Monday, December 13, 2010

घर की कहानी ...


पशु, पक्षियों
के मांदों, घोसलों में
भेद कहाँ होता है
अमीरी-गरीबी का
यूँ तो ..
झुग्गी-झोपडी और
अट्टालिकाएं
दूर से अपना
हाल-बेहाल बता जाते हैं
फिर भी ..
घर की कहानी
सृष्टि की कहानी है
जुदा जब होते हैं
घर से लोग
कितने निष्प्राण
हो जाते हैं घर.....



14 comments:

  1. ‘मांदों, घोसलों में
    भेद कहाँ होता है’

    होता है ना.... घोंसले में हाथ डाल सकते हैं, मांद में नहीं...:)

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  2. घर का मतलब\औचित्य ही जीते जागते सदस्यों से है, ईंट-पत्थर की ईमारत मकान\कोठी तो हो सकती है लेकिन घर नहीं।

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  3. समानता के लिहाज़ से लिखी गई ये कविता पूरा असरदार सम्प्रेषण देती है

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  4. @ कुँवर जी ,
    मैंने भुताहे शब्द हटा दिया है...
    आपका हृदय से धन्यवाद.!

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  5. सम्बन्धों से ही घर जीवन्त रहता है।

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  6. Domage ! la bariére de la langue nous sépare, un vrai Handicap !!!
    trés belle photo en page d'acceuil. MERCI. AB

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  7. लोगों के बिना घर कहाँ हुआ ...सिर्फ मकान ही हो जाता है...और मकान तो बेजान ही होते हैं ...!

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  8. पढते ही सीरियस होकर टिपियाना तय किया पर सी.एम.प्रसाद साहब की चुटकी :)


    [ सहमत कि घर जान-ओ-बेजान की यकज़हती का दूसरा नाम है ]

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  9. रिश्तों और संवेदस्नाओ से ही घर का आस्तित्व है। अच्छी रचना के लिये बधाई।

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  10. जुदा जब होते हैं घर से लोग
    कितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.
    अनुभवसिद्ध तथ्य.

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  11. हमसे भूल हो गई, हमका माफ़ी देईदो...

    जय हिंद...

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  12. वैसे तो पूरी कविता संवेदनशील है मगर ये पंक्तियाँ बहुत ही प्रभावशाली बन कर उभरी हैं ,
    जुदा जब होते हैं घर से लोग
    कितने निष्प्राण हो जाते हैं घर.
    -ज्ञानचंद मर्मज्ञ

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  13. बहुत सुंदर रचना .. घर तो रिश्‍तों से ही बनता है !!

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