Sunday, October 31, 2010

साँस का कच्चा घड़ा, पर तूफ़ान में टूटा न था.....


था वो मंजर कुछ गुलाबी, रंग भी छूटा न था
दिल में इक तस्वीर थी और आईना टूटा न था

हादसे होते रहे कई बार मेरे दिल के साथ
आज से पहले किसी ने यूँ शहर लूटा न था

चुभ गए संगीन से वो तेरे अल्फ़ाज़ों के शर 
सब्र का प्याला मगर ऐसे तो फूटा न था

रौनकें पुरनूर थीं और गमकता था आसमाँ
झाँक कर देखा जो दिल में एक गुल-बूटा न था

मंजिलें दरिया बनीं और रास्ते डूबे 'अदा'
साँस का कच्चा घड़ा, पर तूफ़ान में टूटा न था

Saturday, October 30, 2010

आप सबकी दुआवों के लिए शुक्रिया कह कर उसकी कीमत कम नहीं करना चाहती...

अक्टूबर २०१०


आप सबने पूछा है कि मेरे बाबा कैसे है ?
अभी वो ठीक नहीं हैं, लेकिन ठीक हो जायेंगे ...होना ही है ठीक उनको.. अभी तो उन्हें अपने नातियों-नतिनी की शादी करनी है..पोतों को बड़ा होते हुए देखना है...हमसे ये काम कैसे होगा भला, हमारे घर के मालिक तो वही हैं न ! जो काम वो कर सकते हैं वो हम कहाँ कर पायेंगे...इसलिए उनको ठीक होना ही होगा...
डॉ.मृगांक भी आ गया है और मयंक तो हर पल उनके साथ है ही....
आप सबकी दुआवों के लिए शुक्रिया कह कर उसकी कीमत कम नहीं करना चाहती...बस अपनी प्रार्थनाओं में हमें भी शामिल कीजियेगा...इतनी सी प्रार्थना है...!!


सपने अब पानी से गलने लगे हैं ....


हकीक़त की ईंटों के नीचे दबे हैं जो               
सपने अब पानी से गलने लगे हैं

सजीं हैं क़रीने से कीलें वफा की
तेरे नाम टंग कर मचलने लगे हैं

फर्जों के साहुल से कोना बना जो
अरमां गिरे फिर सम्हलने लगे हैं

जुड़तीं हैं जब-जब पथरीली यादें
अश्कों के मोती फिसलने लगे हैं

ख्वाबों का गारा जो हमने बनाया 
मन-मन्दिर में मूरत बन ढलने लगे हैं

तोरण है गुम्बज है घंटी बेलपाती
अब प्राणों के दीपक भी जलने लगे हैं

साहुल - ये एक छोटा सा यंत्र होता है जिसे राज-मिस्त्री प्रयोग में लाते हैं , सीधी लाइन देखने के लिए.

Friday, October 29, 2010

जाने क्यूँ ?


आज मैं बहुत दुःख के साथ बता रही हूँ मेरे बाबा की तबियत बहुत ख़राब हुई यहाँ आकर...कल से हॉस्पिटल के ही चक्कर लगा रही हूँ ..आज पता चला है उन्हें ब्रेन ट्यूमर है..आपलोगों की प्रार्थना की बहुत ही आवश्यकता है मेरे परिवार को..ओट्टावा सिविक हॉस्पिटल में admit हैं वो...सारा दिन वहाँ रह कर अभी लौटी हूँ...सोचा आपलोगों को भी बता दूँ....
कहते हैं दवाओं से ज्यादा असर दुआओं में होता है ..और आप सबकी दुआ का इंतज़ार कर रहे हैं मेरे बाबा....!

कहीं ग़ुरबत का माहौल है, 
कहीं लालच का समां,
बेच कर अपना ज़मीर,
खा रहे हैं
रोटी
बस दो वक्त की...
सलवटों के नीचे
सब एक सा लगता है,
फिर भी
ऊपर कितना फ़र्क है,
जाने क्यूँ ?

Thursday, October 28, 2010

त्रिदेव ........



कछु समय पहिले ये लेखा 
कछु देखे कछु कभी न देखा
समय बहुत कम है मम पासा
पुरानी पोस्ट छापूँ देऊ झांसा 
:):)

श्री ब्लाग जगत के कल्याण करू निज मन करू सुधारि।
बरनऊ ज्ञान, अनूप, समीर, महब्लाग्गर त्रिपुरारी

।। चौपाई।।

जय 'समीर' 'ज्ञान' गुण सागर।
जय 'अनूप' ब्लॉग लोक उजागर।।
'ज्ञान दत्त' अतुलित बलधामा।
ब्लाग पुत्र ब्लाग्गर तव नामा।।
महाबीर 'अनूप' हैं जंगी ।
कुमति निवारे 'समीर' हैं संगी।।

कंचन वरन 'ज्ञान दत्त' वेषा ।
गाल हाथ धरी फोटू खेंचा ।।
नयनों पर गोगल तव विराजै।
पोज मारे 'समीर जी' साजै।।

'अनूप' भये टाँग खेंचू नंदन।
करत सभी के चर्चा में बंदन।।
हैं विद्यावान गुणी अति चातुर।
ऐसी तैसी करिबे को आतुर।।

'समीर' टिप्पणी करीबे को रसिया।
सब ब्लाग्गर के मन में बसिया।।
सूक्ष्‍म रूप 'ज्ञान' ज्ञान दिखावा।
जो विकट रूप धरि ब्लाग जरावा।।
भीम रूप धरि कछु ब्लाग्गर पधारे ।
बिना बात के बात बिगारे ।।
रंग-रंग के पोस्ट लिख डारी  |
हिंदी मरी शरम की मारी ||
लाओ संजीवन ब्लाग जिआवो।
समीर, ज्ञान, अनूप मिलाओ  ।।

ब्लॉगवुड कीन्‍हीं बहुत लड़ाई।
कहीं 'समीर' प्रिय कहीं 'अनूप' भये भाई।।
सहस ब्लॉगवुड तुम्हरो यश गावैं।
अस सुनी 'ज्ञान दत्त' ख़ुश हो जावें ।।
कई ब्लॉगर स्वयं भये न्यायधीशा  ।
कोई नारद कोई विभीषण बनीशा ।।
यम सामान तब हुई ब्लॉग वाणी ।
कछु ब्लॉगन के करी ख़तम कहानी ।।
(ई सुनी सुनाई बात है हम sure नहीं हैं बाबा )

करो उपकार हम सब पर भईया | ।
माना तुम सब हो बड़े लड़ैया ।।
एक मन्त्र अब हमहूँ दै डारी ।
शांति से करो ब्लॉग्गिंग सारी ।।
ज्ञान का शस्त्र अब जरा दिखाओ ।
सार्थक मधुर तनी पोस्ट पढाओ ।।
प्रेम से रहो ब्लॉगवुड माहीं।
अनामी-बेनामी के बाजा बजाही ।।

बोलो प्रेम से ब्लॉगवुड  की ..... जय....

Wednesday, October 27, 2010

नारी चरित्र और गाली, सिगरेट, शराब....


'गाली' शब्द से परिचय सबको है.....मन में जब भी गुस्से का धुआं भर जाता है तो वह 'गाली' के रूप में बाहर निकलता है.....कुछ लोग इस frustration को 'बेवकूफ' 'गधा' बोल कर निकाल देते हैं और कुछ लोग अपनी इस कला में शब्द कोष के अनेकोअनेक शब्दों के अलावा, उपमा-उपमेय, छंद, अलंकार, अन्योक्ति, यहाँ तक कि भौतिकी और जीव-विज्ञानं का भी भरपूर उपयोग करते हैं..... किसी भी तरह की गाली देना...बिलकुल व्यक्तिगत बात है.....व्यक्ति के व्यक्तित्व की बात है....वह इस बात पर पूर्णतः निर्भर करता है कि उसका पालन पोषण कैसा हुआ है...या फिर वो कैसे लोगों के साथ रहता है..अगर परिवार में गाली देना आम बात है ...बच्चे ने माता-पिता को गाली देते हुआ सुना है तो वह भी कभी न कभी दे ही देगा....बच्चों को नक़ल करने की आदत जो है....(मेरे भाई मुझे दीदी कहते थे...तो मेरे बच्चे भी मुझे दीदी ही कहने लगे.....बड़ी मुश्किल से 'मम्मी' कह पाए थे).....हमारे घर में मैंने आज तक अपने पिता को एक भी अपशब्द कहते नहीं सुना....इसलिए हमने कभी भी गाली नहीं दी...न ही मेरे भाइयों ने...ठीक वैसे ही मेरे बच्चों ने कभी हमें नहीं सुना तो वो भी इससे दूर हैं.....

महिलाएं भी गालियाँ देतीं हैं...लेकिन ज्यादातर....या तो वो बहुत हाई क्लास औरतें होतीं हैं जो हाई क्लास गलियाँ देतीं हैं....अंग्रेजी में......या फिर निम्नवर्गीय परिवारों की महिलाओं को सुना है चीख-पुकार मचाते....मध्यमवर्ग की महिलाएं यहाँ भी मार खा जातीं हैं....न तो वो उगल पातीं हैं न हीं निगल पातीं हैं फलस्वरुप...idiot , गधे से काम चला लेतीं हैं....हाँ idiot , गधे का प्रयोग ही हम भी करते हैं....और बाकि जो भी 'अभीष्ट' गालियाँ हैं....उनमें कोई रूचि नहीं है...

महिलाओं का शराब पीना, सिगरेट पीना ...चरित्रहीनता के लक्षण बताये गए हैं .....
यहाँ इसपर कुछ कहना चाहूंगी...

महिलाओं का मदिरापान और धुम्रपान...समय, परिस्थिति और परिवेश कर निर्भर करता है.....
यहाँ कनाडा में वाइन (मैं हार्ड ड्रिंक्स की बात नहीं कर रही हूँ ) बच्चे तक पीते है और बुरा नहीं माना जाता है...आप चर्च में जाएँ तो वहां वाइन प्रसाद के रूप में दिया जाता है....कोई आपके घर आये तो वो उपहार में वाइन ही लेकर आता है...फलस्वरूप हिन्दुस्तानी घरों में भी इसका उपयोग होने लगा है....औरतें भी अब इसका स्वाद लेती हैं...इसका अर्थ यह नहीं की वो चरित्रहीन हैं...in rome do as the romans do

मैं रांची की रहने वाली हूँ...यहाँ का आदिवासी समुदाय हर ख़ुशी या गम में, अर्थात हर मौके पर 'हंडिया' (चावल से बना पेय) बनाता है और छक कर इसे आदमी, औरतें बच्चे सभी पीते हैं....तो आप उन औरतों को क्या कहेंगे ?? चरित्रहीन ..?? यह तो इनकी संस्कृति का हिस्सा है....एक रिवाज़ है ..
यहाँ मैं स्पष्ट कर देना चाहती हूँ कि मैं इस आदत का समर्थन नहीं कर रही हूँ ...यह बहुत बुरी आदत है.....परन्तु चरित्रहीनता नहीं....
जब मैं मरिशिअस में थी तो वहां भारतीय मूल के हिन्दू हर महीने की पहली तारिख को अपने पूर्वजो को कुछ अर्पित रहते हैं... इस अर्पण में ..सार्डीन मछली सिगरेट और वाइन होती है ..यह अर्पण पूर्वजों के लिए होता है और पूर्वजों में तो दादी, माँ, या चाची की आत्मा भी शामिल होती है ....अब आप बताइए उनके पुरखों ने कब वाइन पी थी या सार्डीन खाया था......लेकिन यहाँ यही उबलब्ध है ...और इसे ही वो अपना अर्पण मानते हैं.....और श्रद्धा से समर्पित करते हैं....और मुझे इसमें कोई बुराई नज़र नहीं आती है...

आज समय बदल रहा है....महिलाएं multinational companies में काम करती हैं...और नौकरी का परिवेश भी बदल रहा है...कभी अगर हाथ में ग्लास ले भी लिया तो उससे उसके चरित्र को आंकना गलत बात होगी....

अब बात कीजिये सिगरेट-बीडी की ...
कुछ समय पहले मैं एक फिल्म बना रही थी.....'नूर-ए-जहां', यह फिल्म हिन्दुस्तानी मुस्लिम महिलाओं की उपलब्धियों पर थी...इसी फिल्म के research के सिलसिले में ..कई म्यूजियम्स में जाना हुआ...वहाँ कुछ miniature तस्वीरों को भी देखने का मौका मिला.....मुझे याद है कुछ मुग़ल कालीन पेंटिंग में महिलाओं को हुक्का पीते हुए दिखाया गया है....इसका अर्थ यह हुआ की धुम्रपान महिलायें बहुत पहले से कर रहीं है....यह एक आदत हो सकती है...जिसे आप बुरी आदत कह सकते हैं लेकिन चरित्र का certificate नहीं....

मैंने अपनी नानी सास को बीडी पीते देखा है...वो सिगरेट भी पीती थी और हमलोग बहुत मज़े लेते थे....मैं खुद खरीद कर लाती थी, उनके लिए...क्यूंकि बीडी सिगरेट हमारे घर में कोई नहीं पीता था.....अब नानी सास को ये आदत कहाँ से लगी ये मत पूछियेगा...क्यूंकि मुझे नहीं मालूम...
मैंने अपनी नानी को हुक्का पीते देखा है...मेरी नानी के घर कई बार दूसरी नानियाँ आतीं (नानी की सहेलियां ) मिलने....तो हुक्का जलाया जाता था....नानी और उनकी सहेलियां...बारी बारी से हुक्का पीती थी....तो क्या मेरी नानी चरित्रहीन थी...???
हाँ... मेरी माँ ने कभी भी हुक्का, बीडी, सिगरेट, को हाथ नहीं लगाया .....
मेरी दादी को मैंने पान खाते हुए भी देखा है....उनके पास तो पान-दान ही हुआ करता था...हर वक्त कचर-कचर पान ही खाती थी......और विश्वास कीजिये ..इन सभी महिलाओं के चरित्र की ऊँचाइयों तक पहुँच पाने के बारे में आप कल्पना भी नहीं कर सकते हैं....
आज जब अपने आस पास देखती हूँ तो पाती हूँ...पहले की अपेक्षा बहुत कम महिलाएं पान, बीडी, सिगरेट का उपयोग करती हैं....महिलाएं अब अपने स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक हैं....

फिर भी, किसी महिला का सिगरेट पीना, शराब पीना या गाली देना बहुत बुरी आदत मानी जायेगी लेकिन इस कारण से उसे चरित्रहीन नहीं कहा सकता .....इन आदतों और चरित्र में कोई सम्बन्ध नहीं है....हाँ, इन आदतों से उसके मनोबल/आत्मबल को आँका जा सकता है....लेकिन सम्मान को नहीं.....


कुछ पाने की ख़ुशी...


हर दिन तलाशती रहती हूँ
कुछ पाने की ख़ुशी
जो मिलती ही नहीं
गुम गयी है कहीं
वो ख़ुशी जो मिलती थी
एक नयी फ्राक के आने से
माँ की बडियां बनाने से
दीवाली में घरौंदों के
रंग जाने से
या फिर दालान में एक
फूल के खिल जाने से
अब...
सब कुछ मिल जाता है
बहुत आसानी से 
बस मिलती नहीं
वो कुछ पाने की ख़ुशी
और अब तो जो मेरे आस पास है
उसके खोने का भी अहसास
सालता जा रहा है

करवा चौथ की शुभकामना....

Tuesday, October 26, 2010

जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई....


मेरी अधिकतर पढ़ाई कैथोलिक मिशन स्कूल और कालेज में हुई है.....और ज्यादातर मैं हॉस्टल में ही रही हूँ....
जाहिर सी बात है ...इस कारण से कैथोलिक मिशन के फादर, सिस्टर, मदर्स के भी बहुत करीब रही हूँ.....जीवन का बहुत बड़ा हिस्सा उन्ही के संसर्ग में बिताया है....

हॉस्टल में रहने के कारण इस धर्म समाज को बहुत करीब से देखने और समझने का मौका मिला ...वर्ना सिस्टर्स, फादर्स एक रहस्य ही बने रहते थे.....हमलोग उनके आवास में भी चले जाते थे और कभी कभी सिस्टर्स को बिना टोपी या वेल के देख कर हैरान हो जाते थे....उनके सर के बाल देखने की हमेशा इच्छा होती थी......और अगर किसी सिस्टर को हाबिट (उनका ड्रेस) के अलावा किसी दूसरी पोशाक में देख लेते तो बस वो दिन हमारे लिए संसार का आठवां आश्चर्य देखने के बराबर होता था..... हाबिट सफ़ेद रंग का लम्बा चोगा सा होता है...और कपड़ा बहुत कीमती हुआ करता था...सारे कपड़े विदेश से आते थे....कमर में उसी कपड़े की बेल्ट...साथ में रोजरी (माला) टंगी होती थी....सर पर लम्बे वेल होते थे जो टोपीनुमा थे लेकिन पीछे काफी नीचे पीठ पर हुआ करते थे....उनके गले में किसी चेन में या धागे में एक cross हुआ करता था...सारे कपडे झक्क सफ़ेद होते थे...और हों भी क्यूँ नहीं कपडे धोने के लिए फिर कई आया जो होती थीं ...

अक्सर हम उनके मेस या किचेन में भी चले जाया करते थे.....वहां उनकी समृद्धि देखते बनती थी...बड़े-बड़े बोल में मक्खन (उतने मक्खन मैंने आज तक नहीं देखे फिर कभी )जैम, जेली, ताजे फल, चिक्केन, मटन, बीफ, अंडा, सब्जियां, canned फ़ूड जो विदेशों से आते थे...बड़े-बड़े फ्रिज में खाना ठसा-ठस भरा रहता था....... किचेन से हमेशा ही फ्रेश ब्रेड बनने की खुशबू आती रहती थी....और हर वक्त ३-४ आया खाना पकाने में लगी रहती थी....wine की बोतल भी मैंने पहली बार उन्हीं के किचेन में देखा था...रेड wine , वाईट wine...

उनके कमरों की छटा भी देखने लायक होती थी करीने से सजा बेडरूम....बेड पर साफ़ बेड-शीट ..टेबल कुर्सी, करीने से सजी हर चीज़....बहुत साफ़ सुथरा सब कुछ....उनके कमरों की सफाई के लिए भी लोग थे...बाथ-रूम तक इतना साफ़ कि आप वहाँ सो सकते थे....साफ़ धुले तौलिये टंगे होते थे.....

अब बताते हैं बात उनके प्रार्थना वाले कमरे की बात....बहुत ही सुन्दर...और व्यवस्थित.....कभी- कभी retreat यानि मौन व्रत भी किया करतीं थीं सिस्टर्स...ख़ास मौके होते थे ईस्टर से पहले ...जिसे लेंट पिरीअड कहा जाता है ...तो retreat करने का स्थान भी भव्य था...

लेकिन ये तो सभी सन्यासिनियाँ हैं...इन्होने दुनिया का त्याग किया हुआ है और ईश्वर को अपनाया है ..फिर क्या दुनिया का त्याग इसे कहते हैं....सबसे अच्छा खाना...सबसे अच्छा पहनना ...सारी सुविधाओं से लैस रहना क्या संन्यास है.....??? क्या इतनी सुख सुविधा में रह कर ईश्वर मिल जाते हैं..?? लेकिन बात कुछ समझ में नहीं आती थी.....इसी उन्हां-पोंह में..जीवन बीतता गया....और मेरे सारे सवाल वहीँ खड़े रहे.....

दो साल पहले मुझे रांची जाना पड़ा....अपने कालेज 'संत जेविएर्स, रांची' चली गयी ....यूँ ही देखने.....काफी कुछ बदला हुआ नज़र आया....बिल्डिंग और ज्यादा भव्य और विद्यार्थी और ज्यादा उदंड ...खैर ....मुझे याद आया कि हमारे एक प्रोफेसर ने अवकाश प्राप्ति के बाद यहीं कहीं पास में अपना एक बिज़नस शुरू किया था होल सेल का ...मैंने पता किया 'प्रोफेसर राजगढ़िया' का और बहुत जल्द ही उनका पता मिल गया....बस क्या था पहुँच गयी उनके गोदाम में.....राजगढ़िया सर बहुत अच्छा गाते थे...और मुझे हमेशा गाने के लिए प्रेरित करते थे...हालांकि वो पोलिटिकल साइंस पढ़ाते थे...और इस विषय से मेरा कुछ लेना देना नहीं था , लेकिन गाने की वजह से मैं उनके गुड बुक्स में थी...ख़ैर जैसे ही मैं उनके सामने पहुंची, दस सेकंड में ही उन्होंने मुझे पहचान लिया....और बस इतनी आत्मीयता से मिले कि क्या बताऊँ....हम लोग बैठ कर बातें करने लगे .....इतने में ही 'फादर लकड़ा' ...जिन्हें मैं तो नहीं जानती थी.... वो आ गए 'राजगढ़िया सर से मिलने ...सर ने बहुत ही गर्मजोशी से उनका भी स्वागत किया.....मेरा भी परिचय दिया गया उन्हें और फिर बातें आगे बढ़ने लगी....फादर लकड़ा....जिन्हें अगर मैं बाहर कहीं देखती तो किसी कालेज का लफंटुस सा स्टुडेंट ही समझती.....उनका पहनावा बहुत मोडर्न था, उनके हाथ में हेलमेट था और बातों में ही बताया कि वो अपनी हीरो होंडा में आये थे, फादर लगातार सिगरेट पी रहे थे.....उनकी सिगरेट आम सिगरेट नहीं थी....भूरे रंग की..पतली लम्बी सिगरेट थी.....मैंने यूँ ही पूछ लिया ...फादर ये तो काफ़ी कीमती सिगरेट लगती है ...कहने लगे हाँ...वेरा क्रूज़ है ...अब हम क्या जाने वेरा क्रूज़ क्या बला है ...खैर मैंने कहा कि ये आप कितनी पीते हैं.....?? २ पैकेट प्रतिदिन.....मैंने कहा ये तो बहुत महंगा पड़ता होगा आपको......कहने लगे मुझे नहीं ....मुझे तो हर दिन ये मेरे मिशन वालों को देना ही है.....ये मेरी ज़रुरत है और मुझे मिलना ही है...मैं आसमान से गिर गयी ...मैंने कहा ये सिगरेट आपको आपका चर्च देता हैं...उन्होंने कहा हाँ......मुझे ही नहीं जिन्हें भी जो-जो आदत है सबकी पूर्ती करते हैं ......हैरानी हुई सुन कर कि व्यसनों की भी आपूर्ति होती है संन्यास में....ख़ास करके जो सुसंगठित, सुसंचालित धार्मिक-संस्था है....और जहां बाकायदा धर्म-गुरु बनने की न जाने कितनी सीढ़ियों, पायदानों से होकर जाना पड़ता हैं.... जहाँ तक पहुँचने के लिए विवाह करना वर्जित है और ३ शपथ लेनी पड़ती हैं....गरीबी, पवित्रता और आज्ञापालन (Live a life of poverty, chastity and obedience ) ....फादर लकड़ा से और भी आगे बातें होती रहीं....उनकी बातों से एक पल को भी किसी साधू की विनम्रता नहीं झलकी.....सभी बातें 'अहम्' को ही तुष्ट करतीं लगीं ...... उनकी गरीबी में शुमार था फिल्मों का शौक.......उन्होंने यह भी बताया कि किस तरह वो फर्स्ट डे फर्स्ट शो फिल्म देखने जाते हैं......यहाँ तक कि नायिकाओं के नृत्य पर भी उनकी टिप्पणी बहुत सटीक थी.....सुनकर ही लग रहा था कि वो काफी ध्यान से देखते हैं....

अब तक मेरा भेजा फिर चुका था...मैंने फादर लकड़ा को आड़े हाथों लिया....पूछ ही दिया उनसे, कि भगवान् की भक्ति में आप कितना समय लगाते हैं...कहने लगे दिन भर में ५-६ घंटे मैं ईश्वर की आराधना में ही लगाता हूँ...अब उन्होंने मुझ पर प्रश्न दाग दिया....आप कितने घंटे लगाती हैं ??? मैंने कहा मुश्किल से ५ से १० minutes पूरे दिन में.....कहने लगे ये तो बहुत कम है.....इससे मुक्ति कहाँ मिलेगी.....मैंने कहा पादरी साहब (अब फादर बोलने का मेरा कोई इरादा नहीं था ) हम जैसे लोग जो दो जून की रोटी जुटा कर ....अपने बच्चों को पाल कर ...अपनी जिम्मेवारियों को पूरी तरह से निभाने के बाद अगर दो minute के लिए भी अपने भगवान् को याद कर लेते हैं तो ...स्वर्ग के द्वार हम जैसों के लिए ही पहले खुलेंगे ...आपके लिए नहीं....आपका क्या है ...विवाह आपने किया नहीं .....बच्चे आपके है नहीं.....आपको तो सब कुछ पका-पकाया मिलता है..कपडे धुले हुए, प्रेस किये हुए मिलते हैं, हर सुबह सिगरेट की डब्बी आपके कमरे में आपके उठने से पहले पहुंच जाती है....आपके पहुँचने से पहले आपका कमरा सजा होता है....न बिजली का बिल देने की चिंता न बच्चों की फीस....मतलब ये कि आप एक तिनका इधर से उधर नहीं करते हैं...नून-तेल लकड़ी का इंतज़ाम करना किस चिड़िया का नाम है आप नहीं जानते....आप क्या जाने परिवार क्या है ....?? उसकी समस्याएं क्या हैं....?? जूझते तो हम जैसे लोग ही हैं ....और श्रृष्टि भी हम ही चला रहे हैं आप नहीं.....इसलिए मुझे पूरा विश्वास है ईश्वर के ज्यादा करीब हम ही हैं आप नहीं....अब उन्हें कोई जवाब देते नहीं बना....वो अपना सा मुंह लेकर चले गए...

कई बार पढ़ती हूँ....नारी का उत्थान, नारी जागृति, तो मन सोचता है....नारी क्या सिर्फ 'नारी' है.....वो एक बेटी, बहन, पत्नी और माँ भी है....कितने जीवन उसके साथ जुड़े होते हैं, बेटी के रूप में समस्याए अलग होंगी, बेटी की समस्या सभी नारियां समझ सकती हैं....क्योंकि और कुछ हों न हों बेटी तो हैं ही....पत्नी की समस्या वही समझ सकती हैं, जो विवाहिता हों और माँ की समस्या भी वही समझेंगी जो माँ हो....कोई कितना भी कहे कि 'नारीगत' समस्या हर नारी समझ सकती है, तो वो बिलकुल ग़लत है...अधिकतर नारियों के सामने जब भी अपनी बात आती है, हम सबसे पहले अपने आस-पास के लोगों को देखती हैं, उस समय मुंशी प्रेमचंद जी की कथा 'पंच परमेश्वर' के नायक सी स्थिति हो जाती है, और सच पूछिए तो तब निर्णय लेना भी आसन हो जाता है, परिवार के एक सदस्य का एक निर्णय कितने जीवनों को दांव पर लगा देता हैं, किताबी ज्ञान से जीवन नहीं चलते....प्रसव की पीड़ा को पढ़ कर नहीं महसूस किया जा सकता.....और बच्चों के साथ जागी गयी कितनी ही लम्बी रातों को बोल कर नहीं बताया जा सकता, उसको महसूस करना पड़ता है...

लोग कह सकते हैं, संवेदनशील व्यक्ति इस बात को समझ सकता है ...शायद सच हो लेकिन समझना और महसूस करना दो अलग बातें हैं...
हाँ नहीं तो..!!

जाकी पाँव न फटी बिबाई , वो क्या जाने पीर पराई


Monday, October 25, 2010

गुमशुदा ....

पुरानी प्रविष्टी..
क्या तुमने देखा है ?
एक श्वेतवसना तरुणी को,
जो असंख्य वर्षों की है,
पर लगती है षोडशी 
इस रूपबाला को देखे हुए
बहुत दिन हो गए,
मेरे नयन पथराने को आये
परन्तु दर्शन नहीं हो पाए
मैंने सुना है,
उस बाला को कुछ भौतिकवादियों ने
सरेआम ज़लील किया था 
अनैतिकता ने भी,
अभद्रता की थी उसके साथ
बाद में भ्रष्टाचार ने उसका चीरहरण
कर लिया था 
और ये भी सुना है,
कि कोई बौद्धिकवादी,
कोई विदूषक नहीं आया था
उसे बचाने 
सभी सभ्यता की सड़क पर
भ्रष्टाचार का यह अत्याचार
देख रहे थे 
कुछ तो इस जघन्य कृत्य पर खुश थे,
और कुछ मूक दर्शक बने खड़े रहे 
बहुतों ने तो आँखें ही फेर ले उधर से
और कुछ ने तो इन्कार ही कर दिया
कि ऐसा भी कुछ हुआ था 
तब से,
ना मालूम वो युवती कहाँ चली गयी 
शायद उसने अपना मुँह
कहीं छुपा लिया है,
या कर ली है आत्महत्या,
कौन जाने ?
अगर तुम्हें कहीं वो मिले,
तो उसे उसके घर छोड़ आना
उसका पता है :
सभ्यता वाली गली,
वो नैतिकता नाम के मकान में रहती है
और उस युवती को हम
"मानवता" कहते हैं 

आज फिर एक गीत आपकी नज़र...



ब्लाग दुआरे सकारे गई, उहाँ पोस्टन देखि के मन हुलसे....


ब्लाग दुआरे सकारे गई उहाँ पोस्ट देखि के मन हुलसे
अवलोक हूँ कभी सोंचत हूँ अब कौन सा पोस्ट पढूँ झट से
घूंघरारी लटें समरूप दिखें कविता ग़ज़लें लगि झूलन सी
कहीं नज़्म दिखे कुछ मुक्तक हैं कई पोस्ट पे स्निग्ध कपोलन सी 
परदन्त की पंगति कथ्य दिखे धड़ाधड़ पल्लव खोलन सी
चपला सम कछु संस्मरण लगे जैसे मोतिन माल अमोलन सी
कभी गीत दिखे संगीत दिखे कभी हास्य कभी खटरागन भी
कभी राग दिखे, अनुराग दिखे, कभी आग लगाव बुझावन भी
कभी व्याध लगे, कभी स्वाद लगे, ई अगाध सुधारस पावन भी
कभी मीत मिला, कभी जीत मिली, कभी खोवन है कभी पावन भी
धाई आओ सखी अब छको जरा कुछ ईद पे कुछ फगुनावन पर
न्योछावरी प्राण करे है 'अदा' बलि जाऊं लला इन ब्लागन पर



एक और गीत....






Sunday, October 24, 2010

मैं बिन आवाज़ गा रही हूँ...


शक़ मिजाज़ बन गया
अब सबूत जुटा रही हूँ ,
अलफ़ाज़ तक ख़फा हैं
बिन आवाज़ गा रही हूँ ,
क्यूँ खाली रहे कोई

वरक़ इस शजर का
तेरे नाम की झालर से
हर गोशा सजा रही हूँ
पहचान अब मेरी यहाँ ,
डगमग सी चल रही है,
पानी में अपने पाँव के,
कुछ निशाँ बना रही हूँ......  
एक गीत...आपकी नज़र..

Saturday, October 23, 2010

और देखो ! आज वो "अमर" हो गया



कल !
चमचमाती बोलेरों के काफिले में,
सैकडों बाहुबली,
कभी हुंकार,
तो कभी जयनाद करते हुए,
हथियारों के ज़खीरे के बीच,
कलफ लगी शानदार, गांधीविहीन धोती
और आदर्श रहित, खद्दर के कुर्ते में
एक मुर्दे को लाकर खड़ा कर गए
जिसके विवेक, स्वाभिमान
और अंतःकरण ने बहुत पहले,
ख़ुशी से खुदकुशी कर ली थी
बिना विवेक के वो
दीन-हीन लगता था,
बिना स्वाभिमान के
उसके हाथ जुड़ गए थे,
बिना अंतःकरण के
उसकी गर्दन झुकती ही जा रही थी,
दाँत निपोरे वो याचक बना रहा
हमने वहीँ खड़े होकर,
बिना सोचे,
उसे अभयदान दे दिया,
अगले ही पल उसके दाँत
हमारी गर्दन पर धँस गए
और देखो !
आज वो "अमर" हो गया

बैंगन की डंठल...


याद है मुझे,
बचपन में,
तरकारी से
वो बैंगन की डँठल
के लिए लड़ पड़ना,
सिर्फ इसलिए कि,
वह चिकन के जैसे
होने का
अहसास दिलाती थी
उसे लुत्फ़ से,
नोच नोच कर खाना
और एकदम
विजेता बन जाना,
बचे हुए
रानों पर हिकारत
की नज़र फेकना
और ख़ुद को
सांत्वना देना कि
हमने सचमुच
चिकन खाया है |
वो लड़ाई
अब तक रुकी नहीं
मानसिकता की तरकारी
से प्रभुत्वता की डँठल
हर कोई झपट
रहा है
विजयी बनने का ख्वाब
बैंगन और चिकन का
फ़र्क मिटा देता है
पता तब चलता है
जब वही चूसे हुए
बैंगन की डँठल के रान
कुटिलता से मुस्काते हैं
तुम्हें छले जाने का
अहसास कराते हैं
देर हो जाती है
और हम
बैंगन और चिकन
की मरीचिका से निकल
नहीं पाते हैं....

Friday, October 22, 2010

बाबर- एक समलैंगिक शराबी बाल-उत्पीड़क....



आज मैंने एक आलेख पढ़ा और पढ़ कर लगा कि आपको भी इसे पढ़ना ही चाहिए....कुछ सच्चाइयाँ जितनी जल्दी सामने आयें उतना ही अच्छा है....
मैं अग्निवीर साहब की शुक्रगुजार हूँ उन्होंने मुझे इसे अपने ब्लॉग पर छापने की अनुमति दी है...
यह पूरा आलेख सभार लिया गया है, निम्नलिखित लिंक से :
  • अगर किसी को अग्निवीर [Agniveer] से पूछना होगा कि हिन्दू मुस्लिम की एकजुटता की सबसे बड़ी घटना क्या रही है? तो इसका उत्तर स्पष्ट और साफ है। मैं रोमिला थापर या डी.एन. झा की तरह एक पेशेवर इतिहासकार नहीं हूँ। मैं मुहम्मद बिन कासिम, गोरी, गजनी, अलाउद्दीन खिलजी, मुगल और नादिर शाह इत्यादि कला के प्रेमियों की तरह भारत पर हमलों के सदियों के गवाह भी नहीं हूँ। इसलिए हो सकता है कि मेरे पास इस्लाम के जन्म के पिछले 1400 वर्षों में हिन्दू मुस्लिम एकता के उदाहरण और अध्यायों के सभी प्रकरणों की पूरी जानकारी नहीं है।
    इस प्रकार मैं इस बहस में भी नहीं जाना चाहूँगा कि भारत में इस्लाम तलवार के बल पर फैला है या नहीं जैसा कि हिंदु ‘कट्टरपंथियों’ का आरोप है या पश्चिम एशिया के आदिवासी आक्रमणकारियों के कलात्मक प्रदर्शनों के माध्यम से इस्लाम फैला जैसा कि जाकिर नाइकों[zakir naiks] और JNU के ‘धर्मनिरपेक्ष’ इतिहासकारों का दावा है।लेकिन मैं कुछ भी आसानी से फिर से याद नहीं दिला सकता जो कि हिंदू और मुसलमानों के एकजुटता का सबसे अनुकरणीय प्रकरण की इस घटना को पार कर जाये। हैरान मत होइए। मैं 6 दिसंबर 1992 के शुभ दिन पर बाबरी मस्जिद के विध्वंस की बात कर रहा हूँ। यह वह भव्य दिन था जब हजारों सज्जन दिल वाले देशप्रेमी हिंदुओं ने उस संरचना को नष्ट कर दिया जो कि भारत और इस्लाम के लिए सदियों से सबसे बड़ा अपमान था। उन्होने यह सब अदालतों में कई सालों तक दर्दनाक परीक्षण[trial], सभी मीडिया माफिया [जो कि इस देश पर राज करती है] के द्वारा निन्दा और राजनैतिक/सामाजिक/सांस्कृतिक जुल्मों कि कीमत पर किया। लेकिन इन सब खतरों के बावजूद , वे आगे बढ़े और उस कलंक को नष्ट कर दिया जो कि मुसलमानों के द्वारा बहुत पहले ही नष्ट कर दिया जाना चाहिए था।
    -मैं सरकार से यह अपील करना चाहूँगा कि वो आधिकारिक तौर पर 6 दिसंबर को हिंदु-मुस्लिम एकता दिवस या अभिमान दिवस या वीरता दिवस के रूप में घोषित करे-
    रुको…रुको…रुको! आप में से कुछ लोग यह सोच रहे होंगे कि अग्निवीर पागल हो गए हैं या शैतान कि तरह हिंदुओं द्वारा इस्लाम के इबादत की जगह कि बर्बादी के दिन को हिंदु-मुस्लिम एकता का दिन घोषित कर रहें हैं! आप शायद इस ऊटपटांग लगने वाले बयान के लिए स्पष्टीकरण की मांग कर रहे होंगे। जो कि आ रहा है। आगे पढ़िए।
    -मैं इस बहस में नहीं जाऊँगा कि क्या सचमें उसी बाबरी मस्जिद कि जगह पर एक राम मन्दिर था या नहीं।-
    -मैं इस बहस में भी नहीं जाऊँगा कि संपूर्ण मानवता के महानतम आदर्श श्री राम असल में यहाँ जन्में थे या कहीं और।-
    -मैं इस पर भी बहस नहीं करूँगा कि यहाँ राम मन्दिर का निर्माण होना चाहिए या एक अस्पताल बनाया जाना चाहिए, जैसा कि कई बुद्धिजीवियों का सुझाव हैं।-
    ये वे बिन्दु हैं जो कि मुद्दे से पूरे हटकर हैं। दुर्भाग्य से ये ही वे बिन्दु रहे हैं जिनपर सालों तक समय बर्बाद किया गया और ये अब भी जारी है।
    –सत्य तो यह है कि यदि कोई यह सिद्ध भी कर दे कि इस जगह पर कोई मन्दिर नहीं था या राम किसी दूसरे देश में पैदा हुए थे फिर भी बाबरी मस्जिद भारत की आज़ादी के समय ही नष्ट होने के बिल्कुल लायक ही थी।– कार सेवकों ने तो वही काम किया था जो कि सरकार को 45 साल पहले कर देना चाहिए था।
    और कारण यह है कि बाबरी मस्जिद कोई मस्जिद नहीं ही है। क्योंकि बाबर कोई मुस्लिम था ही नहीं। वह लंबे समय से ही मारा जा चुका होता यदि वह आज किसी भी मुस्लिम देश में जिन्दा होता!
    हकीकत में बाबर इस्लाम के नाम पर एक कलंक था। बाबर को बेहतर तरीके से जानने के लिए चलिये हम हिंदु ‘कट्टरपंथियों’ या पक्षपाती ‘right-winged’ इतिहासकारों पर आश्रित नहीं होएँ। इसके बजाए क्यों ना घोड़े के मुख से ही सुन लें। चलिये हम बाबर की आत्मकथा ‘बाबरनामा’ की ही समीक्षा करें जो सभी प्रमुख भाषाओं में उपलब्ध है।
    इस लेख के प्रयोजन के लिए हम Annette Susannah Beveridge द्वारा अंग्रेजी अनुवाद 1922 में प्रकाशित का उल्लेख करेंगे। यह अनुवाद, उपलब्ध असली तुर्की पांडुलिपि[turkish manuscript] से किआ गया था। ये बाबर के असली चरित्र उद्घाटित करने के लिए पर्याप्त है। आप इसकी scanned कॉपी ttp://www.archive.org/details/baburnama017152mbp
    इस पते से download कर सकते हैं।
     
    बाबर- एक समलैंगिक शराबी बाल-उत्पीड़क[child molester] :-
    आत्मकथा साफ़ तौर से सिद्ध करती है कि बाबर एक समलैंगिक शराबी बाल-यौन-उत्पीड़क था। अतः वे लोग जो बाबरी मस्जिद के समर्थक है उन्हे सबसे पहले यह स्पष्ट रूप से समझाना चाहिए कि क्या इस्लाम समलैंगिकता और बाल-यौन-उत्पीड़न को मंजूरी देता है? यही नहीं, तो बाबर इस्लाम के नाम पर कलंक था और इसीलिए जो भी ढाँचा उसके द्वारा बनवाया गया था वह भी इस्लाम के नाम में कलंक है।
    [1] आत्मकथा के पृष्ठ 120-121 में वह कहता है कि उसे अपनी बीवी में ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी लेकिन बाबरी नाम के एक लड़के पर वह पागल हो गया था। वह कबूलता है कि वह किसी और को इतना प्यार नहीं करता है जैसे वह इस लड़के के लिए पागल था। वह लड़के के प्यार में कविताएँ लिखता था। जैसे – “कोई नहीं है आशिक, मुझे छोडकर, जो कि इतना दुखी भावुक और अपमानित है। और मेरे आशिक से ज्यादा बेरहम और मनहूस कोई भी नहीं है !” “There has been no lover except me who is so sad, passionate and insulted. And there is no one more cruel and wretched than my lover!”
    [2] वह कहता है कि बाबरी उसके ‘करीब’ आया करता था जिससे बाबर इतना उत्तेजित[excited] हो जाता था कि वह एक शब्द भी नहीं निकाल पाता था। क्योंकि नशे धुत्त होने के कारण वह बाबरी से उसके प्यार के लिए शुक्रिया भी नहीं बोल सकता था ।
    [3] एक बार बाबर अपने दोस्तों के साथ घूम रहा था जब बाबरी एक गली में उसके सामने आया। बाबर कि जबान बंद हो गई और वह उसे उत्तेजना के कारण देख तक नहीं सका । उसने कहा [naratted]- “मैं शर्मिंदा हो जाता हूँ मेरे आशिक को देखकर। मेरे दोस्त मुझे कपट से देखते हैं और मैं किसी और को देखता हूँ” ”I get embarrassed looking at my lover. My friends leer at me and I leer someone else.”
    [4] वह मानता है कि जुनून और जवानी कि इच्छा में[passion and desire of youth] वह पागल हो गया था और नंगे सिर और नंगे पैर घूमा करता था बिना किसी दूसरी चीज़ देखे।
    [5] वह लिखता है – “मैं उत्तेजना और जुनून में पागल हो जाता हूँ। मई यह नहीं सोच सकता था कि आशिकों को इसका सामना करना पड़ता है। मैं तुमसे दूर नहीं जा सका, ना ही मैं ऊँचे दर्जे कि उत्तेजना के कारण तुम्हारे साथ रह सकता हूँ । तुमने मुझे पूरी तरह से पागल कर दिया है , ओ मेरे [मर्द] आशिक !”
    अब ये बिना किसी संदेह के साबित है कि:-
    [अ] बाबर और उसका गिरोह समलैंगिक और बाल-उत्पीड़क [child molesters] थे। इन के लिए सजा के रूप में इस्लामी शरीयत के अनुसार, मौत है [death by stoning]। यह आज भी प्रचलित है इस्लामी देशों में।
    [ब] बाबरी मस्जिद बाबर के sex पार्टनर की याद में बना ढाँचा है और कुछ नहीं।
    क्या इस्लाम किसी sex perverts के द्वारा बनाया गया या उसके नाम पर बनाया गए स्मारक को मस्जिद मानता है? या शर्म का प्रतीक ?
    अतः यह साफ है कि बाबरी मस्जिद समलैंगिकता और बाल-उत्पीड़न का प्रतीक है और कुछ नहीं । मैं यह नही जानता कि इस विध्वंस के पीछे किन लोगों का हाथ था। पर जो भी वे हों , उन्होने हिंदुओं और मुसलमानों के लिए शर्म के ढांचे को नष्ट कर दिया है।
    -यह सबसे ज्यादा शर्म कि बात है कि जो ढाँचा ‘भारत की sexual perverts द्वारा हार’ का प्रतीक है उसे विरासत स्थल [heritage site] समझा जाता था। अगर ऐसा है तो शायद मुम्बई सीएसटी, जहाँ पाकिस्तानी आतंकवादियों ने खुलेआम मासूम लोगों पर फ़ाइरिंग की थी , वह ‘कसाब भूमि’ नामक नया विरासत स्थल[heritage] होगा !
    #बाबर – बर्बर हत्यारा, लुटेरा, बलात्कारी, शराबी और drug-addict :-
    (केवल बाबर के इस बर्बर अश्लील आत्मकथा से कुछ नमूने प्रदान की जा रही है क्योंकि यह बहुत क्रूर और विस्तृत रूप से पढ़ने के लिए अशिष्ट है.)
    -पृष्ठ 232: वह लिखता है कि उसके गिरोह ने उन लोगों के सर काट दिये जो उसके पास संघर्ष विराम के लिए आए थे , और फिर इन सिरों से एक स्तंभ बनाया। ऐसा ही करतब Hangu में दोहराया गया था, जहां 200 अफगानी सिर एक स्तंभ बनाने के लिए मारे गए थे।
    -पृष्ठ 370: क्योंकि बजौर के लोग इस्लाम पर विश्वास नहीं करते थे, इसीलिए 3000 से भी ज्यादा लोगों कि हत्या कर दी गई और उनके बीवियों और बच्चों को बन्दी बनाकर रख लिया गया।
    -पृष्ठ 371– जीत कि खबर फैलाने के लिए कब्जा किए गए बंदियों के बहुत सारे कटे हुए सिरों को Kabutl, Balkh और दूसरी जगहों पर भेजा गया।
    -पृष्ठ 371– जीत का जश्न मनाने के लिए कटे हुए बहुत से सिरों से एक खम्बा बनाया गया।
    -पृष्ठ 371– ‘मुहर्रम के दिन एक शराब पार्टी हुई जहाँ पर हमने पूरी रात पिया’। (अनुवाद करने वाला यहाँ टिप्पणी करता है कि बाबर अपने अंतिम समय तक बहुत ज्यादा शराबी था) Baburnama का एक बड़ा भाग इन शराब पार्टियों वर्णन करता है।
    -पृष्ठ 373– बाबर ऐसे नशीले पदार्थ लेता था कि वह एक बार अपने नमाज के लिए भी नहीं जा सका। वह आगे लिखता है कि यदि वह उन नशीले पदार्थ को आज लेता तो वह आधे नशे को भी पैदा नहीं कर पाता।
    पृष्ठ 374– बाबर ने अपने वैश्यालय कि कई औरतों से कई बच्चे पैदा किए थे। उसकी पहली बीवी ने उन सभी नाजायज औलादों को अपनाने का वादा किया, जब भी वो भविष्य में जन्में, क्योंकि उसकी कोख से जन्में कई सारे बच्चे जिंदा नहीं रह सके। ऐसा लगता है कि बाबर का वेश्यालय चिकन उत्पादन के लिए एक पोल्ट्री फार्म के जैसे था !
    -पृष्ठ 385-388– बाबर हुमायूँ के जन्म से इतना खुश हो गया कि वह अपने दोस्तों के साथ नाव में गया और पूरी रात शाराब पिया और नशीले पदार्थों को खाया। फिर वे सभी शराब के नशे में झगड़ने लगे और पार्टी खतम हो गई। एक ऐसी ही पार्टी के बाद, उसने बहुत उल्टी कर दी और सुबह तक सब कुछ भूल गया।
    -पृष्ठ 527– आगरा के एक गुंबददार इमारत के खंबेदार बरामदे में एक पार्टी दी गई थी (ताज महल कि ओर संकेत कर रहें है जिसका नाम शाहजहाँ से गलती से जोड़ा जाता है)।
    बाबर कि आत्मकथा के लगभग सभी पन्नों में यही लिखा है कि कैसे उसने लूटपाट की, धमकी दी, हत्या की, और जहाँ भी वो गया लूटपाट किया और ‘हराम’ वाला मांस खाया। यहाँ ध्यान देना कि जिस तरह से बाबर अपनी आत्मकथा में यह सब लिख रहा है इसका यही तात्पर्य है कि वह इन सब कामों पर गर्व करता था।
    और जिन दूसरे अपराधों का ज़िक्र उसने अपने आत्म-प्रशंसा करने वाले आत्म-कथा में नहीं किया उनकी कल्पना करके आप काँप सकते हैं।
    सारांश :-
    [अ] बाबर सबकुछ था लेकिन इस्लाम का अनुयायी नहीं। उसके कुकर्म किसी भी इंसान को इंसानियत के लिए शर्म और कलंक बना सकते हैं। और यदि वास्तव में कोई विकृत पुरुष बाबर को अभी भी उनके द्वारा इस्लाम की परिभाषा से मुस्लिम करार देता है , तो फिर इस्लाम कि उस परिभाषा से घिनौना और कुछ भी नहीं हो सकता।
    [ब] बाबरी मस्जिद , जो कि बाबर के समलिंगी साथी बाबरी के नाम पर राखी गई थी, एक खूनी और बलात्कारी के यौन विकृति का प्रतीक है। इसे ‘विरासत’ कहना और जिन लोगों ने ‘बर्बर विकृति’ का ऐसे प्रतीक को नष्ट किया , उन्हे फँसाना यही साबित करता है हम इतिहास के मामले में कितने नीच बन चुके हैं। उस परिवार के बारे क्या कहा जा सकता है जो ऐसे व्यक्ति को आदर देता है जो कि अपने ‘माँ’ के साथ बलात्कार करता है , उसकी महिमा का वर्णन करने के लिए उसे अपने पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाते हैं और ऐसे स्थलों की रक्षा करने का संकल्प लेते हैं जो उन बलात्कारों की घटनाओं से संबंधित है। (कठोर भाषा के लिए खेद है, लेकिन इससे बेहतर इस लूट के काम को कुछ अलग तरीके से समझाया नहीं जा सकता। )
    [स] मुसलमानों को आरएसएस/वीएचपी और उन सभी ‘सही’ पक्ष वालों के दल में सम्मिलित हो जाना चाहिए जिन्होने इस ‘शर्म’ के प्रतीक को नष्ट करने में हिस्सा लिया ,जो की इस्लाम के नाम पर सदियों से कलंक था।
    [द] मुसलमानों ने बाबरी मस्जिद के विध्वंस करने का एक बड़ा मौका खो दिया और अपने ‘अमन’ और ‘चरित्र’ के मज़हब की सुरक्षा करने के लिए ‘सही’ ताकतों पर आश्रित होना पड़ा। -लेकिन अब उन्हे मथुरा और कांशी में स्थित दो और ‘शर्म’ के प्रतीकों, फिर बाद में सेक्स के पागलों द्वारा निर्मित मस्जिदों और मक़बरों, जो की आतंकवादी,बर्बर,हत्यारे और अपराधी शासकों जैसे- मुहम्मद बिन कासिम और उसके बाद के औरंगजेब, शाहजहाँ, अकबर, हुमायूं, जहांगीर आदि के द्वारा बनवाए गए थे , को नष्ट करने के लिए सक्रीय हो जाना चाहिए ।
    [ई] बाबर की आत्मकथा इस बात का पर्याप्त उदाहरण है कि भारत में इस्लाम कैसे फैला। आदर्श यही होगा कि भारत के सभी मुस्लिम पागल आक्रमणकारियों द्वारा लाये गए पंथ को छोडकर अपने मूल धर्म – मानवता का धर्म – वैदिक धर्म में वापस लौट आयें ।
    लेकिन यदि गलत सूचनाओं के साथ प्रचलित सामाजिक/राजनीतिक/आर्थिक मजबूरी के कारण यह करना थोड़ा ज्यादा जल्दी है तो भी उन्हे :-
    –इस भ्रम में रहना बन्द कर दीजिये कि इस्लाम तलवार के अलावा किसी और विधि से फैला है और अपने आपको उन पागल लुटेरों और आतंकवादियों के विकृत दुष्कर्मों के साथ जोड़ना बन्द कर दीजिये । और यह कि यदि मुस्लिम ,मुस्लिम ही बने रहना चाहते हैं, तो भी कम से कम, इन अपराधीयों को मुस्लिम और सभ्य पूर्वज कहना बन्द कर दो। इसके बजाए हमारे सच्चे महान पूर्वजों जैसे श्री राम और कृष्ण को खुद से जोड़ो ।
    –उन मस्जिदों और मक़बरों में जाना बन्द कर दो जो उन पागल आतंकवादियों द्वारा बनाए गए थे।
    –ऐसा विश्वास करना बन्द कर दो कि इन मानसिक रोगियों ने कोई कलात्मक भवनों का निर्माण किया था और यह एहसास करो कि ये सभी स्मारक जो कि इन आक्रमणकारियों द्वारा बनाए गए थे असल में प्राचीन भवन थे जिनको उन लोगों ने कब्ज़ा किया था ।
    —और आखिरकार , सबसे ताकतवर अल्लाह का अपमान करने वाले उन आतंकवादियों द्वारा बनाए गए सभी मस्जिदों को तबाह करने के लिये आंदोलन की शुरुआत करो। काशी और मथुरा अच्छी शुरुआत होगी।
    मै सभी मुस्लिम भाइयों और बहनों से अपील करता हूँ कि इन ‘सही’ ताकतों से हाथ मिलाइए जिन्होने इस्लाम के नाम पर कलंक- बाबरी मस्जिद को नेस्तेनाबूत किया । और इस हिंदु-मुस्लिम एकता के महानतम उदाहरण को एक कदम आगे बढ़ाएं ।
    ये ‘सही’ ताक़तें मुसलमानों के सबसे बड़े दोस्त और देश के सच्चे देशभक्त हैं।
    मै सभी हिंदुओं और मुसलमानों से यह भी अपील करता हूँ कि 6 दिसम्बर को ‘प्रतिष्ठा दिवस’(इज्ज़त का दिन) या ‘हिंदु-मुस्लिम एकता दिवस’ या ‘राष्ट्रीय विजय दिवस’ के रूप में सक्रियता से मनाना शुरू कर दीजिये। मुस्लिम इस दिन को ‘इस्लाम की शोभा का दिन’ की तरह भी पालन कर सकते हैं।
    वन्दे मातरम ।

अंग्रेजी मईया की किरपा....



इस बात में दो राय नहीं  कि हिंदी की दुर्दशा दिखाई देती है, कारण सिर्फ बाजारवाद नहीं, अंग्रेजी की चमक इतनी तेज़ है कि लोग उससे बच नहीं पाते...और हमारी सरकार भी छीछा-लेदर  करने से बाज़ नहीं आती, हिंदी के उत्थान की आवश्यकता, उतनी नहीं है जितनी उसे दिल से अपनाने की है, हिंदी आज शक़ के घेरे में है, हिंदी पर अब लोगों को विश्वास नहीं है, अपनी बात हिंदी में कहने में लोग कतराते हैं....उन्हें ये लगता है कि सामने वाले पर धौंस ज़माना हो, तो बात हिंदी में नहीं, अंग्रेजी में करो...और सच्चाई भी यही है...जो बात आप हिंदी में कहते हैं, वो कम असर करती, और जैसे ही आपने अंग्रेजी में बात करनी शुरू की, आपका स्तर सामने वाले की नज़र में एकदम से उछाल मारता है ...बेशक आपने अंग्रेजी की टांग ही तोड़ कर रख दी हो....ब्लॉग जगत में भी अंग्रेजी के वड्डे-वड्डे तीर चलते हुए देखा है, और लोगों को चारों खाने चित्त होते हुए भी...हाँ, तो हम बात कर रहे थे, इसी फार्मूले की...ये मेरा आजमाया हुआ फ़ॉर्मूला है...कसम से हम कहते हैं, एकदम सुपट काम करता है..
पेशे ख़िदमत है एक आपबीती  ...

मैं रांची में थी और मुझे इन्टनेट कनेक्शन चाहिए था ...उसके लिए जाने क्या-क्या कार्ड्स चाहिए थे और मेरे पास वो कार्ड्स नहीं हैं, ख़ैर मेरी दोस्त उर्सुला ने मेरा उद्धार करने की सोची ...उसने आवेदन दिया, हमलोगों ने टाटा का फ्लैश ड्राइव खरीदा और कनेक्शन के लिए हमलोगों से ये वादा किया गया कि दूसरे दिन तक हो जाएगा ...मैं अपना लैपटॉप लेकर तैयार बैठी थी...दूसरे दिन दोपहर तक कनेक्शन का नाम-ओ-निशाँ नहीं था...मैंने फ़ोन लगाया उसी जगह जहाँ से इन्टरनेट कनेक्शन लिया था ...उनका कहना था कि आपको कनेक्शन इसलिए नहीं मिला, क्योंकि हम पता का सत्यापन अर्थात एड्रेस वेरिफिकेशन के लिए गए थे लेकिन वहाँ कोई नहीं था...मेरा अगला सवाल था आप कब गए थे वेरिफिकेशन के लिए ...उन्होंने जवाब दिया जी ११ बजे के क़रीब गए थे....मैंने तपाक एक और सवाल दागा..आप इस वक्त कहाँ हैं ...उनका जवाब था जी हम तो ऑफिस में हैं...मैंने कहा अभी कितने बज रहे हैं ...उन्होंने कहा जी १२.३० ...मैंने कहा आप ऑफिस में क्यों हैं...आपको तो घर पर होना चाहिए था...वो बन्दा कुछ उलझा-उलझा सा हो गया...कहने लगा क्यों मैम घर पर क्यों, मैंने कहा कि मुझे लगा आप भी वेले ही बैठे हो.. तो घर में रहो...क्योंकि अगर आप ११ बजे एड्रेस वेरिफिकेशन के लिए किसी के घर जाते हो...और ये उम्मीद करते हो कि वो घर में ही पलंग पर बैठा हो...तो बंदा तो वेल्ला ही होगा न...वर्ना शरीफ लोग जो नौकरी-चाकरी करते हैं, वो तो ९ बजे ही दफ़्तर पहुँच जाते हैं न ! बन्दा समझदार था...समझ गया था कि ग़लत जगह पंगा ले रहा है...कहने लगा मैम आपकी बात सही है...लेकिन मैं तो बस एक मुलाजिम हूँ...आप क्यों नहीं हमारे मैनेजर से बात करती हैं...मैंने कहा, बच्चे, अब मैं मनेजर नहीं मैनेजिंग डाइरेक्टर से बात करुँगी...अब मुझे उनका फ़ोन नम्बर दो...ख़ैर उसने मुझे एम्.डी. का नंबर दिया, मैंने फ़ोन किया और जब तक मैं हिंदी में बात करती रही, एम्. डी. साहेब मुझे टहलाते रहे, उनकी बन्दर गुलाटी देख मैंने भी अपना रंग बदलने की  सोची....और जैसे ही मैंने अपना रंग बदला, वो मुझे सिरिअसली लेने लगे, फिर मैंने वो अंग्रेजी झाड़ी कि उन्हें भी लगने लगा ...I can leave angrej behind  ...मेरा इन्टरनेट कनेक्शन १५ मिनट में लगा ..बिना तथाकथित एड्रेस वेरिफिकेशन के, यही नहीं एम्.डी. साहब ने पूरे समय मेरा इंतज़ार किया फ़ोन पर, जब तक मेरा इंटरनेट कनेक्शन...ऊ का कहते हैं कि कनेक्टेड नहीं हो गया....और तो और दूसरे दिन, फिर तीसरे दिन भी फ़ोन करके पूछा कि सब ठीक-ठाक चल रहा है न...!
तो ई है जी अंग्रेजी मईया की किरपा....
हाँ नहीं तो..!

Thursday, October 21, 2010

'शाही' इमाम ....



कल एक समाचार पर नज़र पड़ी..जहाँ 'शाही इमाम' अपना कुछ मंतव्य रख रहे थे...समाचार जो भी था वो तो जाने दीजिये, लेकिन इस नाम पर ही मेरी आँखें ठहर गई और मेरी सोच की चक्की चल पड़ी... हमारी समझ में ये बात नहीं आ रही थी कि ये 'शाही इमाम' कौन हैं भला...भारत एक लोकतंत्र देश है...अब न तो यहाँ बादशाह हैं, न शाह, न शाहज़ादे और न ही राजा-रजवाड़े ...फिर ये 'शाही' शब्द का तात्पर्य क्या हुआ ? आदरणीय 'शाही' इमाम अहमद शाह बुखारी, सिर्फ़ जनता के इमाम हैं और लोकतंत्र में रहते हैं ...'शाही' शब्द ही अटपटा लगा था मुझे ...जब बादशाह नहीं रहे, फिर 'शाही' जैसी उपाधि का क्या अवचित्य है भला... और इससे भी बड़ी बात यह उपाधि उन्हें मिली कहाँ से ? किस शाह ने दी है ? 

इस नाम में तबदीली होनी ही चाहिए...वो जनता के द्वारा और जनता के लिए हैं ...जनता के साथ जुड़े रहने के लिए 'शाही' नाम छोड़ना चाहिए उन्हें....'शाही' नाम ही राजतन्त्र का बोध कराता है और प्रजातंत्र में इसकी कोई आवश्यकता नहीं है....भारत जैसे लोकतंत्र में 'शाही इमाम' 'राज पुरोहित' जैसे नामों की क़तई भी ज़रुरत नहीं है...
हाँ नहीं तो..!

Wednesday, October 20, 2010

रिश्तों की एलास्टिक ...

पुरानी प्रविष्टी आपकी नज़र ...


तुम बार-बार मुझे,
ऐसे ही सताते हो,
पहले क़रीब लाते हो,
फिर दूर हटाते हो,
जानती हूँ ,
तुम्हें अच्छा लगता है,
मुझे रुलाना,
और बाद में
मनाना,
अपनी मर्ज़ी के
इल्ज़ाम लगाना,
इल्ज़ामों के वज़ूद को
जबरन पुख्ता बनाना,
ये अच्छा नहीं है
कहे देती हूँ,
इस तरह बार-बार
खींचोगे तो,
रिश्तों की एलास्टिक
ख़राब हो जायेगी,
फिर बाद में वो,
ज़रबंद के भी
काम नहीं आएगी....

चुपचाप....


यूँ हीं ...
हम निकले थे, 
ज़रा सा बाहर,
कि मिल गई
बिखरी सी ज़िन्दगी,
रिश्तों की डोरी,
खुशियों के मंज़र,
दुश्मनों के खंज़र
दोस्तों के पत्थर,
अपनों की नज़र ,
आँखों के समंदर,
यादों की कतरन, 
और सुलगती सी
आग
हमने समेट लिया
सब कुछ
सीने के अन्दर
चुपचाप..!

Tuesday, October 19, 2010

क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ....


तेरे बग़ैर, सुरूर, लुत्फ़-ओ-फ़न कहाँ
ज़िक्र न हो तेरा, फिर वो सुख़न कहाँ

मिलते हैं सफ़र में, हमसफ़र, रहबर कई
वीरान से रस्तें हैं, पर वो राहजन कहाँ

हैरत में पड़ गई हैं, ख़ामोशियाँ हमारी
मैं झूलती क़वा में, मुझमें जीवन कहाँ

तेरे हुज़ूर में ही, मेरा ये दम निकले 
क्या जाने मार डाले, ये दीवानापन कहाँ

बस इंतज़ार में ही, आँखें बिछी हुईं हैं 
सब पूछते हैं मुझसे, कि तेरा मन कहाँ