Saturday, March 30, 2013

पूर्वजन्म से पुनर्जन्म तक ...!


कुछ बातें है ऐसी होती है जिनको न सिर्फ समझना बेहद कठिन है बल्कि असंभव भी है। लेकिन दिमाग  चैन से कहाँ बैठता है। ज़हन में कई प्रश्न आते-जाते रहते हैंजिनका हल खोज पाना अपने वश की भी बात नहीं है, लेकिन फिर भी चुप-चाप थोड़े ही न बैठना है। यह दुनिया रहस्यों से अटी पड़ी है। यूँ तो अधिकतर रहस्यरहस्य ही रह जाते हैं। लेकिन उनके तह तक जाने की कोशिश जारी रहती है ।ऐसे ही रहस्यों से घिरे हुए हैं पूर्वजन्म और पुनर्जन्म । मन तो कहता हैविश्वास कर लें कि पूर्वजन्म भी है और पुनर्जन्म भी। लेकिन दिमाग उसे मानने को तैयार नहीं होता। 

शायद आपको याद हो 80 के दशक में ऋषि कपूर अभिनीत फिल्म आई थी ‘कर्ज़। अपने समय की बहुत ही हिट फिल्म थी। आज भी वो फिल्म अंत तक बांधे रखती है  उसकी पटकथा पुर्नजन्म के इर्द-गिर्द ही घूमती है । राज किरण की हत्या और उसी का ऋषि के रूप में पुनः जन्म लेना। हाल ही में एक और फिल्म इसी से मिलती जुलती आई थीओम शान्ति ओम। उस फिल्म में भी पुनर्जन्म की बात दिखाई गयी है। एक टीवी सीरियल ‘राज़ पिछले जन्म का’ में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिला। ये तो हुई फिल्म और टेलीविजन की बातें। वास्तविक जीवन में भी कभी-कभी, ऐसी अनहोनी बातें, सुनने को मिल ही जातीं हैं कि फलाने बच्चे को अपने पिछले जन्म की बातें याद हैं। लेकिन क्या वास्तव में ऐसा कुछ होता है ?

भारत में ही नहीं, अपितु पूरे विश्व में, पुनर्जन्म एक चर्चा का विषय तो रहा ही है। बड़े-बड़े वैज्ञानिक, जहाँ इसे नकारते हैं, वहीँ विश्व की अधिकतर आबादी, इसपर विश्वास करती है। यह सदा से ही एक, बहस का मुद्दा बना हुआ है। कई धर्म पुस्तकों में, पुनर्जन्म का ज़िक्र है। हिन्दू, जैन, बौद्ध जैसे धर्मों के ग्रंथों में इसका वृहद् उल्लेख मिलता है। इतना ही नहीं कई प्रसिद्ध दार्शनिक भी, जैसे सुकरात, पुनर्जन्म पर विश्वास करते थे। हाँ इस बात को सीधे से ख़ारिज करने वाले भी कई धर्म हैं, जैसे ईसाई धर्म और  इस्लाम। लेकिन जीजस का जी उठाना भी तो पुनर्जन्म का उदाहरण माना जा सकता है।

हिंदू मान्यतानुसार, मनुष्य मरणोपरांत, पुनर्जन्म अवश्य लेता है। उसका शरीर बदल जाता है परन्तु आत्मा वही रहती है। ये अलग बात है कि मरने के बाद पुनर्जन्म कब होता है, यह कहीं भी नहीं बताया गया है । हिन्दू मान्यता कहती है, मानव शरीर नश्वर है परन्तु आत्मा अनश्वर है। मृत्यु के बाद आत्मा विचरण करती रहती है। उस आत्मा के कर्मानुसार, सही समय आने पर और सही शरीर मिलने पर ही आत्मा को शरीर प्राप्त होता है, और तदुपरांत उसका जन्म । अगर हम अपने धर्म ग्रंथों को खंगालते हैं तो ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जिसमें पुर्नजन्म की बात कही गई है। 

महाभारत के पात्र शिखंडी से आप सभी परिचित हैं। शिखंडी अपने पूर्व जन्म में, काशीराज की पुत्री अम्बा थी ।  शिखंडी के रूप में, अंबा का ही पुनर्जन्म हुआ था। उसकी दो और बहनें थीं अम्बिका और अम्बालिका। जब लडकियाँ विवाह योग्य हो गयीं तो उनके पिता ने उन तीनों का स्वयंवर रचाया। लेकिन वहाँ एक घटना घटित हुई। हस्तिनापुर के संरक्षक भीष्म ने, अपने भाई विचित्रवीर्य के लिए काशीराज की तीनों पुत्रियों का स्वयंवर से ही हरण कर लिया। जब तीनों को लेकर वो, हस्तिनापुर पहुँचे,  तब उन्हें ज्ञात हुआ कि अंबा किसी और से प्रेम करती है। यह जान लेने के तुरंत बाद ही, भीष्म ने अम्बा को उसके प्रेमी के पास, पहुँचाने का प्रबंध कर दिया। अंबा अपने प्रेमी के पास पहुँच भी गयी, लेकिन भीष्म द्वारा हरे जाने के कारण, उसे अपमानित होकर लौटना पड़ा। अम्बा ने इस पूरे प्रकरण के लिए भीष्म को ही जिम्मेवार माना और भीष्म को स्वयं से विवाह करने पर जोर दिया। भीष्म ने आजीवन ब्रम्हचर्य का व्रत लिया था, अस्तु वो विवाह नहीं कर सकते थे। भीष्म के मना करने पर, अंबा ने प्रतिज्ञा ली, कि वह एक दिन भीष्म की मृत्यु का कारण बनेगी। अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए उसने घोर तपस्या की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने, उसकी मनोकामना पूर्ण होने का वरदान दे दिया। उसके बाद अंबा ने ही शिखंडी के रुप में पुनर्जन्म लिया और वही भीष्म की मृत्यु का कारण बनी।

कहते हैं मीराबाई द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण की सखी थी, जिसका नाम ललिता था। उसी ललिता का पुनर्जन्म कलियुग में कृष्ण भक्त 'मीरा' के रूप में हुआ था। उदयपुर के राणा साँगा के पुत्र कुँवर भोजराज के साथ उनका विवाह हुआ था। विवाह के कुछ वर्षों बाद ही कुँवर भोजराज का निधन हो गया। मीरा को पति के साथ सती होने के लिए भी बाध्य करने की कोशिश गयी थी, परन्तु मीरा ने सती होना स्वीकार नहीं किया । विधवा मीरा ने अपना सम्पूर्ण जीवन, श्री कृष्ण की भक्ति में लगा दिया। वो अपना घर त्याग कर कृष्ण की तलाश में निकल पड़ीं । ऐसा कहा जाता है कि अंत समय में, तीर्थाटन करती हुई मीरा, मथुरा, वृन्दावन में भटकती हुई मीरा, द्वारिकापुरी के रणछोड़ दास की मूर्ति में सशरीर समा गई थी।

कहते हैं, श्री रामचंद्र जी के छोटे भाई, लक्ष्मण का पुनर्जन्म द्वापर में, भगवान कृष्ण के बड़े भाई बलराम के रूप में हुआ था। ऐसी कई कथाएँ हमारे धर्म ग्रंथों में पढने को मिल जायेंगी

बौद्ध धर्म के गुरु दलाईलामा को बौद्धावतार माना जाता है। आज भी उनकी पूजा प्रत्येक तिब्बती नागरिक देवता के रूप में करता है । कहा जाता है कि उन्हें अपने पिछले जन्म का पूरा वृतान्त याद है। पिछले जन्म में वे कहां पैदा हुए थे, उन्हें सब मालूम है । यह भी कहा जाता है कि, उनका अगला जन्म कहाँ होगा, यह भी उनको पता है । सुनने में तो यहाँ तक आता है, कि सभी दलाईलामा अपनी मृत्यु से पूर्व ही अपने शिष्यों को बता देते हैं, कि उनका अगला जन्म कहाँ होने वाला है।

वर्तमान में भी अगर आसपास नज़र डाले तो ऐसी कई घटनाऐं हमारे सामने आ जायेंगी। आये दिन समाचार पत्र व न्यूज़ चैनल की सुर्खिया बनती रहतीं हैं ऐसी घटनाएं । उनकी प्रमाणिकता पर बेशक़ हम सवाल खड़े कर सकते हैं, लेकिन उनको नज़रंदाज़ हम नहीं कर सकते। ये रही ऐसी ही एक ख़बर :

सीतामढ़ी, बिहार के शिवहर जिले के महुअरिया गांव के, चार वर्षीय आयुष को, अपनी पूर्व जन्म की सभी बातें बखूबी याद हैं। उसकी बातों को सुनकर परिजन ही नहीं, बल्कि पूरा इलाका हैरत में है। प्रतिदिन हजारों की संख्या में लोग, उसकी बातें सुनने के लिए गांव पहुँचने लगे । उदय चन्द द्विवेदी के द्वितीय पुत्र आयुष, पूर्व जन्म की बातें याद होने का दावा कर रहा है और उसके घर पहुंच रही भीड़ से, अपनी  पूर्व जन्म की बातें धड़ल्ले से बखान करता है।
उसकी मां सुमन देवी बताती है कि पत्र-पत्रिकाओं में पढ़ा था कि कुछ लोगों को पूर्व जन्म की बातें याद रहती हैं। परन्तु अब उनके माथे पर ही यह पड़ गया। वे किसी अनहोनी की आशंका व्यक्त करते हुए कहती हैं कि जो भी हो रहा है, वह उनके परिवार के लिए अच्छा नहीं है। इधर, चार वर्षीय आयुष ने बताया कि पूर्व जन्म में उसका नाम उज्जैन सिंह था तथा उसकी पत्नी का नाम बेबी सिंह था। उसके पिता धीरेन्द्र सिंह और माता वीणा देवी थीं। वे तीन भाई थे। जिनका नाम धीरज, नीरज व धर्मेन्द्र था।
सका दिल्ली के एलमाल चौक के रोड न. 4 में भव्य आवास है तथा चांदनी चौक की गली न. 5 में भी एक मकान है, जहां उसके बड़े भाई नीरज सिंह रहते हैं। उसके पास दो मारूती कार, एक लाइसेंसी बन्दूक तथा एक पिस्टल एवं कई मोबाईल फोन थे। उसकी तीन बहनें थीं और उसकी ससुराल बिहार के औरगांबाद जिले में है । आयुष का दावा है कि उसकी शादी का जोड़ा आज भी, उसके अलमीरा में सजाकर रखा हुआ है। सोने वाले कमरे में उसका और उसकी पत्नी बेबी सिंह का संयुक्त फोटो टंगा हुआ है।
आयुष का कहना है कि वह पूर्व जन्म में भवन निर्माण विभाग में ठेकेदारी का कार्य करता था और सरकारी भवने बनवाता था। उसका कहना है कि उसने बाबा रामदेव का योग भी, त्रिकुट गांव में सीखा था जो आज भी याद है। चार वर्ष की उम्र में ही आयुष, अच्छी तरह से योग भी कर लेता है। वह कहता है कि एक बार उसका एक्सीडेन्ट हो गया था, जिसमें वह बुरी तरह घायल हो गया था। 21 सितम्बर 2006 की सुबह उसे सांप ने कांट लिया, जिसके बाद परिजनों ने इलाज कराया और वह बेहोश हो गया। इस घटना के बाद की कोई भी बात उसे याद नही हैं। आयुष की मां सुमन देवी का कहना है कि यदि आयुष का कहना सत्य है तो इसकी मौत सांप के काटने से हुई है और 21 सितम्बर 2006 के दोपहर में ही आयुष का जन्म हुआ था। हालाँकि, आयुष द्वारा बताई गयी सभी बातों का सत्यापन किया जा सकता है।
राजस्थान के हनुमानगढ़ में रहनेवाले सात साल के अवतार ने, न सिर्फ विज्ञान को बल्कि कानून के जानकारों के सामने भी बड़ी चुनौती खड़ी कर दी थी । बच्चे का दावा है कि उसका पुनर्जन्म हुआ है और वो अपने कातिलों को अच्छी तरह जानता है। सात साल पहले बड़ी बेरहमी से उसकी हत्या कर दी गयी थी। उसकी इन बातों से परेशान होकर एक दिन अवतार के पिता चरण सिंह ने फैसला किया कि वो अपने बच्चे को उस जगह लेकर जाएगें, जिस जगह का ज़िक्र वो हमेशा किया करता है।
पंजाब के फिरोजपुर जिले में, अबोहर पहुंचते ही सात साल का अवतार अजीबोगरीब हरक़त करने लगा।  सात साल पहले वो जिन रास्तों से आया-जाया करता था, उसे वो सभी रास्ते बहुत अच्छी तरह याद थे। वो कई लोगों को पहचानने लगा। उसे चौक, घर, दुकानें सभी याद आने लगीं। चरण सिंह एकदम हैरान रह गए जब सात साल के अवतार ने अपने पिता को एक घर के सामने लाकर खड़ा कर दिया और उनको बता दिया यही  उसके  पूर्वजन्म का घर है। उस घर में मौजूद लोगों ने तो अवतार को नहीं पहचाना, लेकिन अवतार ने उन सब  को एक-एक कर पहचान लिया।
ऐसी ही एक घटना महरहा गाँव में 1990 में घटित हुई। इस गांव के डॉ. राकेश शुक्ला के चार वर्षीय बेटे भीम ने एक दिन अचानक ही अपने माता-पिता से यह कहना शुरू कर दिया कि उसका नाम भीम नहीं है और न ही यह उसका घर है। उसके द्वारा रोज-रोज ऐसा कहने पर आखिर माता-पिता को पूछना ही पड़ा, बेटा तुम्हारा नाम भीम नहीं है तो क्या है और तुम्हारा घर यहां नहीं है तो कहां है? इस पर भीम ने जो उत्तर दिया उससे डॉ. शुक्ला आश्चर्यचकित रह गए। भीम ने बताया कि उसका असली नाम-सुक्खू है। वह जाति का चमार है और उसका घर बिन्दकी के पास मुरादपुर गांव में है। उसके परिवार में पत्नी एवं दो बच्चे हैं। बड़े बेटे का नाम उसने मानचंद भी बताया। भीम ने यह भी बताया कि वह खेती-किसानी किया करता था। एक दिन खेत में सिंचाई करते समय उसके चचेरे भाइयों से उसका झगडा हो गया और उसके चचेरे भाइयों ने उसे फावड़े से काटकर मार डाला ।
भीम द्वारा बताया गया गाँव मुरादपुर, महरहा से मात्र तीन-चार किलोमीटर की ही दूरी पर है इसलिए डॉ. शुक्ला ने मुरादपुर जाकर लोगों से सुक्खू चमार और उसके परिजनों के बारे में पूछ-ताछ की और जो जानकारी मिली, भीम द्वारा बतायी गई बातों से पूरी तरह मेल खाती थी।
गौरतलब है कि वर्तमान में पुनर्जन्म केवल एक धार्मिक सिद्धान्त मात्र नहीं रह गया है। यह भी सही है कि सभी वैज्ञानिक समान रूप से पुनर्जन्म की अवधारणा पर विश्वास नहीं करते। जहां कुछ वैज्ञानिक इसे अंधविश्वास मानते हैं, वहीं कुछ इसे हकीकत मानकर इस पर रिसर्च कर रहे हैं।
सवाल आज भी वहीं है कि क्या हम अपना शरीर त्याग कर फिर से लौट कर आएँगे, या ऐसा कुछ भी नहीं होने वाला है ?  हम सबको इन सवालों के जबाव का इंतजार था, है और शायद हमेशा रहेगा !

Wednesday, March 27, 2013

कुछ इधर-उधर की :):)


1950 के बाद से, गंगा और हुगली जैसी नदियों के किनारे, आबादी और उद्योग दोनों में ही नाटकीय रूप से वृद्धि हुई है। दोनों नदियों के किनारे बसे नगरों के, नगर निगमों ने भी विषैले औद्योगिक अवशेषों और सीवेज की बहुत बड़ी मात्रा का रुख़, इन नदियों की ओर कर दिया। इन नदियों में कचरा प्रतिदिन 1 अरब लीटर तक समाहित होता है। इतना ही नहीं हिन्दू धार्मिक मान्यताओं का भी, इन नदियों को प्रदूषित करने में बहुत बड़ा हाथ रहा है। हर साल इन नदियों में लाखों की तादाद में मूर्ति विसर्जन, प्रतिदिन फूल, बेलपत्र इत्यादि का विसर्जन भी इनको कलुषित करने में अच्छा ख़ासा योगदान करते रहे हैं। एक और बहुत ही महत्वपूर्ण कारक है, हिन्दू संस्कृति में मृतकों का दाह संस्कार अक्सर नदियों के तट पर ही किया जाता है। चिता में जली हुई लकडियाँ और अधजले शव भी नदियों में प्रवाहित किये जाते रहे हैं। इनसे भी नदियाँ दूषित होतीं रहीं हैं। पशुओं की लाशें भी बड़ी संख्या में इन नदियों को प्रदूषित करने में योगदान करतीं रहीं हैं। महाकुम्भ जैसे महापर्व में लाखों श्रद्धालू, जब इन नदियों में स्नान करते हैं तो वो भी इन नदियों के पक्ष में नहीं होता है। इन सब कारणों से इन नदियों का जल स्तर न सिर्फ रसातल में चला गया है, इनका पानी भी पीने योग्य नहीं रह गया। बल्कि इन नदियों की स्थिति इतनी गंभीर है कि इनमें स्नान तक करना ख़तरनाक हो सकता है। 

गंगा, जमुना, सरस्वती जैसी नदियाँ हमारे ही जीवन काल में, या तो लुप्त हो गयीं या नदी से नाला बन गयीं। इसका कारण यह है कि हम परम्पराओं को जीवन से ज्यादा महत्त्व देते हैं। परम्परायें कभी भी जीवन से अधिक मूल्यवान नहीं हो सकतीं हैं। परम्परायें समय, परिवेश और आवश्यकताओं के साथ बदलनी चाहियें। कोई भी परंपरा हमारे बच्चों के भविष्य और जनसमूह की आवश्यकताओं से बड़ी हो ही नहीं सकती। जो भी हमारी परम्पराएं बनी हैं वो उस काल, परिवेश और आवश्यकता के अनुसार बनी थीं। लेकिन अब परिस्थितियाँ बदल चुकीं हैं इसलिए परम्पराओं को भी बदलना चाहिए। मूर्ति विसर्जन, फूल-पत्ती विसर्जन, नदी के तीर पर दाह संस्कार, श्मशान घाट, महाकुम्भ स्नान ये सब बंद होना चाहिए। लोगों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए और अपनी धरोहरों को बचाते हुए, कुछ दुसरे विकल्प तलाशने चाहिए। वर्ना प्राकृतिक सम्पदा के नाम पर भारत के पास कुछ भी नहीं बचने वाला है। और एक दिन ऐसा आएगा कि पानी के लिए लोग एक-दुसरे के खून के प्यासे हो जायेंगे। 

ये तो हुई नदियों पर हो रहे अत्याचार की बात, अब आते हैं हम मानवीय मूल्यों की बात पर :

उन दिनों हम पटना में थे, जाड़े के दिन थे, हम अपनी मामी के घर जा रहे थे। रास्ते में लकड़ी के कोयले की आंच में पंखा हिल-हिला कर भुट्टा भुनती एक गोरी नज़र आई। भुट्टे की सोंधी ख़ुशबू ने ज़बरदस्त आकर्षित किया था, इसलिए ६-७ गरमा-गर्म भुट्टे हम खरीद ही लिए। सोचे तो थे कि  मामा-मामी खुश हो जायेंगे। लेकिन ऐसा काहे होता, हमसे तो सब कामवे उलटा होता है :) घर पहुँच कर सारे भुट्टे मामी जी के हाथ में पकड़ा दिए हम । मामी जी पूछने लगीं कहाँ से ला रही हो इतने भुट्टे ?  हम बता दिया फलाने जगह से। उन्होंने बिना एक पल गँवाए, सारे भुट्टे कूड़े में फेंक दिए। कहने लगीं इस इलाके में तो क्या, पटना में ही भुने हुए भुट्टे कभी मत खरीदना। मेरे पूछने पर बताया कि पास ही शमशान घाट है। जिस लकड़ी के कोयले में ये भुट्टे भुने जा रहे हैं, वो कोयला उसी श्मशान घाट की चिताओं से आता है। उसी में भुट्टे भून-भून कर बेचा जाता है। हमको तो ऐसा लगा, जैसे हम आसमान से गिर गए !

दिल्ली के हर रेड लाईट पर छोटे-छोटे बच्चे क्यू टिप्स (कान साफ़ करने के लिए रूई लगे हुए तिनके ) बेचते हैं। भरी दुपहरी में बच्चों को पसीना बहाते हुए, कातर नज़रों से ख़रीदने की मनुहार करते देख दया आ ही जाती है। मैंने भी उनका मन रखने के लिए दो-चार डब्बे ले लिए।  लेकिन मुझे बताया गया कि इसमें जो रूई है वो 'AIIMS या 'सफदरजंग' जैसे अस्पतालों में ओपरेशन, खून मवाद साफ़ करने के लिए, जो प्रयोग में लाये जाते हैं, वही रूई है। इन अस्पतालों से खून-मवाद आलूदा रूई के ढेर जमा किये जाते हैं और उनको सिर्फ ब्लीच के घोल में में डुबो कर सफ़ेद कर दिया जाता है। उसी ब्लीच्ड रूई को दोबारा प्रयोग में लाया जाता है। हैं न हैरानी की बात !

जितने फूल आप देखते हैं, इन रेड लाईट्स पर बिकते हुए, वो सारे किसी मज़ार, किसी कब्रिस्तान में कब्रों पर या किसी डेड बोडी पर डाले गए या किसी मंदिर में चढ़ाये गए फूल होते हैं। आपको मालूम होना चाहिए, इसलिए बता रहे हैं। इन कामों को अंजाम देने के लिए बहुत बड़ा नेटवर्क है लोगों का। बच्चों का उपयोग इसलिए किया जाता है ताकि हमलोग उल्लू बन सकें। आपका पैसा आपकी अंटी से निकलवाने के लिए क्या-क्या गुर चलाये जाते हैं, ये हम आप कभी सोच भी नहीं सकते। 

एक बार दिल्ली में जमुना नदी, जो अब नाला बन चुकी है, में पता नहीं क्या हुआ था, दुनिया भर के कछुवे हो गए थे और पानी कम होने के कारण सब बाहर निकल आये थे। जमुना के किनारे कछुवो ने अण्डों की भरमार कर दी थी। आपको बता दूँ कि कछुवों के अण्डे भी, देखने में मुर्गी के अण्डों जैसे ही नज़र आते हैं। उन दिनों दिल्ली के बाज़ार में कछुवों के ही अण्डे मिलने लगे थे। लोगों ने ये मौका भी नहीं छोड़ा था पैसा बनाने का। 

कोई ये ना कहे आकर ' इतना सन्नाटा क्यों है भाई ??' :), इसलिए अब हम शुरू करते हैं, कुछ इधर-उधर की :

अभी पिछले साल ही हम गए थे अजमेर शरीफ, अपने दोस्तों के साथ। उनको अजमेर शरीफ के दर्शन का शौक था तो हम भी साथ हो लिए। सबने कहा, वहाँ चादर ज़रूर चढ़ाना है। तो जी, हम भी ले लिए एक बढ़िया सी चादर। मज़ार के बाहर ही एक दूकान में टंगी हुई थी। अपने हिसाब से हमने बेष्टेशट चादर ली थी। फिर हम सभी लग गए चादर चढ़ाने के लिए लाईन में। बड़ी मुश्किल से रेलम-रेल और ठेलम-ठेल में जूझते हुए, हम पहुँचे मज़ार तक। सच्ची बात कहें, तो हम पहुँचे नहीं थे, पहुँचा दिए गए थे । भीड़ ही इतनी थी। हम तो सोच रहे थे, पहुँचेंगे पीर बाबा के सामने और इत्मीनान से, दिल से पीर बाबा से बात-चीत करेंगे। लेकिन हाय री किस्मत ! पीर बाबा से गप्प-शप्प का कोई चान्से नहीं था। वहाँ एक मिनट भी रुकने की किसी को कोई इजाज़त नहीं थी। बस आप को चल-चल रे नौजवान, रुकना तेरा काम नहीं चलना है तेरी शान, की तर्ज़ पर चलते ही रहना था। ई भी कोई दर्शन हुआ भला ! रुकने का तो नाम भी मत लो। जैसे तैसे पीर बाबा के असिस्टेंट को हमने अपनी टोकरी पकडाई। उन्होंने यूँ उसे लिया जैसे हम पर अहसान किया हो। खैर हम पर तो अहसान किया ही था उन्होंने। लेकिन जिस तरह से चादर और फूल पत्ती उन्होंने पीर बाबा पर फेंका, वो तो पीर बाबा पर भी अहसान कर रहे हैं सुबह-शाम, तो हमरी का बिसात भला !! ख़ैर, इतना चुन कर, मन से खरीदी गयी हमरी चादर शायद एक सेकेण्ड के लिए भी न चढ़ी थी, पीर बाबा पर और चढ़ते साथ ही उतर भी गयी। हमारी आखों के सामने हमरी चढ़ी हुई चादर, देखते ही देखते उसी दूकान में दोबारा बिकने के लिए, उसी जगह टंग गयी, जहाँ हमारे ख़रीदने से पहले, वो टंगी हुई थी। ऐइ शाबाश ! युंकी इसको कहते हैं, आम के आम और गुठलियों के दाम। 
वहीँ, दर्शन करने में एक बात और हुई, हमलोग जैसे ही मज़ार के चारों तरफ लगे रेलिंग तक पहुँचे, पता नहीं क्यों, शायद हम शक्ल से ही उल्लू नज़र आते हैं या क्या बात है, एक भाई साहब जो सबको, झाड़ू नुमा चीज़ से झाड रहे थे, उन्होंने हम पर भी झाडू फेर दिया और एक भाई साहब ने फट से मेरे गले में एक धागा डाल दिया। हम समझे पीर बाबा की स्पेशल कृपा हुई है, हम पर। अगले ही पल हमसे पैसों की दरियाफ्त होने लगी। हमने कहा किस बात के पैसे ? कहने लगे झाडू खाने के और धागा गले में पाने के। हम बोले, ई सब हम तो मांगे नहीं थे, पीर बाबा ने अपनी मर्ज़ी से दिया है। इतना ही बोल पाए थे बस, बाकी का काम, भीड़ के रेले ने ही कर दिया। हम भीड़ के साथ बाहर धकिया दिए गए। उन दोनों भाई साहबों के क्रोध भरे चेहरे अब भी याद हैं। अब सोचते हैं, कभी-कभी भीड़ भी काम की चीज़ होती है। वर्ना कोई न कोई पंगा हो ही जाता :)

हरिद्वार गए थे हम, वहाँ तो हम एकदमे हैरान हो गए। एक पंडा जी तो हमरे कुल-खानदान की जनम पत्री  ही निकाल दिए, कि फलाने आपके बाप है और अलाने आपके दादा है। बाप रे ! हम तो फटाफट पूजा-पाठ के लिए तैयार हो गए। पूजा करके हम जैसे ही नारियल पानी में फेंके, फट से दो-तीन बच्चे कूद गए पानी में और वही नारियल किनारे ले आये। सेम टू सेम नारियल, सेम टू सेम दूकान और सेम टू सेम हम जैसे लोग, न जाने कब से ऊ नारियल रिसाईकिल हो रहा है, और न जाने कब से लोग जानबूझ कर बुड़बक बन रहे हैं :) 

अब बात करते हैं पुष्कर की। कहते हैं ब्रह्मा जी का मंदिर सिर्फ एक ही जगह है और वो है पुष्कर में। पुष्कर में जो तालाब है, उसकी गन्दगी की व्याख्या करने की क्षमता हम में नहीं है। इसलिए आप कुछ भी कल्पना कर लीजिये उसकी पराकाष्ठा तक शायद आप पहुँच जाएँ।  खैर, हम जैसे ही पहुँचे ब्रह्मा जी के मंदिर, कमीज-पैंट, धोतीधारी पण्डों ने धावा बोल दिया। हमको बताया गया यहाँ पुरखों के लिए, पिण्ड-दान करना अच्छा होता है। आपकी मर्ज़ी है तो आप कर सकते हैं। यहाँ एक बात बताना ज़रूरी है कि 'आपकी मर्ज़ी' वाली बात, सिर्फ कहने के लिए कही जाती है, उसका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता। बाकी आपकी कोई भी मर्ज़ी इन जगहों पर नहीं चलती। हम भी सोचे जब यहाँ आ ही गए हैं और इन पण्डों से बच कर जाया जा ही नहीं सकता तो काहे को बेफजूल में कोशिश भी करना, चलो कर ही दो पिण्ड-दान, शायद कुछ अच्छी ही बात होगी। हम पिण्ड-दान करने को तैयार हो गए। लेकिन उन पण्डों को तो, सारे यजमान चाहिए थे। उन्होंने ज़बरदस्ती, उर्सुला और माधुरी से भी, उनके पुरखों के लिए पिण्ड-दान करवा ही दिया, जबकि वो दोनों ही ईसाई हैं। भगवान् जाने उन पण्डों ने उर्सुला और माधुरी के कुल, गोत्र की समस्या कैसे हैंडल किया होगा।ज़रूर होगा उनके पास कोई न कोई शोर्टकट, आई एम श्योर :) । उससे भी बड़ी बात हमको जो सताती है, बेचारियों के पुरखों का क्या हाल हुआ होगा :) 

इन सारी घटनाओं को देख कर यही सोचती हूँ, ऐसी पूजा का क्या मतलब होता है, जिसमें न पूजा करने वाले की कोई आस्था है, न करवाने वाले का ध्यान है ? पंडा जी चारों तरफ चकर-मकर खोजी नज़र से अगले शिकार की तलाश करते रहे, मन्त्र सिर्फ मुंह से झरते रहे। न उन मन्त्रों का मतलब पंडा जी को मालूम है, न ही पूजा पर बैठे हुए पूजक को। बस खानापूरी करके दूकान चलाई जा रही है। मैं दूर से दोनों लड़कियों के चेहरों पर 'कहाँ फँस गए यार ' का भाव देखती रही। 

आज कल हमलोग अधिकतर पूजा ही करते हैं, प्रार्थना नहीं। मुझे पूजा से बेहतर प्रार्थना लगती है, जिसमें कोई मिडिल मैन नहीं होता। आप डाईरेक्ट अपने आराध्य से बात चीत करते हैं।सबसे अच्छा रहता है, 'ध्यान' करना या मेडिटेशन करना। इससे आप मन पर क़ाबू पाते हैं और शरीर पर संयम भी। मेरे 'वो' हर दिन डेढ़ से दो घन्टे मेडिटेशन करते हैं। हम महसूस करते हैं, बात विचार सब में वो हमसे ज्यादा संतुलित हैं। हम भी मेडिटेशन करना चाहती हूँ, बस हम कर नहीं पाती हूँ :), लेकिन अब हम सीरियसली ठान लिए हैं, कि कोशिश करेंगे मेडिटेशन करने की। 

सच पूछा जाए तो दुनिया में जितने भी धर्म हैं और उनके जितने भी धार्मिक स्थल हैं, सभी अपना सही अर्थ खो चुके हैं। वो सभी के सभी तब्दील हो गए हैं, उद्योग में। जहाँ सिर्फ और सिर्फ पैसे की ही बात होती है। न भगवान् से किसी को कोई मतलब है, न भक्तों से। बल्कि इन जगहों में मैंने महसूस किया है सबसे कम ध्यान भगवान् और उसकी भक्ति की तरफ जाता है। इन जगहों पर जाने से, ऐसा लगता है जैसे भगवान् की कृपा वहाँ बिकती है। आप पैसे खर्च करके ईश्वर की कृपा खरीद सकते हैं। जो जितना पैसा खर्चेगा भगवान् की कृपा, उस पर उतनी ही होगी। कभी-कभी तो ऐसा भी महसूस कराया जाता है, इतना पैसा भी है लोगों के पास, जिसे आप दे दें तो पूरे भगवान् ही उनके हो जायेंगे। 

सबसे ज्यादा हँसी आती है, मन्नत मानना। और यह हर धर्म में है। भगवान्, पीर, संत, गॉड जिस नाम से भी आप बुलाएं, इनके सामने हम जैसे मूढ़ शर्त रखते हैं, कि हे भगवान् या पीर या संत या गॉड मेरा ये काम कर दोगे तो मैं तुम्हें ये चीज़ दूँगा। ये हमारी धृष्टता की पराकाष्ठा है। हम अपनी औक़ात भूल जाते हैं, क्या सचमुच हम भगवान् को कुछ भी देने के काबिल है ?? क्या भगवान् को कुछ भी चाहिए होता होगा ??? कितने अहमक है हम, भगवान् न दे तो हम एक सांस नहीं ले सकते हैं और उसी भगवान् के सामने शर्त रख कर हम उसे देने की कोशिश करते हैं, जिसे देने की औकात भी हमें वही भगवान् देता है। गज़बे हैं हमलोग भी :)

आप किसी भी धर्म के बड़े धार्मिक स्थल में चले जाइये। वहाँ दूकान खोलने के लिए टेंडर निकलते हैं, प्रसाद सप्लाई के लिए टेंडर निकलते हैं। फूलों के टेंडर निकलते हैं। क्या है ये सब ?? और उन टेंडर्स को जीतने वाले वो लोग होते हैं, जिनको भगवान् या इंसान से कोई मतलब नहीं होता। एक आम इंसान इन बातों को नहीं जानता है, वो सिर्फ भक्ति भाव से ही इन जगहों पर जाता है, लेकिन इनके पीछे दबी-छुपी कितने तरह की धाँधली चलती है, यह कोई जान भी नहीं सकता। मैं तो कहती हूँ, इन सब बातों को समझना, भगवान् या पीर के भी बूते की बात नहीं है। ऐसे घनचक्कर वाले काम तो बस इंसान ही करते हैं !

हाँ नहीं तो !




  


Tuesday, March 26, 2013

रंग-बिरंगी होली ...

होली की ढेर सारी शुभकामनायें  !!!
(चित्र गूगल से सभार)

१.

कितने रंग-बिरंगे तन हैं,
और मन ?
कुछ धवल 
कुछ मटमैले 
और कुछ
कोलतार से काले...

२.

हर साल होली आती है
नए रंग लिए
और मिला देती है
कुछ रंग,
पिछले सालों के भी
चुपके से !


३.

चौराहे पर धधक रहे हैं 
लकड़ी के ऊँचे टाल;
फिर भी,
बच निकली, होलिका,
और प्रह्लाद, हो गया भस्म !
एक ग्लास पानी
तक तो गर्म नहीं कर पातीं
ये टनों लकडियाँ !
क्या मिलायेंगी ख़ाक में,
ये कभी होलिका को !

Sunday, March 24, 2013

तपस्विनी....(कहानी)


ऐसा क्यों होता है, किसी भी सफ़र में जब, ख़ामोशी की दीवार टूटती है तो, बीच का अटपटापन बाकी नहीं रहता। बातें, मौसम, देश की राजनीति से होती हुई, व्यक्तिगत बातों तक आ जातीं हैं। बातों के प्रवाह में, गजब की गति आ जाती है। सहयात्री की फ़िक्र तक हो जाती है, उसका साथ यूँ लगता है, जैसे अब कभी छूटने वाला ही नहीं है, लेकिन मंजिल पर पहुँचते ही, रास्ते यूँ जुदा हो जाते हैं, जैसे कभी मिले ही नहीं। फिर कभी उस सहयात्री का, न ख़याल सताता है, न ही चेहरा याद रह जाता है। लेकिन इस बार मेरे लिए ये सफ़र, थोडा अलग सा, थोडा हट कर था, कुछ अनूठा ही था ।

आज भी राँची से भुवनेश्वर का सफ़र तय करना था, ट्रेन से। अपने नियत समय, रात 8.30 बजे तपस्विनी, राँची के प्लैटफार्म पर धड़धड़ाती हुई आई और इंसानी रेले, इस रेल में समाते चले गए। मैं भी इसी रेले का हिस्सा बना, पहुँच ही गया अपने लिए, आवन्टित स्थान पर। बर्थ देखकर ही मन बुझ गया। मुझे कभी भी बीच वाली बर्थ पसंद नहीं आती है, लेकिन आज मेरी किस्मत में, बीच वाली बर्थ ही लिखी थी। खुद को कोसा, दूसरी ट्रेन लेनी चाहिए थी। लेकिन तुरंत ही मन को समझा लिया, इस ट्रेन में सफ़र करने की, सबसे बड़ी सहूलियत ये है, कि ये रात 8.30 बजे राँची से चलती है और सुबह 7.30 भुवनेश्वर पहुँच जाती है। रात भर का सफ़र बहुत आसान है, बस चद्दर तानो और सुत जाओ, फिर अल-सुबह, यानि मुंह अँधेरे, जब उठो तो खुद को भुवनेश्वर में पाओ। प्रीटी ईजी हुमम  :)

बर्थ पर चादर बिछा लिया, तकिया भूरे लिफ़ाफ़े से निकाल कर, नियत जगह पर रख लिया, लैपटॉप सिर की तरफ ही रखा, क्या भरोसा बाबा, कब किसकी नियत ख़राब हो जाए। कम्बल ठीक से ओढ़ लेने के बाद, मैंने अपने अडोस-पड़ोस का मुआयना किया। मेरी सामने वाली बर्थ पर कोई था, जो नींद के हवाले हो  चुका था। नीचे वाली बर्थ पर एक महिला, किताब में नज़रें गडाए लेटी हुई थी। उसे देख कर, घुटती हुई बीच वाली बर्थ पर मुझे, अपने फेफड़ों में ताज़ी हवा का अहसास हुआ। हालांकि वो ऐसी नहीं थी, कि उसे देखते ही कोई मर-मिटे, लेकिन ऐसी भी नहीं थी, कि उसे अनदेखा किया जाए। 

शायद मेरे घूरने का अहसास उसे हुआ था, उसने नज़रें उठा कर मुझे देख ही लिया।  नज़रें मिलते ही मैंने, अभिवादन किया और मुस्कुरा दिया। बदले में उसने भी, एक प्यारी सी मुस्कान उछाल दी मेरी ओर । मेरे लिए ये बड़ा अप्रत्याशित था, लेकिन मन कूद गया था, मन मांगी मुराद जो मिली थी। चलो कम से कम, ये बोरिंग सा सफ़र, अब उतनी बोरिंग नहीं होगी । मैं बीच-बीच में उसे, ऊपर लेट कर देखता रहा, और अपनी नयन क्षुधा बुझाता रहा। फिर न जाने कब, मेरी आँख लग गयी। पटरियों पर ट्रेन के दौड़ते पहिये, लगातार लोरी सुना रहे थे और पूरे डब्बे में नींद पसरती चली गई। 

मेरी नींद अचानक खुल गयी, लगा जैसे बहुत देर से, ट्रेन की खटर-खटर की आवाज़ नहीं आ रही है। यात्रियों से पूछने पर मालूम हुआ, ट्रेन तीन घंटे से किसी जंगल में रुकी हुई है। राजधानी आज लेट है और जब-तक वो नहीं निकल जाती, हमें जाने की इजाज़त नहीं है। 

खिड़की के बाहर घुप्प अँधेरा पसरा हुआ था, और महीन बारिश के छीटें, खिड़कियों के शीशों पर जुगनुओं से चमक रहे थे। डब्बे के अन्दर रूई से बादल उतर आये थे, जिससे अन्दर सर्दी और बढ़ गयी थी। ये रेलवे अधिकारी, पता नहीं क्यों, वातानुकूलित कक्ष को, इतना ठंडा कर देते हैं कि ठण्ड के मारे गुस्सा आ जाता है। एक परिचारक पास से ही गुजर रहा था, उससे कहा मैंने, यार बहुत ठंडा कर दिया है तुम लोगों ने, थोडा कम करो भाई। साब ! रेगुलेटर ख़राब है, कम नहीं हो सकता है। कहिये तो, एक और कम्बल दे सकता हूँ। कौन सी नयी बात है, हमेशा ही रेगुलेटर काम नहीं करता, चल यार वही दे दे। कम्बल मिल जाने से थोड़ी राहत मिली और मैं फिर नींद के आग़ोश में चला गया।

सुबह पौ फट रही थी और मेरी नींद भी खुल गई। खिडकियों पर कोहरे के भाप, अभी भी छाये हुए थे लेकिन निचली बर्थ पर तो,  उजाला ही उजाला था। बिना हाथ-मुंह धोये हुए, अलसाई आँखें कितनी खूबसूरत लगतीं हैं। मैं खुद से ही बाज़ी लगा रहा था, मानना पड़ेगा, बड़ी खूबसूरत आँखें हैं, कोई भी इन में झाँक कर बेहोश हो जाए और ओपन हार्ट सर्जरी करवा ले। हम दोनों की नज़रें फिर मिली, मैंने गुड मोर्निंग कहा और नीचे उतरने का उपक्रम करने लगा। मुझे नीचे आता देख, उसने अपने बर्थ से चादर हटा दिया और मेरे लिए जगह बना दी। उधर सूरज की किरणे नज़र आने लगीं थी और मेरे दिमाग में भी आशा की किरणें सर उठाने लगीं थीं।

मैं उसकी बर्थ पर बैठ चुका था, अपना परिचय दिया मैंने और बदले में उसने तपाक से, बड़ी ही गर्मजोशी से हाथ बढाया और पटुता से कहा 'नमिता फ्रॉम रांची'। उसका इस बेबाकी से हाथ बढ़ा देना, मैं सकते में आ गया था, ख़ुद को सम्हालते हुए, हौले से मैंने उसका हाथ थाम लिया। मंत्रमुग्ध सा मैं उसे देखता रहा और उसका स्पर्श सोख लिया मैंने। उसकी नर्म-गर्म हथेली और मेरे हाथों में उतर आया ठंडा पसीना, मेरे बदन में चींटियाँ रेंग गयीं थीं। उसकी बोलती हुई आँखें, उन आँखों का पैनापन, और उन आँखों की प्रयासहीन अभिव्यक्ति, उस घुटे हुए वातावरण में ताज़गी का बयार थी। 

उसका मुझे देख कर मुस्कुराना, मुझे अपने बर्थ पर बैठने के लिए जगह देना, अपना नाम बताना और मुझसे हाथ मिलाना, इस बात की चुगली खा रहे थे, कि वो मुझसे बहुत इम्प्रेस्ड थी। इस ख्याल से ही मन, शरीर तपने लगे थे। मैंने छुपी नज़रों से, अनुमान लगाना शुरू कर दिया था, शायद इसकी उम्र तीस होगी। गोल चेहरा, छोटी सी नाक, आखें तो बस नीला समुन्दर। आज मुझे पहली बार, अपने बाल नहीं रंगने का अफ़सोस हुआ था। फिर दिल को तसल्ली दे दी थी, शायद  कुछ महिलाएं बालों में सफेदी पसंद करती हैं। 

मैंने पूछ ही लिया 'कहाँ जा रही हो ? उसके चमकीले सफ़ेद दाँत, और सुडौल होंठों पर मेरी नज़र टिक गयी, 'मेरे हसबैंड छह  महीने से भुवनेश्वर में हैं, एक प्रोजेक्ट से सिलसिले में, उनके पास ही जा रही हूँ।' 'हसबैंड' ! ये शब्द मुझे हथौड़े की तरह लगा था। जी हाँ, देखिये न उनको अकेले रहना पड़ रहा है, पूरे छह महीने हो गए हैं। मैं हर महीने जाती हूँ उनके पास। उनका भी दिल कहाँ लगता है, हमारे बिना। लव मैरेज है न हमारी। दरअसल हम कॉलेज में साथ-साथ थे। सोचा तो नहीं था मैंने, कि कभी ऐसा भी होगा, लेकिन हो ही गया। जिस दिन मैं वापिस आती हूँ, बेचारे मेरे वो, उसी दिन से मेरा इंतज़ार करना शुरू कर देते हैं। ......... वो बोलती जा रही थी और मेरा जबड़ा लटकता जा रहा था। कहीं अन्दर, दिल के अन्दर ट्विन टावर में से एक टावर ढहता जा रहा था। मेरी आवाज़ बहुत मुश्किल से निकल रही थी। लेकिन बात तो आगे भी बढानी थी, पुछा था मैंने 'कब लौट रही हो रांची ?' उसने उतनी ही अदा से कहा  ,'बस दो दिन में, मेरे बच्चों के एक्जाम्स हैं, मेरा बड़ा बेटा एम् .ए कर रहा है और बिटिया फिजिक्स आनर्स। इतने बड़े हो गए हैं, लेकिन मैं न रहूँ तो कोई काम नहीं होता उनसे। मेरा बेटा तो हमेशा कहता है, मोम यू आर दी कूलेस्ट मोम इन दी होल वर्ल्ड। ' ऐसा कहते हुए उसकी चमकीली आँखों में गज़ब  का संतोष था। मेरे अन्दर दूसरा ट्विन टावर भी ढह गया था।

खिड़की के बाहर, दूर-दूर तक फैली हुईं पर्वतमालाएँ, निद्रामग्न तपस्विनी सी लग रहीं थीं, और उनके नीचे बसे हुए शहर, कितने बौने !!

Friday, March 22, 2013

थमा गए हो, तुम ही कोई पीर पुरानी....!

हमारे घर के पास ये नदी (ओटावा रिवर) बहती है, आज उसकी तस्वीर ले ली :)

ये भी :)
और ये भी :)


जाने लिखी हैं कितनी, तहरीर पुरानी 
बावस्ता सभी हैं, इक तस्वीर पुरानी 

पटकें भला हम कब तक, तेरे दर पे पेशानी
लिल्लाह अब तो दे दे, मेरी तक़दीर पुरानी   

बुझने को अब है मेरी, ये तक़ददुस मोहब्बत 
बन जायेंगे हम भी इक दिन, ताबीर पुरानी 

ग़ुम जाना है यहीं पर, ग़ुमनामी के ही अब्र में
न टूटेगी फिर भी सुन लो, जंज़ीर पुरानी 

स्याही भरी वो रातें, कब सुकूँ कोई दे पाईं 
थमा गए हो तुम ही, कोई पीर पुरानी 

तहरीर = रचनाएँ
पेशानी = माथा  
बावस्ता=सम्बंधित 
तक़ददुस =पवित्र 
ताबीर = सपनों की व्याख्या 
अब्र = बादल 


Monday, March 18, 2013

मुझे मेरी बीवी से बचाओ....:)




पुरुष कभी भी चिंता नहीं करते जब तक कि उनकी शादी नहीं हो जाती है क्यूँ ?
विवाह पूर्व पुरुष - सुपरमैन होता है 
शादी के बाद - जेंटलमैन
५ वर्षों के बाद- वाचमैन 
और १० वर्षों के बाद अपने ही जाल में फंसा हुआ - स्पाइडरमैन   

जिंदगी में हमेशा हँसते रहो, मुस्कुराते रहो, गुनगुनाते रहो....ताकि तुम्हें देख कर लोग समझे कि तुम......कुँवारे हो


पत्नी : अगर मैं खो गयी तो तुम क्या करोगे ??
पति : मैं टी.वी. अखबारों में विज्ञापन दूंगा कि तुम जहाँ भी हो 
'खुश रहो'   

पत्नी : शादी की रात जब तुमने मेरा घूँघट उठाया तो मैं तुम्हें कैसी लगी ?
पति : मैं तो मर ही जाता अगर मुझे हनुमान चालीसा याद नहीं होता तो


प्रेम विवाह, नियोजित विवाह से बेहतर कैसे है ?
अनजाने दुश्मन से जाना पहचाना दुश्मन हमेशा बेहतर होता है...

मरते समय पति ने अपने पत्नी को सब कुछ सच बताना चाहा । उस ने कहा " मै तुम्हे जीवन भर धोखा देता रहा। सच तो यह है कि दर्जनो औरतों से मेरे नाजायज संबंध थे।"
पत्नी बोली, "मै भी सच बताना चाहूँगी । तुम बीमारी से नही मर रहे मैने तुम्हे धीरे-धीरे असर करने वाला जहर दिया है।"

पत्नी : मैं तुम्हारी याद में २० दिनों में ही आधी हो गयी हूँ...तुम मुझे लेने कब आ रहे हो ?
पति : और २० दिन रुक जाओ..

एक लड़के ने विज्ञापन दिया .."पत्नी चाहिए "
१००० जवाब आ गये..
'मेरी ले जा'
'मेरी ले जा'

पति होटल के मैनेजर से 'जल्दी चलो मेरी पत्नी खिड़की से कूद कर जान देना चाहती है '
मैनेजर : सर इसमें मैं क्या कर सकता हूँ ?
पति : खिड़की खुल नहीं रही है

हर व्यक्ति स्वाधीनता सेनानी है ..
शादी के बाद..

झूठ बोलना:
एक बच्चे के लिए पाप है, 
एक प्रेमी के लिए कला 
एक कुँवारे के लिए उपलब्धि 
और एक शादी-शुदा के लिए जीवन बचाने का उपक्रम  

वो कहते हैं कि हमारी बीवी स्वर्ग की अप्सरा है 
हमने कहा ...'खुशनसीब हो.... हमारी तो अभी जिंदा है '

Saturday, March 16, 2013

बुरा न मानो होली है ...भाग ३ :):)






भाग १ ,  भाग २ 


घुघुतिबासुति : मुन्नी हूँ मैं प्यारी, अम्मा की दुलारी
                नानी बन के आज मैं करती हूँ किलकारी

अजय झा :  चेहरे पे ख़ुशी छा जाती है
              आँखों में सुरूर आ जाता है
              जब मैं प्लास्टिक सर्जरी करवाता हूँ 
              चेहरे पर नूर आ जाता है

संजय भास्कर : जब भी लिखते हो थोक में टिप्पणी कर जाते हैं लोग
                  बस तुम्हें पुदीने की झाड़ पर चढाते हैं लोग

संगीता स्वरुप : मैंने, अपनों के लिए ही हर मंच पर चर्चा किये
                  चर्चा सजीली चर्चा

रश्मि प्रभा : ले लो रे ले लो भईया किताबें सुहानी
              ले लो रे ले लो बहिनी किताबें सुहानी
              अरे ब्लॉग नगरी में आओ साहित्य की प्यास बुझा लो
              ले लो रे ले लो भईया किताबें सुहानी
              ले लो रो ले लो बहिनी किताबें सुहानी

संगीता पुरी : मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की है 
               मुझको बातों के सिवा कुछ न मिला 

पूरण खण्डेलवाल : हे मैंने क़सम ली, क्या तुमने क़सम ली

                     करेंगे भारत का उद्धार हम म म म

वंदना अवस्थी दुबे : न ये चाँद होगा न तारे रहेंगे
                      मगर ऐ दोस्तिनी हम तुम्हारे रहेंगे

डॉ मोनिका शर्मा : हँसता हुआ नूरानी चेहरा

                    काली जुल्फें रंग सुनेहरा
                    तेरी फोटू हाय अल्लाह
                    हाय अल्लाह

राजीव तनेजा : यहाँ-वहाँ, जहाँ-तहाँ
                 मत पूछो कहाँ-कहाँ
                 मिलेंगे राजीव तनेजा
                 अपने राजीव तनेजा
                 अपने राजीव तनेजा

सरिता भाटिया : मेरा नाम है सरिता और मैं लिखती हूँ कविता
                  टिप्पणी करो भईया ज़रा जोर से

डॉ श्याम गुप्ता  : नायक नहीं महानायक हूँ मैं
                    जुल्मी कहें, पर दुखदायक हूँ मैं
                    काला कोट मैं पहनता नहीं
                    पर वकील बनने के लायक हूँ मैं

प्रवीण शाह : मुझे दुनिया वालो नास्तिक न समझो
               मैं पूजता नहीं हूँ, पुजाता रहा हूँ
               करवा चौथ पर मैंने, घर पे बैन लगाया
               मगर वर्षों से व्रत मैं, कराता रहा हूँ

अंतर सोहेल : ये कहीं कवि न बन जाए
                कवि सम्मलेन कराते कराते

राहुल सिंह : सौ साल पहले कोई बीमार था
              उसको बुखार था
              आज पता किया है, और कल भी करूँगा

कुश्वंश : सीने में जलन आँखों में तूफ़ान सा क्यूँ है
           हर कविता में मेरा शहर परेशान सा क्यों है

 शिवम् मिश्रा  : जो तुमको हो पसंद हम वो बात न कहेंगे
                  तुम दिन को अगर दिन कहो हम रात कहेंगे


अनुराग शर्मा : ई है इस्पात नगरिया तू देख बबुवा 
                      पोस्टन की अंधरिया में 
                      पंचतंत्र की गगरिया में 
                     कैसे डूबे, हो कैसे डूबे 
                     गुजरिया तू देख बबुवा 


                 

Friday, March 15, 2013

ब्लॉगर चिंतन इति..............:)


ब्लॉगर हौं तो बस एही बतावन, बसौं कोई गुट के छाँव मझारन 

नाहीं तो पसु बनिके फिरोगे, आउर खाओगे नित रोज लताड़न  

पाहन बनौ चाहे गिरि बनौ, नाही धरोगे धैर्य, कठिन है ई धारण

फिन खग बनि इक पोस्ट लिखोगे, औ करोगे अभासीजगत से सिधारन 


(महाकवि रसखान से प्रेरित प्रस्तुति ):)


और अब एक गीत....ठीक ही है...चलेबुल है ...भरी दुनिया में आखिर दिल को समझाने कहाँ जाएँ ..आवाज़ 'अदा' की :) किलिकियाइये और सुनिये...






Tuesday, March 12, 2013

बुरा न मानो होली है ....भाग दो :):)

भाग एक के लिए यहाँ क्लीक करें
भाग ३ 


देवेन्द्र पांडे :  देखो देखो देखो
               बाईस्कोप देखो
               बनारस के मंदिर विशाल देखो
               गोरे बच्चे के लाल-लाल गाल देखो
               नौका पर बच्चे चुलबुलाते हुए
               ब्लॉग पर ही ई सब धमाल देखो
               पईसा मत फेंको, हींयई तमासा देखो

अजित वडनेकर : ये कौन शब्दकार है, ये कौन शब्दकार
                    बालकनी में बाला के बाल बेल बन गए 
                    बुलंद भी बिलंदर बन, बन्दर से टंग गए
                    ये कौन शब्द शब्द काSSS ,
                    ये कौन शब्द शब्द का,
                    शल्य चिकित्सार है
                    ये कौन शब्दकार है ये कौन शब्दकार

सुरेश चिपलूनकर : देखो ओ दीवानों तुम ये काम न करो
                     राम का नाम बदनाम न करो, बदनाम न करो

काजल कुमार : कार्टून, मेरे सपने में आया, 
                 कार्टून, मेरे दिल में समाया
                 लो बन गया फिर एक कार्टून
                 सुबह-सुबह तड़के मैं लाया
                 ओ डिजनी भईया आ आ आ आ 

अर्चना चावजी : मेरी आवाज़ सुनो, जैसे भी हो आज सुनो 
                  मैंने इक पोस्ट जो तेरे ब्लॉग से उठा रखा है
                  उसके परदे में तेरे कान कब्ज़ा रखा है
                  पॉडकास्ट में मेरा अंदाज़ सुनो
                  मेरी आवाज़ सुनो, जैसे भी हो आज सुनो 

दीपक बाबा  : सुबह से शाम करते प्रणाम
                क्यों नहीं करते बाबा घर का काम

रमाकांत सिंह :  चल मेरे बेताल तेरे हाथ जोड़ता हूँ
                  हाथ जोड़ता हूँ तेरे पाँव पड़ता हूँ
                  चल मेरे बेताल
                  पोस्ट लिख दिया सारा
                  कुछ पल्ले पड़ा न हमारा
                  ऐ विक्रम, तुझे क्या लगा मैंने पी के लिखी है
                  दूंगा एक खींच के अभी
                  तूने नहीं पी, हाँ मैंने पी है
                  जिसने भी पी है, पर पोस्टवा नहीं समझी है
                  बहुत हो चुका, हर ब्लोगर रो चुका 
                  मान जा नहीं तो मैं अपना, सर फोड़ता हूँ
                  चल मेरे बेताल तेरे हाथ जोड़ता हूँ
                  हाथ जोड़ता हूँ तेरे पाँव पड़ता हूँ
                  चल मेरे बेताल

राजेन्द्र स्वर्णकार : रंग बिरंगे कोमेंट से
                     शब्दों के ही सेंट से
                     मैंने भर दिया तेरा ब्लॉग
                     ब्लोगर, मैं सेंट वाला ब्लोगर
                     ब्लोगर, मैं गीत वाला ब्लोगर

राजन : दुनिया चले पिछाड़ी तो 
         तो तुम चले अगाड़ी 
         सब खेल खेलते हैं 
         पर तुम हो इक विचारी 
         टिप्पणी में दिखाते 
         और सबको तुम सिखाते 
         चिन ता ता चिता चिता चिन ता ता ता...

अली : हाय रे वो दिन क्यों ना आये
        सोच सोच के बाल सफेदियाये
        हाय रे वो दिन क्यों ना आये


इंदु पूरी :  मेरा नाम है इंदु, प्यार से लोग मुझे इंदु कहते हैं
            तुम्हारा नाम क्या है ?
            दुष्ट, दानव, दस्यु या दत्य या आ आ आ लम्पट 
            ता रा रु रु ता रा -२ 
            ता रा रु रु ता रा रा रा रू या ...
               मैं ऐसियीच हूँ :)

यशोदा :    ना छंदों का भार 
             ना अनुप्रास भरमार 
             ना उपमाओं की धार 
             के बिन चर्चा करती हो 

             कितना सुन्दर करती हो 
             तुम चर्चा भी करती हो 

मुकेश कुमार सिन्हा : मैं ये सोच कर उस किताब में छपा था कि 
                                के सब श्रेष्ठ कवि बना देंगे मुझको 
                                सह-सम्पादन में भी जुटा था 
                                के कवि का तमगा टिका देंगे मुझको 
                                मगर कोई न बोला, न मुझको चढ़ाया 
                                न ऊपर उठाया, न मुझको गिराया 
                                मैं आहिस्ता आहिस्ता अब हूँ चुपाया 
                                लगता है अब मैं सम्पादक बन गया हूँ 
                                सम्पादक बन गया हूँ 
                                सम्पादक बन गया हूँ 


जारी ....
                     

Sunday, March 10, 2013

बुरा न मानो होली है ...:):)


भाग २  भाग ३ 
अविनाश वाचास्पत्ति : बड़े नटखट है रे, नुक्कड़ वाले भईया 
                                    का करें ब्लॉग लिखईया होSS ...

रविन्द्र प्रभात : तन मन तेरे रंग रंगूँगा 
                   साया बना तुझे संग चलूँगा 
                   सेवा करूँगा, मेवा भी दूँगा 
                   परिकल्पना तू है साजना SSS 

समीर लाल : अभी न जाओ छोड़ कर 
                 के दिल अभी भरा नहीं 
                 अभी अभी तो आई हो, अभी अभी तो 
                 बहार बन के छाई हो 
                 १०० का आंकड़ा पहुँच तो ले 
                 मेरा ब्लॉग ज़रा महक तो ले 
                 अभी तो १०० हुआ नहीं 
                 कोटा पूरा हुआ नहीं 
                 जो ख़तम हो इसी जगह 
                 ये ऐसा सिलसिला नहीं 
                 नहीं नहीं नहीं नहीं !!!

प्रवीण पाण्डेय : मैं कम शब्दों का शायर हूँ 
                    कम शब्दों में पूरी कहानी है 
                    तुम समझो न समझो मेरा क्या 
                    मुझे समझती मेरी नानी है 
                    मैं कम शब्दों का शायर हूँ 

अमित श्रीवास्तव : मैनू इश्क दा लग्या रोग 
                        मेरे बचने दी नैयो उम्मीद 
                        मेरी सुन लो सारे लोग 
                        मेरे बचने दी नैयो उम्मीद 

अरविन्द मिश्र : हसीनों के चक्कर में कभी भी ना आना 
                     हसीनों का तो चक्कर है, चक्कर खिलाना 

सुज्ञ : है प्रीत जहाँ की रीत सदा 
        मैं गीत वहां के गाता हूँ 
        बस प्रीत प्रीत मैं रटता हूँ 
       पर सबकी बैंड बजाता हूँ  

संतोष त्रिवेदी : बचना ऐ ब्लोगरो लो मैं आ गया 
                   कोई भी हो, कुछ भी उससे क्या 
                   मैं देता हूँ अपनी टांग फँसा 

संजय अनेजा : खुद से ये शिकायत है कि हम 
                   कुछ नहीं कहते, कुछ नहीं कहते 
                   कहने को बहुत कुछ है अगर कहने पे आते 
                   अगर कहने पे आते 
                   कह देते हैं सबकुछ, मगर हम कुछ नहीं कहते 
                   कुछ नहीं कहते 

अनूप शुक्ल : इक वो भी दिवाली थी 
                  इक ये भी दिवाली है 
                  हँसते हुए दिखते हैं, खस्ता मगर माली है 

रूपचंद्र शास्त्री : गीत गाता हूँ मैं गुनगुनाता हूँ मैं 
                    मैंने हंसने का वादा किया था कभी 
                    इसलिए शोक सन्देश में भी मुस्कुराता हूँ मैं 

सतीश सक्सेना : आपके बिन-अनुरोध ही आपको गीत सुनाता हूँ 
                      अपने दिल के छालों से आपका दिल सजाता हूँ 

खुशदीप सहगल : पूछो तो यारो ये कौन हैं 
                       ये छुपे रुस्तम हैं 
                       छुपे रुस्तम हैं, आज कल छुपे ही रहते हैं 
                       मुहूर्त निकाल कर कभी कुछ कहते हैं  

गिरिजेश राव : सुनो सुनाये ब्लॉग कहानी 
                   जब आती है रुत कोई सुहानी 
                   तब बनती है ब्लॉग कहानी 
                   ब्लॉग कहानी में 
                   कभी चन्द्रहार होता है
                   कभी ब्लॉग संसार होता है 
                   कभी जुत्तम-पैजार होता है 
                   
शिल्पा मेहता : का करूँ सजनी आये न ब्लोगर 
                   ढूंढ रहीं हैं पियासी अँखियाँ 
                   आये न ब्लोगर 

संजय झा :  parnaam parnaam o papa ji
                parnaam parnaam o bhiyaa ji
                parnaam parnaam hai sabko
                parnaam parnaam parnaam 

रश्मि रविजा : अजी ऐसा मौका फिर कहाँ मिलेगा 
                   हमसा कहानी लिखैया कहाँ मिलेगा 
                   आओ तुमको पढवाते हैं हम कहानी सुबहो शाम 
                   देखो देखो देखो देखो 
                   कहानी की रानी हूँ मैं 

डॉ दाराल : हम हैं डॉ ब्लॉग के हमसे कुछ न बोलिए 
              जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए 
              हम उसी के हो लिए
              जो भी प्यार से मिला हम उसी के हो लिए 

वंदना गुप्ता : हेSSS फेसबुक के झंडे तले 
                  मेरी काव्य रचना पले 
                  कहीं भी देखूं, कुछ भी होता 
                  उसी में कविता ढले 
                  हे फेसबुक के झंडे तले 

रविकर : हिंदी प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी 
            जब भी हम आदेश करें 
            टिप्पणी में मेरी प्रवेश करें 
            हिंदी प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी 
            कभी दोहा बन कर आवें आप 
            कभी सवैया सरीखी भावे आप 
            मन मोहिनीSSS मन भर क्लेश करें 
            जब भी हम आदेश करें 
            टिप्पणी में मेरी प्रवेश करें 

अराधना : माँ मुझे अब तू खूब पढ़ा ले 
             महानगर भी पठा दे 
             बस मुझसे तू कुछ पूछ नहीं 

रचना : जिंदाबाद जिंदाबाद ऐ नारी जिंदाबाद 
          पुरुषों की जंजीरों से तुझे करवा दूंगी आज़ाद 
          जिंदाबाद जिंदाबाद ऐ नारी जिंदाबाद 

अंशुमाला : जब बोले तुम तो मैंने भी कहा कहा 
              मगर क्यूँ लगा मैंने ज्यादा कहा कहा 
              मैं धूप में खिला दूँ चाँद, दिन में रात कर दूँ 
              प्यार-व्यार सबको मैं ताख पर ही धर दूँ 
              हा हा हो हो 

ललित शर्मा : छत्तीसगढ़ का वासी हूँ मैं 
                  'ब्ला' मेरा नाम 
                  छत्तीसगढ़ का इतिहास लिखना 
                  है अब मेरा काम 
                  अब जहाँ भी चला जाऊं 
                  इतिहास के ही पन्ने पाऊं 

सौरभ शर्मा : बड़ी अच्छी लगतीं हैं ,
                 ये टिप्पणी, उनमें बातें
                 और ...
                 और पोस्ट 

वाणी शर्मा : सुनो छोटी सी गृहणी की लम्बी कहानी 
                रस्सा-कस्सी से करवाए, रस्सा कुदानी 
            
दिव्या : तेरा फूलों जैसा रंग, हैं फौलाद जैसे अंग 
          जिसकी भी पड़े नज़र हो जाए वो दंग 
          आते जाते करे तंग, उसके लिए तू मलंग 
          अकेली ही करे सफाई, नहीं किसी का भी संग 
          तेरे होते कोई और, यहाँ पा जाए जो ठौर 
          ये न होगा किसी तौर, चाहे चले छुरियाँ 

जारी .....