महिलाओं का शोषण, भारत में आज से नहीं, अनादिकाल से हो रहा है। अब मैं जो लिखूंगी उससे बहुतों को एतराज़ हो सकता है, लेकिन यह भी सत्य है कि स्त्री को शोषित करके देवी बना देने का फार्मूला बहुत पुराना है।
सबसे पहले बात करते हैं 'सीता' की। आप सभी इस कथानक से वकिफ़ हैं, लेकिन यहाँ इसका ज़िक्र करना उचित होगा।
सीता ने राम का साथ देते हुए, वनवास पाया। राम पुरुष थे, उन्होंने जो उचित समझा वही किया और सीता, स्त्री होने के नाते, बिना कोई सवाल किये, उनके साथ हो लीं। सीता का हरण पुरुष रावण ने किया, सीता अपनी मर्ज़ी से नहीं गयीं थीं। रावण ने न सिर्फ अपने पौरुष, बल्कि अपने वर्चस्व का भी उपयोग कर, सीता को बलपूर्वक अपने पास रखा, उनके विलाप का कोई असर नहीं हुआ। मंदोदरी जो रावण की पत्नी थी, उसके विरोध का भी असर नहीं हुआ। राम ने, सीता को छुड़ा कर अपना पौरुष दिखाया, जो अच्छी बात थी। लेकिन सीधे-सीधे उन्हें अपनाया नहीं। निर्दोष सीता की अग्नि-परीक्षा ली गई। जब वो इस अग्नि परीक्षा में पास हुईं, तभी उनको राम ने वापिस अपनाया। अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी सीता के प्रति, न समाज का मन साफ़ हुआ न ही राम का। एक बार फिर, एक अदना पुरुष (धोबी) की बात ही सुन कर, गर्भवती सीता को जंगल में अकेला छोड़ आने का आदेश, राम ने, लक्ष्मण को दे दिया। तब भी सीता कुछ नहीं कह पायी। सीता ने न जाने कैसे, किस अवस्था में अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया होगा, उन्होंने क्या-क्या सहा होगा, इसकी खबर तक लेने की राम ने कोई ज़रुरत नहीं समझी। बाद में राम, अपने ही बच्चों से युद्ध करने को तैयार हो गए। बेशक ये काम उन्होंने अनजाने में किया। लेकिन क्या एक पिता को इतना भी अनजान होना चाहिए था ?? वो न सिर्फ एक पति और पिता थे, एक राजा भी थे। एक स्त्री और उसके पुत्र किस अवस्था में हैं, क्या इस बात जानकारी एक राजा होने के नाते उन्हें नहीं रखनी चाहिए थी? अपनी प्रजा का इतना ख्याल रखने वाले राजा को अपनी पत्नी और पुत्रों की कोई जानकारी नहीं थी कि वो जिंदा हैं या मर गए!!!! ये बात गले नहीं उतरती। ये तो भला हो सीता का, जो बीच में आ गयीं। वर्ना पुत्रों की हत्या पिता के हाथों हो जाती। सीता ने ही उन्हें इस घोर पाप से भी बचा लिया। शायद राम को अपनी ग़लती का अहसास हुआ होगा, तभी तो उन्होंने पत्नी सीता और पुत्रों को घर वापस लाना चाहा। दूसरा और कोई कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि सीता वही थी, प्रजा वही थी, और धोबी भी रहा ही होगा। उस वक्त उनका हृदय क्यूँ कर बदला ??? लेकिन स्वाभिमानिनी सीता ने, बिलकुल सही कदम उठाया। उसने आत्महत्या कर ली। जब मर्ज़ी अपना लो, जब मर्ज़ी त्याग दो, उसके अपने सम्मान का क्या कोई मतलब नहीं था क्या ?? तात्पर्य यह कि, सीता एक ही काम अपनी मर्ज़ी से कर पाई, वो है 'आत्महत्या'...!! लेकिन पुरुष प्रधान समाज भला कैसे, इतनी आसानी से इसे पचा पाता, आज तक इन सारी घटनाओं को, बिना मतलब की काल्पनिक बातों का तड़का लगा कर हम सबके सामने पेश करने की हज़ारों कोशिश की जाती है, और ये कोशिश आगे भी जारी रहेगी । सीता के साथ इतना घोर अन्याय करने के बाद, उसे देवी बना कर, अपनी सारी ग़लतियों को ढाँप दिया गया। लेकिन bottom line सिर्फ इतनी ही है, कि सीता का शोषण हुआ था । कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो, ये होता ही नहीं, लेकिन वो क्यों भूल जाते हैं कि अतिथि का सत्कार करना भी हमारे ही संस्कार में शामिल है।
सीता ने राम का साथ देते हुए, वनवास पाया। राम पुरुष थे, उन्होंने जो उचित समझा वही किया और सीता, स्त्री होने के नाते, बिना कोई सवाल किये, उनके साथ हो लीं। सीता का हरण पुरुष रावण ने किया, सीता अपनी मर्ज़ी से नहीं गयीं थीं। रावण ने न सिर्फ अपने पौरुष, बल्कि अपने वर्चस्व का भी उपयोग कर, सीता को बलपूर्वक अपने पास रखा, उनके विलाप का कोई असर नहीं हुआ। मंदोदरी जो रावण की पत्नी थी, उसके विरोध का भी असर नहीं हुआ। राम ने, सीता को छुड़ा कर अपना पौरुष दिखाया, जो अच्छी बात थी। लेकिन सीधे-सीधे उन्हें अपनाया नहीं। निर्दोष सीता की अग्नि-परीक्षा ली गई। जब वो इस अग्नि परीक्षा में पास हुईं, तभी उनको राम ने वापिस अपनाया। अग्नि-परीक्षा लेने के बाद भी सीता के प्रति, न समाज का मन साफ़ हुआ न ही राम का। एक बार फिर, एक अदना पुरुष (धोबी) की बात ही सुन कर, गर्भवती सीता को जंगल में अकेला छोड़ आने का आदेश, राम ने, लक्ष्मण को दे दिया। तब भी सीता कुछ नहीं कह पायी। सीता ने न जाने कैसे, किस अवस्था में अपने जुड़वाँ बच्चों को जन्म दिया होगा, उन्होंने क्या-क्या सहा होगा, इसकी खबर तक लेने की राम ने कोई ज़रुरत नहीं समझी। बाद में राम, अपने ही बच्चों से युद्ध करने को तैयार हो गए। बेशक ये काम उन्होंने अनजाने में किया। लेकिन क्या एक पिता को इतना भी अनजान होना चाहिए था ?? वो न सिर्फ एक पति और पिता थे, एक राजा भी थे। एक स्त्री और उसके पुत्र किस अवस्था में हैं, क्या इस बात जानकारी एक राजा होने के नाते उन्हें नहीं रखनी चाहिए थी? अपनी प्रजा का इतना ख्याल रखने वाले राजा को अपनी पत्नी और पुत्रों की कोई जानकारी नहीं थी कि वो जिंदा हैं या मर गए!!!! ये बात गले नहीं उतरती। ये तो भला हो सीता का, जो बीच में आ गयीं। वर्ना पुत्रों की हत्या पिता के हाथों हो जाती। सीता ने ही उन्हें इस घोर पाप से भी बचा लिया। शायद राम को अपनी ग़लती का अहसास हुआ होगा, तभी तो उन्होंने पत्नी सीता और पुत्रों को घर वापस लाना चाहा। दूसरा और कोई कारण नहीं हो सकता है, क्योंकि सीता वही थी, प्रजा वही थी, और धोबी भी रहा ही होगा। उस वक्त उनका हृदय क्यूँ कर बदला ??? लेकिन स्वाभिमानिनी सीता ने, बिलकुल सही कदम उठाया। उसने आत्महत्या कर ली। जब मर्ज़ी अपना लो, जब मर्ज़ी त्याग दो, उसके अपने सम्मान का क्या कोई मतलब नहीं था क्या ?? तात्पर्य यह कि, सीता एक ही काम अपनी मर्ज़ी से कर पाई, वो है 'आत्महत्या'...!! लेकिन पुरुष प्रधान समाज भला कैसे, इतनी आसानी से इसे पचा पाता, आज तक इन सारी घटनाओं को, बिना मतलब की काल्पनिक बातों का तड़का लगा कर हम सबके सामने पेश करने की हज़ारों कोशिश की जाती है, और ये कोशिश आगे भी जारी रहेगी । सीता के साथ इतना घोर अन्याय करने के बाद, उसे देवी बना कर, अपनी सारी ग़लतियों को ढाँप दिया गया। लेकिन bottom line सिर्फ इतनी ही है, कि सीता का शोषण हुआ था । कहने वाले तो ये भी कहते हैं कि अगर सीता ने लक्ष्मण रेखा नहीं लांघी होती तो, ये होता ही नहीं, लेकिन वो क्यों भूल जाते हैं कि अतिथि का सत्कार करना भी हमारे ही संस्कार में शामिल है।
अहल्या, का बलात्कार इंद्र द्वारा हुआ, लेकिन त्याग अहल्या का हुआ। इंद्र ने न जाने कितने बलात्कार किये लेकिन फिर भी वो देवराज ही बने रहे। अहल्या का भी उद्धार तब ही हुआ, जब उसने राम के पाँव पकड़ कर माफ़ी मांगी, जबकि दोष उसका नहीं था।
द्रौपदी को वस्तु बना कर सबने आपस में बाँट लिया, पांच पतियों को वरण करना उसकी नियति बनी। एक जीती-जागती स्त्री को सामान का दर्ज़ा देना ही, उसके आस्तित्व के आकलन पर प्रश्न चिन्ह लगाता है और फिर उसे दांव पर ही लगा देना उसके शोषण की पराकाष्ठा है।
राधा कभी कृष्ण की पत्नी नहीं बन पाई, उसे उपेक्षित जीवन ही जीना पड़ा। अब उसे अलौकिक प्रेम का जामा पहना कर, जितनी मर्ज़ी कोई राधा की पूजा करे, किसे परवाह है। सच्चाई सिर्फ इतनी है, उसका जीवन नरक ही बना रहा और उसका शोषण हर तरह से हुआ। कृष्ण ने न जाने कितने विवाह कर लिए लेकिन राधा, जिसने उनके ही कारण अपना विवाह ख़त्म कर दिया था, उसकी कोई सुधि उन्होंने नहीं ली।
कुंती कुंवारी माँ ही बन पाई। क्या सचमुच ऐसा कोई वरदान हो सकता है, जिसमें आप जिस देवता की अराधना करते हैं, वो बच्चा पकड़ा कर चला जाता है ... वरदान में महल-दोमहले काहे नहीं दिए गए, बच्चा क्यों दिया गया ? यह भी शोषण था।
दमयंती को नल ने ऐसा बिसारा कि बिसार देना ही अपने आप में एक उदाहरण बन गया। अपनी पत्नी को ऐसा भी कोई भुलाता है भला ??? शोषण का यह भी एक उदाहरण है।
सती को अपने पति के सम्मान के लिए सती होना पड़ा ...अपमान पति का हुआ और सती पत्नी हो गई, ये कहाँ का इन्साफ है ?
सदियों से नारी, पतिव्रता, सती, जैसे विशेषणों से विभूषित होकर जी रही है। जो अपने आप में एक शोषण से कम नहीं।आज तक किसी पुरुष को 'पत्निव्रता' या 'सता' होते नहीं देखा।
आज सदियों बाद, स्त्री ने जब सिर उठाना शुरू किया है, तो हर तरह के अंजाम वो भुगत रही है। आज़ादी कोई भी हो, आसानी से नहीं मिलती, खून बहाना ही पड़ता है, यहाँ स्त्रियाँ अपनी अस्मिता लुटा रही हैं । 'दामिनी' इसका ज्वलंत उदाहरण है। खाप पंचायतों की कहर और ऑनर किलिंग जैसे हादसे, स्त्री स्वतंत्रता की राह पर स्त्रियों का बलिदान मांग रहे हैं, और स्त्रियाँ दे रहीं हैं ये बलिदान ।शायद आने वाले दिन स्त्री के लिए अच्छे होंगे, क्योंकि अब वो अपनी पहचान बनाने के लिए कटीवद्ध है। इतने बलिदानों के बाद भी अगर, समाज में नारी ने एक इंसान का ही दर्ज़ा पा लिया, तो वही काफी होगा, देवी बनने की चाह न उसे पहले थी और न अब है।
(समयाभाव के कारण, अब इस पोस्ट पर टिप्पणी करने का प्रावधान स्थगित किया गया है, क्षमाप्रार्थी हूँ !)