को सही मायने में धन मिलेगा, ये टी वी फ्रिज पलंग जैसी चीज़ें नहीं, जो लड़कियों का संबल नहीं बन सकते। मुझे तो इस रास्ते चलने से सब कुछ भला ही होता नज़र आता है। लेट्स डू इट :)

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  15. अदा जी माफ़ी चाहूँगा की इस पोस्ट पर पहली टिपण्णी मेरी होनी चाहिए थी पर एसा हो न पाया। अपने मेरी पोस्ट का लिंक दिया इसके लिए धन्यवाद पर शायद यहाँ के किसी भी टिप्पणीकर्ता ने मेरी पोस्ट नहीं पढ़ी अन्यथा कोई तो एक होता ( हाय !!!!) जो ये कहता की अदा जी अपने बड़ी बेदर्दी से जिस बन्दे को पीटा उसने अपनी पोस्ट में स्त्री देह को जेब से झाकते हुए नोटों की तरह तो कहीं नहीं समझा। या तो लोग मेरी बात समझ नहीं सके (जिसकी मैं समझता हूँ की संभावना बहुत ज्यादा है)या फिर वो आपकी बहुत ज्यादा इज्जत करते हैं, और इतना प्रेम करते है की उन्हें आपकी गलती नज़र ही नहीं आयी।
    अदा जी, फेमेन को लेकर मुझे नहीं लगता की मेरे अलावा किसी दुसरे व्यक्ति ने कहीं कोई पोस्ट लगई हो अतः सभी निश्चिन्त रहें ब्लॉगजगत में कहीं कोई भूकंप नहीं आया। फेमेन की हरकतों को लेकर सिर्फ मुझे ही खुजली हुयी है और ये खुजली तब की है जब slut walk को लेकर वास्तव में अपने ब्लॉग जगत में काफी हो हल्ला हुआ था। उस वक्त मैं इन संगठनों की थोथी बातों के खिलाफ अपने विचार व्यक्त नहीं कर पाया था। फेमेन का जिहाद Slut Walk जैसा ही था इसलिए इस प्रकार के सभी विरोध प्रदर्शनों के खिलाफ मैंने अपनी बात रखी। ये प्रदर्शनकारी नारी अधिकारों की बात को एकदम गलत तरीके से सामने रखते हैं। मुझे लगता है की इस प्रकार के बेहूदा प्रदर्शनों से नारी आन्दोलन अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। मेरी नज़र में ये लोग वैसे ही उपद्रवकारी हैं जैसे की दिल्ली में अन्ना के आन्दोलन में घुस आये थे और सार्वजनिक संपत्ति का नुकसान कर रहे थे। असाम रायफल हेडक्वाटर पर हुए प्रदर्शन की तुलना इन प्रदर्शनों से नहीं की जा सकती। कपडे उतर देने भर से दोनों में समानता नहीं हो जाती। अपनी बात को समझाने के लिए मुझे काफी लिखना पड़ेगा जो फ़िलहाल मेरे बस में नहीं।

    फ़िलहाल में एक बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ की जिस स्त्री देह की आप बात कर रही हैं और जो पोस्ट पर लगे फोटोग्राफ में नज़र आ रही है, अपने नोट वाले उदहारण में,, मैं उस स्त्री देह की कही बात ही नहीं कर रहा था। मैं जिस स्त्री देह की बात कर रहा था वो टाईट ब्लाउज पहनती है ताकि deep cleavage दिखाई पढ़े। वो टाईट पेंट या जींस पहनती है ताकि पीछे से देखने पर नितम्बों की गोलाई और सामने से camel toe स्पष्ट नज़र आए। अपनी इन चीजों की असेट्स के रूप में नुमाइश करने के बाद ये स्त्री कहती है की मुझे दिन या रात में कहीं भी बेरोकटोक घुमाने की आजादी चाहिए। मुझे लगता है की मेरी बात अब कुछ स्पष्ट हुई होगी। नहीं तो शायद फिर कोशिश करूँगा।

    इसके बाद अपनी अगली पोस्ट में, मैं नारी के समानता के अधिकार पर अपने कुछ विचार रखना चाहता था जिनमें से बहुत सी बातें अपने कह ही दी हैं पर फिर भी स्त्री और पुरुष के बीच समानता किन मुद्दों पर होनी चाहिए यह में थोड़े समय में जरुर लिखूंगा। आशा है आप यूँ ही मार्गदर्शन करेंगी।

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    1. "वो आपकी बहुत ज्यादा इज्जत करते हैं, और इतना प्रेम करते है की उन्हें आपकी गलती नज़र ही नहीं आयी।"

      का दीप बाबू ! इसकी संभावना का कम लगती है आपको :)
      ख़ैर, मुझे जो लगा वो मैंने लिखा है, आपने अपना पक्ष दिया बहुत अच्छा लगा। कुछ-कुछ बातें चुभीं थीं मुझे जैसे, जेब से बाहर नोट, भविष्य दिखाई देता है इत्यादि।

      आपको शायद मालूम हो फेमेन तो सिर्फ टॉपलेस प्रदर्शन कर रही है लेकिन हमारी बहुत प्यारी सखी रश्मि ने या जानकारी दी है, कुछ अंश यहाँ दे रही हूँ
      इस तरह के प्रदर्शन हमारे देश में 2004 में ही हो चुके हैं . जब सेना द्वारा एक लड़की 'मनोरमा ' के कथित बलात्कार और ह्त्या के विरोध में मणिपुर की साठ वर्ष की उम्र तक की महिलाओं ने 'Mothers of Manorma' के नाम से आर्मी हेडक्वार्टर के सामने वस्त्रहीन होकर प्रदर्शन किया था

      विरोध दिखाने का अपना-अपना तरीका है, विरोध अक्सर जिस बात की ज़बरदस्ती की जाती है उसके उल्टा ही काम करके दिखाया जाता है। जैसे किसी से कहा जाए पढो, अगर उसे विरोध करना है तो वो नहीं पढ़ के करेगा। इस केस में मुस्लिम लड़कियों को इतना ज्यादा कपड़ों, पर्दों से लाड किया गया है कि, उनके शरीर का कोई हिस्सा बाहर नहीं होता, सिवाय आँखों की खिड़की के। यह सरासर ज़ुल्म है, इसका प्रतिकार वो अंग उघाड़ कर कर रहीं हैं। उनका मकसद अगर आप समझें तो उनका साथ देना चाहिए। हो सकता है कि यह कुछ देर की असहजता है लेकिन इसके करने से अगर जीवन भर की सहजता मिलती है तो मैं इसके साथ हूँ।

      बाकी रही बात, लड़कियों के पहनावे की, हर जेनेरेशन में ये मुद्दा रहा है। मुझे याद है, फिल्मों में मुमताज़ बहुत टाईट कुरता पहनती थी, इतना की चलना दूभर हो जाए, लोगों ने उसे एक्सेप्ट कर लिया, हमलोगों को बेलबाटम, स्लैक्स नहीं पहनने दिया जाता था, आज ये बहुत नार्मल ड्रेस है। कोई देखता भी नहीं है। फ़ैशन आते जाते रहते हैं। ये आज का फैशन है और ये कल चला जाएगा। कुछ और आ जाएगा। आज कल ही नया फैशन चल ही पड़ा है, अनारकली कुर्ता, जो मुग़ल कालीन परिधान लगता है। दुनिया बहुत जल्दी ऊब जाती है ऐसी बातों से। आज आप गौर कर रहे हैं, कल आप ध्यान ही नहीं देंगे। परसों आप बैठ के सोचेंगे यार मैं भी कितना बेवकूफ था। ये कोई इतनी बड़ी बात तो नहीं थी।

      रही बात आपकी अगली पोस्ट की तो बस हम इंतज़ार कर रहे हैं। लिखिए कुछ ऐसा कि इस बार ब्लॉग जगत में भूचाल आ ही जाए :) मेरी शुभकामनायें आपके साथ हैं!

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  16. समाज और सभ्यतायें जड़ नहीं होती, अवसरानुसार परंपरायें-प्रथायें बदलती रहती हैं। इनके नियमन के लिये ही कानून बनाये जाते हैं। वर्तमान में बेटी का पिता की संपत्ति पर अधिकार प्रेक्टिस में उतना नहीं है लेकिन कानून तो बन ही चुका है और कानून का इस्तेमाल होने भी लगा है। साधारण हिन्दु परिवारों में अब एक या हद से हद दो संतान होती हैं, एक संतान वाली जगह पर इस कानून का औचित्य ही नहीं और जहाँ एक से अधिक हैं तो भी आदमियों को इससे क्या फ़र्क पड़ेगा? अगर अभी के चलन के विपरीत पिता की संपत्ति में उसकी बहन हिस्सा बांटेगी तो उसकी पत्नी अपने भाई से हिस्सा बाँटेगी। हाँ, इस तरीके से संपत्ति के रख रखाव, सुपरविज़न जैसी नई समस्यायें जरूर उठेंगी। लेकिन इस अधिकार से स्त्री सबल होती है तो जरूर ऐसा ही होना चाहिये।

    ऐसा नहीं है कि इस बारे में आदमी सोचते नहीं हैं। एक बार अपनी बहन से मिलने गया था तो हिस्सा देने की बात करते ही जिसे सबल होना था, वो बहन ही रोने बैठ गई और हमारे बहनोई साहब भी बस ऐसे हैं कि हमें ही डाँट डपट कर बैठा दिया।

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    1. विश्वास है हमको ऐसा ही होगा
      विश्वास है हमको ऐसा ही हुआ होगा

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  17. मुझे समझ नहीं आता कि

    १. हर स्त्री अधिकार की बात को कपड़ों से जोड़ कर घुमा क्यों दिया जाता है ?

    २. बहन को अधिकार देने की बात पर बहन ही का विरोध उसकी मेंटल कंडिशनिंग का परिणाम क्यों नहीं माना जाता ? - क्या हम उन आतंकवादियों को "नार्मल" कहते हैं जो बचपन से हुई मेंटल कंडिशनिंग के कारण बेकसूरों को मारते हैं ?

    ३. स्लट वाक और टोपलेस प्रदर्शन के पीछे की डिमांड को क्यों इगनोर किया जाता है सिर्फ प्रदर्शन के तरीके पर संकुचित रह कर ? यह क्यों नहीं समझा जाता कि यदि ये अन्याय न हों तो इन सब तरीकों/प्रदर्शन की हम स्त्रियों को आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी ?

    अनेक प्रश्न हैं - लेकिन जो इन प्रश्नों के सही उत्तर जानते हैं - वे वैसे ही स्त्री समस्याओं को समझ कर उन्हें सुलझाने में हमारे साथ ही हैं । और जो जानते हैं कि उनके विरोध गलत हैं - वे हमारे इन प्रश्नों को भी मुद्दे से भटकाने के तरीके खोज ही लेंगे ।

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    1. २. बहन को अधिकार देने की बात पर बहन ही का विरोध उसकी मेंटल कंडिशनिंग का परिणाम क्यों नहीं माना जाता ? - क्या हम उन आतंकवादियों को "नार्मल" कहते हैं जो बचपन से हुई मेंटल कंडिशनिंग के कारण बेकसूरों को मारते हैं ?

      शिल्पा,
      अभूत अच्छे पॉइंट्स बताये तुमने।
      हमारे समाज में, बहन/बेटी को अपना बेटी अधिकार माँगना ही बहन/ के लिए शर्म की बात मानी जाती है, जैसे अधिकार नहीं मांग कर वो कोई पाप कर रहीं हों। ये इतनी बुरी बात मानी जाती है, समाज में कि बहन/बेटी के पास इस तथाकथित अपराध से बचने का एक ही उपाय होता है, अधिकार लेने से इनकार कर देना । सही कह रही हो शिल्पा ये पूरी तरह मेंटल कंडिशनिंग ही है और कुछ नहीं। नारी को इससे बाहर आना ही होगा।

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