Sunday, October 3, 2010

एक मृगमरीचिका ...ऐसी भी..!


वो चली थी,
शान से, 
इठलाती,
चुलबुलाती,
बलखाती, 
वेग था,
गति थी,
झंकृत मन से 
अपने प्रिय से मिलने को 
आतुर थी,
रास्ते में, कुछ ढूह मिले 
नगरों के,
जिन्होंने उसे पाट दिया
अन्दर तक,
कैसे बढ़ती आगे ?
हार कर...
ठहरने लगी वो
और फिर..
ठहर ही गई...,
साग़र से मिलने का 
स्वप्न यूँ भी टूटता है !
ऐसी भी होती है
मृगमरीचिका 
इठलाती
बलखाती, लहराती
नदी की....!
देखो न !

22 comments:

  1. ठहरने लगी वो
    और फिर..
    ठहर ही गई...,
    साग़र से मिलने का
    स्वप्न यूँ भी टूटता है !

    बेहद प्रभावशाली चित्रण किया है शब्दों में....
    बेहतरीन

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  2. कई बार नदी ऐसी भी हो जाती है ...
    मगर इसमें भी एक आशा छिपी है ...
    कीचड में ही कमल भी तो खिलते हैं ...!

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  3. वेगरूद्ध होने पर नदी शायद ऐसा ही सोचती होगी। चलते रहना जिसकी प्रकृति है, प्रवॄत्ति है उस धारा के साथ तो यह अन्याय ही है। और सरिता भी तो अपने साथ क्या क्या नहीं बहा लाती?
    यही जीवन है, प्रवाह और अवरोध में जो भारी हो गया, वो जीत गया।
    है तो यह आपकी रचना ही, और नदी के भाव बहुत अच्छे से उकेरे हैं, लेकिन निराशा और अवसाद जैसे भावों के लिये और बहुत से ब्लॉग्स हैं, इन्हें भगाईये यहाँ से। फ़्लेवर बदलने को कभी कभी ठीक है, लेकिन फ़िर साथ में गाना वगैरह डालकर कंपैनसेट भी करना चाहिये न आपको?
    हद से ज्यादा कह गया शायद, लेकिन ये ईमानदार राय है। अच्छी लगे तो अपना लें, बुरी लगे तो जाने दे।

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  4. प्रभावशाली कविता है । बधाई ।

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  5. ये मौसम कौन के आदरणीय संजय जी कभी कभार बहुत अच्छी बात कह देते है :)

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  6. अदा जी , बाढ़ ने यमुना का स्वरुप ही बदल दिया है ।
    इसे कहते हैं --blessing in disguise ।
    जो काम मनुष्य नहीं कर पाता , उसे ऊपर वाला कर देता है ।
    कुछ नवीनतम तस्वीरें कृपया यहाँ देखें -- chitrkatha।

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  7. नदी को नाला बना दिया जायेगा तो अपने सागर से कैसे मिल पायेगी वह।

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  8. भूपेन हजारिका साहब का गीत याद आ गया...

    ओ गंगा बहती हो क्यों...

    जय हिंद...

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  9. हार कर...
    ठहरने लगी वो
    और फिर..
    ठहर ही गई...,
    ठहरे हुए में जिन्दगी नहीं होती. बेजान बनाने वाले तो बेखौफ रहे फिर भी....

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  10. पोलिथीन बैगों की माया है :)

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  11. आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
    प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
    कल (4/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
    देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
    अवगत कराइयेगा।
    http://charchamanch.blogspot.com

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  12. @ दराल साहब....
    मनुष्य कर नहीं सकता या करना नहीं चाहता.?
    और क्या अब हर वर्ष बाढ़ का इंतज़ार करना होगा ???
    :):)

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  13. जी बेशक , करना तो मनुष्य को ही चाहिए । लेकिन जब पृथ्वी पर पाप का बोझ बढ़ जाता है तब उसकी कमांड ऊपर वाला अपने हाथ में ले लेता है । शायद अब ऐसा ही होने वाला है ।

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  14. काश इस कविता के निहितार्थ लोग समझ पाते

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  15. जीवन भी ढूहों का किया धरा भुगतता है एन नदी सा !

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  16. सार्थक सन्देश देती अच्छी रचना .

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  17. @ शरद जी...
    आपके मनोभावों ने मेरी कविता को सफल बना दिया..
    हृदय से धन्यवाद करती हूँ..

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