वो चली थी,
शान से,
इठलाती,
चुलबुलाती,
बलखाती,
वेग था,
गति थी,
झंकृत मन से
अपने प्रिय से मिलने को
आतुर थी,
रास्ते में, कुछ ढूह मिले
नगरों के,
जिन्होंने उसे पाट दिया
अन्दर तक,
कैसे बढ़ती आगे ?
हार कर...
ठहरने लगी वो
और फिर..
ठहर ही गई...,
साग़र से मिलने का
स्वप्न यूँ भी टूटता है !
ऐसी भी होती है
मृगमरीचिका
इठलाती
बलखाती, लहराती
नदी की....!देखो न !
ठहरने लगी वो
ReplyDeleteऔर फिर..
ठहर ही गई...,
साग़र से मिलने का
स्वप्न यूँ भी टूटता है !
बेहद प्रभावशाली चित्रण किया है शब्दों में....
बेहतरीन
कई बार नदी ऐसी भी हो जाती है ...
ReplyDeleteमगर इसमें भी एक आशा छिपी है ...
कीचड में ही कमल भी तो खिलते हैं ...!
वेगरूद्ध होने पर नदी शायद ऐसा ही सोचती होगी। चलते रहना जिसकी प्रकृति है, प्रवॄत्ति है उस धारा के साथ तो यह अन्याय ही है। और सरिता भी तो अपने साथ क्या क्या नहीं बहा लाती?
ReplyDeleteयही जीवन है, प्रवाह और अवरोध में जो भारी हो गया, वो जीत गया।
है तो यह आपकी रचना ही, और नदी के भाव बहुत अच्छे से उकेरे हैं, लेकिन निराशा और अवसाद जैसे भावों के लिये और बहुत से ब्लॉग्स हैं, इन्हें भगाईये यहाँ से। फ़्लेवर बदलने को कभी कभी ठीक है, लेकिन फ़िर साथ में गाना वगैरह डालकर कंपैनसेट भी करना चाहिये न आपको?
हद से ज्यादा कह गया शायद, लेकिन ये ईमानदार राय है। अच्छी लगे तो अपना लें, बुरी लगे तो जाने दे।
प्रभावशाली कविता है । बधाई ।
ReplyDeleteये मौसम कौन के आदरणीय संजय जी कभी कभार बहुत अच्छी बात कह देते है :)
ReplyDeleteअदा जी , बाढ़ ने यमुना का स्वरुप ही बदल दिया है ।
ReplyDeleteइसे कहते हैं --blessing in disguise ।
जो काम मनुष्य नहीं कर पाता , उसे ऊपर वाला कर देता है ।
कुछ नवीनतम तस्वीरें कृपया यहाँ देखें -- chitrkatha।
नदी को नाला बना दिया जायेगा तो अपने सागर से कैसे मिल पायेगी वह।
ReplyDeleteभूपेन हजारिका साहब का गीत याद आ गया...
ReplyDeleteओ गंगा बहती हो क्यों...
जय हिंद...
पगली है नदी
ReplyDeleteहार कर...
ReplyDeleteठहरने लगी वो
और फिर..
ठहर ही गई...,
ठहरे हुए में जिन्दगी नहीं होती. बेजान बनाने वाले तो बेखौफ रहे फिर भी....
पोलिथीन बैगों की माया है :)
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (4/10/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
@ दराल साहब....
ReplyDeleteमनुष्य कर नहीं सकता या करना नहीं चाहता.?
और क्या अब हर वर्ष बाढ़ का इंतज़ार करना होगा ???
:):)
कृपया यहाँ पढ़ें
ReplyDeleteवो कहते नहीं तो क्या हुआ......
वाह .. बहुत खूब !!
ReplyDeleteजी बेशक , करना तो मनुष्य को ही चाहिए । लेकिन जब पृथ्वी पर पाप का बोझ बढ़ जाता है तब उसकी कमांड ऊपर वाला अपने हाथ में ले लेता है । शायद अब ऐसा ही होने वाला है ।
ReplyDeleteकाश इस कविता के निहितार्थ लोग समझ पाते
ReplyDeleteजीवन भी ढूहों का किया धरा भुगतता है एन नदी सा !
ReplyDeleteसार्थक सन्देश देती अच्छी रचना .
ReplyDeleteबहुत सुंदर प्रस्तुति .. आपके इस पोस्ट की चर्चा ब्लॉग 4 वार्ता में की गयी है !!
ReplyDeleteबढ़िया हें जी.
ReplyDelete@ शरद जी...
ReplyDeleteआपके मनोभावों ने मेरी कविता को सफल बना दिया..
हृदय से धन्यवाद करती हूँ..